गुरुवार, 14 जनवरी 2010

खलील जिब्रान : जिनकी लघुकथाएँ हर काल में सामयिक रहेंगी/ बलराम अग्रवाल


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लील जिब्रान मुख्यत: भाववादी कवि और कथाकार हैं। अगर गहराई से देखा जाए तो उनकी रचनाओं का केन्द्रीय प्रभाव पारम्परिक दृष्टान्तपरक और आध्यात्मिक कथा-रचनाओं से काफी अलग महसूस होता है। ऐसा महसूस होता है कि उनकी रचनाओं के रूप में जो गीता हम पढ़ रहे हैं, उसमें व्याप्त विचार और संदेश हमारे दैनिक जीवन को छू रहे हैं। वे हमें चमत्कृत या भ्रमित नहीं करते, बल्कि प्रभावित करते हैं, अपने पक्ष में हमारा समर्थन प्राप्त करते हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाएँ सार्वकालिक हैं।
उनकी रचना कोरा कागज़ अहं में डूबे ऐसे व्हाइट-ड्रेस्ड सम्भ्रान्त की कहानी है जो अपने आसपास के परिवेश को निहायत तुच्छ और स्वयं को श्रेष्ठ मानता रहा हो। ऐसे आदमी का हश्र आखिरकार क्या होता है? खलील जिब्रान बेहद तीखा व्यंग्य प्रस्तुत करते हैं—‘स्याही से भरी दवात ने कागज की बात सुनी तो मन ही मन हँसी, फिर उसने कभी उस कागज के नजदीक जाने की हिम्मत नहीं की। कागज की बात सुनने के बाद रंगीन पेन्सिल भी उसके पास नहीं आई। परिणाम क्या हुआ? खलील जिब्रान चोट करते हैं—‘बर्फ-सा सफेद कागज़ शुद्ध और कोरा ही बना रहा…शुद्ध और कोरा…और रिक्त!
ऐसे अहंमन्य सम्भ्रान्त लोग जनता के बीच आखिरकार इतने अधिक उपेक्षित हो जाते हैं कि होली जैसे रंग और छेड़छाड़ से भरपूर त्यौहार के दिन पूरे कस्बे में घूम आने के बावजूद रंग या गुलाल तो दूर, किसी एक का भी, अभिवादन तक पाने से वंचित रह जाते हैं(संदर्भ: रंगअशोक भाटिया)।
जीवन का सच्चा सुख बच्चे जैसा निर्मल और निश्छल बने रहने में है। पैगम्बर शरीअ को बच्चा बाग(सही शब्द पार्क) में मिलता है। वह अपनी आया को झाँसा देकर मुक्त-भ्रमण का आनन्द लेने को निकल पड़ा है, लेकिन वह जानता है कि आया से वह अधिक अमय तक अपने आप को छिपाकर नहीं रख सकता है। यहाँ ध्यान देने कि बात यह है कि आया द्वारा खोज लिए जाने की चेतना सिर्फ उन्हीं लोगों में सम्भव है जिन्होंने बच्चे जैसा मन पाया है और जो जानबूझकर गुम होने का सुख लूटना जानते हैं। अपने अन्तर में छिपे बच्चे से बात करने की कला को जो लोग नहीं जानते, इस रचना के अन्तर्भाव तक पहुँचना उनके बूते से बाहर की बात है।
यह शायद अनायास ही है कि सूली पर चढ़ते हुए को मैं सूली पर चढ़ जाने के मात्र एक माह के भीतर ही पढ़ रहा हूँ। 12 नवम्बर, 2008 को मैंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति सम्बन्धी अपना आवेदन विभाग को सौंप दिया था और 12 फरवरी, 2009 को निवृत्त हो गया। तब से—‘तुम किस पाप का प्रायश्चित कर रहे हो?, तुमने अपनी जान क्यों दी?, तुम क्या सोचते हो, इस तरह तुम दुनिया में अमर हो जाओगे?, देखो, कैसे मुस्करा रहा है? सूली पर चढ़ने की पीड़ा को कोई कैसे भूल सकता है? जैसे कितने ही सवालों से मुझे लगभग रोजाना ही टकराना पड़ रहा है। लेकिन क्या यह भी अनायास ही है कि इन सवालों के मेरी ओर से दिए जा सकने वाले हर जवाब को खलील जिब्रान ने दे डाला है! क्या इसका यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि खलील जिब्रान ऐसे जड़-प्रश्नकर्त्ताओं से हमारी तुलना में कहीं अधिक आहत किए जा चुके थे। दायरे में कूप-मंडूकता को समुद्र तक विस्तृत करके बताया गया है। गरज यह कि बुद्धि अगर संकुचित है तो समुद्र भी एक कुआँ ही है। वज्रपात भी संकुचित मानसिकता को दर्शाने वाली ही रचना है। वस्तुत: तो हर पूजा-स्थल और तथाकथित धर्माचार्य, दोनों पर ही वज्रपात होना तय है, क्योंकि ये दोनों ही उसके अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते जिसके लिए ये बने होते हैं। निपट मूर्ख हो या बुद्धिमान, हर मनुष्य दो अवस्थाओं से हर पल गुजरता हैसुप्त और जाग्रत। उसके कुछ विचार उसकी सुप्तावस्था को प्रकट करते हैं तो कुछ जाग्रतावस्था को। निद्राजीवी के माध्यम से खलील जिब्रान से मनुष्य की इन दोनों अवस्थाओं का चित्रण माँ और बेटी, दो महिलाओं के माध्यम से किया है। भौतिक भोग-विलास की क्रियाओं में रुकावट से उत्पन्न रोषइन रुकावटों के कारण-रूप अपने निकट से निकट और प्रिय से प्रिय व्यक्ति को भी रास्ते से हटा देने का मन बना लेता है। माँ सोचती है कि—‘काश! मैंने तुझे जन्मते ही मार दिया होता। और बेटी यह कि—‘काश! तू मर गई होती। इस तरह की विध्वंसकारी सोच को खलील जिब्रान ने सुप्तावस्था की सोच माना है। जागने पर माँ बेटी पर प्यार उँड़ेलती है और बेटी माँ को आदर देती है यानी कि प्यार और आदर जाग्रतावस्था में ही सम्भव हैं।
मनुष्य के जीवन में परिवार के प्रति दायित्व-निर्वाह की भावना उसे बल और सामर्थ्य दोनों प्रदान करती है। दायित्व-निर्वाह जैसी भावना से हीन व्यक्ति तैरने के तमाम कौशल से परिचित होने के बावजूद भी डूबने की स्थिति में पहुँच जाता है। दायित्व-निर्वाह की इस भावना को खलील जिब्रान ने गोल्डन बैल्ट नाम दिया है।
अन्धी-आस्था पाप भी है और अपराध भी; लेकिन मेरा एक विश्वास और हैयह कि पूर्वग्रहित और कारणविहीन अनास्था भी पाप व अपराध दोनों है। सच्चा महात्मा वह नहीं जो अपने आचरणों पर पर्दा डाले रखकर लोगों को भ्रमित करता है; बल्कि सच्चा महात्मा वो है जो पश्चाताप की ज्वाला में जल रहे अपराध-वृत्ति वाले लोगों को जीने का सुरमय रास्ता दिखा दे, उन्हें गाना सिखा दे। ऐसा गाना जिसे सुनकर उससे त्रस्त रहने वाली घाटियाँ खुशी से भर उठें। हर व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति का काम आसान और कम दायित्व वाला लगता है। देवदूत भी इस मानवीय कमजोरी से बच नहीं पाये हैं। अपनी लघुकथा असंतुष्ट में खलील जिब्रान इस सत्य के साथ-साथ एक और सत्य पर से पर्दा उठाते हैं, वो ये कि तुलनात्मक दृष्टि से देवदूत भी किसी पापी पर निगाह रखने की अपेक्षा किसी संत पर निगाह रखने के काम को अधिक कठिन मानते हैं।
भारत को ओसन ऑफ़ टेल्स कहा जाता है। कीमत जैसी दृष्टांत-कथाओं की यहाँ कोई कमी नहीं है। विश्व कथा-साहित्य में भी ये अनगिनत मिल जाएँगी। गाइ द मोपासां के पास भी हैं और अन्य अनेकों के पास भी।
विज्ञापन व्यावहारिक स्तर की उत्कृष्ट कथा है। प्रारम्भ में लगता है कि माले-मुफ़्त दिले-बेरहम वाली कहावत को लोग झुठला चुके हैं, बहुत स्वाभिमानी हो गए हैं। यह भी लगता है कि बाग का मालिक अपनी अमीरी का रुतबा लोगों पर जमाने के लिए बाग से उतरे अनारों को चाँदी के थाल में सजाकर घर के बाहर रखता है। वह सेबों को मुफ़्त में उठा ले जाने का विज्ञापन तो लिखकर रख देता है, लेकिन उन्हें ससम्मान बाँटने के लिए स्वयं वहाँ उपस्थित नहीं रहता। लेकिन खलील जिब्रान का उद्देश्य यह नहीं है। वे बाग-मालिक की नहीं, बल्कि सामान्य-जन की सोच और व्यवहार के इस बिन्दु की ओर इंगित करना चाहते हैं कि लोगों को दरअसल अच्छी और कीमती चीजों की पहचान नहीं है। पहचान न होने के अनेक कारण होते हैं। एक तो यह कि सम्बन्धित विषय या वस्तु में व्यक्ति की गति ही न हो, जैसा कि कीमत में उन्होंने दिखाया है। दूसरा यह कि उनकी गति वस्तुत: कहीं हो ही नहीं, वे केवल विज्ञापन की भाषा ही समझते हों। विज्ञापन का स्थापत्य यही है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज का बहु-संख्यक वर्ग इस दूसरी श्रेणी का ही है।
ध्वनि-प्रदूषण आज एक जीवन्त सामाजिक समस्या है। विश्व के अधिकांश राष्ट्रों की सरकारें इससे मुक्ति के उपायों के रूप में अनेक कानून अपनी-अपनी संसदों से पारी करा चुकी हैं। लेकिन हम हैं कि सुधार का नाम ही नहीं ले रहे। दिल है कि शोर किए बिना मानता ही नहीं। नींद है कि शान्त वातावरण में आने का नाम ही नहीं लेती। शोर उतपन्न करने वाले अवयव चिन्तित हैं कि आदमी उनके कारण चैन से सो नहीं पा रहा है, लेकिन आदमी परेशान है कि सब ओर शान्ति क्यों है? मेंढ़क एक बहुआयामी कथा है, उसका यह सिर्फ़ एक पहलू है। ये राजनेता, पुजारी और वैज्ञानिक! ये भी तो इस किनारे आकर अपनी चिल्ल-पौं से जमीन-आसमान एक किए रहते हैं।’—मेंढ़की के मुँह से कहलवाए गए इस संवाद के द्वारा खलील जिब्रान ने ध्वनि-प्रदूषण के विरुद्ध हो रहे उपायों के खलनायकों की ओर भी इशारा कर दिया है।
मनुष्य के कर्म ही उसकी सुकीर्ति या अपकीर्ति को तय करते हैं; और उन्हीं के साथ वह न सिर्फ जीवित रहते बल्कि जीवन के बाद भी लोगों के बीच अपनी उपस्थिति बनाए रहता है। लोग के माध्यम से खलील जिब्रान ने इस तथ्य का बहुत सधा हुआ चित्रण किया है। कीर्ति या अपकीर्ति किस तरह सामाजिकों के बीच विद्यमान रहती है, प्रस्तुत संवाद के माध्यम से इसे बखूबी जाना जा सकता है—‘मैं नब्बे वर्ष का हो गया हूँ और जब मैं निरा बच्चा था, तब भी रूथ के बारे में सुना करता था। वैसे रूथ नामक महिला को मरे अस्सी वर्ष हो गए।
ख्वाहिशें इतनी कि हर ख्वाहिश पे दम निकलेउसने कहा में अनार के बीजों(दानों) की परस्पर बातचीत के माध्यम से जिब्रान ने बहुसंख्यक-सामाजिकों के बीच चलती रहने वाली निरुद्देश्य चिल्ल-पौं का चित्रण किया है। उनका मानना है कि मनुष्य का संख्या में अधिक, रूप में सुर्ख, शरीरिक-दृष्टि से मजबूत, लेकिन कमजोर इरादों वाला होने की तुलना में संख्या में कम, दिखने में पीला और कमजोर लेकिन इरादों की दृष्टि से आशावादी होना बेहतर हैं। लड़ाई भारतेंदु हरिश्चन्द्र लिखित अंधेर नगरी चौपट राजा का जिब्रानियन संस्करण है। इस तरह की और भी अनेक आंचलिक कथाएँ भारत के गाँवों में प्रचलित हैं।
पागल खलील जिब्रान की अति उच्च-स्तरीय कथा है। इसे समझाने के लिए मैं एक हिन्दी फिल्मी-गीत की यह पंक्ति उद्धृत करना उपयुक्त समझता हूँ—‘…जिसको जीना है वो मरना सीख ले। इस कथा की शुरूआत जिब्रान ने यों की है—‘आप मुझसे पूछते हैं कि मैं पागल कैसे हुआ? हुआ यों कि एक सुबह जब मैं गहरी नींद से जागा तो देखा कि मेरे सभी मुखौटे चोरी हो गए थे… इसमें रेखांकित करने वाली बात यह है कि मुखौटों के चोरी हो जाने का पता आदमी को वस्तुत: तभी लग पाता है जब वो गहरी नींद से जाग जाने की स्थिति में पहुँच गया हो। लेकिन यह उसको ज्ञान प्राप्त हो जाने की स्थिति नहीं है। नींद से जाग जाने भर से मुखौटों के प्रति उसका मोह समाप्त नहीं हो जाता। सांसारिकता से छुटकारा पा जाना इतना आसान नहीं है। कुछ लोग ऐसे आदमी को देखकर उसका उपहास उड़ाते हैं तो कुछ मारे डर के घर में घुस जाते हैं। उसे लगता है कि मुखौटों के साथ वह सुरक्षित भी था और सम्मानित भी। अत: वह उन्हें पुन: प्राप्त करने के लिए दौड़ लगाता है। लेकिन इसी दौरान जब मैं बाजार में पहुँचा तो एक युवक छत पर से चिल्लायापागल है! मैंने उसकी ओर देखा तो सूर्य ने पहली बार मेरे नंगे चेहरे को चूमा और मेरी आत्मा सूर्य के प्रेम से अनु्प्राणित हो उठी। अब मुझे मुखौटों की कोई आवश्यकता नहीं रह गई थी। …इस तरह मैं पागल बन गया। तात्पर्य यह कि सांसारिकों की नजर में वह आदमी, जो मुखौटों से विहीन है, सूर्य के प्रेम से जिसकी आत्मा अनुप्राणित हैपागल है। खलील जिब्रान कहते हैं कि अपने इस पागलपन में मुझे आजादी और सुरक्षा दोनों महसूस हुई… सच भी यही है।
खलील जिब्रान की लघुकथा बंधुत्व भी पागल जैसी ऊँचाई वाली रचना है। ईश्वर को द्वैत-भाव नापसंद है। वह मैं और आप के भाव को नहीं जानता। बहुत से लोग स्वयं को आस्तिक घोषित करते हुए जीवन बिता देते हैं जबकि वास्तव में वे नहीं जानते कि आस्तिक का वास्तविक अर्थ क्या है? सच्चाई यह है कि इसके वास्तविक अर्थ से अनजान लोगों की बात ईश्वर तक नहीं पहुँच पाती। ईश्वर उनके समीप से कभी तूफान की तरह गुजर जाता है तो कभी पंख फड़फड़ाते पक्षियों की तरह और कभी वह पहाड़ों पर छाई धुंध की तरह पास से निकल जाता है। हृदय से जब तक द्वैत समाप्त नहीं होगा और अस्ति एक: अर्थात एकत्व की भावना का उदय नहीं होगा, तब तक ईश्वर का सान्निध्य, उसका प्रेम नसीब नहीं होगा। अद्वैत की स्थिति में पहुँचने पर होता यह है कि जब मैं पहाड़ से नीचे उतरकर घाटियों और मैदानों में आया तो मैंने ईश्वर को वहाँ भी पाया…हरेक में। असलियत यह है कि तू और मैं के भाव को मिटा चुका व्यक्ति किसी पहाड़(यहाँ यह अहं का प्रतीक है) पर टिक ही नहीं सकता, वह उतरकर नीचे आएगा ही।
अपनी बुद्धिमत्ता और साहस के बल पर अपनी तुलना में कहीं अधिक ताकतवर पर भी पार पाया जा सकता है, इस सत्य का चित्रण भाई-भाई में बखूबी हुआ है।
शिशु-हृदय कितना निर्मल, निष्कपट और स्पष्टभाषी होता हैइस तथ्य को असंवाद के माध्यम से जाना जा सकता है। कितने कष्ट की बात है कि शैशव छूट जाने के बाद वही शिशु अपनी सारी निर्मलता, निष्कपटता और स्पष्टवादिता को भूल चुका होता है।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे। ज़माखोर लोग दूसरों की हालत सुधारने के अनगिनत फारमूले तो बता सकते हैं, सुईभर भी उनकी मदद नहीं कर सकते। अगर गम्भीरता से देखा जाए तो नशा भी जमाखोरों में व्याप्त लालच और विवेकहीनता की स्थिति को ही दर्शाती है। जमाखोर को अपने द्वारा संग्रहीत वस्तु के प्रति इतना अधिक मोह हो जाता है कि राज्य का गवर्नर, विशप, यहाँ तक कि राजा भी उसे इस योग्य नहीं लगता कि उनका स्वागत वह अपने भण्डार में जमा शराब से कर सके। अतिथि की तुलना में उसे भण्डार में जमा शराब अधिक मूल्यवान महसूस होती है। लेकिन उसकी मृत्यु के उपरान्त वही अमूल्य शराब उन लोगों में बाँट दी जाती है, शराब की गुणवत्ता जिनके लिए कोई अर्थ नहीं रखती थी।
दुनिया में सबसे ज्यादा दयनीय आदमी वह है अपने असली स्वरूप को नहीं जानता और सबसे ज्यादा सम्माननीय वह है जो अपनी क्षमताओं से, अपनी सीमाओं से परिचित है। खलील जिब्रान की दर्प विसर्जन में इस तथ्य को बहुत खूबसूरती से दर्शाया गया है।
दार्शनिक और मोची में बताया गया है कि जो व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों की परम्परा से, कार्य एवं विचरण शैली से अपना साम्य बैठाने में असमर्थता महसूस करता है, वह सच्चा दार्शनिक नहीं हो सकता।
अन्त में, बेशक खलील जिब्रानभावपरक शैली के कथाकार हैं औरसमकालीन लघुकथा ने भाव औरशैली की इस जमीन को लगभगत्याग-सा दिया है, फिर भी यहएक सच्चाई है कि न तो उनकीशैली कभी काल-कवलित होगी औरन ही उनके कथ्य। वे युगों-युगोंतक सामयिक बने रहेंगे और लघुकथा-लेखकों के प्रेरणा-स्रोत भी।
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(खलील जिब्रानजन्म:6 अप्रैल, 1883, निधन:10 अप्रैल, 1931)
इस लेख में प्रयुक्त सभी लघुकथाएँ कोटकपूरा(पंजाब) से भाई श्यामसुंदर अग्रवाल ने उपलब्ध कराई थीं।
बलराम अग्रवाल