शनिवार, 26 नवंबर 2011

कलाजयी बलराम अग्रवाल की कालजयी लघुकथाएं-1 / डॉ. ब्रजकिशोर पाठक

2-9-92 को लिखित डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक के पत्र की फोटोप्रति
दोस्तो, इसी सप्ताह की 23 तारीख को मैंने कुलदीप जैन द्वारा संपादित लघुकथा संकलन ‘अलाव फूँकते हुए’ में संकलित मेरी लघुकथाओं पर डॉ॰ कमल किशोर गोयनका द्वारा लिखित पत्रात्मक आलोचना को प्रस्तुत किया था। आज 60वें वर्ष में प्रविष्ट कराते अपने जन्मदिवस पर प्रस्तुत कर रहा हूँ उन दिनों मेरे लिए पूर्णत: अपरिचित आलोचक डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक द्वारा मेरी उक्त 25 लघुकथाओं पर केन्द्रित आलोचनात्मक लेख की पहली किश्त। डॉ॰ पाठक ने उक्त लेख को शीर्षक दिया था—‘कलाजयी बलराम अग्रवाल की कालजयी लघुकथाएँ’ जिसे पढ़कर मैं संकोच से गड़ गया था। इस बारे में यह कहते हुए कि ‘मैं इस विशेषण के योग्य नहीं तथा मुझे लघुकथा में अभी बहुत-सा काम और करना है’ मैंने तुरंत उन्हें पत्र भी लिखा। उनका जवाब आया—‘आलोचक की दृष्टि पर एतराज का अधिकार लेखक को नहीं होना चाहिए’। मैं नत-मस्तक हो गया। बावजूद इस सबके, अपने संग्रह ‘सरसों के फूल’ में डॉ॰ पाठक के लेख को मैं उनके द्वारा प्रदत्त शीर्षक से प्रकाशित कराने का साहस नहीं दिखा पाया। उसे शीर्षक दिया—‘कलाजयी लघुकथाएँ’। लघुकथा संग्रह ‘ज़ुबैदा’ में भी मूल शीर्षक से इसे प्रकाशित कराने का साहस मैं नहीं कर पाया। वहाँ शीर्षक गया—‘ये लघुकथाएँ’। परंतु यहाँ, ‘लघुकथा-वार्ता’ में, मैं उक्त लेख को उसके मूल शीर्षक से दे रहा हूँ। इसका कारण यह नहीं कि मेरा पूर्व संकोच हट गया है और कुछ दर्प मन में घर कर गया है बल्कि यह है कि तिरुवनंतपुरम (केरल) में अध्यापनरत मलयालमभाषी हिन्दी अध्यापक श्री रतीश कुमार ने ई-मेल करके जानना चाहा है कि उक्त लेख का सही शीर्षक क्या है? श्री रतीश कुमार ‘हिन्दी व मलयालम लघुकथाओं का तुलनात्मक अध्ययन’ विषय पर पी-एच॰ डी॰ की उपाधि हेतु शोधरत हैं। संदर्भत: यह बता देना आवश्यक है कि मुझे लेख भेजने से काफी समय पूर्व डॉ॰ ब्रज किशोर पाठक जी॰ एल॰ ए॰ कॉलेज, डाल्टनगंज, पलामू(झारखंड) में रीडर(हिन्दी विभाग) पद को सुशोभित कर वहाँ से सेवानिवृत्त हो चुके थे। हिन्दी लघुकथा पर उनके अनेक शोधालेख कितने ही पत्रों, पत्रिकाओं व संकलनों में प्रकाशित हैं जो अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।–बलराम अग्रवाल

हिन्दी लघुकथा लेखन आन्दोलन का मैं प्रत्यक्षद्रष्टा रहा हूँ। लघुकथा की रूपाकृति पर बहसें होती रही हैं और आज तक मैं देख रहा हूँ कि बहसों का दौर जारी है और लघुकथा की रूपाकृति अभी भी निश्चित नहीं हो पायी है। आज तक जितनी लघुकथाएँ लिखी गई हैं, उनकी रूपाकृति के मूल्यांकन के लिए एक अलग आलेख की आवश्यकता बन पड़ी है। मैंने अपने कई आलेखों में इस विषय को रेखांकित करने का प्रयास किया है। स्थूल रूप से मैंने हिन्दी लघुकथाओं के पहले वर्ग को ‘लघुत्तम लघुकथा’ की संज्ञा दी है। ऐसी लघुकथाएँ क्षणिकाओं या चुटकलों के रूप में प्रस्तुत हुई हैं। दो-चार पंक्तियों से लेकर सात-आठ पंक्तियों में ये तीखे व्यंग्य की धार लिए सहसा शुरू होकर बिजली की कौंध के साथ समाप्त हो जाती हैं। ऐसी रचनाओं में घटना सूक्ष्म बिन्दु में रचनाकार की अनुभूति बनकर व्यंग्य की उत्तेजना पैदा करती है। ऐसी रचनाओं का एक-एक वाक्य महाकाव्य की भूमिका अदा करता है। ऐसी ही रचनाओं को कुछ लोगों ने चुटकुला का एक रूप समझकर ‘फिलर’ के रूप में प्रकाशित कर उपहास किया था। डॉ. वेदप्रकाश वंशल ने इन रचनाओं को होम्योपैथी की गोलियाँ या कैप्सूल कहा था; पर उन्होंने इनके प्रभाव को रामबाण और पोषकशक्ति से भरपूर बताया था।

लघुकथा के दूसरे रूप को मैंने ‘लघुकथा’ की संज्ञा दी है। ऐसी रचनाएँ आधे पृष्ठों में समाप्त हो जाती हैं। इस काया में लिखी गयी रचनाएँ एक घटना या स्थिति के इर्द-गिर्द दो-एक पात्रों की भूमिका द्वारा समाप्त होती हैं। कलात्मक प्रस्तुति की दृष्टि से ऐसी लघुकथाओं में कई प्रयोग हुए। कुछ लोगों ने कहानी के सभी तत्वों का स्पर्श करते हुए समाहरण की शक्ति दिखलाई और समस्याप्रधान बनाकर धारदार मारक हथियार का काम लघुकथाओं से करने लगे। कुछ लोगों ने मिथक प्रतीक कथाओं को लिखकर अपने युग की विसंगतियों, त्रासद स्थितियों, मानवीय संवदेनहीनता/जड़ता, परम्परागत मूल्यों के विघटन, दहेज, पुलिसिया आतंक, देह-व्यापार, टूटते रिश्तों में अर्थतंत्र की गहरी भूमिका जैसी समस्याओं को कथ्य बनाया और इन्हें घटनास्थितियों, पात्रों और उनके संवादों से बड़ी तीखी रचनाएँ दीं। कुछ लोगों ने तो मात्र संवादात्मक शैली में रचनाएँ लिखकर नाटकीय त्वरा के साथ सूक्ष्मरूप से अपनी समस्याओं को व्यंजित किया। लघुकथा की यह संश्लिष्टता प्रस्तुति में अधिक उत्तेजक सिद्घ हुई। लघुकथा के तीसरे रूप को मैंने ‘लघुतर लघुकथा’ के नाम से अभिहित किया है। ऐसी लघुकथाएँ कहानीपन को साथ लेकर एक कथाभास का अनुभव कराती है। रूपाकृति में ये रचनाएँ एक से डेढ पृष्ठों में समाप्त होती हैं। ऐसी ही लघुकथाओं को देखकर कुछ आलोचकों ने लघुकथा को कहानी की एक शैली, छोटी कहानी या लघुकहानी कहा था। इन लघुकथाओं में व्यंजनाशक्ति से उत्पन्न व्यंग्य के दर्शन होते हैं। कुछ लघुकथाकारों ने बीच-बीच में हास्य के साथ-साथ ‘टॉन्ट’ और ‘आइरनी’ का बड़ा ही भव्य संयोजन किया है। ऐसी लघुकथाओं की शैली संवेदनात्मक होती है। एक प्रमुख घटना या स्थिति को केन्द्र में रखकर ऐसे लघुकथाकार कभी-कभी प्रासंगिक और सूच्य घटना-स्थिति का आयोजन करते हैं। रचना कभी-कभी किस्सागो की भाँति शुरू होती है और कभी-कभी एकाएक शुरू होकर मंथर गति से बढ़ती हुई अन्त में ऐसा वेग धारण करती है कि सिर धड़ से अलग हो जाता हैं। व्यंजना शक्ति पर आधारित ये लघुकथाएँ कहानी तत्वों की ऐसी घनीभूत इकाई बन जाती हैं कि सहृदय समीक्षकों के लिए इनसे आर-पार गुजरना एक जोखिमभरा कार्य हो जाता है। ये ध्वनि काव्य की भाँति सहृदयों को कथ्याकथ्य की मन:स्थिति में ले जाती हैं। साधारण लोगों के लिए ऐसी रचनाएँ आरोप-पत्र की तरह लगती है; पर जिन्हें साहित्यिक कृति की सजग पाठ-प्रक्रिया की तमीज मालूम है, वे इसकी गहराई को पाकर अभिभूत हो जाते हैं। सच पूछा जाय तो 1935 से 52 तक छोटी कहानी लिखने का कठिन कार्य एक आन्दोलन के तहत सर्वश्री जानकी वल्लभ शास्त्री, स्व. भवभूति मिश्र, विष्णु प्रभाकर, नलिन विलोचन शर्मा, विनोद शंकर व्यास ने सम्पन्न किया था। लघुत्तर लघुकथा लेखकों ने जाने-अनजाने उसकी आवृत्ति ऐसी लघुकथाएँ लिख कर की। लेकिन उनसे इन कथाकारों में अंतर यह आया कि आजादी के बाद नई कहानी लेखन के तहत ग्राम कथा, नगर कथा, अकहानी, आंचलिक कथा, समान्तर कथा आदि कथा-लेखन आन्दोलन की सारी कथ्य एवं शिल्पगत विशेषताओं को समेट लिया। इसी कारण, लघुकथा को इन कथा-आन्दोलनों की प्रतिक्रिया कहा गया और स्थापना दी गई कि उक्त कथ-आन्दोलनों में विभिन्न नामभर सामने आए, इनके पास कुछ नया कहने को नहीं था। सच पूछा जाये तो ऐसी लघुकथाओं के पास अर्जुन की वह शक्ति है जो पानी की छाया देखकर सटीक शर-संधान करता है।

हिन्दी लघुकथा लेखन और मूल्यांकन में जिन कुछेक लोगों ने सशक्त रचनाधर्मिता से अपनी अलग पहचान बनाई है, उनमें बलराम अग्रवाल का नाम कनिकाधिष्ठित है। लघुकथा-लेखन में कूड़ा-कर्कट परोसने वाले तथाकथित नामी-गिरामी हंगामेबाज लोगों की भीड छाँटकर जिन कुछेक लोगों ने इस रचना विधा को सही मार्ग दिखलाया उनमें श्री अग्रवाल का इतिहास इसलिए बनता है, चूँकि इन्होंने आलेखों के माध्यम से भी लघुकथा को एक निश्चित रूप प्रदान किया है। उनकी लघुकथाएँ अपनी विशिष्ट पहचान के कारण विभिन्न पत्रिकाओं में ही नहीं छपीं, वरन्‌ ‘कथानामा’ और ‘लघुकथा कोश’ में भी सादर संकलित हुईं। यह मामूली बात नहीं है कि इन्होंने अपनी स्वधर्मिता से लघुकथा को आसान रचनाविधा मानकर रातों-रात साहित्यकार बनने वाले साधन-सम्पन्न सेठिया सामंतों का कद इतना छोटा कर दिया कि वे बौने बन गये। बलराम अग्रवाल के लघुकथाकार की यही ऐतिहासिक भूमिका है।

हमने ऊपर लघुकथा के जिन तीन रूपों की चर्चा की है, उसके संदर्भ में बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं की परीक्षा अनिवार्य है। बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ मूलतः लघुत्तर लघुकथा के साँचे में ढली हुई हैं, वैसे इन्होंने ‘शोषित को देखकर’ व ‘औरत और कुर्सी’ (बाद में इस रचना का शीर्षक ‘कुर्सी का बयान’ कर दिया गया—बलराम अग्रवाल) जैसी दूसरे दर्जे की भी कुछ कथाएँ लिखी हैं। अग्रवाल जी अपनी लघुकथाओं को, चुटकुला जैसी क्षणिकायें लिखकर लघुकथा को होम्योपैथी गोलियाँ या कैप्सूल बाँटना नहीं चाहते। उनकी लघुकथाओं की रूपाकृति से स्पष्ट होता है कि वे मानकर चलते हैं कि लघुकथा यदि कथा साहित्य की कोई स्वतंत्र विधा है, तो उसमें कहानीपन अवश्य होना चाहिए। बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ एक ओर व्यंजना शक्ति से उत्पन्न व्यंग्य के कई संदर्भ निर्मित करती हैं तो हास्य-व्यंग्य का तेवर और मिजाज भी दर्शाती हैं। यह काम पाठकों, समीक्षकों और आलाचकों का है कि वे उनकी लघुकथाओं का विश्लेषण कर बतावें कि किस दक्षता से वे आज के आदमी, समाज और परिवेश की त्रासदियों, विद्रूपताओं, विसंगतियों और विडम्बनाओं की मनोवैज्ञानिक सचाई की हममें अंतः प्रेरणा जाग्रत करती हैं। वस्तुतः उनकी लघुकथाएँ वर्तमान जीवन की सड़ाँध की तीव्र अनुभूति की स्वयं प्रेरित प्रतिक्रिया हैं, जो हमारे अंतस्‌ में बिजली की कौंध रह-रहकर प्रकट करती हैं और कुछ कर डालने की प्रेरणा देती हैं।

बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ हममें अहसास पैदा कराती हैं कि वे किसी समस्या पर आधारित नहीं हैं। वे वस्तुतः युग-सत्य के स्थिति-चित्र हैं। अग्रवाल जी की दृष्टि यथार्थवादी है। युग की किसी सच्चाई पर उनकी गहन अनुभूति, तीव्र ज्वाला के रूप में कहीं काव्य-सत्य के रूप में प्रकट है तो कहीं देखा-भोगा हुआ यथार्थ लेखक की गहरी संवेदना में डूब जाता है। यही कारण है कि अग्रवाल की लघुकथाओं में संवेदित अनुभूत स्थितियाँ चित्रों-बिम्बों के माध्यम से फूटती हैं। प्रायः हर स्थल पर वे वर्तमान जीवन की त्रासदियों, विसंगतियों, विद्रूपताओं को उकेरते हैं और एक चित्रकार की भाँति उनका रेशा-रेशा अभिव्यक्ति के विविध रंगों में कलम की कूची बनाकर डुबोते-उतारते हैं।

इस प्रसंग में श्री कुलदीप जैन द्वारा संपादित ‘अलाव फूंकते हुए’ में संकलित उनकी लघुकथा ‘ओस’ का मूल्यांकन आवश्यक है। यह लघुकथा अग्रवाल जी की एक ऐसी लघुकथा है, जो उनकी अन्य लघुकथाओं से प्रस्तुतिकला की दृष्टि से अपनी अलग पहचान बनाती है। इसमें एक ओर प्रसाद की कहानियों में प्रयुक्त अमूर्त का मूर्तिकरण और छायावादी और काव्यात्मक चरित्र है तो दूसरी ओर प्रेमचंद की कहानी ‘पूस की रात’ की भयावहता तथा प्रकारान्तर से मार्क्स के असंबद्घतावादी सिद्घान्त का नियोजन है। ‘ओस’ लघुकथा अपनी सम्पूर्ण प्रस्तुति में छायावादी काव्य तत्वों पर आधारित है जिसके कारण बलराम अग्रवाल एक साथ कवि-कहानीकार की भूमिका बखूबी निभाते हैं। एक किस्सागो की भाँति, अपना कवि-व्यक्तित्व सँभाले अग्रवाल जी इस लघुकथा का आरम्भ करते हैं—‘रात्रि की शीत का आभास पाकर सूर्य समय से शायद कुछ पहले ही संध्या के आँचल में छिप जाना चाहता था। शरीर के ताप को चीर देने वाली शीत ने हल्के अंधकार में ही नगर के मकानों के द्वार बन्द कर दिये थे। धीरे-द्हीरे घोर अंधकार नगर की गलियों में बिखर गया। चिंघाड़ती वायु शीत का सहयोग पाकर वृक्षों का सीना चीर देना चाहती थी।” वे इसी काव्यात्मक भाषा में आगे बढ़ते हैं—“नगर से दूर खेतों-खलिहानों के बीच एक पुरानी झोंपड़ी में दीपक की लौ शीत लहर को न झेल पाने के कारण कुछ समय काँपने के पश्चात लुप्त हो गई। खेतों में कहीं दूर कई सियार एक साथ हूके...।” इस काव्यात्मक चित्रमय अभिव्यक्ति के साथ एक कहानी उभरती है कि एक झोंपड़ी में एक वृद्घा फटे-चिटे लिहाफ में लिपटी पड़ी है। इस झोंपड़ी के दरवाजे के समीप एक कोने में बछिया सिर को पेट में और घुसेड़ लेती है। इसी समय एक ठिंगना युवक भागता हुआ झोंपड़ी में पहुँचता है और बछिया से टकरा जाता है। बछिया ‘अम्बा’ की आवाज लगाती है। बुढ़िया जब युवक का परिचय पूछती है तो युवक उसे ‘दादी माँ’ सम्बोधन देकर रात बिता लेने की बात बताता है। कुछ देर बाद बुढ़िया को खाँसी उभरती है। वह टूटती आवाज में ईश्वर से उठाने की प्रार्थना करती है। यह शेष शब्दों को कफ में मिलाकर धरती पर उलट देती है। युवक उससे सो जाने का आग्रह करता है। युवक ठंड के मारे ‘घुटनों को पेट में घुसेड़कर अपन दोनों हाथों के घेरे में’ जकड. लेता है। सुबह होती है। सूर्य की किरणें कपाटहीन झोंपड़ी के दरवाजे पर पड़ती हैं। बुढ़िया के ढेर सारे कफ पर मक्खियाँ भिनभिनाने लगती हैं। युवक रातों-रात बछिया को चुराकर चुपके से भाग जाता है, क्योंकि उसे मालूम हो गया है कि बुढ़िया की मृत्यु हो गई है। बुढ़िया की मृत्यु का संकेत लेखक ने बछिया के चुरा ले जाने की बात कहकर दिया है, क्योंकि अगर बुढ़िया जिन्दा रहती तो बछिया की ‘अम्बा’ आवाज गूँजने लगती! लेखक आगे बताता है कि बुढ़िया की झोंपड़ी पर लताएँ चढ़कर फूल-फल रही हैं। लेखक यहाँ पर एक सूक्ष्म तथ्य को व्यंजित करता है कि बुढ़िया का अपना कोई परिवार नहीं है। तभी तो एक धन्नासेठ बुढ़िया की झोंपड़ी को गिरवी पर लेकर पड़ोसियों को उसकी अरथी सजाने के लिए कुछ पैसे देता है। इसी स्थल पर, प्रकारान्तर से अग्रवाल जी सम्पन्न व्यक्तियों की मानसिक जड़ता, क्रूरता और संवेदनहीनता का संकेत देकर मार्क्सवादी असम्बद्घता के सिद्घान्त (Theory of non-allienment) का व्यावहारिक रूप प्रतिपादित करते हैं। लेखक इस लघुकथा का अंत करते हुए लिखता है—“मोहक कहलाने वाली गुनगुनी किरणें शीत वायु को पीठ पर टिकाकर श्मशान को एक और आगमन का संदेश सुना आईं।”

मैं समझता हूँ, ऐसी संवेदनात्मक शैली का सफल प्रयोग हिन्दी के बहुत ही कम लघुकथाकार कर पाये हैं। स्वयं बलराम अग्रवाल ने अपनी अन्य कथाओं में इसका प्रयोग पुनः नहीं किया है। इस लघुकथा में प्रयुक्त सारे स्थिति-चित्र करुण संवेदना के साथ व्यंग्य की चिंगारियाँ बिखेरते हैं। यदि सावधानी से इस लघुकथा का पाठ किया जाये तो अनुभव होगा कि इसकी संरचना ही गंभीर व्यंग्य के रूप में हुई है। सारे के सारे शब्द-वाक्य रह-रहकर व्यंग्य के तीर छोड़ते हैं। लघुकथाकार ने पड़ोसियों की दीनता को उकेरते हुए, बुढ़िया के अकेलेपन को चित्रित कर पाठकों में करुणा के साथ उत्तेजना पैदा की है। तारीफ की बात है कि लेखक लेखन में कहीं भी भावावेश में नहीं आता, वह केवल गाँव की स्थिति का चित्रण आत्मानुशासन के साथ करता जाता है और हममें उस समाज को फूँक देने का आवेश पैदा करता है जिसमें धन्ना सेठ जैसा क्रूर, ठिंगना जैसा जड़ और पड़ोसियों जैसे असमर्थ व्यक्ति जी भर रहे हैं।

डॉ. किरन चन्द्र शर्मा ने बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं पर टिप्पणी देते हुए लिखा है कि—उनकी कथाएँ तीखी और ठण्डी एक साथ होती हैं।...उनकी लघुकथाओं में तीखापन...आकर बड़े ठण्डे तरीके से काम कर जाता है। डॉ. शर्मा इस ‘अंतर्विरोध’ को बलराम अग्रवाल की शक्ति मानते हैं। वे कहते हैं—“जहाँ बड़े ही ठण्डेपन के साथ कुछ चुभता चला जाय, वहाँ चुभन का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।” डॉ. शर्मा की उक्त स्थापना बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं की प्रवृत्ति और पाठकीय प्रभाव तथा कथाभास की संरचना पर बहुत सटीक बैठती है। वे वस्तुतः लघुकथाओं की संरचना और प्रस्तुति में स्वयं उत्तेजित नहीं होते, पर साहित्य के मर्मज्ञ, सहृदय भावक-वर्ग को उत्तेजित कर देते हैं। वे बड़ी गम्भीर मुद्रा में स्थिति-सत्य को प्रस्तुत कर भावक-वर्ग को जिन्दगी के कड़वे सत्य से परिचित कराकर उनमें उमड़न-घुमड़न पैदा करते हैं। डॉ. शर्मा ने अग्रवाल की लघुकथाओं में जिस ‘चुभन के अनुमान को सहज नहीं होने’ की बात कही है, वह एक महत्वपूर्ण तथ्य का संकेत देती है। वे संभवतः यह बताना चाहते हैं कि श्री अग्रवाल की लघुकथाओं के पाठकीय प्रभाव सहज नहीं होते, वे अनिवार्य सजग पाठ-प्रक्रिया की माँग करते हैं। एक साँस में यदि उनकी लघुकथाओं को पढ़ा जाये तो पाठक को सहजरूप से कुछ भी नहीं मिलेगा, उनकी लघुकथाओं से आरपार गुजरने में बड़ी सतर्कता की अपेक्षा होती है। यही बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं की पठन-मुद्रा है।
[शेष आगामी अंक में………]

बुधवार, 23 नवंबर 2011

जीवन से रस लेती है लघुकथा/ डॉ॰ कमल किशोर गोयनका


[दोस्तो,
1990 में लघुकथाकार कुलदीप जैन ने लघुकथा संकलन ‘अलाव फूँकते हुए’ का संपादन किया था। इसमें उन्होंने जगदीश कश्यप की 26, मेरी यानी बलराम अग्रवाल की, सुकेश साहनी तथा स्वयं अपनी 25-25 लघुकथाएँ संकलित की थी यानी कुल 101 लघुकथाएँ। इसकी भूमिका डॉ॰ किरन चन्द्र शर्मा ने लिखी थी। इसमें संकलित मेरी लघुकथाओं पर डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक का समीक्षात्मक लेख तथा डॉ॰ कमल किशोर गोयनका का समीक्षात्मक पत्र प्राप्त हुआ था। इनमें से डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक के लेख को मैंने अपने पहले लघुकथा संग्रह ‘सरसों के फूल’ में साभार स्थान दिया था। ‘लघुकथा-वार्ता’ के इस अंक में प्रस्तुत है डॉ॰ कमल किशोर गोयनका का पत्र उपयुक्त शीर्षक के साथ।–बलराम अग्रवाल]


29-9-91
जबलपुर
प्रिय भाई,
मैं दो दिन के लिए जबलपुर आया हूँ। कल यहाँ से दिल्ली के लिए चलूँगा। रास्ते में पढ.ने के लिए ‘अलाव फूँकते हुए’ लेता आया था। इस पुस्तक के बारे में मैंने तुम्हें पोस्टकार्ड डाला था और मुझे याद है कि मैंने लिखा था कि तुम्हारी लघुकथाओं के बारे में बाद में लिखूँगा।
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि तुम बुलन्दशहर के हो। मेरी जन्मभूमि भी बुलन्दशहर है। वैसे तो सारा भारत ही अपना देश है, पर इसमें भी अपनी जन्मभूमि, मातृभूमि सबको प्यारी होती है। हमारे शहर में लेखकों की कोई ऐसी परम्परा नहीं है, जिसके कारण तुम लेखक बने हो। यह तुम्हारे अन्दर की बेचैनी, जीवनानुभव तथा उन्हें शब्दों में अभिव्यक्त कर पाने की कुशलता है, जिसने तुम्हें लेखक बनाया है, इस कारण भी मैं, तुम्हें बधाई देता हूँ कि तुमने इस कठिन साधना एवं तपस्या के मार्ग को चुना है। साहित्य साधना का मार्ग है तथा संसार में अन्य सृष्टियों के समान यह भी पीड़ाजनक है। यह एक प्रकार से पीड़ा की साधना है और जिस लेखक की यह साधना जितनी अधिक पीड़ाजनक होगी, उसकी लेखनी से उतने ही प्रभावशाली साहित्य की रचना होगी। मुझे विश्वास है, तुम इस साधना के मार्ग पर चलने का व्रत लेकर आये हो।
लघुकथा पर विगत दो तीन वर्षों में मैंने कुछ लेख आदि लिखे हैं। यद्यपि मेरा कोई लक्ष्य लघुकथा की ओर जाना नहीं था, परन्तु तुम्हारे जैसे कुछ युवा लघुकथाकारों की प्रेरणा से मैंने लघुकथा पर कुछ कहने का दुस्साहस किया है। मैं नहीं जानता कि वह कितना सही है या गलत, पर जैसा मैं सोचता हूँ, उसे मैंने कहने का प्रयत्न किया है। साहित्य में सहमति-असहमति होती है, और वह होनी भी चाहिए, क्योंकि दूसरे के मत के प्रति यदि हम लेखक सहिष्णु नहीं होंगे तो हम फिर समाज से क्या अपेक्षा रख सकते हैं?
लघुकथा एक जीवंत विधा है, क्योंकि वह साक्षात्‌ जीवन से जुड़ी है, जीवन से रस लेती है। लघुकथा और जीवन मुझे कई बार पर्याय लगते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि जिस लघुकथा में मानव-जीवन न हो, उसकी धड़कन न हो, उसकी पीड़ा और आनन्द न हो, उसका पतन और उत्थान न हो, उसका संकल्प और विकल्प न हो, वह लघुकथा नहीं है। लघुकथा को उसकी शब्दसीमा से पहचानने की चेष्टा मुझे अनुचित लगती है, क्योंकि शब्दसीमा, शब्दसंख्या या शब्दों का समूह रचना को रचना नहीं बनाते, बल्कि उन शब्दों में छिपी संजीवनी-शक्ति ही उनमें प्राणों की प्रतिष्ठा करती है। लघुकथा वह ही रचना बन सकती है, जो जीवन की इस प्राणशक्ति को अपने अणु-अणु में समाये हो। लघुकथा एक बहुत ही छोटी विधा है, अतः इसमें संवेदनाओं की सघनता का होना अत्यावश्यक है, क्योंकि लघु तभी प्रभावशाली होगा जब वह घनीभूत होगा, ठोस होगा, सघन होगा। तुलसीदास ने लिखा है कि सूर्य देखने में छोटा है, पर वह ब्रह्मांड का अंधकार दूर करता है। इसी प्रकार छोटा-सा अंकुश हाथी को वश में कर लेता है। मैं लघुकथा को इसी रूप में देखता हूँ और चाहता हूँ कि आधुनिक लघुकथा इस शक्ति को ग्रहण करे और लघु होकर भी गहरा और स्थायी प्रभाव अंकित करे।इस संग्रह में मैंने तुम्हारी लघुकथाएँ पढ़ी हैं और उनसे प्रभावित हुआ हूँ। पहले ‘अलाव के इर्द-गिर्द’ को ही लूँ। यह एक महत्वपूर्ण रचना है। किसान का अपनी जमीन से जो प्रेम है, वह माँ का अपनी संतान के प्रेम से कतई कम नहीं है। जमीन उसका प्राण है और उसका जीवन भी। इस जमीन के सवाल को प्रेमचंद ने ‘रंगभूमि’ में उठाया और ‘गोदान’ में भी। होरी अपनी तीन-चार बीघा जमीन की किले की तरह रक्षा करता है और अन्त में संसार से चला जाता है। प्रेमचंद ने कहा था कि यह जमीन उसकी है जो इसे जोतता है या उसकी, जिसने इसे बनया है, अर्थात्‌ ईश्वर की। आज भी, प्रजातंत्र में, होरी की जमीन को हड़पने वाले चौधरी हैं और हमारा प्रजातंत्र मूक बैठा है। ‘अलाव के इर्दगिर्द’ इसी बड़े यथार्थ को अपनी छोटी काया से अभिव्यक्त करती है। मैं समझता हूँ, इस संग्रह का नाम इस लघुकथा पर रखकर, सम्पादक ने बड़ी समझदारी का काम किया है, पर मेरा यह भी कहना है कि यदि शीर्षक को इसी कहानी नाम दिया जाता तो ज्यादा अच्छा था। यह शीर्षक और यह लघुकथा जीवन का ऐसा सत्य है जो स्वतंत्राता से पूर्व भी सत्य था और आज भी है। मुझे प्रेमचंद की कहानी ‘पूस की रात’ भी याद आती है, जिसमें अलाव के पास ही पूरी कहानी घटित हो जाती है। स्थान-संकोच की यह स्थिति कहानी को घनीभूत संवेदना से परिपूर्ण बनाती है और लघुकथा के लिए तो यह अनिवार्य स्थिति है। लघुकथा का रंगमंच जितना केन्द्रीभूत होता है, जितना सीमित और अपरिवर्तनीय होता है, उतनी ही रचना प्रभावान्विति से समृद्घ होती है। ‘अलाव के इर्द-गिर्द’ अर्थात्‌ अलाव के इर्द-गिर्द जो जीवन है, जो सुख-दुःख है, जो अस्तित्व का संकट है, वह अलाव फूँकने से बहुत ज्यादा बड़ा है। देश का छोटा किसान उसी प्रकार अस्तित्व के संकट से घिरा है, जैसे होरी घिरा था। परतंत्रता में होरी मरते दम तक अपनी जमीन को छाती से लगाकर चिपकाये रहा, परन्तु स्वतंत्रता के बाद के होरी, मिसरी, बदरू, श्यामा आदि सभी हाथ से फिसलती जमीन को बचा नहीं सकेंगे। अब प्रजातंत्र ही उनका शत्रुु है और वे पहले की तरह असंगठित भी हैं। बदरू आखिर में अलाव के इर्द-गिर्द पड़ी बिखरी डंडियों, तीलियों को उसमें झोंकता है, अर्थात्‌ वह सभी कुछ को, अपने शत्रुओं को अग्नि में झोंकने का प्रतीकात्मक अर्थ देता है, परन्तु यह लेखक का मन्तव्य है, बदरू का नहीं, क्योंकि वह जो करता है, वह साधारण कर्म है, किसान आसपास की डंडियों को इसी प्रकार अलाव में डालकर उसमें आग को बनाये रखते हैं, परन्तु लेखक बदरू नहीं है, वह लेखक है और उसका अभिप्रेत है कि अलाव की आग को जिन्दा रखना है, इसकी ज्वाला को प्रज्ज्वलित रखना है, सम्भवतः इस व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए अलाव की इस आग की आवश्यकता पड.े।
तुम्हारी कुछ लघुकथाएँ राजनेता, राजनीतिक भ्रष्टाचार तथा प्रजातंत्र की अप्रजातांत्रिक प्रवृत्तियों पर हैं। उनमें से कुछ में मौलिकता है और वे प्रभावित करती हैं। कुछ लघुकथाओं में अमानवीयता का उद्‌घाटन है, परन्तु कहीं-कहीं मानवीयता का उभरता चित्र भी है। कहीं हताशा भी है, जैसे, ‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु’; पर, कहीं हताशा के बीच से जन्म लेती जीवटता है, दृढ़ता है, और अन्याय का सामना करने का साहस है। ‘जुबैदा’ की कहानी यही है। इसका नेरेटर कहता है, “...दुविधा और विषाद मौत के ही दूसरे नाम हैं। संघर्ष ही सच है जुबैदा।” जुबैदा शाहबानू की प्रतीक है, जिसने वृद्घावस्था में सर्वोच्च न्यायालय तक पति के विरुद्घ मुकदमा लड़ा। वह जीती, परन्तु हमारी सरकार ने उसे हरा दिया; वैसे ही, जैसे यहाँ नेरेटर संघर्ष की कामना के बावजूद जुबैदा के मिलने पर उसका साथ देने को तैयार नहीं होता। दुर्भाग्य यही है कि शाहबानू हो या जुबैदा, वह अन्याय के संघर्ष में अकेली है। बातों में लोग उसके साथ हैं, पर मैदान में वह अकेली है। वह अभिमन्यु की तरह अकेली है और अन्यायी शक्तियों से घिरी है। जब अभिमन्यु जैसा योद्घा न बचा तो जुबैदा क्या कर पायेगी?
मैं एक लघुकथा ‘गोभोजन कथा’ पर भी कुछ कहना चाहता हूँ। इस लघुकथा में मानवीयता का स्पर्श है। इसका संदेश मानवता का संदेश है और साथ ही तुमने गाय और मनुष्य में से मनुष्य को चुनने का विचार रखा है, जो इससे पूर्व भी कई लेखकों तथा विचारकों के द्वारा रखा जाता रहा है। पशुहत्या और मनुष्यहत्या में से पहले मनुष्य की रक्षा की बात तो मैं समझ सकता हूँ, लेकिन गर्भिर्णी गाय और स्त्रीी के गर्भ में पलने वाले बच्चे का सवाल है तो क्या दोनों की रक्षा नहीं होनी चाहिए? नये ज्ञान-विज्ञान ने हमें समझा दिया है कि मनुष्य और प्रकृति एक-दूसरे के पूरक हैं। मनुष्य को यदि जीवित रहना है तो प्रकृति का सम्पूर्ण परिवेश बनाये रखना होगा और यहाँ तो गाय के बच्चे की रक्षा का प्रश्न है, जिसे जीवित रखकर ही हम स्त्री के गर्भ में पलने वाले बच्चे को जीवनदान दे सकते हैं। तुमने लघुकथा में यदि एक चुटकी आटा ही गाय के सम्मुख डलवा दिया होता तो लघुकथा की ऊँचाई और बढ. गयी होती। मानवीयता की किरण जितनी दिशाओं में जा सके तथा जितने व्यापक जीवन को प्रकाशित कर सके, उतना ही अच्छा है; क्योंकि लेखक, चाहे वह लघुकथाकार हो, मानवता का साधक और गायक होता है। मानवता की सिद्घि ही उसके लेखकीय कर्म की सिद्घि है।
पत्र लम्बा हो गया है और मुझे स्टेशन की ओर भागना है। 2॰35 पर ‘महाकौशल एक्सप्रेस’ पकड़नी है। मैं तुम्हारी कुछ-और लघुकथाओं पर भी चर्चा करना चाहता था तथा कुलदीप जैन एवं सुकेश साहनी की रचनात्मकता पर भी लिखना चाहता था, परन्तु मैंने कलम न रोकी तो रेल छूट जायेगी। अतः यह काम भविष्य के लिए छोड़ता हूँ।
पत्र की प्राप्ति की सूचना देना।
आशा है, सानंद होंगे।
तुम्हारा
कमल किशोर गोयनका

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

सार्थक और सहज लघुकथाओं की सृजनशीलता / डॉ. किरन चन्द्र शर्मा

[ दोस्तो, लघुकथा-वार्ता के इस अंक में प्रस्तुत है मेरे प्रथम लघुकथा-संग्रह ‘सरसों के फूल’ पर डॉ॰ किरनचन्द्र शर्मा द्वारा लिखित समीक्षात्मक आलेख।]

जीवन में जैसे सभी कुछ सहज और स्वाभाविक नहीं होता ठीक वैसे ही हर सहज स्वाभाविक सदैव सार्थक नहीं होता। रचना के स्तर पर यही पहचान लेखकीय सृजनशीलता को जन्म देती है, देती रही है। जितनी और जैसी पहचान रचनाकार को इस सत्य की होगी, उसकी सृजनशीलता उनती ही सार्थक और सहज एक साथ होगी। प्रश्न उठता है कि वह स्वाभाविकता क्या है जो सार्थक भी हो और सहज भी? इसी प्रश्न का साहित्यधर्मी रूप यह हो सकता है कि सृजनशीलता, सहजता क्या है? या फिर, हमारे जीवन में ऐसा क्या है जिसे सृजनशील समझा जा सके; या, ऐसा क्या है जो सृजनशील नहीं है?

मुझे अपनी बात इस नकार से ही आरम्भ करनी है। यदि जीवन को हम एक चुनौती मानकर चलते हैं तो सृजनशीलता भी एक चुनौती है। चुनौती हमेशा ही सार्थक के साथ-साथ सहज भी होती है। जो सहज है परन्तु सार्थक नहीं, सामान्य है—वह चुनौती नहीं हो सकता। एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करूँ तो, मनुष्य के रूप में पैदा होना एक सहजता है और केवल सहजता है।
इसमें कहीं भी कोई ध्वनि नहीं है कि मनुष्य के रूप में पैदा होना कोई सार्थक प्रक्रिया है, और चूंकि सार्थक प्रक्रिया नहीं है इसलिए यह चुनौती भी नहीं है, किन्तु मनुष्य बनना अथवा होना एक चुनौती है, और यह चूंकि चुनौती है इसलिए सार्थक और सहज दोनों एक साथ है। अतः वह जीवन-प्रक्रिया जो तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी सहज रूप से इस चुनौती को स्वीकारती है कि व्यक्ति मानवजाति के हित में मनुष्य बनने की निरन्तर प्रक्रिया में बना रहे—वही सार्थक है, और चूंकि वह सार्थक और सहज दोनों है इसलिए वही सही सृजनशीलता भी है। सम्भवतः अब मुझे और स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है कि जो सार्थक है, वह सहज और स्वाभाविक होते हुए भी आवश्यक रूप से सृजनशीलता नहीं है। इसलिए रचना का रचा जाना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है रचनाकार का सृजनशीलता से सही-सही परिचय होना। यानी कि उसका रचना के माध्यम से सार्थक और सहज की अभिव्यक्ति दे पाने में सक्षम होना। यह अभिव्यक्ति एक क्षण की भी हो सकती है और एक लम्बे कालखण्ड में जिये गये जीवनपक्ष की भी।
इसी तरह, यह एक व्यक्ति की भी हो सकती है और एक परिवार, समाज, समुदाय या राष्ट्र की भी। बलराम अग्रवाल की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उसे इस सृजनशीलता की पहचान है। उसकी अनेक लघुकथाएँ जो मेरे सामने बिखरी पड़ी हैं— सृजनशीलता की इस सहज पहचान से ही सर्जित हैं। इसलिए वे सार्थक और सहज एक साथ हैं। इस तरह का रचनाकार आदर्श के लिए भी सहज और स्वाभाविक वातावरण की तलाश में रहता है।
अपनी बात को मैं उसकी दो लघुकथाओं को समानान्तर/समीप रखकर स्पष्ट करूँगा कि सृजनशीलता की उसकी पहचान कहाँ और कैसे सहज रचना-प्रक्रिया में ढल जाती है। इनमें से पहली लघुकथा है—‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु’ और दूसरी—‘गोभोजन कथा’। इन दोनों लघुकथाओं का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर स्पष्ट हो जाता है कि दोनों की जीवन-पद्घति और धरातल एक नहीं हैं, पर दोनों में एक चुनौती है और वही चुनौती सृजनशीलता को जन्म देती है। ‘...जटायु’ में तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी दूसरे के दुःख से दुःखी हो उठना मानव बनने की रचना-प्रक्रिया को जन्म देता है। यह सच है कि अकेला जटायु रावणवत्‌ इतने राक्षसों से दीर्घ समय तक नहीं लड़ सकता; लेकिन अमानवीय कृत्यों के खिलाफ उठ खड़ा होना, लड़ना—यह उसका चरित्र है। लड़ने से पहले या लड़ते हुए, वह कभी भी हताश नहीं होता, पर लड़ाई हार जाने पर जो दर्द उसे होता है वह सालता है; साथ ही पूरे के पूरे समाज के सामने एक सार्थक चुनौती प्रस्तुत करता है कि मनुष्यता को अगर बचाना है या तमाम वहशीपन के खिलाफ यदि सकारात्मक लड़ाई लड़नी है, तो जटायु के साथ जुटना ही होगा। उसे इस अकेले लड़ते जाने से मुक्ति दिलानी ही होगी। यह सारी की सारी बात इस लघुकथा में एक सहज और स्वाभाविक रचना-प्रक्रिया के तहत यथार्थ की भूमि पर घटती है और उसी सहजता के साथ अभिव्यक्ति भी पाती है। इस तरह वस्तु, शिल्प और रचना-प्रक्रिया तीनों एकात्मरूप से इस रचना का निर्माण करते हैं। देखें—‘मर मिटने का तिलभर भी माद्‌दा तुम अपने अन्दर संजोते तो लड़की बच जाती... और गुण्डे...’ कहती, मेरे मुँह पर थूकती... थू थू करती आँखें। उफ्‌।”
इससे बड़ी और सार्थक सृजनशीलता क्या होगी कि वह एक सार्थक और सहज हलचल पैदा कर दे।
यथार्थ की इस भूमि से बिल्कुल विपरीत भूमि है ‘गोभोजन कथा’ की। आदर्शोन्मुख भूमि। रचनाकार यहाँ सहज यथार्थ का इस्तेमाल न कर सहज मनोभावों का इस्तेमाल करता है। बच्चा पाने की अभिलाषा में गाय को (लघुकथा में गर्भिणी गाय) आटा खिलाने का उपक्रम एक पारम्परिक मानसिक भाव है जो एक मनोभाव प्रेरित कर्म को जन्म देता है। वर्षों का यह संस्कार उस समय एकदम डगमगा जाता है जब कथानायिका माधुरी गाय को खिलाने के लिए लाया गया आटा गाय के स्थान पर बशीर की गर्भिणी किन्तु भूखी और असहाय विधवा को दे देती है। कहा जा सकता है कि यह एक विचाराधारात्मक आदर्श की स्थापना है जो यथार्थ पर चोट करता है, और चूंकि यथार्थ पर चोट करता है तो सहजता पर भी चोट होती है, भले ही वह कितनी भी सार्थक क्यों न हो। लेकिन, इस लघुकथा की सहजता दूसरी है। वह एक संस्कार पर दूसरे संस्कार का आघात है। गाय के स्थान पर विधवा, वह भी विजातीय/विधर्मी, की मदद करना विचारधारा से प्रेरित कर्म न होकर तत्कालीन यथार्थ से प्रेरित होकर एक संस्कार पर दूसरे संस्कार का आघात है। ज्योतिषी ने कहा है कि गर्भिणी गाय को खिलाने से उसकी कोख हरी हो सकती है। यह एक तरह का पारम्परिक संस्कार है जो उसे इस कार्य के लिए विवश करता है लेकिन यहीं एक दूसरे तरह का संस्कार बशीर की गर्भिणी विधवा को देखकर सक्रिय हो उठता है जो पहले संस्कार पर अधिक शक्ति से प्रहार करता है। एक तरह से मानवता के प्रति दयावान होना एक खास तरह के करुणाजनक संस्कार को जन्म देता है जो निजी और स्वार्थपूर्ण संस्कारों पर आज तक हर तरीके से भारी पड़ता है। इस दूसरे आघात का परिणाम निश्चय ही व्यापक और अधिक मानवीय है। सामाजिक स्तर पर व्यक्ति हमेशा ही मानवीयता का पक्षधर रहा है, इसलिए अनिश्चित परिणामवाला स्वार्थ तिरोहित होकर निश्चित परिणामवाला संस्कार बन जाता है। इस तरह इस लघुकथा की रचना-प्रक्रिया एक सहज और सार्थक सृजन को जन्म देती है।
इन दोनों ही लघुकथाओं के विश्लेषण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि बलराम अग्रवाल में सृजनशीलता की पहचान है जो उससे रचना करवाती है। यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ कि जब मैं यह कह रहा हूँ कि जीवन में सार्थक सहजता ही रचनाधर्मिता को जन्म देती है अथवा देती रही है तो इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि सहजता और स्वाभाविकता मात्रा निरर्थक होती हैं। सहजता और स्वाभाविकता जीवन का गुण-धर्म हैं और वह रचना में भी उसी तरह सहायक होता है जिस तरह जीवन में; किन्तु सृजनशीलता का कारण महज सहजता और स्वाभाविक नहीं हो सकतीं। अपनी बात को और स्पष्ट करने के लिए उनके संग्रह ‘सरसों के फूल’ की दो अन्य लघुकथाओं 'गाँठ’ और ‘गुलमोहर’ को लेता हूँ।
किसी भी समय ‘गाँठ’ का लग जाना एक अनायास क्रिया है, किन्तु ध्वजारोहण जैसे संवेदनशील अवसर विशेष पर गाँठ का लग जाना, वह भी इस तरह कि  खुलने में ही न आए—रचनाकार की सार्थक उपस्थिति को प्रकट करता है। इतना ही नहीं, मिनिस्टर की चापलूसी के लिए उसी व्यक्ति को पीछे धकेल देना जिसे उस गाँठ को पाने की दक्षता प्राप्त थी—इस सार्थक उपस्थिति को और व्यापक और गहरा बना है। तत्पश्चात्‌ दोषी मानकर उसी व्यक्ति  का निलम्बन तथा उसी का गाँठ खोलने के लिए आमन्त्रण! यह उपस्थिति अर्थ की अनेक परतों को खोलती-सी प्रकट होती है। इस तरह सृजनशीलता परत-दर-परत सार्थक होती चली जाती है। दूसरी लघुकथा ‘गुलमोहर’ भी लगभग उसी भावभूमि की लघुकथा है। आजादी की लड़ाई में बागी करार दिये गये देशभक्त द्वारा गुलमोहर का एक पौधा जतनबाबू के बंगले के बाहर लॉन में रोप दिया जाता है। आज़ादी पा लेने के उपरान्त जतन बाबू दिन-रात उस पौधे की  देखभाल करते हैं और प्रतीक्षा करते हैं कि हरे-भरे इस वृक्ष पर फूल क्यों नहीं लग रहे? यहाँ सहज और सार्थक की प्रक्रिया में अनेक अर्थ एक-साथ फूटते-से दिखाई देते हैं। चाहकर पालने-पोसने पर भी आजादी का यह पेड़ कोई फूल क्यों नहीं देता? यही प्रश्न इस लघुकथा को सहज और सार्थक एक-साथ बना देता है। इस तरह की अनेक लघुकथाएँ इस संग्रह में हैं जो लघुकथा की सृजनशीलता की सार्थक अभिव्यक्ति कही जा सकती है।
मेरी बात अधूरी ही रहेगी यदि मैं यहाँ वर्तमान स्थिति को उजागर करने वाली सर्वाधिक सशक्त लघुकथा ‘अलाव के इर्द-गिर्द’ की चर्चा नहीं करता। यह लघुकथा, लघुकथा के विधान और सही सहज सृजनशीलता दोनों को एक-साथ दर्शाती है। ‘अलाव’ गाँव और गरीबी से जुड़ा शब्द है।  एक तरह से, जहाँ यह लघुकथा समाप्त होती है, वहाँ से ही यह सारा संकलन अपनी व्यापकता और विकीर्णता ग्रहण करता दिखाई देता है। यानी हम गाँव के अलाव के इर्द-गिर्द से शुरू होकर उस व्यापक अलाव की ओर अनजाने ही बढ़ने लगते हैं  जिसमें हमारा घर, हमारा पड़ोस, हमारा गाँव, हमारा शहरऔर हमारा देश सभी कुछ जल रहा है और हम उसके केवल इर्द-गिर्द बतियाते चले जा रहे हैं, बस।  कितनी बड़ी विवशता के बीच जी रहे हैं हम कि सब-कुछ जलता देखकर भी उसके इर्द-गिर्द इकट्‌ठा-भर होने में अपनी सार्थकता मान लेते हैं और निरन्तर चलता रहता है यह सिलसिला—मुझे (और शायद सभी को) कई सारे कुछ मुद्‌दे इसी सिलसिले में से ढूँढने हैं। यहीं आकर यह भी लगने लगता है कि बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ तीखीऔर ठंडी एक-साथ होती हैं। ‘अलाव के इर्द-गिर्द’ से ही यह भी पता  चलता है कि उनकी लघुकथाओं में तीखापन कहाँ जाकर अपना काम कर जाता है ! हालांकि यह परस्पर विरोधी बात लगती है, पर यह विरोध रचनाधर्मिता को और पुष्ट करता है। दरअसल, जो अलाव जलाया है बदरू ने, मिस री उसे धीरे-धीरे कुरेदता हुआ अपनी आँच से फूँक देता है। बात ‘सुराज’ से शुरू होकर ‘पिर्जातन्त’ तथा ‘कोट-कचहरी’ से होती हुई ‘न्याय-व्यवस्था’ पर पहुँचती है और वहाँ से सीधे खेत सींचते हुए श्यामा से जुड़कर चौधरी पर ठहर जाती है। एक क्षण को ऐसा लगता है कि रचना चौधरी पर आकर ठहर गयी है और यहीं ‘अलाव’ की आँच धीमी पड़ने लगती है, पर मिसरी फिर फूँक मारकर उसे दहका देता है। व्यक्तिगत अनुभव  के  दायरे में सभी-कुछ समेटता हुआ यह कथाकार भिन्न-भिन्न और व्यापक आयाम दर्शाता हुआ चलता है। मजेदार बात यह है कि जहाँ लगता है कि अलाव बुझ रहा है, वहाँ वह धीरे से उसे कुरेदता हुआ पुनः उसमें फूँक मारने लगता है। इसीलिए जिस अन्तर्विरोध की बात मैंने ऊपर कही थी  कि इनकी लघुकथाएँ तीखी और ठंडी एक साथ हैं—वही अन्तर्विरोध इसलघुकथा-लेखक की शक्ति बन जाता है। जहाँ बड़े ही ठंडेपन के  साथ कुछ चुभता चला  जाए वहाँ उस चुभन की गहराई का अनुमान सहज ही नहीं लगाया जा सकता। बलराम अग्रवाल के कथाकार की यह विशेषता उसकी अन्य कई लघुकथाओं में भी व्यक्त हुई है—‘बदलेराम कौन है’, ‘युद्धखोर मुर्दे’, 'जुबैदा’, ‘कलम के खरीदार’ जैसी तेज चुभन वाली लघुकथाओं में भी उसका वह ठंडापन सहज ही हमें आकर्षित करता है। फिर, ‘तीसरा पासा’, ‘अन्तिम संस्कार’, ‘नया नारा’, ‘अज्ञात गमन’, ‘गुलाम युग’, ‘पुश्तैनी गाम’ जैसी लघुकथाएँ तो हैं ही इस पद्धति पर रची हुई।
इस तरह से बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ मात्र लेखन तक सीमित नहीं रह जातीं वरन्‌ लघुकथा की सृजनशीलता का एक उदाहरण हमारे  सामने प्रस्तुत करती हैं।
[नोट : समीक्षक डॉ॰ किरन चन्द्र शर्मा दिल्ली विश्वविद्यालय के अंतर्गत खालसा कॉलेज (सांध्य) में हिन्दी विभागाध्यक्ष थे। अब स्वर्गीय।]
('सहकार संचय' जनवरी 1998; सम्पादक:राधाचरण विद्यार्थी, पृष्ठ 52-54)