मंगलवार, 23 जून 2009

लघुकथा में आधुनिकता/बलराम अग्रवाल


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घुकथा-संकलन बोलते हाशिए को संपादित करते समय उसके संपादक राजा नरेन्द्र(अब कुमार नरेन्द्र) ने जब बतौर संकलित लघुकथाकार मुझसे लघुकथा के संबंध में लेखकीय टिप्पणी माँगी थी तो मैंने लिखा था—‘…जो लोग कहानी की आत्मा को नहीं जानते, लघुकथा लिखना-समझना उनके बूते से बाहर की बात है। लघुकथा की यथार्थ दिशा की ओर संकेत करते मेरे इस वाक्य को समझने की लोगों ने लेशमात्र भी आवश्यकता महसूस नहीं की। यह उन दिनों की बात है, जब लोग घनी भीड़ के बीच एडियाँ उठा-उठाकर लघुकथारूपी कैमरे में फोकस हो जाने के लिए लालायित एवं प्रयत्नशील थे। यह उन दिनों की बात है, जब लोग लघुकथा-सृजन पर कम, उसकी परिभाषा गढ़ने पर अधिक माथापच्ची करते नजर आते थे। विद्वता-प्रदर्शन का यह हाल कि आचार्य किशोरीदास वाजपेयी भी पढ़ते तो कन्नी काट जाते। शब्दों के साथ ऐसी कुश्ती इस युग में लघुकथा के परिभाषाकारों के अतिरिक्त किसी और के वश का रोग नहीं था। यों यह प्रयास अभी भी जारी है, परन्तु उस मात्रा में नहीं। मात्र परिभाषा लिखकर अल्लामा बन निकलने की दम्भ-प्रतीति जैसी इन परिभाषाकारों में देखने को मिलती है, वैसी किसी अन्य साहित्य-विधा में नहीं। यहाँ तो हाल यह है कि परिभाषा के अतिरिक्त भूलवश भाई का तत्संबंधी कोई लेख अगर है भी तो वह दिनभर में बैठकर लिखी गई दस-बारह-पंद्रह-बीस परिभाषाओं का संकलन मात्र नजर आता है। एक आम मुहावरा है कि अर्थशास्त्र परिभाषाओं का पुलिंदा है। छ: अर्थशास्त्री मिलकर एक जगह बैठे नहीं कि सातवीं अर्थशास्त्रीय परिभाषा पैदा हो जाती है। परन्तु लघुकथा के परिभाषाकार, परिभाषाओं की दौड़ में ये अर्थशास्त्रियों के कौशल से मीलों आगे हैं, वह भी मात्र सात या आठ वर्षों के प्रयत्न के उपरान्त। गोया लघुकथाकार न हुए भामह, लोलट या मम्मट हो गए; भरत मुनि, राजशेखर, अरस्तु या आई ए रिचर्ड्स अथवा ई एम फोर्स्टर हो गए। यों इन मनीषियों ने भी मात्र परिभाषाएँ ही लिखकर विषय-विशेष को व्याख्यायित मान लिया हो, ऐसा कोई प्रमाण साहित्य की पुस्तकों में नहीं मिलता। जिन्दगी को लेख व निबन्ध आदि लिखने में होम कर देने के उपरान्त आज इनके नाम किसी परिभाषा के साथ जुड़ पाता है। उसके लिए भी पाठक वृंद को शोधार्थी की हैसियत से इनके भरे-पूरे विशाल साहित्य-सागर में बूढ़ना होता है।
रीतिकाल में ऐसे अगणित कवि रहे हैं जो काव्य रचना के शिक्षक थे, परन्तु दुर्भाग्यवश स्वयं अच्छी कविता लिख पाने में असमर्थ थे। सन 1900 में सरस्वती में प्रकाशित एक आलोचनात्मक लेख हिन्दी काव्य के लेखक-द्वय मिश्र-बंधुओं ने इस संदर्भ में लिखा—‘आँख एक भी नहीं और कजरौटे नौ-नौ! सम्प्रति, लघुकथा में भी अच्छे लघुकथाकार स्वनामधन्य परिभाषाकारों की तुलना में नगण्य ही हैं। यहाँ न अरस्तुओं को अधिक लिखने की आवश्यकता है और न ही कोमलमना पाठकवृंद को गहरे बूढ़ने की। लिखे हुए उस दीर्घ में से भी तो अन्तत: परिभाषा अथवा सिद्धांत प्रतिपादन के योग्य चार-छह शब्द ही छाँटे जाने हैं; सो क्यों श्रम किया-कराया? मात्र परिभाषा ही लिख मारते है। तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय। गुड़ खायें और गुलगुलों से बैर करें!! लघु यानी शॉर्ट ही अपनाना है तो शॉर्ट-कट से भला कैसा परहेज। यों इस मामले में बेचारे परिभाषाकार नहीं, लघुकथा के शोधकर्ता, शोध-निदेशक और संपादकगण भी कम दोषी नहीं हैं। शोधकों ने अपना हित साधने की गरज से संदर्भहीन परिभाषाएँ एकत्र कीं और अनेक संपादकों ने भी उन्हें इसी प्रकार प्रकाशित किया। वैसे तो स्वयं परिभाषाकार से ही संदर्भ पूछा जाए तो वह कहेगा कि यह तो परिभाषा है, इसके लिए लम्बी-चौड़ी लफ्फाजी(!) की आवश्यकता ही क्या थी? वाह रे, लघुकथा के सपूतो!!
लघुकथा जैसे लघ्वाकारीय कथा-प्रकार के साथ यद्यपि समकालीन या सामयिक या आधुनिक या कोई अन्य विशेषण जोड़ा जाय, यह आवश्यक नहीं है। यों भी लघुकथा के कंधे अभी इतने मजबूत नहीं हुए हैं कि विशेषणों के बोझ को सह सकें। लेकिन कभी-कभी वंशीधर को गिरधर और मर्यादा पुरुषोत्तम को धनुर्धर बनना ही पड़ता है। समय की माँग के अनुरूप लघुकथा के लिए भी यह अत्यन्त आवश्यक था। अन्तर सिर्फ यह रहा कि आधुनिक लघुकथा की मेरी अवधारणा से सहमत होकर जगदीश कश्यप जैसे उग्र व्यक्ति ने आगे बढ़ाया। इधर कुछ लेख समकालीन लघुकथा आदि शीर्षकों के अन्तर्गत प्रकाशित देखे गए हैं। इन्हें लिखने-छापने वाले वही लोग हैं जिन्हें लघुकथा के आगे आधुनिक जोड़ने पर आपत्ति थी।
कमल गुप्त और बलराम प्रारम्भ से ही लघुकथा और लघुकहानी के बीच यथेष्ट अन्तर की बात करते रहे हैं। एक समय था जब मैंने भी नाममात्र के इस द्वैत का लगभग विरोध ही किया था। परन्तु तत्वत: मैं स्वयं मानता रहा कि लघुकथा काहानी की आत्मा है। कभी-कभी मन्तव्य समान होते हुए भी विश्लेषण के स्तर पर एकसूत्रता के अभाव में हम परस्पर अपरिहार्य उलझाव पैदा कर लेते हैं।
हिन्दी कहानी या उपन्यास साहित्य को यदि प्रेमचंद जैसा ऊर्जावान और सामर्थ्यवान लेखक बल एवं प्रतिभापूर्वक खींचकर सही राह पर न ले आया होता तो चन्द्रकान्ता और उसकी सन्तति के रास्ते पर चलता हुआ यह किसी अड़ियल भैंसे की तरह ऐय्यारी और राजसी प्रमाद के कीचड़ व दलदल में बैठकर जुगाली कर रहा होता। गर्व की बात है कि हिन्दी कथा साहित्य अब अपनी शैशवावस्था अथवा प्राथमिक-स्तर पर नहीं है, वरन् विश्व साहित्य में उसे सम्मानजनक स्थान प्राप्त है। यह सम्मान उसने पुराण-कथाओं, राजा-रानियों-परियों के किस्सों अथवा ऐय्यारी और तिलिस्म से भरी रचनाओं के जरिए नहीं, बल्कि गुलामी के बंधनों में जकड़ी अपनी जनता के बीच स्वायत्तता-प्राप्ति हेतु आन्दोलनपरक प्रतिगामी अनुभूति एवं यथार्थ से परिपूर्ण साहित्य रचकर प्राप्त किया है। हिन्दुस्तान के जन-मन में स्वाधीनता-प्राप्ति हेतु अंग्रेज-शासकों के विरुद्ध आन्दोलन, अवज्ञा आदि की चिंगारियाँ ऐसे ही विकसित नहीं हो गईं। क्रमबद्ध प्रेरणा के रूप में साहित्य ही उस सबके पीछे था। ब्रिटिश-सरकार के अधीन भारतीय जमींदारों और सामन्तों की स्वायत्तता प्राप्ति के प्रति अकर्मण्य मन:स्थिति तथा अपने ही गाँव-कस्बे के गरीब नौकरों-मजदूरों से बेगार लेने की उनकी प्रवृत्ति को जिस गहराई और जिस मन्तव्य के साथ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने परिहासिनी(1876) में प्रकाशित मात्र 45-50 शब्दों की अपनी रचनाओं अंगहीन धनी और अद्भुत संवाद में चित्रित किया, वह व्यर्थ नहीं गया।साहित्यकारों ने न सिर्फ प्रेरणा दी, बल्कि अन्य देशों की जनता द्वारा किए गए संघर्षों एवं उनकी सफलताओं से भी लोगों को परिचित कराया, उन्हें संघर्ष की वैज्ञानिक समझ दी। हिन्दी कथा साहित्य की तरह ही हिन्दी पाठक भी आज न सिर्फ उन्नत हिन्दी साहित्य से बल्कि उत्कृष्ट अनुवादों के जरिए समकालीन विश्व-साहित्य से अपना सान्निध्य रखता है। न सिर्फ कहानी बल्कि उपन्यास और नाट्य साहित्य से भी उसका खासा परिचय है। ऐसी हालत में लघुकथाकार यदि उसे समकालीन कहानी के स्तर की जीवन्त एवं अनुभूतिपूर्ण रचना नहीं दे पाता तो यह उसकी अक्षमता ही कही जाएगी। समय की कमी या अधिकता के अनुपात को दृष्टि में रखकर पाठक रचना को नहीं पढ़ता। वह अपनी संवेदनाओं की तुष्टि और आनन्दानुभूति के स्तर की रचना पढ़ना पसन्द करता है। लघुकथा सरीखी अल्पकाल में पढ़ पाने योग्य रचना यदि उसे वह नहीं दे पाती तो कहानी और उससे भी आगे उपन्यास के पठन के जरिए वह उन्हें प्राप्त करने का समय निकाल लेता है। इस सन्दर्भ में रमेश बतरा की यह उक्ति कि संसार में अधिकांश पाठक उपन्यास ही पढ़ते हैं’—नहीं भूलनी चाहिए। लघुकथा में आधुनिकता अथवा समकालीनता की अवधारणा को प्रस्तुत करते समय हमारी धारणा लघुकथा को समकालीन-कथ्य, विचार, तेवर और शिल्प मे प्रस्तुत करना है न कि उसे भारी-भरकम विशेषणों के बोझ-तले दबा देना।
लघुकथा में आधुनिक विशेषण से बौखलाए लोग मेरी दृष्टि में थोड़ा संकुचित हैं। वे प्रकट कर रहे हैं कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल या अन्य द्वारा काल विभाजन के रूप में खींच दी गई लक्ष्मण-रेखा से इतर आधुनिक के किसी अन्य अर्थ को ग्रहण करने के लिए वे तैयार नहीं हैं। साहित्य में ऐसा व्यवहार नहीं चलता। तया मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनम् कुरु के रूप में वेदों ने हमें बुद्धि की उपासना करना सिखाया है। बुद्धि के द्वारा ही हम हमेशा आधुनिक संदर्भों से जुड़ते हैं। सामयिकता से सहज ही जुड़ पाने के अपने गुण के कारण सैकड़ों वर्ष बाद कबीर की चेतनशील वाणी हमें आधुनिक लगती है, जबकि समकालीन रचनाकारों में अनेक आदि, रीति या भक्ति काल की पृष्ठभूमि वाली रचनाएँ समाज को दे रहे हैं। यद्यपि यह व्याधि काव्य के क्षेत्र को अधिक संक्रमित किए हुए है तथापि लघुकथा सहित गद्य की भी हर विधा में यह पसरी हुई है।
आधुनिक, समकालीन और सामयिक के साथ ही लेखन में तात्कालिक का भी भरपूर उपयोग होता है। बहुत-से लेखक, जो तात्कालिक और सामयिक के बीच के अन्तर को नहीं समझते, तात्कालिक घटनाओं को आधार बनाकर ही लेखन कर रहे होते हैं। तात्कालिक घटना से प्रेरित अथवा प्रभावित होकर लिखी गई ऐसी रचना, जिसमें किसी शाश्वत मूल्य का समायोजन न हुआ हो, सामयिक की श्रेणी में नहीं रखी ज सकती। कथापरक अथवा काव्यपरक घटना-रचना के अलावा उसे कुछ और नहीं कहा जा सकता। आधुनिक, जीवन में नवचेतना के प्रति जागरूकता तथा रूढ़ मान्यताओं व परम्पराओं के प्रतिविद्रोह का भाव रखता है। आघुनिकता इस अर्थ में सृजनात्मकता के अत्यन्त निकट ठहरती है अत: आधुनिक लघुकथा को लघुकथा का प्रकार-विशेष न मानकर हम, समसामयिक सृजनात्मक लघुकथा मान सकते हैं तथा भाव की दृष्टि से समकालीन लघुकथा को भी इसी में समाहित कर सकते हैं।
स्थापनाएँ तथ्यपरकता के क्षेत्र की वस्तु हैं। उनको श्रद्धा और भावप्रवणता के आधार पर प्रस्तुत तो किया जा सकता है, माना नहीं जाना चाहिए। इसलिए लघुकथा में गलत स्थापनाओं और भ्रामक वक्तव्यों का तथ्यपरक प्रतिकार होना चाहिए। लघुकथा कथा का एक धारदार प्रकार है। समकालीन उपन्यास, कहानी, नाटक अथवा एकांकी जिस स्तर की रसानुभूति अपने पाठक या दर्शक को दे पाने में सक्षम हैं, उससे निचले स्तर की अनुभूति लघुकथा के पाठक को न हों, इस बात के प्रति लघुकथाकार को सचेत रहना है। यही लघुकथा का सामयिकता है, यही समकालीनता है और यही आधुनिकता भी। इसी से वर्तमान की लघुकथा में निखार आएगा और इसी से भविष्य की लघुकथा का स्वरूप तय होगा।
संदर्भ: अवध पुष्पांजलि(लघुकथा विकास अंक, अप्रैल 1989) संपादक: प्रताप नारायण वर्मा, माधव प्रकाशन, सआदतगंज, लखनऊ(उ0प्र0)

गुरुवार, 18 जून 2009

बहस से ही टूटता है सन्नाटा/बलराम अग्रवाल

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संदर्भ:अवध पुष्पांजलि(लघुकथाअंक), अप्रैल 1991, संपादक: प्रताप नारायण वर्मा, माधवप्रकाशन, सआदतगंज, लखनऊ(उ0प्र0)
पत्रिका में लगाए संपादकीय नोट के अनुसार यह लेख उनको अगस्त 1990 में मिल गया था। सम्प्रति न तो अब प्रस्तुत लेख में उठाए गए मुद्दे उतनी तीव्रता में बचे हैं और न ही संदर्भित लोगों में से श्रीयुत रमेश बतरा व जगदीश कश्यप हमारे बीच रहे हैं कि अपने जवाब प्रेषित कर सकें। भाई रमेश बतरा ने तो खैर अपने जीवनकाल में भी ऐसी अनाप-शनाप बहसों को कभी गम्भीरता से नहीं लिया था, लेकिन श्रीयुत कश्यप! उनके जवाब साहित्यिक पृष्ठभूमि से हटकर चरित्र-हनन के प्रयत्नों के रूप में सामने आए। लेखकविहीनता का मुद्दा भी डॉगोयनका की ओर से लगभगस्पष्ट हो ही चुका है। फिर भी, उक्त काल के एक रिकॉर्ड के तौरपर इस लेख को यहाँ दिया जारहा है।

घुकथा, सृजन के अपने पहले ही दौर में परस्पर कुत्ता-घसीटी के जंजाल में फँस जाने वाली साहित्य की सम्भवत: अकेली ही विधा है। इसकी एक वजह हैविधा से जुड़े साहित्य की गम्भीर समझ और चिन्तन से जुड़े लोग यहाँ रिस्क लेने से कतराते हैं। इस कतराने का परिणाम यह हो रहा है कि कच्ची समझ वाले व्यवसायी-बुद्धि के लोग खुद जैसी ही एक पीढ़ी तैयार करने में मशगूल हैं और जैसा कि एक नासमझ सोचता है, इसको वे अपनी विद्वता समझने की भूल कर बैठे हैं। इस तथ्य को कि गम्भीर लोगों की चुप्पी उनकी कमजोरी नहीं, उनकी ताकत हुआ करती है; और जिस दिन भी यह चुप्पी टूटती हैअवांछित कामयाबी की दीवारें भरभराकर गिरने लगती हैं और रेत के ढेरों में तब्दील हो जाती हैं, फिलहाल वे भूल रहे हैं।
लघुकथा-साहित्य पर इन दिनों अहंवादियों की छाया है। यही वजह है कि इसमें मुद्दे बहस के लिए नहीं बल्कि अहं तुष्टि के लिए उछाले जाते हैं। ये अहं आपस में अक्सर टकराने भी लगे हैं। साहित्य में जब अहं टकराते हैं तो हल्की-सी सिर्फ आवाज होती हैविस्फोट नहीं होता, सन्नाटा नहीं टूटता। सन्नाटा टूटता है बहस से। बहस से बचकर चलने वाली पीढ़ी सृजन को नए आयाम दे पाने में अक्सर अक्षम ही रहती है। लघुकथा की वर्तमान पीढ़ी के अधिकांश लोग सम्प्रति या तो बहस से कतराते नजर आते हैं या बहस का मुद्दा नजर आत ही कछुए की तरह खुद में सिमटकर बहस को बाढ़ के पानी तरह खुद के ऊपर से गुजर जाने देते हैं। यहाँ मैं फिर अपनी बात को दोहराना चाहूँगा कि यह कच्छप-वृत्ति लघुकथा के विकास के लिए किसी भी दृष्टि से हितकर नहीं है।
बहस का एक सार्थक पासा रमेश बतरा ने दिल्ली दूरदर्शन पर आयोजित एक लघुकथा-चर्चा में 1988 में फेंका था; यह कि लघुकथा का कोई (रचना) विधान नहीं है।
रमेश बतरा आठवें दशक के पहली पीढ़ी के लघुकथा-लेखक के रूप में जाने जाते हैं, हालाँकि अपने संघर्ष के दौर से बाहर निकल आने के बाद वे खुद को लघुकथाकार नहीं, कहानीकार ही कहलाना ज्यादा पसन्द करते होंगे; फिर भी, लघुकथा के प्रति उनके मन में एक खास लगाव है जो साफ नजर आता है। लघुकथा के बारे में उनकी समझ स्पष्ट है और इसीलिए लघुकथा-संबंधी उनके वक्तव्य पर गम्भीरतापूर्वक मनन की जरूरत थी। एक ऐसे रचना-प्रकार पर, जिसका कोई विधान स्वयं गोष्ठी में भाग लेने वाला वक्ता ही नहीं मान रहा हो, गोष्ठी आयोजित करने की जरूरत दिल्ली दूरदर्शन ने क्यों समझी? और एक विधानहीन रचना-प्रकार पर कोई किस हैसियत से विद्वतापूर्वक बोलने का दम्भ भर सकता है? दूरदर्शन पर वक्तव्यों के प्रसारण की (समय आदि संबंधी) अपनी सीमाएँ हो सकती हैं, लेकिन खुले मंचों पर बहस की कोई सीमा नहीं होती। लघुकथा को अपने लेखन की मूल-विधा मानकर चलने वाले लोग उसे अवैधानिक सुनकर भी चुप रहेयही हमारा चरित्र है। इसी को रिस्क लेने से बचना कहते हैं।
बहस का दूसरा पासा जगदीश यानी जगदीश कश्यप ने फेंका है। हालाँकि वे पहले भी कई बार इस पासे को फेंकते रहे हैं लेकिन इस बार इसे जरा कसकर फेंका गया है। पासा है कि लघुकथाकारों ने बाहर के किसी आदमी का हस्तक्षेप नहीं सहा।
साहित्य की किसी भी विधा में क्या वाकई बाहर और भीतर होता है? या सिर्फ लघुकथा में ही ऐसा है? या कि सिर्फ उलझाए रखने के लिए यह उपविधा जैसा चवन्निया शिगूफा है जिसे थक-हारकर कालान्तर में विद्ड्रा कर लिया जाएगा? लघुकथा के आँगन में प्रवेश और निकासी के ये लौहद्वार आखिर क्यों लगाए गए है? इस आँगन में आखिर ऐसा कौन-सा बूथ है जिसे कश्यप बाहर के लोगों के हाथों कैप्चर कर लिए जाने के प्रति चिन्तित हैं? कहीं वे किसी के खुद द्वारा कैप्चर्ड बूथ के कैप्चर हो जाने के डर से तो चीख-पुकार नहीं मचा रहे है?ये कुछ आम सवाल हैं जो उनसे पूछे जाएँगे। कश्यप ने बेहद परिश्रम से एक जमीन तामीर की है। बेशक, वह उन्होंने सिर्फ अपने लिए तामीर नहीं की, लेकिन वे यह जरूर चाहते हैं कि इस जमीन पर उनके तौर-तरीकों से ताल्लुक रखने वाले लोग ही आकर टिकें। बहुत-से लोग इसे उनका दुराग्रह मान सकते हैं, लेकिन स्वयं द्वारा प्रस्तुत लघुकथा-तकनीक में उनका अतिविश्वास मान लेने में बुराई क्या है? कश्यप कभी भी न तो सुविधा-सम्पन्न रहे हैं और न ही सविधाजीवी। वह एक आम मजदूर जैसे हैं, लोक में भी और लेखन में भी। ऐसे में अपनी कमाई समझी जाने वाली चीज के प्रति उनका लगाव अगर अपने अस्तित्व के प्रति लगाव जितना गहरा है तो इसमें जटिल क्या है? यह स्वाभाविक ही है। फिर भी, लघुकथा में बाहर और भीतर के लोगों की उनकी अवधारणा पर, मैं चाहूँगा कि, बहस हो क्योंकि साहित्य में मैंने सबै भूमि गोपाल की सुना, पढ़ा और स्वीकारा है।
बहस का तीसरा पासा सोमवार 30 जुलाई, 1990 की सुबह मेरे साथ टेलीफोन पर बातचीत के दौरान डॉ कमल किशोर गोयनका ने फेंका। प्रेमचंद साहित्य पर अपने शोधों के जरिए डॉ गोयनका अक्सर चर्चा में रहे हैं। प्रेमचंद-भक्तों ने उनके प्रयासों को प्रेमचंद की मूर्ति पर अनाधिकार हमलों के तौर पर भी लिया। प्रेमचंद संबंधी अनेक मान्यताओं को उन्होंने चुनौती दी, बहस का मुद्दा बनाकर पेश किया। उन्होंने कहीं पर जाहिर अपनी यह राय बातचीत के दौरान मेरे सामने दोहराई कि लघुकथा लेखकविहीन विधा है। लघुकथा-लेखकों की आम प्रवृत्ति को महसूस करते हुए इस बारे में मुझे दो तरह की प्रतिक्रियाओं की आशा हैपहली यह कि लेखकविहीन ही सही डॉ गोयनका ने लघुकथा को विधा तो कहा है, और दूसरी (जो कि एक अंधा-आक्रोश हो सकता है), लेखकविहीन विधा?
डॉ गोयनका की बात का मर्म जानने के लिए अंधे आक्रोश को त्यागकर हमें शान्त हृदय से सोचना होगा। वर्तमान दौर करीब-करीब संवेदनहीनता का दौर है। संवेदनाएँ अब स्वत:स्फूर्त नहीं होतीं, उन्हें उकेरना पड़ता है। यह ऐसा त्रासद युग है कि व्यंग्य खुद अपने बारे में कुछ नहीं बोल पाता, उसके ऊपर व्यंग्य उपशीर्ष देना होता है ताकि पाठक उसे किसी और मानसिकता के साथ पढ़ने को न बैठ जाए। चर्चित लघुकथा-लेखकों के निजी लघुकथा-संग्रह प्रकाशित न हो पाना भी, मैं समझता हूँ कि इस विधा को लेखकविहीन मान लेने का एक कारण हो सकता है; क्योंकि बहुत सम्भव है कि आलोचक अब क्वान्टिटी में क्वालिटी के प्रतिशत के आधार पर लेखक को लेखक मानने लगे हों। दूसरी और खास वजह यह हो सकती है कि डॉ गोयनका ने लघुकथा में लेखकों के तौर पर जिन्हें चिह्नित किया या माना है, उनमें लेखकीय मर्यादा को सिरे से नदारद पाया हो और क्रौंच-वध से आहत वाल्मीकि के मन की बात की तरह उनके मुख से उपरोक्त वाक्य कहीं फूट पड़ा हो। जो भी हो, लघुकथा-लेखकों को अपना अस्तित्व जस्टीफाई करने की इस बहस में उतरना चाहिए। यह उनके (लेखकीय) पुंसत्व पर चोट है और इससे भी अगर वे नहीं तिलमिलाते हैं तो…तो खुदा ही खैरख्वाह है।

शुक्रवार, 12 जून 2009

बलराम अग्रवाल से उमेश महादोषी की बातचीत के अंश

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लघुकथा संवेदनाओं की सटीक कथा-अभिव्यक्ति है/
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बलराम अग्रवाल

मेश महादोषीलघुकथा के मूलतत्व आप किसे मनते हैं, जिनके आधार पर आप इसे कहानी और उपन्यास की तरह कथा-साहित्य की पूर्ण-विधा मानते हैं?
बलराम अग्रवालमूलतत्वों के निर्धारण-मात्र से कोई रचना-प्रकार साहित्यिक विधा नहीं हो जाता। घनीभूत संवेदनाओं की सटीक कथा-अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण की तीव्रता ऐसे प्रमुख कारक हैं जो लघुकथा को कहानी और उपन्यास की तरह कथा-साहित्य में एक स्वतन्त्र आधार प्रदान करते हैं।
उमेश महादोषीलघुकथा में बिम्बों/प्रतीकों के प्रयोग के बारे में आपका क्या सोचना है?
बलराम अग्रवाललघुकथा में बिम्बों/प्रतीकों का प्रयोग विषय को उत्कृष्ट तरीके से प्रकट करने में सहायक होता है, बशर्ते यह अनुरूपता लिए हो और क्लिष्ट न हो गया हो।
उमेश महादोषीक्या लघुकथा में घटना का होना आवश्यक है? एक ही लघुकथा में एक से अधिक घटनाओं को समाहित करने से उसके स्तर पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
बलराम अग्रवालकहानी और लघुकथा, कथा के ऐसे प्रकार हैं जिनमें घटना का होना आवश्यक नहीं है। सिर्फ विषय अनिवार्यत: आवश्यक है। लघुकथा में एक से अधिक घटनाओं का समायोजन संभव नहीं है। लघु-आकारीय कहानी में भी एक से अधिक घटनाओं का निर्वाह कहानीकार नहीं कर पाता है। लघुकथा में इतना परिष्कार अवश्य आया है कि प्रारम्भ में इसे खण्डांश की अभिव्यक्ति माना जाता था, अब पूर्ण घटना को इसमें समाहित किया जा सकता है…किया जा रहा है।
उमेश महादोषीलघुकथा की कसौटी में समय और स्थान की आप किस प्रकार व्याख्या करेंगे?
बलराम अग्रवालसमय और स्थान के अन्तर से यदि आपका तात्पर्य प्रस्तुत घटनाक्रम में इनके अन्तराल से है, तो लघुकथा में इसे हम कालदोष के रूप में व्याख्यायित कर सकते हैं। समयान्तराल की प्रस्तुति लघुकथा में इस प्रकार होनी चाहिए कि आगामी घटना पूर्व घटना से ही उद्भूत होती प्रतीत हो।
उमेश महादोषीकुछ लघुकथाओं में विभिन्न समयों या स्थानों पर समान पात्रों के स्वभाव या चरित्र का लघुकथाकार द्वारा स्वयं किया गया जिक्र मात्र होता है, जैसे—‘हम फलां वक्त वैसे थे, फिर वैसे बने और अब ऐसे हैं। ऐसी लघुकथाओं के बारे में आप क्या व्यवस्था देना चाहेंगे?
बलराम अग्रवाललघुकथा में नामधारी हों या अनामधारी, पात्र स्वयं घटना को आगे बढ़ाते हैं। इसी प्रकार वातावरण का रूपायन भी घटनाक्रम को प्रभावित करने वाला होता है। लघुकथाकार की अपनी कोई भूमिका लघुकथा में नहीं है। अत: जब भी, जैसे भी वह स्वयं उसमें प्रकट होने का यत्न करता है, लघुकथा के प्रभाव को आघात पहुँचाता है। ऐसी लघुकथाएँ, भले ही वे चर्चित हों, उनके लेखकों द्वारा पुनर्प्रेक्षित होकर इस दोष से मुक्त होनी चाहिएँ।
उमेश महादोषीकिसी भाषा की लघुकथा में दूसरी भाषा के प्रचलित अथवा अप्रचलित शब्दों का प्रयोग कहाँ तक उचित है?
बलराम अग्रवालदूसरी भाषा के प्रचलित यानी कि बोलचाल में प्रयुक्त हो रहे शब्दों का लघुकथा में प्रयुक्त होना कोई बुरी बात नहीं है, यदि वे प्रसंगानुरूप उचित रूप में आए हों। सरल एवं सटीक भावबोधक अप्रचलित शब्दों का प्रयोग भी प्रयोग के तौर पर ही स्वीकार किया जा सकता है, बशर्ते ऐसे प्रयोग से लघुकथा में भाषागत अस्वाभाविकता न आ गई हो।
उमेश महादोषीलघुकथा में वातावरण की आप क्या भूमिका मानते हैं?
बलराम अग्रवालप्रभावपूर्ण स्थिति के लिए आवश्यक है कि वातावरण का निष्पादन विषयानुकूल और घटना को आगे बढ़ाने में सहायक के तौर पर हो। इससे विरक्त वातावरण निष्पादन लघुकथा में शाब्दिक-लफ्फाजी ही कहा जाएगा। वस्तुत: लघुकथा में वातावरण निष्पादन हेतु तीक्ष्ण एवं वीक्ष्ण दृष्टि वांछित है।
उमेश महादोषीसंवाद-शैली में काफी लघुकथाएँ लिखी गईं। आजकल कम देखने में आती हैं, ऐसा क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि संवाद-शैली में लघुकथा के कथा-तत्व को लघुकथाकार आहत हुआ-सा महसूस करने लगे हों?
बलराम अग्रवाललघुकथा में संवाद-शैली को एक प्रयोग के रूप में देखना और स्वीकारना चाहिए। उद्भव-काल में और उसके बाद उत्थान-काल में किसी भी विधा में ऐसे प्रयोग उसके रचनाकारों की रचनाशील-प्रवृत्ति और विधा के प्रति उनके समर्पण को रूपायित करते हैं। दुर्भाग्य की बात यह रही कि संवाद-शैली को सहज लेखन की बजाय सुविधाजनक लेखन के तौर पर अपनाने वाले अनगिनत लेखकों ने लघुकथा की इस शैली के मर्म को आहत किया।
उमेश महादोषीकुछ लोगों का कहना है कि जब कहानी संवाद-शैली में लिखी जा सकती है तो लघुकथा क्यों नहीं?
बलराम अग्रवालअंशत: तो इसका उत्तर दिया ही जा चुका है। किसी भी शैली प्रयोग-धर्मिता को रचना-धर्मिता नहीं कहा जा सकता। यह बात कहानी पर भी लागू होती है। दूसरे, क्या यह जरूरी है कि लघुकथा को कहानी की पगडंडियों पर घुटनों चलाया जाय?
उमेश महादोषीकहानी में पत्र-शैली का प्रयोग कई कहानीकारों ने किया है। क्या लघुकथा में भी ऐसा हुआ है? और क्या लघुकथा में यह सम्भव है?
बलराम अग्रवालहुआ है, परन्तु बहुत कम…सीमित। अभी तक कोई प्रभावकारी लघुकथा पत्र-शैली में नहीं आई। अलबत्ता अशोक भाटिया की एक लघुकथा इस बारे में उल्लेखनीय कही जा सकती है।
उमेश महादोषीलघुकथा-लेखन की जरूरत क्यों महसूस हुई? कुछ लोगों का यह कहना कि लघुकथाकार कहानी नहीं लिख सकते, इसलिए लघुकथा लिखते हैं कहाँ तक उचित है?
बलराम अग्रवालकिसी भी क्षेत्र में नये प्रयोग सम्बन्धित समाज, जाति अथवा समुदाय की विकासमान प्रवृत्ति के द्योतक हैं। साहित्य क्षेत्र में विकास की प्रक्रिया नयी विधाओं को जन्म देती है। उन पर कोप करना नवीनता की, अग्रगामी प्रवृत्ति की ओर से आँखें मूँदना है। ओमपुरी या नसीरुद्दीन शाह व्यावसायिक सिनेमा में सफल नहीं हुए, इसलिए कला-फिल्मों के नायक हैं, हरगोविंद खुराना परमाणु पर खोजकार्य नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्होंने जीन्स खोजा, कहानीकार उपन्यास-लेखन में अक्षम है इसलिए कहानी लिखता हैये या इन जैसे सारे जुमले सत्य से परे हैं…निरर्थक हैं। जो व्यक्ति जिस क्षेत्र का विशेषज्ञ है, उसी में कार्य करेगा…उसी में उसे सफलता मिलेगी। पूर्वकाल से अब तक लघुकथा लिखने वाले अधिकांश लेखकों ने लम्बी रचनाएँ भी लिखी हैं। वस्तुत: साहित्य को व्यक्तिमूलक सम्पत्ति मान लेने वाले लोग ही इस वक्त लघुकथा के उद्भव से आक्रांत हैं, कोई अन्य नहीं।
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संदर्भ:संबोधन(लघुकथा विशेषांक), अप्रैल-जुलाई-अक्टूबर 1988