बुधवार, 27 दिसंबर 2017

डॉ॰ अनिल शूर ‘आजाद’ एवं श्रीमती इंदु वर्मा का डॉ॰ बलराम अग्रवाल से पत्र-साक्षात्कार

        हमारा काम ईमानदारी से लेखन करना हैबलराम अग्रवाल 
डॉ॰ अनिल शूर ‘आजाद’
श्रीमती इंदु वर्मा
डॉ॰ अनिल शूर आज़ाद और श्रीमती इंदु वर्मा की ओर से  संयुक्त रूप से मोबाइल मैसेंजर पर दिनांक 24-12-2017 को  निम्न सवाल भेजे गए थे। प्रस्तुत हैं उक्त सभी सवाल मेरे द्वारा उन्हें भेजे गये  जवाबों के साथ               — बलराम अग्रवाल

    01-   आपने लिखना कैसे और कब आरम्भ किया था?
मेरे साथ हुआ यह कि लिखना मैंने शुरू नहीं किया, बल्कि लिखना कक्षा सात में एकाएक शुरू हो गया। कबीर, रहीम के दोहों जैसा कुछ। उन्हें मैं रद्द कागज की पट्टियों पर लिखता और पिताजी के डर से फाड़कर फेंक देता क्योंकि कोर्स की किताबों के अलावा कुछ भी पढ़ना-लिखना वाहियात काम माना जाता था।
     02-   आपने किन-किन विधाओं में लिखा है तथा कृपया अपनी प्रमुख पुस्तकों की जानकारी भी दीजिए।
लिखना तो कविता से शुरू किया था। फिर लेख, समीक्षा, लघुकथा, कहानी, आलोचना, अनुवाद, संपादनसबसे जुड़ाव रहा। कहानी और लघुकथा के संदर्भ में—1॰ सरसों के फूल (1994, लघुकथा संग्रह) 2॰ ज़ुबैदा (2004, लघुकथा संग्रह)  3॰ चन्ना चरनदास (2004, कहानी-लघुकथा संग्रह)  4॰ पीले पंखोंवाली तितलियाँ (2014, लघुकथा संग्रह)  5॰ खुले पंजोंवाली चील (2016, कहानी संग्रह) 6॰ हिन्दी लघुकथा का मनोविज्ञान (आलोचना पुस्तक)।
     03-   मौलिक लेखन के अतिरिक्त क्या आपने सम्पादन-कार्य भी किया है? कृपया इसपर भी संक्षेप में ही सही, कुछ बताइए।
1972 में ‘मिनीयुग’ के प्रकाशन की शुरुआत से ही उससे जुड़ गया था और 1989 तक जुड़ा रहा। 1976 में बुलन्दशहर से ‘दैनिक बरन दूत’ समाचार पत्र की शुरुआत हुई तो उसके संपादन से जुड़ गया। 1993 से 1996 तक त्रैमासिकवर्तमान जनगाथाका संपादन/प्रकाशन किया। 2014 में ‘शोध समालोचन’ नाम की पत्रिका के संपादन से जुड़ा। 1997 से आज तक हिन्दी साहित्य कला परिषद, पोर्ट ब्लेअर की अर्द्धवार्षिक हिन्दी पत्रिका ‘द्वीप लहरी’ को संपादन सहयोग दे रहा हूँ। उसके लिए 2 लघुकथा विशेषांक, 2 बाल साहित्य अंक, 1857 की 150वीं वर्षगांठ पर 2007 में विशेषांक का अतिथि संपादन का दायित्व निर्वाह किया। इस पत्रिका के कुछेक अंक लघुकथा-बहुल, बाल साहित्य बहुल और कहानी बहुल भी संपादित किए। प्रेमचंद, प्रसाद, शरदचन्द्र, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बालशौरि रेड्डी की कहानियों के दो दर्जन के करीब सकलनों का संपादन किया। ‘साहित्य अमृत’ के जनवरी 2017 में प्रकाशित लघुकथा विशेषांक के लिए सामग्री उपलब्ध कराईं। ‘पड़ाव और पड़ताल खण्ड-2’ (लघुकथा रचना व आलोचना पुस्तक)  ‘समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद’ (आलोचना पुस्तक) का संपादन।   
     04-   लम्बे समय से आप साहित्य-साधना में जुटे हैं।आपके लेखन को कई सम्मान/पुरस्कार आदि मिले होंगे। कृपया इस बाबत भी कुछ प्रकाश डालें।
सम्मान-पुरस्कार मिले हैं, लेकिन उन सबका कभी लेखा नहीं रखा।
    05-   जहां तक हमारी जानकारी है 'लघुकथा विधा' के प्रति भी आपका गहन रुझान रहा है। कृपया इस बाबत आपके लेखन-सम्पादन एवं अन्य गतिविधियों/उपलब्धियों को भी तनिक शेयर करें।
लघुकथा के प्रति रुझान दिनों-दिन बढ़ रहा है। अतिथि संपादक के रूप में नाम न दिया जाने के बारे में स्पष्ट जान लेने के बावजूद ‘साहित्य अमृत’ के लघुकथा विशेषांक, जनवरी 2017 के लिए सामग्री जुटाकर देना इस रुझान का ही परिणाम था। अनेक बार अनेक तरह की आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ता है, लेकिन हम हतोत्साहित नहीं होते हैं। इस बारे में इस बात पर विश्वास करते है कि ‘आलोचना काम करने वालों की ही हुआ करती है। निठल्लों पर कोई क्या तंज कसेगा और क्यों?’ लेखन से मिली सबसे बड़ी उपलब्धि तो यह है कि इसकी बदौलत दोस्त बहुत अच्छे-अच्छे मिले हैं।
     06-   आधुनिक हिंदी-लघुकथा का आरम्भ आप कब से मानते हैं.. छठा, सातवां या आठवां दशक से अथवा कोई अन्य?
‘आधुनिक हिन्दी लघुकथा’ का आरम्भ-बिंदु सभी एकमत से 1971 को मानते हैं, हम भी। इसमें समझने और स्वीकार करने की बात यह है कि विधाएँ यथावत् शुरू होने से कुछ समय पहले ही अपने आगमन की आहट देना शुरू कर देती हैं और उनके परिपक्व होने की प्रक्रिया भी बाद के अनेक वर्षों तक जारी रहती है। आधुनिक लघुकथा के साथ भी वैसा ही है।
    07-   लघुकथा के आकार को लेकर बहस की स्थिति सदैव रही है, लघुवादी-लघुकथा जैसे आंदोलन तक चले हैं। आप आदर्श लघुकथा की शब्दसीमा क्या मानते हैं?
आधिकारिक रुप से ‘कहानी’ की शब्द-सीमा आज तक तय नहीं हुई। न इस ओर, न उस ओर। यानी ‘कहानी’ में कम से कम कितने शब्द हों; या अधिक से अधिक कितने, ताकि वह ‘उपन्यास’ से अलग नजर आए; यह तय करने की जरूरत किसी ने महसूस नहीं की। दरअसल, जरूरत कभी समझी ही नहीं गयी। आठवें दशक में लघुकथा आंदोलन की शुरुआत से पहले ‘लघुकथा’ की भी शब्द-सीमा की बात कभी चली हो, मुझे ज्ञान नहीं है। मेरा सोचना है कि कथ्य की संवेदनात्मक घनीभूतता और अपनाया गया शिल्प उसका आकार जो भी तय कर दें, वहाँ तक रचना को जाने देना चाहिए। इस प्रक्रिया में वस्तुत: वह स्वयं ही यथेष्ट आकार ग्रहण कर लेती है। मैं स्वयं इसी नियम को अपनाता हूँ। लघुवादी-लघुकथा आंदोलन के बारे में आज पहली बार सुन रहा हूँ। अनेक मित्र मेरी कुछ रचनाओं को ‘लघुकथा’ मानने में संकोच करते हैं। किया करें। मैं अपने आपको ‘लघु’ के प्रति उतना समर्पित महसूस नहीं करता, जितना ‘कथा’ को उसकी पूर्णता में प्रस्तुत करने की ओर सचेत रहता हूँ… संवेदना को उसकी पूर्ण तीक्ष्णता में प्रस्तुत करने के प्रति  अपने आप को अधिक जिम्मेदार महसूस करता हूँ।
     08-   कृपया स्प्ष्ट करें कि बोधकथा/संस्मरण/कहानी/व्यंग्य आदि से लघुकथा किस तरह भिन्न है?
पूर्वकालीन लघुकथा बोधकथा या उपदेश कथा से अधिक भिन्न नहीं है। यहाँ तक कि वह चुटकुले और कतिपय हास-परिहास से भी बहुत भिन्न नजर नहीं आती है। भिन्न होती तो आज की लघुकथा को हम ‘आधुनिक’ या ‘समकालीन’ लघुकथा न कह रहे होते। संस्मरण मूलत: कथापरक विधा नहीं है। कहानी और लघुकथा में संवेदना की समानता हो सकती है और कई बार उनका आकार ही समान हो सकता है। फिर अन्तर क्या है? यहाँ अन्तर है—भाषा और शिल्प का। जहाँ आकार की समानता न हो वहाँ हम देखते हैं कि कहानी का विस्तार फलक बाहरी यानी स्थूलत; भी विस्तृत होता है; जबकि लघुकथा का विस्तार भीतरी यानी सूक्ष्म होता है। एक रचना के रूप में व्यंग्य तथा एक अवयव के रूप में लघुकथा में प्रयुक्त व्यंग्य के बीच वही अन्तर है जो थैलीभर नमक और खाने की किसी वस्तु में स्वादानुसार प्रयुक्त नमक के बीच होता है। हरिशंकर परसाई व्यंग्य को कथन में तीक्ष्णता लाने वाला एक अवयव ही मानते थे; लेकिन प्रोन्नत होकर व्यंग्य ने आज ‘थैलीभर’ होने का रूप धारण कर लिया है। व्यंग्य नामक अवयव से युक्त होकर लघुकथा की प्रभावशीलता में नि:संदेह गुणात्मक परिवर्तन देखने को मिलता है।
     09-   लघुकथा में 'कालदोष' क्या बला है?
‘कालदोष’ को आपने सवाल में ही ‘बला’ कहकर कुछ लघुकथा-मनीषियों की स्थिति को और इससे जुड़े अपनी धारणा को भी स्पष्ट कर दिया है; अब मैं क्या कहूँ?
10- आत्मकथात्मक शैली की रचना अर्थात जिसमें लेखक स्वयं भी 'एक पात्र' होता है… किस सीमा तक स्वीकार्य हैं।
यह कहना गलत है कि आत्मकथात्मक शैली में लेखक स्वयं भी एक पात्र होता है। कथा में ‘मैं’ पात्र से तात्पर्य लेखक स्वयं कतई नहीं है। जहाँ तक लेखक के स्वयं पात्र होने की बात है, पात्र का कोई नाम रखने के बावजूद वह स्वयं पात्र की तरह व्यवहार कर सकता है जो कि शैल्पिक कमजोरी ही अधिक मानी जाएगी। सुदृढ़ शिल्प वाली लघुकथा में ‘मैं’ पात्र पाठक में अपनत्व का भाव जगाकर अधिक जुड़ाव का अहसास दिलाने वाला महसूस हो सकता है।
11- विशेषतया लघुकथा के विधागत विकास में 'सोशल मीडिया' की भूमिका पर आप क्या कहना चाहेंगे?
किसी भी विकास में या ह्रास में ‘सोशल मीडिया’ स्वयं कोई भूमिका नहीं निभाता। वह तो कठपुतली है। विकास या ह्रास उन हाथों और मस्तिष्कों की नीयत और क्षमता पर निर्भर करता है जो सोशल मीडिया पर किसी भी विधा को चला रहे हैं। लघुकथा पर भी यही बात लागू होती है। सोशल मीडिया पर इसको विकसित  और परिष्कृत करने वाले तथा इसका बंटाढार करने वाले, दोनों स्तर के हाथ और मस्तिष्क कार्यरत हैं और वे सब के सब लघुकथा के (और अपने भी) विकास का उद्देश्य लेकर ही कार्यरत हैं।
12- देखने में आता है कि जुम्मा-जुम्मा चार दिन की हुई इस विधा में खेमेबाजी की खींचतान, अपना/अपनों का महिमामंडन करने तथा अन्यों की निंदा/उपेक्षा करने जैसी हरकतें फिर बढ़ने लगी हैं। इसका विधा पर क्या असर पड़ता है/पड़ सकता है?
जिस ‘आधुनिक लघुकथा’ की शुरुआत हम अब से 47-48 साल पहले हुई मान रहे हों, उसे ‘जुम्मा-जुम्मा चार दिन की विधा’ मानना मेरे लिए संभव नहीं है। परस्पर खींचतान हो तो विकास नि:संदेह अवरुद्ध होता है; लेकिन समर्पित लेखक हर अवरोध के बावजूद जुटे हुए हैं, जुटे रहेंगे।
13- आपको क्या लगता है कहानी, उपन्यास, नाटक या एकांकी की तरह कभी 'लघुकथा' भी अपना सम्मानित स्थान बनाने में सफल हो पाएगी? हां तो..कब तक?
रचना विधाओं का क्रम नाटक, उपन्यास, कहानी, एकांकी बनता है। इनमें नाटक, उपन्यास और कहानी हमें पैतृक संपत्ति की तरह मिले हैं। ‘एकांकी’ को तब के रचनाकारों ने पनपाया और उसकी स्थापना के लिए परंपरावादी नाट्य-आलोचकों से कड़ा संघर्ष किया। ‘लघुकथा’ का आकार हमें पैतृक संपत्ति के रूप में मिला है, बाकी सब इस काल के कथाकारों ने श्रमपूर्वक निर्मित और परिवर्द्धित किया है। इस नवनिर्मित और परिवर्द्धित नए भवन की वास्तुगत स्वीकृति में वे सब बाधाएँ आनी स्वाभाविक हैं जो किसी समय उपन्यास के समक्ष आने पर कहानी के और नाटक के समक्ष आने पर एकांकी के सामने आ खड़ी हुई थीं। हमारा काम ईमानदारी से लेखन करना है। किसी भी विधा की सर्व-स्वीकृति का रास्ता स्तरीय लेखन से होकर गुजरता है, मात्र महत्वाकांक्षी होने से नहीं।
14- लेखन सम्बन्धी आपकी भावी योजनाओं की भी कुछ जानकारी दीजिए।
कार्यरूप में परिणत होने से पहले हर योजना वायवीय है, दिवास्वप्न है। इसलिए घोषित रूप से कोई भावी योजना नहीं।
15- एक आखिरी सवाल - आपके लेखन के संदर्भ में आपके परिवार के सदस्यों का क्या रुख रहता है..सहयोगी, तटस्थ अथवा विरोधी का? ओर हां.. लेखकों की नई पीढ़ी के लिए आप क्या सन्देश देना चाहते हैं?
जब तक परिणाम से न जुड़ जाएँ, कलाएँ वाहियात रोग कहलाती हैं। दादाजी की ओर का परिवार सांस्कृतिक रुचियों वाला अनपढ़ और गरीब परिवार था; और नानाजी की ओर का परिवार आर्थिक रूप से सम्पन्न, साक्षर लेकिन असाहित्यिक। ‘लेखन’ से जुड़ना किसी के विज़न में नहीं था; और तो और, विवाह के बाद ससुराल भी कैरियर ओरिएन्टिड मिला। हाँ, पत्नी सुयोग्य मिली। उन्होंने पढ़ने-लिखने में कभी कोई बाधा उत्पन्न नहीं की; और अब तो वह मेरे लेखन की ताकत ही बन गयी हैं। हर कदम पर साथ। एक बेटी है, दो बेटे। एक दामाद हैं और दो बहुएँ। लेखन से किसी का भी दूर-दूर तक नाता नहीं; लेकिन सब के सब लेखन को एन्ज्वाय खूब करते हैं। लेखन में बाधा उत्पन्न न करना, लेखक और उसके आगन्तुक मित्रों को नाक-भौं सिकोड़े बिना आदर-मिश्रित मुस्कान के साथ समय पर चाय-खाना देते रहना भी परिवार के सदस्यों का लेखन में सहयोग कहलाता है। वह सहयोग मिलता रहा है। लेखकों की नई पीढ़ी के लिए मेरा एक ही संदेश है—अपनी रुचियाँ और प्राथमिकताएँ निश्चित करें। तत्संबंधी विषय की पुस्तकों का जितना अधिक हो सके अध्ययन करें, तब लिखें।                        संपर्क डॉ॰ बलराम अग्रवाल, एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032                   मोबाइल : 8826499115       

बुधवार, 29 नवंबर 2017

बलराम अग्रवाल से सीमा जैन की बातचीत

स्थायित्व के लिए  ‘तप’ जरूरी है—बलराम अग्रवाल

[ एक लेखक का जन्म कब होता है? ठीक-ठीक बताना पाना मुश्किल है। कभी पढ़ते-पढ़ते, कभी कुछ देखते-देखते ही कलम कब हाथ में आ जाती है पता ही नही चलता। बलराम जी ने कलम के साथ एक लंबा सफर तय किया है। उनका बालमन पढ़ने का बेहद शौकीन था। बचपन की एक घटना का उल्लेख उन्होंने अपने लघुकथा संग्रह ‘जुबैदा’ की भूमिका में किया है जो उन्हें संवेदना, धैर्य, लगन सिखा गई थी। उन्होंने लिखा है कि उनके घर के पास एक पोखर था जहाँ मरे हुए भैस आदि जानवरों को डाला जाता था। उनकी खाल निकालने कारीगर आते थे। वो कैसे बड़े धैर्य से, खून की एक बूंद भी गिराए बगैर व खाल को नुक़सान पहुंचाए बगैर अपने कार्य को करते थे! यह देखकर वे रोमांचित हो उठते थे; लेकिन उनका मन उस व्यक्ति की विवशता पर रो पड़ता था जो वस्तुत चमड़ा-मजदूर ही होता था, चमड़ा-व्यापारी नहीं। कल जो आँसू किसी की विवशता, किसी के दर्द पर गिरे थे वो आज शब्द बन गए हैं। लेखन उनकी आत्मा की प्यास है।  आज के दौर में एक सफल लेखक की साहित्यिक यात्रा को समझना बहुत ज़रूरी है। जब अधिकतर लोग सफलता के लिए भाग रहे हैं, बलराम जी के लेखन में हम एक गहराई, एक धैर्य पाते हैं।
पिछले दिनों (9 सितम्बर, 2017 को) उनके अध्ययन और लेखन से जुड़े कुछ मुद्दों पर मैंने उनसे सवाल किये और उन्होंने सहज अन्दाज में उन सबके जवाब दिये।
तो आइये, जानते हैं बलराम जी के शब्दों में उनकी दिल से कलम तक की यात्रा का वर्णन—सीमा जैन ]

सीमा जैन
सीमा जैन : आपकी पहली दोस्ती क़िताबों से हुई या कलम से?
पहली दोस्ती नि:सन्देह किताबों से ही हुई।
सीमा जैन : किन किताबों से?
 बलराम अग्रवाल

पिताजी हम भाई-बहनों में नैतिक और आध्यात्मिक व्यवहार को रोंपना चाहते थे। इसलिए गीताप्रेस गोरखपुर की गुरु और माता-पिता के भक्त बालक, वीर बालक, सचित्र कृष्णलीला, सचित्र रामलीला जैसी किताबें वो हमारे लिए लाते थे। कोर्स के अलावा सिर्फ यही  किताबें थीं जिन्हें हम खुल्लमखुल्ला पढ़ सकते थे।  इनके अलावा अच्छी-बुरी हर किताब हमें छिपकर पढ़नी पढ़ती थी। पकड़े जाने पर पिटाई होना लाजिमी था। बाबा को स्वांग और आल्हा आदि देखने-सुनने का शौक था।  उनके खजाने में किस्सा हातिमताई, किस्सा सरवर नीर, किस्सा बिल्व मंगल, किस्सा तोता मैना, आल्हा ऊदल, तेनालीराम, अकबर बीरबल, सिन्दबाज जहाजी जैसी लोक गाथाओं की सैकड़ों पुस्तकें थीं। उनके देहावसान (1966-67) के बाद उस गट्ठर से चुराकर मैंने एक-एक किताब पढ़ी। बड़े चाचा (उन्हें हम सभी भाई-बहन ‘बाबूजी’ कहा करते थे) उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग में ट्यूबवेल ऑपरेटर थे। अपनी किताबों से भरा एक छोटा सन्दूक एक बार वे घर पर छोड़ गये क्योंकि बार-बार स्थानान्तरण के कारण किताबों का रख-रखाव ठीक से नहीं हो पाता होगा। उस बे-ताला खजाने में बृहद हस्त सामुद्रिक शास्त्र, बृहद इन्द्रजाल, बृहद कोकशास्त्र मुझे पढ़ने को मिले। यह भी 1967-68 के दौर की बातें हैं। छोटे चाचा जी की रुचि साहित्यिक पुस्तकों और पत्रिकाओं में थी। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, चन्दामामा, पांचजन्य, राष्ट्रधर्म जैसी पत्रिकाएँ उनके माध्यम से पढ़ने को मिलती रहती थीं; लेकिन पढ़ना उन्हें भी छिपकर ही होता था। माताजी के सन्दूक में ‘दमनक करटक’ नाम की एक किताब बहुत सहेजकर रखी होती थी। मोटे अक्षरों में छपी वह एक सचित्र किताब थी जो बड़े मामा जी ने उन्हें भेंट की थी। उसे पढ़ने का समय वह शायद ही कभी निकाल पायी हों। समझदार हो जाने पर माता जी उसे मुझे सौंप दिया। इस तरह पंचतन्त्र की कुछ कहानियाँ बचपन में ही पढ़ने को मिल गयी थीं; हालाँकि तब पता नहीं था कि वे पंचतन्त्र की कहानियाँ थीं। मुहल्ले में एक युवा मित्र थे—बनारसी दास जी। एक मकान की बाहरी कोठरी में किराए पर रहते थे। विवाहित थे और बाल-बच्चेदार भी। हम तब किशोर ही थे। एक बार उन्हें 15-20 दिन के लिए शहर से बाहर जाना पड़ा। चोरी आदि से बचने और देखभाल करते रहने की दृष्टि से अपने कमरे की चाबी मुहल्ले में ही मेरे मित्र किशन की माता जी को सौंप गये थे। उनसे चाबी ले हमने दोपहर का समय बनारसी दास जी के कमरे पर बिताना शुरू करने का फैसला किया। वहाँ पहले दिन ही ‘कारूं का खजाना’ हमें मिला—चन्द्रकांता, चन्द्रकांता सन्तति  के सभी और भूतनाथ के कुछ खण्ड। लोगों ने जिन किताबों को पढ़ने के लिए हिन्दी सीखी, वे लगभग सब की सब हमारे सामने रखी थीं। हम दोनों उन सारी किताबों को चाट गये। ये वो दिन थे, जब सब-कुछ पढ़ लेने का समय हमारे पास था। अब हम चुनिंदा चीजों को खरीदकर घर तो ले आते हैं लेकिन उन्हें बामुश्किल ही पढ़ पाते हैं।
सीमा जैन : यानी आपकी कलम से दोस्ती बाद में हुई?
बेशक किताबों ने ही कलम से दोस्ती का रास्ता खोला, उसे साफ किया।
सीमा जैन : किस उम्र से लेखन शुरू किया?
लिखना शुरू करने की भी एक प्रक्रिया रही, सीधे लिखना शुरू नहीं हुआ। 1965 में भारत-पाक युद्ध के समय मैं सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था। युद्ध के उपरान्त विद्यालय में कविता-कहानी आदि पठन-पाठन, मौखिक वाचन की प्रतियोगिता आयोजित की गयी थी। उसमें मैंने ‘पांचजन्य’ में छपी एक कविता को पढ़ने का निश्चय किया। घर पर किसी को बताने का सवाल ही नहीं था, रोक दिया जाता। कक्षा पाँच में एक अन्तरविद्यालय नाटक प्रतियोगिता में भाग लेने के बाद वह मेरा पहला सार्वजनिक प्रदर्शन था। मुझे अच्छी तरह याद है कि कविता-पाठ के समय मेरा पूरा बदन काँप रहा था। शायद आगे प्रोत्साहित करने की दृष्टि से मुझे ‘सांत्वना पुरस्कार’ प्रदान किया गया। मेरे जीवन का वह पहला सम्मान पत्र था जो अब मेरे पास नहीं है। परिवार में उस सब पर गर्व करने और उसे बचाए रखने की परम्परा नहीं थी। मुझे याद है कि उसी उम्र में मैंने कबीर के दोहे या मीरा के पद जैसा कुछ लिखना शुरू किया था, लेकिन पिताजी के डर से, लिखे हुए उन कागजों को मैं फाड़कर फेंक देता था। प्रामाणिक रूप से बताऊँ तो पहली प्रकाशित रचना महात्मा गाँधी के जन्म शताब्दि वर्ष 1969 में लिखी गयी थी जो विद्यालय की ही पत्रिका में छपी। उसमें मेरी अन्य रचनाएँ भी छपीं और वहीं से लेखन की निरन्तरता भी बनी।
सीमा जैन : क्या परिवार सहयोग देता तो लेखन की ऊँचाइयाँ कुछ और हो सकती थी?
लेखन को ऊँचाई ‘सहयोग’ की बजाय ‘दिशा’ देने से मिलती है। यह ‘दिशा’ निरन्तर अध्ययन के द्वारा हमें स्वयं प्राप्त करनी पड़ी।
सीमा जैन : आप किस-किस विधा में लिखते हैं?
लेखन की विधा वह कहलाती है जिसमें व्यक्ति कायिक ही नहीं मानसिक रूप से भी ‘निरन्तर’ बना रहता हो। इस आधार पर लेखन की मेरी मुख्य विधा ‘लघुकथा’ ही ठहरती है। इसके अलावा कविता, कहानी, बालकथाएँ, बाल एकांकी/नाटक, आलोचनात्मक लेख, अनुवाद, समीक्षा, संपादन समय-समय पर प्रकट होते ही रहते हैं।
सीमा जैन : अब तक आपकी प्रकाशित पुस्तकें? आपकी प्रिय पुस्तक? आपकी लिखी व पढ़ी गई दोनों?
इस प्रश्न के कुछ हिस्से का उत्तर तो आपके द्वारा वांछित परिचय में मिल जाएगा। अन्तिम हिस्से के उत्तर स्वरूप अनेक पुस्तकें हैं जो मुझे प्रिय रही हैं—जैनेन्द्र का त्यागपत्र, मोहन राकेश की सभी कहानियाँ और नाटक, मुक्तिबोध की डायरी, डॉ॰ रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि, प्रसाद की कथा-भाषा और महादेवी वर्मा और राहुल सांकृत्यायन का गद्य आदि के अलावा भी बहुत-सी बातें हैं जो मुझे पसन्द हैं।
सीमा जैन : क्या दुःख हमें माँजता है
‘रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय’—दु:ख अगर लम्बे समय तक टिक जाए तो व्यक्ति को माँजने की बजाय भाँजना शुरू कर देता है; तथापि दु:ख के दिन व्यक्ति को सांसारिक अनुभव तो देते ही हैं और उस दौर से सकुशल बाहर आ निकला व्यक्ति ही यह कहने की स्थिति में होता है कि ‘दु:ख हमें माँजता है’। दु:ख के दिनों को दूसरों के आगे बयां करने का सुख किसी भी अन्य सुख की तुलना में बड़ा, रोचक और रोमांचक होता है, यह मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ। 
सीमा जैन : आलोचनाओं को आप किस नज़र से देखते हैं?
साहित्यिक रचनाओं के सन्दर्भ में, सबसे पहले तो आलोचना करने वाले व्यक्ति के बौद्धिक स्तर पर नजर डालना जरूरी है। यदि वह साहित्य मर्मज्ञ नहीं है, हमसे निम्न बौद्धिक स्तर का है, तो मेरा मानना है कि उसके द्वारा की गयी प्रशंसा भी बेमानी यानी निरर्थक है। इसके विपरीत, उच्च बौद्धिक स्तर के व्यक्ति द्वारा की गयी कटु टिप्पणी पर भी ध्यान देना मैं श्रेयस्कर समझता हूँ। उदाहरण के लिए बता दूँ—‘चन्ना चरनदास’ की समीक्षा करते हुए वरिष्ठ कथाकार विजय जी ने मुझसे कहा—‘बलराम, तुम्हारी कहानियों का अन्त लघुकथा की तरह हो जाता है। इस बात पर ध्यान दो।’ डॉ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी ने उन कहानियों की सपाटता की ओर इंगित किया। मैंने दोनों ही अग्रज विद्वानों की बात का ध्यान परवर्ती कथाओं में रखना शुरू किया। कितना सफल रहा, यह तो शेष आलोचक बताएँगे या फिर, आने वाला समय।
सीमा जैन : लघुकथा के क्षेत्र में आपका योगदान साहित्य, आने वाली पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक है। आज आप लघुकथा को जिस स्थान पर पाते हैं उससे संतुष्ट हैं?
जिस दिन सन्तुष्ट हो जाएँगे, लिखना खुद ब खुद छूट जाएगा। बहरहाल, यह संतोष तो है ही कि लघुकथा की नयी पीढ़ी के अनेक हस्ताक्षर हमारे सपनों जैसा यानी भेदभाव और कुरीतियों से विहीन समाज की कल्पना करता सार्थक लघुकथा साहित्य रच रहे हैं।
सीमा जैन : लघुकथा को उसके दृढ़ नियमों के साथ संचार माध्यम तक पहुँचाना ज़रूरी है क्या?
समकालीन लघुकथा,  गद्य कथा-साहित्य की विधा है—इस तथ्य को तो लगभग सभी लेखक और आलोचक स्वीकार करते हैं। इसलिए उन सभी अनुशासनों पर, जिनके चलते लघुकथा कथा-साहित्य की अन्य विधाओं से अलग कही या स्वीकार की जानी चाहिए, ध्यान देना हमारा दायित्व बनता है। ‘दायित्व’ स्व-नियोजन की क्रिया है, एक बोध है, जिसे व्यक्ति अनुशासनों के माध्यम से अपने आप में पनपाता है। अनुशासन को आप कानून बनाकर किसी पर लाद नहीं सकते। इसीलिए साहित्य में ‘दृढ़ता’ की बजाय ‘रसमयता’ और ‘लयात्मकता’ को प्रश्रय दिया जाना चाहिए।
सीमा जैन : आपने तो फ़िल्म के लिए भी संवाद लिखे हैं। वो सपना जो अभी पूरा नही हो सका!
फिल्म (‘कोख’1994; लेखक व निर्देशक: आर एस विकल; गीतकार : कुँअर बेचैन; संगीतकार : रविन्द्र जैन) में संवाद लिखना मेरा सपना नहीं था। मित्रतावश सहयोग था।
सीमा जैन : लेखन घर में अगली पीढ़ी तक जा पाया है क्या? यदि नहीं, तो कारण क्या रहे?
मेरे अनुसार, सकारात्मक चिन्ताओं से जुड़े मानसिक व्यसन को ‘लेखन’ कहा जाना चाहिए। अगली पीढ़ी तक प्राय: व्यवसाय ही तुरन्त जाते हैं; आर्थिक लाभों से दूर रखने वाले मानसिक-व्यसनों को कौन अपनाना चाहेगा।
सीमा जैन : सफलता के मंत्र क्या रहे? आप अपने इस सफ़र से संतुष्ट हैं ?
आप यदि मुझे सफल समझती हैं तो इसका एक ही मंत्र रहा—निरन्तर अध्ययन और लेखन। मैं इस दृष्टि से तो संतुष्ट हूँ कि जो कुछ भी लिखा, सकारात्मक और जनहित के स्तर का लिखा; लेकिन इस बिंदु पर असंतुष्ट हूँ कि अपनी शक्ति से बहुत कम लिख सका, आलसी बना रहा।
सीमा जैन : आज की रफ़्तार से सफलता व नाम के लिए भागती पीढ़ी अपना ब्रेंड नेम स्थापित किये बगैर सिर्फ़ रचनाओं के दम पर ख़ुद को सम्हाल पाएगी? आपके सपने..?
सफलता, नाम, धन, ऐश्वर्य आदि आँखें मूँदकर पीछे भागने से हासिल नहीं होते। हो भी जाएँ तो तात्कालिक होते हैं, स्थाई नहीं। स्थायित्व के लिए ‘तप’ जरूरी है। लेखक होने के नाते, मुझे जो कुछ भी हासिल होगा, जाहिर है कि रचनाओं के दम पर ही हासिल होगा। मेरा सपना है कि मैं अपने समय को उसकी पूरी गहराई में समझने लायक बुद्धि का विकास कर सकूँ और वैसी कथा-रचनाएँ समाज को देता रहूँ।

सीमा जैन : हम भारतीयों के अंदर देश के प्रति जिम्मेदारी जगाने की बात करें तो, हमारी प्राथमिक जरूरत क्या है? उसे हम लेखक पूरा कर सकते हैं क्या?
देश के प्रति जिम्मेदारी का पहला कदम अपने घर से शुरू होता है और उस कदम का नाम है— अनुशासन। जो व्यक्ति अपने घर में अनुशासित नहीं है, वह पास-पड़ोस में; जो पास-पड़ोस के प्रति अनुशासित नहीं है, वह समाज में; जो शेष समाज के प्रति अनुशासित नहीं है, वह देश में अनुशासित नहीं रह सकता। जो अनुशासित नहीं है, वह देश क्या, किसी के भी प्रति जिम्मेदार नहीं हो सकता। अनुशासन हममें दायित्व-बोध जगाता है।

सीमा जैन : कद, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि के बाद आपके अंदर का लेखक पहले से ज़्यादा दृढ़ हुआ या लचीला?
कद, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि जैसा मैं कुछ भी महसूस नहीं करता। जितना सामान्य मैं पहले था, उतना ही आज भी हूँ।

सीमा जैन : साहित्यिक सम्मेलन में पर्यावरण के प्रति जागरूकता की बात यदि अनिवार्य कर दी जाए तो...?
केवल साहित्यिक सम्मेलन में ही क्यों, सभी सम्मेलनों में क्यों नहीं? आज, ‘पर्यावरण के प्रति जागरूकता’ को मानव संस्कृति से जोड़ने की आवश्यकता है। बहुत-से पारम्परिक रीति-रिवाज पर्यावरण के लिए खतरा बन चुके हैं, धार्मिक आस्था के नाम पर नैसर्गिक संसाधनों का दोहन ही नहीं किया जा रहा, उन्हें भ्रष्ट और अशुद्ध भी किया जा रहा है। ऐसे रीति-रिवाजों में से कुछ को त्यागने और कुछ का स्वरूप बदल डालने की तुरन्त जरूरत है।

सीमा जैन : ईश्वर और धर्म को आप कैसे परिभाषित करेंगें?
ईश्वर मनुष्य की निर्मिति है। मनुष्य है तो ईश्वर है, मनुष्य नहीं तो ईश्वर भी नहीं। जिसे अधिकांश लोग ‘धर्म’ कहते या मानते हैं, वह विशुद्ध कर्मकाण्ड है और इसीलिए स्वार्थपरक व्यवसाय है। गोस्वामी तुलसीदास रचित ‘रामचरितमानस’ में वर्णित कथा की व्याख्या कर-करके देश-विदेश के करोड़ों कथावाचक  घी-शक्कर का आनन्द ले रहे हैं। वीतराग के प्रणेता महावीर के करोड़ों अनुयायी कई-कई सौ एकड़ जमीन पर पंच-सितारा आश्रम बनाए   बैठे हैं। तुलसीदास जी ने लिखा है—कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ, दंभिन्ह निज मति कल्प करि प्रगट किए बहु पंथ। इस चौपाई के जानकार रामकथा वाचकों के भी अपने-अपने आश्रम हैं, ‘नमो नारायण’, ‘हरि ओम’, ‘जय विराट’, ‘जय जिनेन्द्र’, ‘जय श्रीकृष्ण’, ‘राधे-राधे’ आदि अपने-अपने स्लोगन हैं। मेरा मानना है कि जैसे ईश्वर का सम्बन्ध ‘मनुष्य’ से है, वैसे ही ‘धर्म’ का सम्बन्ध ‘मनुष्यता’ से है। 
                                                                                                                                'कथाबिंब' (अक्तूबर-दिसंबर 2017) 
सम्पर्क : सीमा जैन,  82,विजय नगर (माधव नगर) 201,संगम अपार्टमेंट ग्वालियर(म.प्र.) 474002 / मोबाइल : 8817711033
          बलराम अग्रवाल, एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032 / मोबाइल : 8826499115



गुरुवार, 12 अक्तूबर 2017

परिंदों के बीच एक दिन / बलराम अग्रवाल

दिनांक 28 सितम्बर, 2017 को कान्ता राय जी के फेसबुक समूह ‘लघुकथा के परिंदे पर विशेष अतिथि के रूप में लघुकथा लेखन से जुड़े विभिन्न बिंदुओं पर मैंने जिज्ञासुओं के प्रश्नों के उत्तर दिए। उक्त सभा दोपहर एक बजे से शाम आठ बजे तक चली। नयना-आरती कानितकर, बीना शर्मा, शेख शहजाद उस्मानी, ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश, सविता गुप्ताविभा रश्मि, कनक के हरलालका, चित्रा राणा राघव, डॉ॰ लता अग्रवाल, सुनीता त्यागी, कान्ता रॉय, अर्विना गहलोत, आनन्दबाला शर्मा, राजेश शॉशेख शहजाद उस्मानी, कपिल शास्त्री, प्रेरणा गुप्ता, सुनील वर्मा, मधु जैन, अनघ जोगलेकर, क्षमा सिसौदिया, रेखा श्रीवास्तवपवन जैन, राजेन्द्र राज, कुणाल शर्मा, जानकी वाही, उदयश्री ताम्हणेराहिला आसिफसुमित कुमार, कनक के हरलालकापूनम डोगरा, सीमा भाटिया, पूनम झा आदि ने लगातार जिज्ञासाएँ रखीं और तुरन्त ही उनका समाधान भी पाया। मित्र कथाकार सुभाष नीरव ने इस रू–ब-रू को बहुत ही जानदार, शानदार और चमत्कृत करने वाला माना और इनमें से विशेष प्रश्नोत्तर को अलग से सम्पादित-संकलित किया! सम्भवत: तकनीकी कारणों से कुछेक महत्वपूर्ण प्रश्न अनुत्तरित रह गए थे, उनमें से कुछ का उत्तर उनकी पहल पर तो बाकी का स्वयं देखकर बाद में जोड़ दिया गया। सुभाष का मानना रहा कि 'लघुकथा से जुड़े अनेक नये-पुराने लेखक जिन सामान्य जिज्ञासाओं से लगातार जूझते दिखाई देते हैं, काफी हद तक उनका समाधान इन जवाबों में मिल सकता है; या फिर यह बातचीत कुछ नये प्रश्नों को भी जन्म दे सकती है। दोनों ही स्थितियों में लघुकथा विधा के लिए यह एक आवश्यक ‘सवाल-जवाब’ सत्र था।' जो मित्र उस समय वहाँ न उपस्थित न रह सके, देख-पढ़ न सके; उन सब के लिए वह समूचा सत्र यहाँ प्रस्तुत है। लघुकथाकार श्रीमती कान्ता राय ने इस प्रश्नोत्तरी को 'लघुकथा कुंजिका' नाम दिया है।

नयना-आरती कानितकर कई बार हम क्षण विशेष को उठाकर घटना को रचना में फ्लेशबैक में उठाकर विवरण देते हैं। क्या वह क्षण विशेष भूतकाल का नहीं हो सकता?
बलराम अग्रवाल नयना आरती कानितकर जी के माध्यम से सभी मित्रों को नमस्कार। आभार इस कार्यक्रम में शामिल करने के लिए। पूरी कोशिश रहेगी कि सवालों के जवाब उलझे हुए न देकर सीधी सामान्य भाषा में दूँ। फिर भी, कोई बात यदि समझ में न आए तो आप बार-बार पूछ सकते हैं। सबसे पहला सवाल आरती जी का यह ही है। लघुकथा में 'क्षण' सिर्फ समय की इकाई को ही नहीं कहते, संवेदना की एकान्विति को भी 'क्षण' कहते हैं। उस एकान्विति आप यों समझ लीजिए कि पात्र को उसकी तत्समय की चिंता से, भावभूमि से दूसरी चिंता में, दूसरी भावभूमि में प्रविष्ट नहीं करना चाहिए। आपको याद होगा, भोपाल वाली गोष्ठी में मैंने कहा थालघुकथा में पात्र के चरित्र पर कथाकार का ध्यान केन्द्रित रहना चाहिए। जीवन में पात्र के चरित्र में बदलाव की एक प्रक्रिया होती है, वह एकाएक नहीं बदलता। उस प्रक्रिया को लिखने के लिए हमें कहानी की विधा को अपनाना होता है।
अनघा जोगलेकर सर, एक प्रश्नक्या लघुकथा भूत से होते हुए वर्तमान में नही आ सकती?  हमेशा फ्लेशबैक से ही भूतकाल में जाना आवश्यक है? इसमें भी तो अचानक बदलाव नही होगा यदि बहुत ही अधिक भूतकाल में न चले जाएँ तो। भूत वर्तमान आपस में जुड़े ही तो हैं।
बलराम अग्रवाल फ्लैश बैक उस ‘क्षण’ से इस ‘क्षण’ को जोड़ने का ऐसा टूल है जो कथा में घटना-प्रस्तुति के प्रवाह को बनाए रखने में सहायक होता है। अगर कोई कथाकार ‘भूत से होते हुए वर्तमान में आने’ की शैली का सफलतापूर्वक निर्वाह कर सकता है तो उसे कर दिखाना चाहिए। अधिक नहीं, प्रयोग के तौर पर कुछ लघुकथाओं में आजमाकर देख लीजिए।
नयना-आरती कानितकर बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय। क्षण विशेष तो समझ गई लेकिन तत्समय की चिंता और भावभूमी से दूसरी चिंता में प्रवेश के लिए आपस में जोडने वाला एक पूल होना चाहिए ना, जब हम इस आधार पर कुछ विवरण या संवाद लिखते हैं तो इसे अनावश्यक विस्तार कहकर सिधे बात पर आने का सुझाव मिलता हैं ऐसी स्थिती में क्या योग्य होगा।
बीना शर्मा हम लघुकथा से लेखकीय प्रवेश किस प्रकार रोके रख सकते है?
बलराम अग्रवाल इसके लिए कुछ रचनाओं के उदाहरण देने होंगे जो यहाँ एकाएक सम्भव नहीं हैं। एक बार फोन पर बातचीत के दौरान डॉ॰ कमल किशोर गोयनका ने भाई जगदीश कश्यप के एक लेख का सन्दर्भ देते हुए मुझसे कहा था—"बलराम, जगदीश ने जो अपने बारे में यह बात अपने लेख में लिखी है, यह बात तो आलोचक को कहनी चाहिए, उन्होंने स्वयं क्यों कही?" बस, वहीं से मुझमें यह विचार पैदा हुआ कि लघुकथा में भी मैं यह सोचूँ कि कौन-सी वह पँक्ति है जो पात्र या नैरेटर की बजाय पाठक या आलोचक द्वारा कही जानी चाहिए। इस सूत्र के द्वारा आप स्वयं अपनी रचना में झाँकना सीख सकते हैं। 'सैल्फ एसेस्मेंट' से बड़ा न कोई अन्य आलोचक हो सकता है न गुरु।
सविता गुप्ता आदरणीय, किसी भी लघुकथाकार को अपनी खुद की रचना को उत्कृष्ट बनाने के लिए क्या करना चाहिए?
बलराम अग्रवाल : अपनी खुद की रचना को उत्कृष्ट बनाने के लिए उसे यथेष्ट अन्तरालों के बाद बार-बार पढ़ना और संपादित करना चाहिए। बहुत-सी बातें एकाएक ध्यान में नहीं आ पाती हैं, उनको आने का अवसर देना चाहिए और बहुत-सी अपरिहार्य बातें पहले-दूसरे-तीसरे ड्राफ्ट में भी बनी रह सकती हैं, उन्हें बाहर का रास्ता दिखाना चाहिए।
ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश मेरा सवाल यह कि आप की कौनसी लघुकथा सब से अधिक समय में लिखी गई थी ? उस की रचनाप्रक्रिया दिमाग में कितने दिन चली ? इस पर आप के विस्तार से विचार जानना चाहता हूँ.
बलराम अग्रवाल इसका लेखा कभी रखा नहीं। एक लघुकथा थी'बोलो चमनलाल' जिसका जिक्र 1985 के आसपास भाई जगदीश कश्यप ने मेरी लघुकथाओं में लिखे अपने एक लेख में भी किया था। यद्यपि उन्होंने प्रशंसा ही की थी, लेकिन मुझे लगातार लगता रहा कि जिस सम्वेदना को मैं उस रचना के माध्यम से सम्प्रेषित करना चाहता हूँ, उसका सामान्यीकरण अभी हो नहीं पाया है। यह सोचकर उस रचना को कभी प्रकाशन के लिए नहीं भेजा। वह आज तक नहीं लिखी गयी।
ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश यही मुझे भी लग रहा था कि लेखक के मन में कुछ चीज़ या बात होती हैं जो कभी मुकाम नहीं पा पाती हैं. पाती है तो वह सवोत्कृष्ट रचना होती हैं. उसी सब से बढ़िया लघुकथा के बारे में जानना चाहता हूँ।
बलराम अग्रवाल लेखक के मन की बात जब तक मुकाम नहीं पा लेती, रचना में पूर्णत्व नहीं आ पाता और रचनाकार बेचैन रहता है। इसलिए स्तरीय लघुकथाकार वह नहीं जो दस-बीस, सौ-दो सौ-चार सौ ‘वाह-वा’ सुनकर सन्तुष्ट हो जाता है। स्तरीय लघुकथाकार वह है जो अपनी लेखनी की कमियों को जानता है और उन्हें दूर करने के लिए रचना दर रचना प्रयत्नशील रहता है।
सविता गुप्ता आदरणीय बलराम जी, लघुकथा में सपाट बयानी से बचने हेतु क्या बिम्ब, प्रतीक, काव्यात्मक अलंकार, रस तत्व सशक्त भाव पक्ष होने जरूरी है ??
बलराम अग्रवाल असलियत यह है कि जिस शिल्प और शैली का ‘सपाट बयानी’ के नाम पर तिरस्कार या बहिष्कार करने की बात कही जाती है, वह वस्तुत; ‘सपाट लेखन’ है, ‘सपाट बयानी’ नहीं। सपाट बयानी का सही अर्थ है किसी बात को साहस के साथ साफ-साफ कहना, कबीर की तरह। सपाट बयानी का मतलब होता है—कथन-भंगिमा में दुराव-छिपाव या भेद-भाव का न होना। सपाट बयानी का मतलब अंधे की लाठी का घूमना है, अपने-पराए किसी का भी सिर फूटे, उसकी बला से। सिर फोड़ने के इस काम को जब हम आँखें खोलकर करते हैं तो कलात्मकता की दरकार होती है। वह नहीं होगी तो हम पकड़े जाएँगे क्योंकि अंधा खुद को मानेंगे नहीं। अत; लेखन का सपाट होना एक तरह से अपराध ही समझिए, स्वयं अपने साथ भी।
अनघा जोगलेकर लेखकीय प्रवेश पर मेरा भी एक प्रश्न है। पात्र को नाम देकर लेखक अपने मन की ही बात कहता है। लेखक स्वयं उन पात्रों को जीता है तभी लिखता है। तो क्या पात्र का नामकरण कर अपनी बात कहना लेखकीय प्रवेश है?
बलराम अग्रवाल नहीं।
अनघा जोगलेकर एक और प्रश्नलेखक को कैसा कथानक चुनना चाहिए और किस तरह कथा लिखनी चाहिए - स्वयं की दृष्टी से स्वयं के लिए, पाठक की दृष्टी से पाठक के लिए?
बलराम अग्रवाल स्वयं की दृष्टि से स्वयं के लिए। साहित्य सदा हीस्वांत; सुखाय होता है, कोई माने न माने। हाँ, इतना जरूर है कि लेखक का 'अंत:करण' जितना व्यापक होगा, रचनाशीलता भी उतनी ही व्यापक होगी।
चित्रा राणा राघव लघुकथा में कथा तत्व की आवयश्कता को अब मैं समझती हूँ, परन्तु यदि मेरे लेखन का झुकाव विज्ञान, तर्क आदि है तो क्या वह भावनाओं, मार्मिक, रस से ओतप्रोत लघुकथा से कमतर ही रहेंगी या मानी जायेंगी? विज्ञान, वैश्विक समस्या पर आधारित लघुकथा में शब्दों के चयन को लेकर बहुत ही संशय है, भाषा वैज्ञानिक होते हुए भी क्लिष्ट नही होनी चाहिए। पर। क्या विज्ञान से संबंधित शब्दों के प्रयोगे के बिना इन विषयों पर लिखना संभव है? अगली पीढ़ी भावनाओं के सपनो से बाहर तकनीकी सपने देखती है, जीती है, उस ओर हमारी लघुकथा समूहों, गोष्ठियों, वरिष्ठ जनों का क्या सहयोग है? (संभवतः तभी अगली पीढ़ी में भी इसे सशक्त लेखन माना जायेगा।)
बलराम अग्रवाल आपका प्रश्न बीच में मालूम नहीं कैसे छिपा रह गया, माफ करना। मैं अधिकतर बाहरी घटनाओं से कथानक नहीं उठाता। मेरे अन्दर एक विचार पैदा होता है और उसके चारों ओर मैं कथा को बुनता हूँ। यह मेरी रचना प्रक्रिया है, किसी अन्य कथाकार की भी यही हो, जरूरी नहीं है। इस आधार पर चलें तो विज्ञान, तर्क आदि पर लिखना सहज हो जाता है, आपको लिखना चाहिए। हाँ, कथारस का, पाठकीय जिज्ञासा को बनाए रखनी जिम्मेदारी लेखक की है। यह नहीं होंगे तो अच्छे परिणाम सामने नहीं आएँगे और लेखन का उद्देश्य भी सिद्ध नहीं होगा। विज्ञान के विषय, वैश्विक समस्या पर लिखने पर भी कथानक चयन और शब्द तो आपको उस परिवेश से ही लेने होंगे, जिसके लिए आप लिख रहे हैं। हमें अपने परिवेश को वैज्ञानिक दृष्टियुक्त करने, पुष्ट करने के लिए लिखना है, न कि विश्व साहित्य की भीड़ में एक रचना या एक किताब और जोड़ देने के लिए।
विभा रश्मि मेरा प्रश्न । अगर कथा का स्वतःनकारात्मक अंत हो रहा हो तो क्या कथा कमज़ोर मानी जाएगी ? और सकारात्मक सुखद अंत वाली कथा को अधिक अंक मिलेंगे ?
बलराम अग्रवाल लेखक का मूल उद्देश्य उद्बोधन और उत्प्रेरण है। वह अगर दुखान्त से आता है तो उसी से आने देना चाहिए।
शेख शहजाद उस्मानी मेरी कुछ रचनाएं ऐसी हो जाती हैं, बल्कि ऐसी शैली में मुझे कई बार सुविधा महसूस होती है मौलिक सहज प्रवाह के साथ। सकारात्मक अंत करने की कोशिश तनाव देती है व अंत कृत्रिम सा हो सकता है। आपके उत्तर ने मुझे मदद की है लेकिन उदाहरण सहित उद्बोधन व उत्प्रेरण/विचारोत्तेजना को समझना चाहता हूं। सादर।
बलराम अग्रवाल समकालीन लघुकथा में उद्बोधन और उत्प्रेरण भी निदानात्मक ही होता है प्रिय शहजाद जी। उदाहरण के लिए, अशोक भाटिया की ‘रंग’ या ‘कपों की कहानी’, सुभाष नीरव की ‘जानवर’ और ‘बारिश’ को पढ़िए।
सुनीता त्यागी मेरा प्रश्न है कि एक लघुकथा को पूर्ण करने में व यह मानने में कि वह पोस्ट करने योग्य हो गयी है कम से कम कितना समय लगाना चाहिये ।
बलराम अग्रवाल जितने समय में लेखक स्वयं आश्वस्त हो, उतना।
सुनीता त्यागी लेकिन जब विभिन्न ग्रुप्स पर चलने वाली प्रतियोगितओं में समय सीमा होती है ।क्या तब भी लेखक कथा के साथ पूर्ण न्याय कर सकता हैं ।
बलराम अग्रवाल समय सीमा के दबाव से संवेदन-तंतुओं को मुक्त रखें, मेरा मत तो यही है। तात्पर्य यह कि आप प्रतियोगिता के विषय पर लिखें अवश्य लेकिन भेजने की आतुरता से बचें। इस तरह लेखन भी अनवरत चलता रहेगा, रचना भी परिपक्व आएगी।                            कान्ता रॉय सत्य घटनाओं का चित्रण और लघुकथा में अंतर क्या हैसत्य और यथार्थ को लेकर बहुत भ्रम हैं अभी भी। लघुकथा लेखन और 'साहित्य का प्रायोजन'..... इस पर भी हम सबको आपसे दृष्टिकोण चाहिए।
बलराम अग्रवाल जिसे हम 'घटना' कह रहे हैं, उसके सच से कई बार अपरिचित होते हैं। एक व्यक्ति भीड़ में किसी अन्य को पीछे से चिकौटी काट ले, चिकौटी कटा व्यक्ति घूमकर पीछे जो नजर आए, उसको झापड़ रसीद कर दे और वहाँ खड़ा तीसरा व्यक्ति उस झापड़ और झगड़े की वीडियो बनाकर वायरल कर दे। इस तीसरे व्यक्ति को आप लेखक मान लीजिए। इस घटना में आप सत्य, यथार्थ और लेखकीय दायित्व को तलाशने की कोशिश कीजिए। समझ में न आए तो पुन; बात करेंगे।
चैतन्य चैतन्य क्या ऐसा नहीं हो सकता क़ि मैं अपने साथ घटी घटना को साक्षी बनकर देखूँ और स्वयं ही लेखक के रूप में प्रस्तुत करूँ।                                            
बलराम अग्रवाल एक सिद्धांतकार अथवा समाचार-प्रेषक/समाचार-वाचक की बजाय एक पात्र के रूप में हर लेखक यह कर सकता है।
शेख शहजाद उस्मानी मैं पूछना चाहता हूं कि अभी हाल की या नज़दीक के परिवेश की सच्ची घटना को लेखकीय कल्पना के साथ मुख्य समस्या को/विसंगति को उभारती हुईं लघुकथा को पाठक कब और क्यों पसंद नहीं करते, बल्कि कुछ पाठक उसे समाचार कहकर लघुकथा मानने से भी इंकार कर दिया करते हैं। कृपया कारण व कमियों का समाधान बताइयेगा।
बलराम अग्रवाल ‘नजदीक के परिवेश की सच्ची घटना’ को लघुकथा के रूप में प्रस्तुत करते हुए लेखक यदि उसकी सत्यता अथवा प्रामाणिकता को ही पेश करने की कोशिश करता रहेगा तो पाठक को कथा के स्तर पर रचना से जोड़ने में नाकामयाब रह सकता है। लेकिन आपने अपने सवाल में अनायास ही कहा—‘लेखकीय कल्पना के साथ’; तो यहाँ आप रचनाशीलता की ओर अंशत: सार्थक कदम बढ़ाते प्रतीत होते हैं। अंशत: इसलिए कि अभी इसमें ‘लेखकीय दायित्व के साथ’ और जुड़ना शेष है। ‘कल्पनाशीलता’ और ‘लेखकीय दायित्व’, ये दोनों ही किसी सत्य घटना को समाचार प्रस्तुति से ऊपर कथा प्रस्तुति की ऊँचाई प्रदान करते हैं, अकेली कल्पनाशीलता ऐसा करने में असमर्थ रह जाती है।
अर्विना गहलोत सर मेरा सवाल हैक्या हम नवोदित लेखकों को मार्केटिंग के हिसाब से लिखना चाहिए। जिसे लोग ज्यादा पढ़ते है, ऐसा विषय चुनें। कभी-कभी हम कथनानुसार लिखते हैं लेकिन ये ख्याल मथता रहता है कि क्या ये सही किया? किसी के अनुसार अंत बदल दिया! किसी ने कहा तो शुरुआत बदल दी!! जिस विचार बिन्दु से कथा शुरू की थी, अब हम उसी से भटकन महसूस करते हैं।
बलराम अग्रवाल सबसे पहले तो भटकन से मुक्ति पाने की कोशिश कीजिए। कुछ दिनों के लिए लेखन को स्थगित करके प्रो धनंजय वर्मा, डॉ रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध की डायरी आदि कुछ आलोचना कार्य पढ़िए। उससे आप में अपनी रचना के प्रति तर्कशीलता जागेगी और तब रचना परिपक्व होकर ही प्रकाशित कर पाओगे।
सुनीता त्यागी भैया जी, क्या इन लेखकों की आलोचनाएं गूगल पर उपलब्ध हैं।
बलराम अग्रवाल  रॉयल्टी या कॉपी राइट आदि के बन्धनों के चलते सम्भव है अभी ये गूगल पर न हों, लेकिन पुस्तकालयों में ये मिल जाएँगी।
आनन्दबाला शर्मा संतोषजनक स्थिति कैसे आए, लघुकथा के संदर्भ में?
बलराम अग्रवाल तुरन्त प्रकाशित और प्रशंसित होने की आकांक्षा से बाहर आ जाइए।
कनक के हरलालका अगर हम आलोचना और समीक्षा के मार्ग से नहीं गुजरेंगे तो परिवक्वता की मंजिल तक क्यों कर पंहुचेंगे ? .
बलराम अग्रवाल यह कथन वस्तुत: दो स्तरों पर सम्पन्न होता है—पहला, रचना की स्व-आलोचना और स्व-समीक्षा के स्तर पर और दूसरा, उसकी बाह्य-आलोचना और बाह्य-समीक्षा के स्तर पर। पहले स्तर पर आपका कथन शत-प्रतिशत सही है। जो रचनाकार स्व-आलोचना और स्व-समीक्षा के मार्ग से गुजरने का अभ्यस्त नहीं है, परिपक्वता की मंजिल तक उसका पहुँचना संदिग्ध हो सकता है; साथ ही  बाह्य-आलोचना और बाह्य-समीक्षा को समझने व सहने का विवेक उसमें नहीं पनप सकेगा, ऐसा मेरा मानना है।
सविता गुप्ता आदरणीय, कहानी उपन्यास आदि में समीक्षकों की महती भूमिका रही है। लघुकथा के क्षेत्र में आप, जीतू जी, महादोषी जी आदि तीन-चार को छोड़ समीक्षकों का अभाव है। एक अच्छा समीक्षक बनने के लिए आप क्या सुझाव देंगे।
बलराम अग्रवाल अच्छा समीक्षक बनने के लिए कथा-साहित्य की स्तरीय आलोचना और समीक्षा पुस्तकों का अध्ययन आवश्यक है।
ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश आप की वह लघुकथा जिसे आप सब से अच्छी लघुकथा मानते हैं. केवल आप !
कान्ता रॉय सबसे मुश्किल सवाल है यह। इस कठिन सवाल का सरल जवाब मैं भी सुनने की इच्छुक हूँ।
बलराम अग्रवाल इसमें कुछ भी मुश्किल नहीं है। मेरी ऐसी कोई लघुकथा नहीं, जिसे मैं सबसे अच्छी लघुकथा मानता हूँ। हाँ, कुछ लघुकथाएँ सन्तोषप्रद अवश्य हैं लेकिन उनके भी नाम मैं यहाँ नहीं बता सकता।
सविता गुप्ता हमें अपने आस-पास या समाज की नब्ज टटोलते कथानक लेने चाहिए, जो मन को कचोटे ... आस-पास तो दहेज़ ह्त्या ,बलात्कार, धार्मिक उन्माद, बुजुर्गों की उपेक्षा ही सर्वाधिक देखने में आती है, फिर इन पर पुराने विषय होने की मोहर क्यों ?
बलराम अग्रवाल अगर आपकी कथन-भंगिमा में नवीनता है तो पुराने विषय भी 'दीवारें बोल उठेंगी' की तर्ज पा सकते हैं। वाल्मीकि के बाद तुलसीदास ने भी रामकथा लिखी, राधेश्याम कथावाचक ने भी और अब नरेन्द्र कोहली ने भी। कथन-भंगिमाएँ और स्थापनाएँ सबकी भिन्न हैं। इस भिन्नता को प्रस्तुत करने के लिए लेखक को अपनी दृष्टि के दायरे को बढ़ाना पड़ता है अध्ययन के द्वारा।
सुभाष नीरव अच्छा प्रश्न और उतना ही अच्छा उत्तर !
राजेश शॉ लघुकथा को भूमिकाविहीन रखने का सरल तरीका या कितना तक छूट है ? सादर ।
बलराम अग्रवाल भूमिकाविहीन रखने का सबसे सरल और प्रभावकारी तरीका हैलघुकथा को संवाद से शुरू किया जाए। उसे बोझिल होने से बचाने का प्रभावकारी तरीका हैउसमें नैरेशन को कम रखा जाए और मारक बनाने का तरीका हैउसमें द्वंद्व को स्थान दिया जाए।
राजेश शॉ और छूट सर ??
बलराम अग्रवाल कैसी छूट?
राजेश शॉ जो भूमिका देने से नहीं हिचकते, और लघुकथा की श्रेणी भी मिल जाती है कैसे ?
बलराम अग्रवाल उनमें ‘भूमिका’ की भूमिका को पाठक/आलोचक अपरिहार्य मानकर स्वीकार कर चुका होता है।
शेख शहजाद उस्मानी कई बार नेरेशन में भी प्रतीकात्मक कटाक्षपूर्ण बात बाख़ूबी उभर जाती है, मिश्रित शैली की लघुकथा में। फिर भी पाठक उसे लघुकथा के रूप में स्वीकार क्यों नहीं कर पाते? क्या विवरणात्मक शैली में केवल नेरेशन ही होगा या होता है या होना चाहिए?
बलराम अग्रवाल आप इस सवाल को दोबारा करें शहजाद। इसमें आप काफी कन्फ्यूज्ड नजर आ रहे हैं। मिश्रित शैली की लघुकथा से आपका तात्पर्य शायद उस लघुकथा से है जिसमें नैरेशन और संवाद दोनों होते हैं। अधिकतर लघुकथाओं में ये दोनों होते ही हैं। बहुत कम लघुकथाएँ हैं जिनमें केवल नैरेशन या केवल संवाद हों। आप ऐसी रचनाओं में ‘कई बार’ यानी ‘कभी-कभार’ केवल नैरेशन में ‘प्रतीकात्मक कटाक्षपूर्ण’ बात के उभर आने की बात कह रहे हैं। ऐसी रचना को पाठक क्यों लघुकथा स्वीकार नहीं करता, यह रचना को देखे बिना नहीं बताया जा सकता। इस सवाल का दूसरा हिस्सा मेरी समझ में नहीं आ रहा।
कपिल शास्त्री 'ब्रह्म सरोवर के कीड़े' में तो आपने शीर्षक से ही ब्राह्मणों, पंडितों को कीड़े कहकर उनकी बखिया उधेड़ दी थी। संभवतः पुस्तक के संदर्भ में इतनी त्वरित प्रतिक्रियाएँ या रोष प्रकट नहीं होता किन्तु फेसबुक पर तो लोग फौरन आग उगलने लगते हैं। आजकल माहौल भी बहुत गर्म है।कुछ समीक्षक भी अल्पसंख्यस्कों व नारी-सम्मान के पक्ष में आकर जोरदार दलीलें देते हैं और लेखक को सख्त हिदायतें कि किसी भी पक्ष को आपकी लेखनी से ठेस नहीं पहुँचनी चाहिए। ऐसी स्थिति में क्या लेखक को सिर्फ सुंदरसार्थक संदेश देने वाली कथा ही लिखनी चाहिए या ज्वलंत विषयों पर वास्तविकता दर्शाती कथाएँ।
बलराम अग्रवाल 'ब्रह्म सरोवर के कीड़े' हमारे चारों ओर रेंग रहे हैं ऐसा मुझे लगातार लगता है। एक जाति-विशेष जिस आधार पर 'बुद्धि' पर अपना पेटेंट मान बैठी है वह आतंकित करता है। इसी साल मैं भगवान केदारनाथ दर्शन के लिए लाइन में खड़ा था। आप जिस तीर्थस्थान पर जाएँगे, कीड़े आपको चिपकना शुरू हो जाएँगे। उनसे मैं तो सावधान रहता ही हूँ अपने आसपास को भी सावधान करने की कोशिश करता हूँ। एक कीड़ा वहाँ पर मेरे आगे खड़े एक राजस्थानी श्रद्धालु से आ चिपका। टोका तो झगड़ा हो गया। वह लघुकथा जाति-विशेष की बजाय वृत्ति-विशेष पर है, लेकिन साधन तो किसी न किसी को चुनना ही था जो सर्व-सुलभ भी हो।
कान्ता रॉय  जितना सुन्दर प्रश्न उतनी ही अच्छी विवेचनात्मक उत्तर। कपिल शास्त्री सही कहा। पंडों से सावधान रहना जरूरी है। इन्होंने तो भगवान का ही पेटेंट करा लिया है।
सुनीता त्यागी वास्तव में ऐसी वृति के लोग कीड़े समान ही हैं । जो एक बार जोंक की तरह चिपक गये तो छूटने का नाम नहीं लेते।
नीना सिंह सोलंकी सर, लघुकथा संवाद से प्रारंभ करना अधिक उपयुक्त होता है क्या ?
बलराम अग्रवाल ऊपर प्रिय राजीव शॉ को दिया उत्तर देखकर पुन: प्रश्न कर सकती हैं।
प्रेरणा गुप्ता आदरणीय सर, किसी एक ही रचना को कोई विधा का ज्ञाता पास कर देता है और दूसरा उसे पास न करे, ऐसे में क्या करें ? सादर।
बलराम अग्रवाल ऐसे में अपने अन्दर बैठे आलोचक पर विश्वास करें। उसे समय-समय पर सही खुराक देते रहें ताकि वह स्वस्थ बना रहे।
नीना सिंंह सोलंकी सर जो बात हम भूमिका से बताना चाहते हैं वही बात संवाद के बाद बता सकते हैं क्या ? आभार
बलराम अग्रवाल दो बातें सामने आती हैं—पहली, रचना लिखते समय लेखक का मूड क्या है और दूसरी, उसके संपादन के समय वह उसके किस रूप को बेहतर मानता है।
राजेश शॉ और सर लेखकीय प्रवेश की तरह भूमिका जानने का भी कोई सूत्र सुझाएँ !
बलराम अग्रवाल अगर वह लेखक का अनर्गल प्रलाप/विद्वता प्रदर्शन/असंगत या अनावश्यक विवरण महसूस हो तो समझ जाइए।
सुनील वर्मा कभी कभी ऐसा होता है कि कथा में पात्र का दो तीन दिन का कर्म अनवरत लिखना होता है, और आखिरी वाले दिन कुछ ऐसा होता है जो चिंतन/संदेश की वजह बनता है| (जैसे गड़रिये का रोजाना भेड़िया आया चिल्लाना और आखिरी दिन भेड़िये का सच में आ जाना) अक्सर इन परिस्थितियों में फ्लेशबैक तकनीक उतना प्रभावित नही करती, इस अवस्था में कथा को किस तरह कहा जाये..?... क्योंकि यहाँ चार दिन का कालखंड समेटना होता है|
बलराम अग्रवाल चार दिन क्या, चालीस दिन भी समेटने की जरूरत पड़े तो आप समेटिए। सावधानी सिर्फ यह कि जिस संवेदन-बिंदु पर आप केन्द्रित हैं, उससे बिखरकर बीच-बीच में दूसरी, तीसरी संवेदना पर बात करते हुए पुन: पहली पर न आ जाएँ; यानी एक लघुकथा में आपने जिसका पल्लू एक बार थाम लिया है, अन्त तक उसी का बनकर रहना है। दूसरे पल्लू के लिए दूसरी लघुकथा।
राजेश शॉ फिर लघुकथा मे 'अगले दिन' लिखा जा सकता है ?
बलराम अग्रवाल  अच्छा तो यही होगा कि पाठक को संवाद आदि किसी अन्य माध्यम से पता चले कि यह 'अगले दिन' घटित हुआ।
शेख शहजाद उस्मानी बहुत बढ़िया सोदाहरण जवाब, मार्गदर्शक।
अनघा जोगलेकर सर, मैं भी इससे मिलता जुलता ही पूछना चाहती थी। क्या लघुकथा भूत से होते हुए वर्तमान में नही आ सकती? हमेशा फ्लेशबैक से ही भूतकाल में जाना आवश्यक है? इसमें भी तो अचानक बदलाव नही होगा यदि बहुत ही अधिक भूतकाल में न चले जाएँ तो। भूत वर्तमान आपस में जुड़े ही तो हैं।
मधु जैन कभी कभी किसी अन्य की रचना का विषय / कथ्य अच्छा लगने पर मन कहता है, कि हम इसी विषय कुछ अलग तरीके से लिख सकते हैं तो लिखना क्या यह चोरी के अंतर्गत आएगा?
बलराम अग्रवाल हर लेखक पढ़ी हुई रचनाओं के भीतर से अंकुरित होते विचार-बिंदुओं को पकड़ता है और पालता-पोसता भी है। अगर घटनाक्रम, परिस्थितियाँ और ट्रीटमेंट भिन्न है तो चोरी नहीं कहा जाना चाहिए। वैसे यह तो कथाकार के कौशल पर निर्भर करता है कि 'चोरी' करने में वह कितना सिद्धहस्त है। कई लोग चोरी किए बिना भी चोर सिद्ध हो सकते हैं, कई उसे एकदम मौलिक की तरह निकाल सकते हैं।
कान्ता रॉय अच्छी सिद्धहस्तता है यह.
अनघा जोगलेकर सर, एक और प्रश्नलेखक को कैसा कथानक चुनना चाहिए और किस तरह कथा लिखनी चाहिएस्वयं की दृष्टि से स्वयं के लिए, पाठक की दृष्टि से पाठक के लिए?
बलराम अग्रवाल स्वयं की दृष्टि से स्वयं के लिए लिखिए, दूसरे किसी के लिए नहीं।
क्षमा सिसौदिया आदरणीय प्रणाम। सर्वप्रथम आप मेरा अभिनंदन स्वीकारें । 1-मेरा पहला प्रश्न है कि लघुकथा एक सार्थक संदेश प्रदान करने का श्रेष्ठ साहित्य है । तो क्या इस विधा में श्रृंगार रस में लिखना उचित है ?
उदाहरणार्थ- नारी शरीर का वर्णन यदि आवश्यक ही हो तो सिर्फसां केतिक भाषा का प्रयोग हो ।   2- दूसरा प्रश्न यह है कि लघुकथा लिखने का सही मापदंड क्या ? कभी-कभी दिग्भ्रमित दिशा और दशा हो जाती है कथाकार की । कृपया मार्गदर्शन करें ।
बलराम अग्रवाल 1-भरत मुनि ने नौ रस बताए हैं। उन सभी में साहित्य रचा जा सकता है। आपको देखना यह है कि आप जिस युग में जी रहे हैं, उस युग की दिशा क्या है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि आपके चिंतन-मनन की दिशा अपने युग से भिन्न किसी दूसरी ओर जा रही है। अगर आप 'श्रृंगार' के माध्यम से आज के युग की विसंगतियों को व्यक्त करने में स्वयं को अधिक अनुकूल महसूस करती हैं तो अवश्य उस रस को अपनाइए। 2-इस सवाल का जवाब प्रकारान्तर से ऊपर कहीं दिया जा चुका है। देख लें।
रेखा श्रीवास्तव लघुकथा क्या सिर्फ सीमित कालखण्ड की रचना बनने में ही सार्थक होगी ।
बलराम अग्रवाल विषय-बिंदु के संघटित रखने की दृष्टि से ऐसा करना अनायास ही आवश्यक प्रतीत होने लगता है।
पवन जैन लघुकथा में पात्र की सोचने की बातों को कथा में समाहित किया जा सकता है जैसे :-
1- वह पत्नी के कटु शब्द सुन कर कुर्सी पर बैठ गया और सोचने लगा इससे कैसे पीछा छुड़ाया जाये ,वह मन ही मन योजना बनाने लगा।
2- उसकी सीट के आगे दो लडकियां बैठी थी ,वे आपस में बात कर रहीं थीं ।वह उनकी बातें सुन रहा था, वह सोचने लगा यह पीढ़ी सिर्फ नेट और मोवाइल की बातों में व्यस्त रहती है।
3- मैं पार्क में बैठा बैठा सोच रहा था कि जीवन नष्ट कर दियाअभी तक कुछ कर नहीं पाया।
लघुकथा स्वप्न में घटित घटना के रूप लिखा जा सकता है।
बलराम अग्रवाल लघुकथा को स्वपन में घटित घटना का प्रयोग करते हुए अनेक प्रभावशाली लघुकथाएँ लिखी जा चुकी हैं। ऊपर वाले 3 बिंदु आपने किस उद्देश्य से लिखे हैं, माफ करना, समझ नहीं पाया।
अर्विना गहलोत सर द्वारा बताए गए तीन बिंदुओं में लेखक स्वयं सोच रहा है। कथा के मानक में स्वयं मतलब लेखकीय प्रवेश माना जाता है ।क्या ये सही है सर
बलराम अग्रवाल 1- वह पत्नी के कटु शब्द सुन कर कुर्सी पर बैठ गया और सोचने लगा इससे कैसे पीछा छुड़ाया जाये ,वह मन ही मन योजना बनाने लगा।----इस पंक्ति को यहाँ पढ़ने पर लेखक का प्रविष्ट होना महसूस नहीं हो रहा। सामान्य नैरेशन को लेखक की प्रविष्टि नहीं मानना चाहिए।
2- उसकी सीट के आगे दो लडकियां बैठी थी ,वे आपस में बात कर रहीं थीं ।वह उनकी बातें सुन रहा था, वह सोचने लगा यह पीढ़ी सिर्फ नेट और मोवाइल की बातों में व्यस्त रहती है।---यह भी नैरेशन ही है। लेखक की उपस्थिति नहीं।
3- मैं पार्क में बैठा बैठा सोच रहा था कि जीवन नष्ट कर दियाअभी तक कुछ कर नहीं पाया।---यह आत्मकथात्मक शैली का वाक्य है। इसे भी लेखक का उपस्थित होना नहीं मानना चाहिए।
सुनीता त्यागी एक बार किसी विद्वान ने कथा में सोचने वाली बात पर कमैंट किया था कि उसने क्या सोचा ये आपको कैसे पता चल गया। क्या आप अन्तरयामी हैं।
बलराम अग्रवाल  कथा-लेखक समूची कथा का यानी कथा में वर्णित पात्रों का, उनके सर्वकोणीय चरित्र का, वातावरण और स्थितियों-परिस्थितियों सब का ‘सर्जक’ है। कथा लिखते समय वह सामान्य व्यक्ति न होकर रचयिता यानी अन्तरयामी ही होता है।
कान्ता रॉय प्रश्न यह है कि क्या पात्र द्वारा सोचने की प्रक्रिया को 'क्षण विशेष में घटनाक्रम के घटित होना' मान सकते हैं?
बलराम अग्रवाल  देखना यह होगा कि पात्र द्वारा सोचने की प्रक्रिया जिस ‘कालखण्ड’ को समेट रही है, वह ‘कालखण्ड’ तत्सम्बन्धी लघुकथा की अन्तर्वस्तु के अनुरूप ‘क्षण’ को रच पा रहा है या समयावधि को ही व्यक्त कर रहा है। लघुकथा में ‘क्षण’ को हमें यानी लेखक और समीक्षक दोनों को, कथा-घटना की अन्तर्वस्तु से जोड़कर देखने का अभ्यस्त होना पड़ेगा।
उषा भदौरिया नमस्कार सर । मेरा प्रश्न है कि कहा जाता है कि संवाद , किसी भी रचना की जान होते हैं ...ऐसे में अगर कोई रचना बिना संवाद के ही लिखने में ठीक लग रही हो तो ये कहाँ तक उचित होगा ?
और साथ ही vice versa ... अगर सिर्फ संवाद में ही लिखी जाए तब ?
बलराम अग्रवाल प्रथमत; तो सिर्फ नैरेशन पाठक को कितना कथारस दे सकता है--यह देखना जरूरी है। सिर्फ नैरेशन लेखकीय वक्त्व्य जैसा भी किसी बिंदु-विशेष पर पहुँचकर लग सकता है। इसलिए जरूरी है कि कथा को संवादों के माध्यम से पूर्णता देने पर ध्यान दिया जाए। सिर्फ संवादों में भी कथा को पूर्णता प्रदान की जा सकती है। शर्त यही है कि उनके समापन में भी अधूरापन पाठक को न लगे।
शेख शहजाद उस्मानी यहां लघुकथा की विवरणात्मक शैली के संदर्भ में इस सवाल का जवाब देने की कृपा कीजिए।
बलराम अग्रवाल  विवरण उपलब्ध कराने वाला कथाकार ही है। कथा का स्त्री पात्र भी वह है, पुरुष पात्र भी वह है, बच्चा-बूढ़ा-जवान सब-कुछ वही है। वही कुत्ता है, कौआ है, पेड़ भी है। गरज यह कि कथा लिखते समय वह मात्र एक इंसान नहीं, पूरी दुनिया है। विवरण देने के कार्य को नाटक में "सूत्रधार" के माध्यम से नाटकीय ढंग से सम्पन्न किया जाता है, इस तरह नहीं जैसे लेखक अपनी विद्वता दिखाने को कुछ स्पष्टीकरण देने को खड़ा हो गया हो। यदि कभी आपने रंगमंचीय नाटक देखा-पढ़ा हो तो आप आसानी से इस बात को समझ पाएँगे। कथा में यही कार्य कथाकार के भीतर बैठा 'सूत्रधार' करता है। उस समय वह एक इंसान नहीं रहता, रचियता होता है, सर्जक। यदि कथ्य प्रेषण के लिए आवश्यक/ सम्बन्धित विवरण को अपनी व्यक्तिगत हस्ती से अलग 'सूत्रधार' के रूप में नहीं प्रेषित कर पाता है तो यह उसकी कमजोरी कहलाएगी, इस शिल्प पर उसे और श्रम करना चाहिए।
सुनील वर्मा 'शीर्षक चयन' बहुत उलझाता है| हाँलाकि..यह कथा के स्वभाव/संदेश पर निर्भर करता है..परंतु कोई विशेष बिंदु हो तो बतायें जिन पर विचार करके सटीक शीर्षक चुना जा सके|
बलराम अग्रवाल शीर्षक मुझे भी उलझाता है। हर उस कथाकार को उलझा सकता है जो विचार को कथा-घटना में ढालता है। जो कथाकार घटना को कथा में ढालते हैं, उनके लिए शीर्षक चुनना अपेक्षाकृत आसान होता है।
उषा भदौरिया किसी गाँव या किसी अन्य जगह से रिलेटेड रचना लिखने पर , क्या ग्रामीण /आँचलिक भाषा का ही प्रयोग कर लिखना चाहिए या फिर ऐसे विषयों पर लिखना ही नहीं चाहिए ? क्योंकि सामान्य भाषा में लिखी गयी रचनाएँ उतनी प्रभावी नहीं लगती ...
बलराम अग्रवाल लघुकथा में ग्रामीण अंचल की भाषा का प्रयोग संवाद-प्रस्तुति में किया जा सकता है, अक्सर किया भी जाता है। ऐसा करते समय मुख्यत: जो सावधानियाँ जरूरी हैं, वे हैं—1. आंचलिक भाषा का प्रयोग आवश्यक होने पर ही किया जाए और इस अनुपात में कि रचना हिन्दी की बजाय उक्त आंचलिक भाषा/बोली की ही होकर न रह जाए। 2. प्रयुक्त भाषा/बोली पात्र और समय के अनुकूल हो यानी वह पात्रों और परिस्थितियों पर थोपी गयी प्रतीत नहीं होनी चाहिए; तथा, 3. लेखक स्वयं उक्त आंचलिक भाषा या बोली का जानकार यदि नहीं है तो उक्त भाषा/बोली के किसी अच्छे जानकार से उन संवादों का अनुवाद प्राप्त करके ही उनका प्रयोग रचना में करे। ग्रामीण अंचल की घटनाओं और पात्रों से जुड़ी लघुकथाएँ सामान्य भाषा में उतनी प्रभावी नहीं लगतीं—यह कथन अंशत: ही सही है, पूर्णत: नहीं। श्रेष्ठ रचनाएँ अनुवाद के जरिए ही विश्वभर में पढ़ी जाती हैं और कोई भी अनुवादक स्रोत अंचल की भाषा को ज्यों का त्यों दूसरी भाषा में प्रस्तुत नहीं कर सकता, उसे वह ध्येय भाषा के ही प्रचलित शब्दों में प्रस्तुत करता है, उसके आंचलिक शब्दों में नहीं। उदाहरण के लिए, मालवी बोली में, पंजाबी भाषा में लिखे/बोले गये संवादों का अंग्रेजी में अनुवाद अंग्रेजी शब्दों के माध्यम से होगा, मालवी या पंजाबी शब्दों के माध्यम से नहीं। दूसरी बात, आंचलिक बोली और भाषा के संवादों का ‘रस’ उस अंचल की बोली/भाषा के जानकार को जितना मिलता है, गैर-जानकार को नहीं।
सुनील वर्मा  समूह के एडमिन होने के नाते बहुत बार हमें समूह में इस विधा में प्रयासरत नवागतों से लघुकथा के वास्तविक स्वरूप पर चर्चा करनी होती है|
लघु कहानी और लघुकथा में फर्क पर आपका दृष्टिकोण जानना चाहूँगा..क्योंकि इन दिनों सिर्फ कथानक की रोचकता को केन्द्र में रखकर बहुत कुछ कहानी जैसा 'कम शब्दों में' लिखकर उसे लघुकथा का नाम दिया जा रहा है|
बलराम अग्रवाल ‘लघुकथा’ और ‘कहानी’ में जो अन्तर है; वही अन्तर ‘लघुकथा’ और उस रचना में है जिसे आप ‘लघु कहानी’ रेखांकित कर रहे हैं। मैं आपके इस कथन से सहमत हूँ कि बहुत-सी रचनाएँ कम शब्दों में लिखी कहानी ही सामने आ रही हैं। ‘लघुकथा’ जिस वर्णनात्मकता का निषेध करती है, उसमें वह निषिद्ध नहीं रहती, यही मुख्य अन्तर है।
ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश आप शीर्षक का चुनाव कैसे करते हैं ? ये लघुकथा के कथातत्व से सम्बंधित होता है या अन्य पर ?
बलराम अग्रवाल अधिकतर तो यह लघुकथा की अन्तर्वस्तु पर केन्द्रित होता है।
नीता सैनी शीर्षक चुनाव भी लघुकथा की रोचकता बढ़ाता है । लेकिन यह समस्या मेरी भी है ।
नेहा नाहटा पहला प्रश्नसभी कहते हैं रचना को लिखकर भूल जाएं, खूब वक्त दे, फिर पोस्ट करें। इससे दो बातें निकल कर आती हैं, प्रतियोगिता में समय सीमा होने से ‘चट लिखो पट डालो’ वाली स्थिति आ जाती है। दूसरा, कोई रचना एक बार में ही सटीक लिखी जाती है, सबकी तारीफ मिलती है जबकि कोई एक रचना दसों बार सुधार के बाद भी संतुष्टि नही देती है।  2 .. आसपास या हमारे अपने बीच से घटित किस्सा या घटना पर हम लघुकथा लिखते है, बस उसमे थोड़ा काल्पनिक मसाला डालकर। फिर उसे यह कहकर नकार दिया जाता है कि सत्य घटना है यह तो मात्र या इससे समाज को गलत मेसेज जायेगा।  और जब विसंगति पर लिखते है तो कहा जाता है अंत पोसिटिव हो। लेकिन कई विसंगतिया नेगेटिव रिजल्ट भी तो देती है ।
बलराम अग्रवाल नेहा जी, ‘चट लिखो, पट डालो’ की स्थिति तक पहुँचने के लिए एक लघुकथाकार को कितनी साधना की जरूरत है आप अच्छी तरह समझ सकती हैं। ‘सबकी तारीफ मिल जाना’ आपकी नजर में लघुकथा की उत्कृष्टता का पैमाना है, तारीफ न मिलने पर आप रचना को सुधारने बैठ जाती हैं यानी रचना के बारे में अपने विवेक का प्रयोग आप नहीं कर रही हैं। वस्तुत: हमें यह भी जरूर देखना चाहिए कि तारीफ करने वालों का आलोचकीय-विवेक और स्तर क्या है। 2- सपाट लेखन करेंगी तो अधिकतर स्थिति यह होगी कि रचना नकार दी जाएगी। पाठक कथा पढ़ने के लिए आपकी रचना को उठाता है, खबर पढ़न के लिए नहीं। लघुकथा का अंत नेगेटिव हो या पॉजिटिव, उसकी स्थापना नैगेटिव नहीं होनी चाहिए। शहर के बीच अगर किसी की हत्या हो जाए तो आप व्यवस्था के निकम्मेपन पर सवाल उठा सकती हैं; लेकिन अगले ही पल आपको पता चले कि मरने वाला आतंकवादी था तो व्यवस्था के खिलाफ आपका मन्तव्य बदल जाएगा। बस, इसी के मद्देनजर तय कीजिए कि आपको किस तरह लिखना है यानी लघुकथा का आदि, मध्य, अन्त कैसा रखना है।
रूपेन्द्र राज लघुकथा बहुत दुविधा के दौर से गुज़र रही है। जो मानक तय हैं उन्हें बहुत कम लोग जानते हैं। जब किसी अन्य गैर लघुकथा मंच अथवा पटल पर (आनलाइन) एक लघुकथाकार अपनी कथा प्रेषित करता है तो उसे ऐसे समीक्षकों की समीक्षा से गुजरना होता है जिन्हें इस विधा का ज़रा भी ज्ञान नहीं होता। ऐसी परिस्थिति में उन्हें विधा का ज्ञान देना कितना उचित है? पता नहीं ये प्रश्न कितना सार्थक है किन्तु ऐसी समस्या से हमें दो चार होना पड़ता है, उस स्थिति में बाज़दफ़ा मनोबल भी गिरता है।
बलराम अग्रवाल जब आप यह जानती या महसूस करती हैं कि उक्त टिप्पणीकार/'समीक्षक को इस विधा का जरा भी ज्ञान नहीं है', तब उससे विचलित ही क्यों होती हैं? आगे यह आपको स्वयं तय करना है कि आपने कलम लघुकथा लिखने के लिए उठाई है या 'विधा का ज्ञान' देने के लिए।
उषा भदौरिया Actually, ऐसे लोग समीक्षक नहीं सिर्फ पाठक ही होते हैं ..जो सिर्फ रचना पढ़कर.. सिर्फ विषय के आधार पर अपनी टिपण्णी करते हैं ...विचलित क्या ..उनको विधा का ज्ञान भी देने को आवश्यकता नहीं ....
बलराम अग्रवाल जब आप यह जानती या महसूस करती हैं कि उक्त टिप्पणीकार/'समीक्षक को इस विधा का जरा भी ज्ञान नहीं है', तब उससे विचलित ही क्यों होती हैं? आगे यह आपको स्वयं तय करना है कि आपने कलम लघुकथा लिखने के लिए उठाई है या 'विधा का ज्ञान' देने के लिए।
रूपेन्द्र राज लघुकथा लिखने के लिए ही आदरणीय, किंतु हम इस विधा का हर संभव प्रचार भी चाहते हैं, और यह भी कि इसे भी गद्य की अन्य विधाओं के जैसा प्रतिसाद मिले।
बलराम अग्रवाल मुझे लगता है कि रचना-लेखन में पारंगत लोगों को रचनाशीलता पर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखना चाहिए। आलोचना की प्रकृति भावपरक नहीं है और वह रचनात्मक मानसिकता के विकास से अलग है। आलोचना में उतरकर कथाकार रचनारत अक्सर नहीं रह पाता, बहसों में ही उलझकर रह जाने का खतरा बन जाता है। इसलिए बजाय लघुकथा का हित होने के आप अनायास ही अपने रूप में उससे एक लेखक कम कर देने का अपराध कर सकते हैं।
कान्ता रॉय  बिलकुल सही! हम सबके लिए प्राथमिकता सिर्फ लेखन होना चाहिए।
रूपेन्द्र राज इसका अर्थ यह भी निकलता है आदरणीय कि जिस प्रकार के पाठक हों, उन्हें वैसा ही साहित्य परोसें। हम केवल सीमित दायरे में रह जाएं?
कान्ता रॉय नहीं, इसका मतलब यह है कि हम अपनी समझ के अनुसार सदा बेहतरी के लिए प्रयास करें। कोई और जाने ना जाने, चूंकि हम जानते हैं कि हमारे लिए कि हम क्या हैं और क्या हो सकतें हैं, इसलिए दूसरों की परवाह किए बगैर अपने कर्म के प्रति सचेत रहना जरूरी है।
बलराम अग्रवाल सामान्य पाठक नहीं जानता कि उसे क्या पढ़ना चाहिए। उसकी इस अबोधता का लाभ व्यवसायिक लेखक और प्रकाशक बखूबी उठाते हैं। प्रबुद्ध लेखक वह है जो पाठक की रुचि को परिष्कृत करने की मुहिम चलाता है। कहानी के क्षेत्र में यह काम प्रेमचंद ने किया। ‘चन्द्रकांता’, ‘चन्द्रकांता सन्तति’ और ‘भूतनाथ’ की धारा को उन्होंने जनोपयोगी बनाया, लोगों में लूट, अन्याय, अत्याचार और अंधविश्वास आदि के खिलाफ सोचने का बीज बोया।
शेख शहजाद उस्मानी फिर फेसबुक पर सीखने सिखाने की प्रक्रिया कैसे चल सकेगी???
कान्ता रॉय  जितना प्राप्य है उसमें से नहीं सीखा जिसने, उसको आगे भी नहीं सीखा सकता है कोई।
सविता गुप्ता विधा के विकास के लिए प्रयोग किये जाने को कहा जाता रहा है। इस विधा में कुछ लेखक एक पंक्तिय लघुकथा, काव्यात्मक लघुकथा, अमूर्त शिल्प की पैरवी करते हैं। कहानी में भी अनेकोनेक प्रयोग और आंदोलन चले जिनमें से अधिकतर हास्यास्पद हो कर अल्पजीवी हो कर भुला दिए गए। प्रश्न है - लघुकथा के मानकों पर ही जब मतैक्य में भ्रम है, ऐसे में प्रयोग की सीमाएं और दिशा क्या रहे ?
रूपेन्द्र राजसविता जी आपका प्रश्न मेरे प्रश्न का भी समर्थन कर रहा है।
सुभाष नीरव सविता का प्रश्न महत्वपूर्ण है। इसका जवाब भी दिया जाना चाहिए।
बलराम अग्रवाल विधा के विकास के लिए प्रयोग; और सिर्फ प्रयोग के लिए प्रयोग—ये दो अलग बातें हैं। सिर्फ प्रयोग के लिए प्रयोग विधा को कभी भी ऊँचाई प्रदान नहीं कर सकते। अणुकथा और लप्रेक आदि के रूप में ये होते रहे हैं, आगे ही होते रहेंगे। प्रयोगशीलता अपनाने का मतलब अराजक हो जाना नहीं है। लघुकथा कथा-साहित्य की विकासशील विधा है, कोई प्रयोगशाला नहीं है। कहानी के आंदोलनों का आपने हवाला दिया जो उचित ही है; लेकिन लघुकथा की स्थिति कहानी जैसी सुदृढ़ अभी नहीं है। लघुकथा के मानकों पर मतैक्य न होने के बावजूद लघुकथा-विचारकों के बीच अराजक स्थिति नहीं है। स्कूल अलग-अलग अवश्य हैं, उद्देश्य अलग नहीं हैं। लघुकथा का पाठक-वर्ग इतना सजग और विवेकशील है कि समय और साहित्य के सरोकारों से इतर रचना को घोर प्रचार के बावजूद भी नकार देता है। लघुकथा में प्रयोग की कोई सीमा मैं नहीं मानता; हाँ, ‘दिशा क्या रहे’ के उत्तर में कहना चाहूँगा कि वे अपने समय की प्रवृत्तियों से भिन्न न हों, भिन्न हों तो पतनशील न हों।
बीना शर्मा आदरणीय क्या एक ही शीर्षक से अन्य लघुकथा लिखी जा सकती है
बलराम अग्रवाल मंत्र शीर्षक से प्रेमचंद की दो कहानियाँ है, दो कहानियाँ परिक्षा शीर्षक से हैं। अशोक भाटिया ने एक ही शीर्षक से पाँच, सात, दस लघुकथाएँ लिखी हैं। उसके बावजूद, मेरा मानना है कि हर लघुकथा को अलग शीर्षक दिया जाए। हम नौ भाई-बहन हैं और सभी के नाम पिताजी-माताजी ने अलग-अलग रखे हैं। एलिजाबेथ-प्रथम, एलिजाबेथ-द्वितीय, एलिजाबेथ-तृतीय जैसी परम्परा भारत में नहीं है।
नीता सैनी आपकी लघुकथा और मेरी लघुकथा का शीर्षक एक हो सकता है ? क्योंकि सबकी रचनाओं के शीर्षक तो हमे याद नहीं रहते ।
कुणाल शर्मा चित्र आधारित या विषय आधारित लघुकथाएं लघुकथाकारों या लघुकथा पर किस हद तक सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव छोड़ रही है सर ?
बलराम अग्रवाल अभ्यास के लिए बुरा क्या है
अर्विना गहलोत चित्र से एक खाका खिच जाता है लिखना आसान हो जाता है
शेख शहजाद उस्मानी मुझे तो बहुत सुविधा होती है चित्र से । शीर्षक पढ़कर कथानक नहीं सूझते!!
क्षमा सिसौदिया सर, 1-लघुकथा की आवश्यकता हो तो कथा में काव्य का सम्मिश्रण किया जा सकता है ?
2- किसी शीर्षक पर जब कथाकार कथा लिखता/लिखती है तो कथा में शीर्षक का अर्थ आना ही चाहिएतभी वह सही अर्थ रखता हुआ सही कथा की श्रेणी में आएगा न ?
बलराम अग्रवाल 1- कथा में काव्य का नगण्य उपयोग होना चाहिए, काव्य-तत्वों का उपयोग उस नगण्य से थोड़ा ज्यादा, इतना कि वह कथा पर हावी न हो जाए, कर सकते हैं, करना चाहिए। 2- तात्विक दृष्टि से शीर्षक कथावस्तु का प्रतिनिधित्व करता है।
शेख शहजाद उस्मानी मैंने ऐसी रचना कहने का अभ्यास किया था। आपकी राय चाहूंगा।
जानकी वाही आ. सर जी, मेरा प्रश्न है कि दृश्य-चित्रण की लघुकथा में कितनी उपयोगिता है और हम कैसे दृश्य चित्रण के साथ साथ लघुकथा का आकार भी संक्षिप्त रख सकते हैं।
बलराम अग्रवाल सवाल के पिछले हिस्से का जवाब पहले, शुरू के हिस्से का बाद में दे रहा हूँमेरी अधिकतर लघुकथाओं का आकार संक्षिप्त नहीं है, फिर भी मुझे क्यों लघुकथाकार माना जाता है, यह बात मेरी समझ से बाहर है। अब, शुरू का हिस्सादृश्य-चित्रण हर कथा-विधा की जान है; लेकिन लघुकथा में यह मात्र शाब्दिक कलाबाजी न होकर द्वंद्व को समझने में सहायक होता है।
जानकी वाही हार्दिक आभार सर जी, महत्वपूर्ण जिज्ञासा शांत हुई। और एक राह भी मिली। सर जीसमाचार पत्र में साथी लघुकथाकारों की कथा देख उत्साहित हो हमने भी भेज दीं, किन्तु सम्पादक महोदय ने डेढ़ पृष्ठ का आकार देख बिना पढ़े ही निरस्त कर दी। इसलिए आकार का प्रश्न मन में उठा। 
बलराम अग्रवाल परेशान न हों। किसी एक जगह स्थान न पाने की वजह रचना का कमजोर होना सिद्ध नहीं करता है। समाचार पत्र और अनेक पत्रिकाएँ भी, पेज-मेकिंग के समय अपने पास उपलब्ध स्थान के अनुरूप रचना का चयन करती हैं।                                      उषा भादौरिया एक प्रश्न जो बहुत दिनों से मेरे मन में हैं ...क्या लघुकथा लेखन को as a career option चुना जा सकता है ? अगर हाँ तो कैसे ?
बलराम अग्रवाल अगर आपको ऐसे व्यवसायिक संसाधन, जो कथा के बदले धन दे सकें, उपलब्ध हैं तो अवश्य चुना जा सकता है।
उदय श्री ताम्हणे आदरणीय अग्रवाल जी नमस्कार ! लघुकथा मे यदि पात्रो के नाम के अलावा, शहर, बाजार आदि के नाम भी अंकित किए गए तो उससे लघुकथा कितनीऔर कैसे प्रभावित होगी ?
बलराम अग्रवाल भाई ताम्हणे जी, आपका सवाल नि;सन्देह उपयोगी है। मैं बहुत-सी ऐसी लघुकथाएँ पढ़ता हूँ जिसमें पात्र का नाम यों लिखा जाता है''उसने अपने बेटे अंशुल से कहा।'' या ''अपनी बहू रंजिता से वह बोला…'' आदि। ऐसी लघुकथाओं में यदि 'अंशुल' या 'रंजिता' किसी सन्दर्भ-विशेष को प्रभावित करने वाले हों तो ठीक, अन्यथा मात्र 'अपने बेटे' या 'अपनी बहू' लिखकर ही कथ्य को आगे क्यों न बढ़ाया जाए।
उदय श्री ताम्हणे जी ! आभार !
सुभाष नीरव बलराम यार, उदय श्री पूछ रहे हैं कि लघुकथा मे यदि पात्रो के नाम के अलावा, शहर, बाजार आदि के नाम भी अंकित किए गए तो उससे लघुकथा कितनी और कैसे प्रभावित होगी ?
बलराम अग्रवाल लघुकथा में निष्प्रयोजन कुछ नहीं होता, इस तथ्य को सभी लघुकथा-आलोचक स्वीकारते हैं। रचना में शहर का, बाजार का नाम रचना की वस्तुस्थिति के किस प्रयोजन को सिद्ध करता है, यह देखना होगा। कई बार पात्र का, स्थान का चरित्र रचना में नकारात्मक प्रभाव देने वाला होता है। मान लीजिए ‘उस नगर के सभी लोग अंधे हैं’ में कथाकार भावना-विशेष के वशीभूत उक्त नगर का नाम भी लिख देता है तो सार्वजनिक रूप से यह एक आरोप नहीं कहलाएगा, जब तक कि कथाकार उसे ‘व्यंजना’ न सिद्ध कर दे। व्यक्तियों के, जातियों के, स्थानों के नाम सप्रयोजन ही प्रयुक्त होने चाहिए।
उदय श्री ताम्हणे 'खईके पान बनारस वालाछोरा गंगा किनारे वाला' ऐसे प्रयोग लघुकथा मे भी होना चाहिए ?
बलराम अग्रवाल विषयानुरूप हर प्रयोग किया जा सकता है, किया जाना चाहिए।
राहिला आसिफ आदरणीय सर जी!,मेरा प्रश्न ये है कि यदि लघुकथा को कसने के फेर में उसकी रोचकता खत्म हो रही हो, लेकिन बात पूरी हो रही हो तो क्या करना चाहिए?
बलराम अग्रवाल वीणा के तारों को, तबले या ढोलक की डोरियों को उनमें स्वर की तीव्रता और तीक्ष्णता को बल देने की दृष्टि से कसा जाता है, कसने के क्रम में उन्हें तोड़ डालने से लय-ताल आदि का उद्देश्य कैसे पूरा होगा।
सुभाष नीरव बहुत बढ़िया जवाब !
सुमित कुमार लघुकथा का उद्देश्य क्या है बलराम जी यथार्थवाद पर ही चलना या सत्य को उजागर करना ?
बलराम अग्रवाल 'सत्य' हर व्यक्ति, हर समुदाय का भिन्न है। कुछ सत्य ऐसे हैं जिनका उद्घाटन करने को खतरा उठाना कह सकते हैं। इस बारे में आप ऊपर भाई कपिल शास्त्री को दिया मेरा जवाब देख सकते हैं। यही हाल 'यथार्थ' का भी है। मेरी दृष्टि में लेखन के केन्द्र में 'मानवीयता' रहनी चाहिए और उसका निर्वाह दायित्व और साहस के साथ किया जाना चाहिए।
कनक के हरलालका आदरणीय, क्या लघुकथा की कथावस्तु सामाजिक विसंगतियों का आधार लेकर ही चलनी चाहिए । क्या मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, आधात्मिकबोधात्मक आधार वाली कथावस्तु लघुकथा का कथानक नहीं बन सकतीं ?
बलराम अग्रवाल सामाजिक विसंगतियाँ ही तो आपको लिखने के प्रेरित करती हैं। आधार कुछ भी लिया जा सकता है अपने युग की साहित्यिक प्रवृत्तियों के अनुरूप।
उषा भदौरिया अपवादों पर लिखना कहाँ तक उचित है क्योंकि ऐसे विषयों पर पाठक अचानक से भड़क उठते हैं ..पर अपवाद भी तो लोगों के सामने आने ही चाहिए ...
बलराम अग्रवाल अगर आप शिद्दत से यह महसूस करती हैं कि 'अपवाद भी तो लोगों के समाने आने ही चाहिए' तो लोगों के भड़क उठने के खतरे से तो टकराना ही होगा। या फिर चुप हो बैठे रहिए--'आँसू न बहा फरियाद न कर' की तर्ज पर।
उषा भदौरिया अरे नहीं सर...हम तो लिख ही देते हैं जो हमे लिखना होता है ...नो आँसू...
सुमित कुमार पोर्नोग्राफी से हिन्दी लेखक बचते हैं वरिष्ठ लेखक ऐसा न करने की सलाह देते हैं उन सब की यह सलाह क्या यह साहित्य के हक में हैं ?
बलराम अग्रवाल क्या पोर्नोग्राफी हमारे समाज और समय की मूल चिंता है।
सुमित कुमार नहीं ! समस्या है मन मस्तिष्क में उठे विचारों के परिपक्वता की । बहुत सी कामयाब रचनाओं को बस इसलिए नोक पर रखा है क्योंकि उनमें प्रयुक्त शब्द आम तो हैं मगर झिंझौड़ने वाले हैं । ऐसा क्यों ?
बलराम अग्रवाल कथ्य की गहनता भी देखनी होती है।
सुमित कुमार गहनता तो बनती है न सर । मैंने कहा कामयाब रचनाएँ ।
बलराम अग्रवाल भाई, 'गहनता' यौनावेग की बनती है या विचार की। 'परिपक्वता' के आपके अर्थ अलग हैं, मेरे अलग। दूसरे, किसी कामयाब रचना का नाम बताएं तो आगे विचार हो।
सुमित कुमार मंटो मेरे प्रिय लघुकथाकार हैं । कुछ (साहित्यिक पुरोधाओं) के लिए फुहड़ बदतमीज आदमी । अब क्या कहें ? मैं तो उनको चुन चुका ।
बलराम अग्रवाल  मंटो की किस लघुकथा में आपने पोर्न पढ़ा…
सुमित कुमार मसलन 'नंगी आवाजें' और 'ऊपर नीचे और दरमियाँ' और भी हैं । मैं नहीं कहता वह विवरण बुरा है, मगर कुछ के लिए धर्म भ्रष्ट करने वाला सामान भर ।
बलराम अग्रवाल  ये मंटो की लघुकथाएं नहीं कहानियाँ हैं।
कपिल भारद्वाज एक प्रश्न छोटा सा....गर मंटो सबका ही प्रिय लघुकथाकार है तो फिर 50 साल बाद भी दूसरा मंटो पैदा क्यों नहीं हुआ ? या मंटो जैसा।
बलराम अग्रवाल दूसरा 'राम' पैदा हुआ, 'कृष्ण’, 'महावीर' कौन पैदा हुआ। हर बार नए रूप में जन्म होता है, दोहराव नहीं होता। कहा भी गया है न—हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।
सुमित कुमार लघुकथा की सही सही शब्दसीमा बताएँ । मैंने बहुत बड़ी बड़ी लघुकथाएँ देखी हैं ।
बलराम अग्रवाल मैंने कभी शब्दसीमा का ध्यान नहीं रखा, सिर्फ यह विचार किया कि जिस संवेदन-बिंदु को मैंने कथ्य बनाया है, वह कागज पर कब पूर्णता पाता है।
सुमित कुमार आप एक समृद्ध लेखक हैं । बात नवलेखकों की है जी जिन्हें बार बार नियम बताए जाते हैं ।
सुभाष नीरव नये को भी शब्द सीमा की परवाह नहीं करनी चाहिए। रचना को अपना आकार लेने देना चाहिए।
उषा भदौरिया कुछ विषय ऐसे होते हैं जिन पर गम्भीरता से लिखने पर भी, पढ़ने पर वे सिर्फ मज़ाक / जोक से लगते हैं.. बहुत सारे लोगों ने लिखा है व लिखते हैं नारी उत्पीड़न , पत्नी को टॉर्चर करते हुए।  पर जब एक पति को इसी रूप में दिखाते हैं तो वो उतना सीरियस नहीं बन पाता। एक जोक सा हो जाता है ... फिर महिलाओ पर तो लोग खूब लिखते हैं तो पुरुषों पर क्यों स्वीकार नहीं कर पाते?
बलराम अग्रवाल वर्जनाओं से समाज में स्त्री, निर्धन और अस्पृश्य को गुजरना ही पड़ता है। इन वर्जनाओं के खिलाफ ही तो साहित्यकार खड़ा होता है। देखना सिर्फ यह है कि कोई साहित्यकार दुर्भावनावश या शक्ति के मद में चूर होकर स्त्री, निर्धन और अस्पृश्य के खिलाफ ही तो कलम उठाकर खड़ा नहीं हो गया है। हमारी दृष्टि ऐसे छद्म लेखक पर सदा बनी रहनी चाहिए। प्रगति के नाम पर द्वेष और दमन फैलाने की इजाजत किसी को नहीं मिलनी चाहिए।
पूनम डोगरा कभी-कभी कोई लघुकथा शुरू किसी और तरह से होती है परन्तु अंत तक आते आते बदल जाती है. लघुकथा का प्रारम्भ और अंत में 'कुछ' अलगाव सा हो जाता है परन्तु लेखक को लगता है अपने भाव प्रदर्शित करने के लिए ऊपर वाला हिस्सा भी निहायत आवश्यक है, परन्तु पाठक की दृष्टि इस भटकाव को पकड़ लेती है. इस लोभ से बचने का कोई मंत्र बताइये.
बलराम अग्रवाल केवल एक मंत्र हैरचना को तुरन्त प्रकाशित कराने के लोभ से बचें। कुछ दिनों के लिए उठाकर रख दें, इतने दिनों के लिए कि उसे भूल ही जाएँ, उससे अलग किसी अन्य रचना पर काम करने लगें। ऐसा करने से उस रचना के पूर्व प्रभाव से लेखक बाहर आ जाएगा और नए सिरे से सोच पाएगा। लघुकथा में कथ्य की, विषय की और पात्र के चरित्र की एकान्विति को मैं आवश्यक मानता हूँ।
पूनम डोगरा  एकान्विति ?
बलराम अग्रवाल दूसरे शब्दों में कथ्य की एकसूत्रता ही मान लीजिए।
शेख शहजाद उस्मानी सवाल (व मेरा भी यही सवाल) के जवाब में आप के दिये उत्तर से हमारे अनुभव सदैव सहमत नहीं होते। कुछ दिनों का अंतराल देने पर उस रचना की मूलभूत परिकल्पना/ मूड/भाव जा चुका होता है या उसमें मेहनत करने में रुचि कम हो जाती है मुझे।
बलराम अग्रवाल शहजाद, मेरे भाई, वस्तु-प्रेषण… आसान शब्दों में समझिए कि जो बात आप लघुकथा के जरिए कहना चाहते हैं वह, जब तक रचना में मुकम्मल नहीं आ जाएगा, लेखक को बेचैन किए रखेगा। मूड या भाव के चले जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। रचना तो अपनी औलाद-जैसी होती है, उस पर मेहनत करने में किसी भी माँ-बाप की रुचि कम कैसे हो सकती है।
पूनम डोगरा लघुकथा शिक्षाप्रद अर्थात उपदेशात्मक होनी चाहिए या किसी भी विसंगति की ओर सिर्फ संकेतात्मक. कई बार सुना है कि यह आपने क्यों लिखी, इसका क्या उद्देश्य था?
बलराम अग्रवाल लघुकथा को मैं संकेत की सफल विधा मानता हूँ। संकेत को लिखना ही नहीं, समझना भी कला है। खुद में इसका विकास करना चाहिए।
पूनम डोगरा एक 'सार्थक' लघुकथा की परिभाषा क्या होगी ?
सुमित कुमार वाह।
बलराम अग्रवाल पूनम जी, मैं परिभाषाएँ लिखने में विश्वास नहीं करता। लघुकथा के सम्बन्ध में मेरे वक्तव्यों से ही कोई परिभाषा निकलती हो तो देखें।
सुमित कुमार बार बार प्रयोग होने की वजह कुछ शब्द मात्र शब्द रह गए हैं जो कि हादसा होते हैं मसलन बलात्कार कत्ल खून आदि । इनके पीछे की संवेदना विलुप्तप्राय है । क्या मैं इसे लेखक के फैलियर समझूँ ? या पाठक की संवेदनहीनता ?
बलराम अग्रवाल मैं आपके इस सवाल को शायद समझ नहीं पा रहा हूँ इसलिए सहमति नहीं बन पा रही। प्रेम के, श्रद्धा के, ममता और स्नेह के पीछे की संवेदना नहीं मरी तो इनके पीछे की संवेदना कैसे मर सकती है।
सीमा भाटिया आदरणीय, अब बहुत से लोग लेखन से जुड़े हैं सोशल मीडिया के प्रचार प्रसार के कारण। अब कई बार दो रचनाकारों की लघुकथा का विषय अकस्मात काफी मिलता जुलता हो सकता, क्योंकि ये विषय हमारे आसपास के परिवेश या समाज से ही सम्बंधित रहते। तो जब टिप्पणी आती है तो आमतौर से सुनने को मिलता कि इस विषय पर तो म़ै लिख चुका/ चुकी। जो रचनाकार अपनी तरफ से नवीनतम विषय पर ही लिख रहा होता, ऐसी बातों से हतोत्साहित भी होते। नवीनतम विषयों की तलाश निस्संदेह रहती है सबको, पर फिर भी सामाजिक विषमताएं या पारिवारिक मुद्दे तो सदैव रहते दिमाग में कहीं न कहीं। ऐसे में और नवीन विषयो़ का चयन कैसे किया जाए?
बलराम अग्रवाल सिर्फ लेखन से जुड़ा रहकर कोई बेहतर लेखन कर सकता है, मेरी बुद्धि को स्वीकार नहीं है। उच्च स्तरीय अध्ययन से जुड़े बिना कोई भी व्यक्ति उच्च स्तरीय लेखन नहीं कर सकता, ऐसी मेरी धारणा है, जो गलत भी हो सकती है। ऊपर एक प्रश्न के जवाब में मैंने लिखा है कि नवीन प्रस्तुतियाँ पुराने विषयों में नवीनता भर देती हैं। जो व्यक्ति यह कहता है कि अमुक विषय पर तो उसने काफी पहले लिख दिया था, उसमें आपको, यदि आप विचलित होते हैं तो, देखना मात्र यह है कि दोनों की प्रस्तुति में बेहतर कौन है--वह या आप। अपने आप को बेहतर बनाए रखने के प्रयास जारी रखिए, बस।
सीमा भाटिया सहमत हूँ आदरणीय, बेशक अध्ययन आवश्यक है सुधार के लिए, फिर भी कितना कुछ छूट जाता है पढ़ने से
शेख शहजाद उस्मानी पड़ाव/पड़ताल व अन्य लघुकथा संग्रह/संकलनों में विभिन्न शैलियों में कही गई लघुकथाओं की शैली का अनुकरण करते हुए नवलेखक को लघुकथा लेखन अभ्यास करना चाहिए या नहीं और क्यों? क्या सीखते समय उस पर किसी को शैली के अनुकरण का आरोप लग सकता है/लगाया जाना चाहिए। जब तक कि वह नवलेखक कुछ प्रयोग/अभ्यास करते हुए अपनी स्वयं की शैली समझ/विकसित न कर ले?
बलराम अग्रवाल सब किसी न किसी शैली का अनुकरण ही कर रहे हैं। नई शैली कहाँ से आएगी?
अनघा जोगलेकर मेरा एक प्रश्न और है। हमेशा लिखने से पहले पढ़ने पर जोर दिया जाता है जो लाज़मी भी है । जब हम बहुत सारा पढ़ते हैं तो उनमे से किसी 1 या 2 की शैली सबसे ज्यादा प्रभावित करती है। ऐसे में अपनी कथा या कहानी पर उस विशेष शैली की छाप न पड़े उसके लिए क्या करना चाहिए?
बलराम अग्रवाल लिखते-लिखते रचनाकार की अपनी शैली का विकास हो जाता है।
पूनम झा मेरा एक सवाल है अक्सर इसतरह की लघुकथा पढ़ने को मिलती है जिसमें छेड़-छाड़, बलात्कार और निजी संबंधों को बड़े ही खुले तरीके से लिखी होती है और ऐसी लघुकथा को खूब वाहवाही भी मिलती है | मैं ये जानना चाहती हूँ कि इसे बेबाकी की संज्ञा देकर अमर्यादित भाषा को बढ़ावा नहीं देते ? क्या ये अश्लीलता में नहीं आता ? कृपया मेरे सवाल का जवाब देने का कष्ट करें|
बलराम अग्रवाल पूनम जी, साहित्य लेखन में किसी भी विषय को अछूत नहीं माना जाता। हाँ, भाषा और प्रस्तुति मर्यादित रहनी चाहिए। कोई वस्तु किसी को देते समय हम जिस-जिस तरह से कह सकते हैं, वे हैंले (यानी किसी को अपने से हेय मानकर) लो (थोड़ा लिहाज करते हुए, इसमें बड़ा अथवा अभिजात्य होने का अहंकार भी शामिल है); लीजिए (इसे सम्मानपूर्वक देना कह सकते हैं); ग्रहण कीजिए (इसमें सम्मान के साथ-साथ श्रद्धा भी शामिल है)।