सोमवार, 4 मई 2009

बलराम अग्रवाल से अशोक मिश्र की बातचीत

-->मात्र रंजन की विधा नहीं है लघुकथा/ -->
बलराम अग्रवाल


अशोक मिश्रहिन्दी में लघुकथा लेखन की शुरुआत कब से हुई और हिन्दी की पहली लघुकथा और लेखक किसे मानते हैं आप?
बलराम अग्रवालहिन्दी लघुकथा लेखन की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। इसकी शुरुआत हम भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से मान सकते हैं जिन्होंने तत्कालीन आर्यमित्र, हरिश्चन्द्र मैग्जीन आदि में छिटपुट रूप से छपने वाली अपनी हास-परिहास की सामग्री और चुटकुलों आदि को भी संकलित करके सन् 1876 में परिहासिनी नाम से पुस्तक रूप में प्रकाशित किया। परिहासिनी नि:संदेह लघुकथा की पहली पुस्तक नहीं है, परन्तु इसकी कुछ रचनाओं को लघुकथा अवश्य कहा जा सकता है। मैं इस संकलन की अंगहीन धनी को हिन्दी की पहली लघुकथा के रूप में चिह्नित करता हूँ और इसी आधार पर आधुनिक हिन्दी गद्य के जनक माने जाने वाले भारतेंदु हरिश्चन्द्र ही हिन्दी के पहले लघुकथा लेखक सिद्ध होते हैं। तदुपरांत जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद आदि लगभग सभी समर्थ कथाकारों ने लघुकथाएँ लिखीं। फिर भी, मैं यह अवश्य कहना चाहूँगा कि हिन्दी में लघुकथा-लेखन की विधिव्त शुरुआत (बीती सदी के) सातवें दशक के उत्तरार्द्ध से हुई और आठवें दशक के कथाकारों ने इसे आंदोलनात्मक तेवर प्रदान किए।
अशोक मिश्रलघुकथा और कहानी में मूलभूत अन्तर क्या है, इसे स्पष्ट करेंगे?
बलराम अग्रवाललघुकथा और कहानी के बीच मूलत: कोई अन्तर नहीं है, दोनों का मूल कथा ही है। परन्तु तत्वत: दोनों के बीच जो विशेष अन्तर है, उसको मैं दो शब्दों द्वारा स्पष्ट करना चाहूँगा। इनमें पहला हैलाघव और दूसरा हैनेपथ्य। लाघव भाषा को अनुशासित करने वाला एक निबंधन विशेष है। यह भाषा-विज्ञान का शब्द है। इसका कार्य कथ्य की भाषा की अनर्गलता और अभिव्यक्ति की असंबद्धता से दूर रखना है। कथा-प्रस्तुति के इसी गुण के आधार पर लघुकथा एक संज्ञा-शब्द है न कि समास-शब्द। जहाँ तक नेपथ्य का सवाल है, यह उपन्यास में लगभग नहीं होता, क्योंकि वहाँ कथानक से सम्बद्ध सभी घटनाएँ पाठक के समक्ष क्रमश: प्रकट होती चलती हैं। कहानी में नेपथ्य अपने अस्तित्व का आभास देता है और जैसे-जैसे वह आगे बढ़ती है, नेपथ्य भी प्रकट होने लगता है। कहानी के समापन-बिन्दु पर आकर नेपथ्य स्पष्टत: पाठक के समक्ष भी उपस्थित हो सकता है, परन्तु लघुकथा में नेपथ्य कहानी की तुलना में कहीं अधिक सघन और गहन होता है। स्थिति यह होती है कि लघुकथा में समापन-बिन्दु पर आकर पाठक उसके नेपथ्य में कूद पड़ता है। तात्पर्य यह कि लघुकथा का प्रभाव-पक्ष पाठक को समापन के उपरांत भी अपने में डुबोए रखने की क्षमता रखता है। समापन के बाद लघुकथा पाठक के मनो-मस्तिष्क पर प्रारम्भ हो जाती है।
अशोक मिश्रलघुकथा के पुनरुत्थापकों में जिन लेखकों का नाम लिया जाता है, उनमें आप भी एक हैं;लेकिन क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि आठवें और नवें दशक की तुलना में बीसवीं सदी के अन्तिम दशक में सन्नाटे का माहौल रहा?
बलराम अग्रवालसन्नाटे सम्बन्धी आपका आकलन एकदम सही है, परन्तु यह सन्नाटा एकाएक नहीं फैला। इसका साया नवें दशक के उत्तरार्द्ध के शुरुआती दौर में ही लघुकथा पर छाने लगा था। मिश्रजी, आप स्वयं लघुकथा के लेखक, चिंतक और संपादक रहे हैं और भली प्रकार समझ सकते हैं कि लघुकथा को उन्नयन के प्रारम्भिक काल में ही विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। उस काल में, जबकि इससे जुड़े तमाम वरिष्ठ कथाकारों-विचारकों को संयत रहना था, वे नहीं रह पाए। उनमें से कुछ ने लॉबिंग शुरू कर दी और अपने अनर्गल वक्तव्यों के विरुद्ध बहसों से कतराने लगे। यह सन्नाटे की शुरुआत थी और इसका आभास पाकर मैंने सम्भवत: 1986 में अवध पुष्पांजलि के लघुकथा-विशेषांक में बहस से ही टूटता है सन्नाटा लिखकर कथाकार मित्रों को सावधान करने का प्रयत्न किया था; लेकिन बेकार। वे सुधरे नहीं और परिणाम लगभग पूर्ण सन्नाटे के रूप में सामने आया। परन्तु, स्थिति अब पुन: सुधार पर है। विघटनकारी शक्तियाँ लगभग शिथिल हो चुकी हैं और कमान नए कथाकारों के हाथों में है।
अशोक मिश्रलघुकथा के विधागत मान्यता सम्बन्धी सवाल आज भी अनुत्तरित हैं, इस पर क्या कहेंगे आप?
बलराम अग्रवाललघुकथा के विधागत मान्यता सम्बन्धी सवाल दरअसल प्रत्यक्ष रूप से ही अनुत्तरित हो सकते हैं, परोक्षत: वह उत्तरित हैं और परिणाम सकारात्मक व सुखद है। स्तरीय कथा-पत्रिकाएँ पूर्व में लघुकथा को आमतौर पर हाशिए पर रखती थीं, परन्तु पिछले कुछ वर्षों से स्थिति में परिवर्तन आया है। लघुकथा को अब पूरे पृष्ठ प्रदान किए जाते हैं। अनेक पत्रिकाओं के अंक इसका प्रमाण हैं। दूसरे, स्तरीय कथा-पत्रिकाओं और पत्रों के साहित्य-परिशिष्टों ने लघुकथा-संबन्धी आलोचनात्मक लेख देना भी प्रारम्भ कर दिया है। साहित्य अमृत, आजकल, कथाक्रम आदि अनेक पत्रिकाओं के अंकों का उल्लेख इस सम्बन्ध में किया जा सकता है। उन दिनों, जब स्वयं लघुकथा-रचना ही हाशिए पर थी, तब आलोचनात्मक लेखों द्वारा स्थान पाना कैसे सम्भव था?
अशोक मिश्रएक सफल लघुकथा को किन शब्दों में परिभाषित करेंगे आप?
बलराम अग्रवालसबसे पहले तो हमें यह जान लेना चाहिए कि लघुकथा कथा-साहित्य की विधा है। उसका कथा-गुणोंवाली होना अनिवार्य है। लघुकथा में आकारगत लघुता का अर्थ कथा-संकोच नहीं है। एक सफल लघुकथा हम ऐसी कथा-रचना को कह सकते हैं जो पाठक को पूर्णता के आभास के साथ इतना-भर सोचने को विवश कर दे किनहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए था; या फिर यह किहाँ, यही उचित था। गरज यह कि पाठ-मन को उद्वेलित कर पाने की क्षमतावाली, कथानक व चरित्रों के विकास में पूर्णता का आभास देने वाली लघुकथा को मैं सफल लघुकथा कहूँगा। उसमें घटना हो भी सकती है और नहीं भी।
अशोक मिश्रलघुकथा में किसी सफल आलोचक के न उभर पाने की वजह क्या है?
बलराम अग्रवाललघुकथा, उपन्यास और कहानी से भिन्न कथा-विधा है। स्पष्ट है आलोचना के उसके टूल्स भी पूर्व-प्रचलित दोनों कथा-विधाओं से भिन्न होने चाहिएँ, जोकि तुरन्त सम्भव नहीं थे। मिश्रजी, आप तो जानते ही हैं कि पहले रचना जन्मती है, फिर विधा आकार पाती है। अब, जैसे-जैसे लघुकथा का स्वरूप स्पष्ट हुआ है, उसकी आलोचना पर भी स्तरीय काम हुआ है। डॉ रत्नलाल शर्मा, डॉ ब्रज किशोर पाठक, डॉ कमल किशोर गोयनका, डॉ अशोक भाटिया, भगीरथ, बलराम, सतीशराज पुष्करणा आदि ने इस ओर उल्लेखनीय काम किया है।
अशोक मिश्रनए लघुकथाकारों के लिए आपका संदेश?
बलराम अग्रवालदैव-दैव आलसी पुकारायह गोस्वामी तुलसीदास की पंक्ति है। आकारगत लघुता से आकर्षित होकर अनगिनत लोग इस विधा से आ जुड़ते हैं, परन्तु, लघुकथा… यों तो साहित्य की प्रत्येक विधा…परन्तु मैं विशेष रूप से कहना चाहूँगा कि लघुकथा आलसियों की विधा नहीं है। आप अच्छी तरह समझ सकते हैं कि इस पर कभी-कभी कहानी से भी अधिक श्रम करना पड़ता है। नए लेखकों के लिए कोई संदेश नहीं; बल्कि उनसे मेरा निवेदन है कि रचना में अभिवयक्ति की पूर्णता के प्रति सदैव सचेत रहें। वे अपने काल को, उसकी प्रवृत्तियों को जानें, पहचानें। असंगत हालातों के कारणों से जनता को अवगत कराते रहने का प्रयास करते रहें। आपकी लघुकथाएँ अशिक्षित और भोली-भाली जनता को चालाकों की स्वार्थसिद्धि का टूल बनने से बचने के प्रति सचेत करती रहनी चाहिएँ। मात्र रंजन की विधा नहीं है लघुकथा।
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संदर्भ:डेली हिन्दीमिलाप(हैदराबाद, सोमवार 15 मई, 2000)