बुधवार, 29 नवंबर 2017

बलराम अग्रवाल से सीमा जैन की बातचीत

स्थायित्व के लिए  ‘तप’ जरूरी है—बलराम अग्रवाल

[ एक लेखक का जन्म कब होता है? ठीक-ठीक बताना पाना मुश्किल है। कभी पढ़ते-पढ़ते, कभी कुछ देखते-देखते ही कलम कब हाथ में आ जाती है पता ही नही चलता। बलराम जी ने कलम के साथ एक लंबा सफर तय किया है। उनका बालमन पढ़ने का बेहद शौकीन था। बचपन की एक घटना का उल्लेख उन्होंने अपने लघुकथा संग्रह ‘जुबैदा’ की भूमिका में किया है जो उन्हें संवेदना, धैर्य, लगन सिखा गई थी। उन्होंने लिखा है कि उनके घर के पास एक पोखर था जहाँ मरे हुए भैस आदि जानवरों को डाला जाता था। उनकी खाल निकालने कारीगर आते थे। वो कैसे बड़े धैर्य से, खून की एक बूंद भी गिराए बगैर व खाल को नुक़सान पहुंचाए बगैर अपने कार्य को करते थे! यह देखकर वे रोमांचित हो उठते थे; लेकिन उनका मन उस व्यक्ति की विवशता पर रो पड़ता था जो वस्तुत चमड़ा-मजदूर ही होता था, चमड़ा-व्यापारी नहीं। कल जो आँसू किसी की विवशता, किसी के दर्द पर गिरे थे वो आज शब्द बन गए हैं। लेखन उनकी आत्मा की प्यास है।  आज के दौर में एक सफल लेखक की साहित्यिक यात्रा को समझना बहुत ज़रूरी है। जब अधिकतर लोग सफलता के लिए भाग रहे हैं, बलराम जी के लेखन में हम एक गहराई, एक धैर्य पाते हैं।
पिछले दिनों (9 सितम्बर, 2017 को) उनके अध्ययन और लेखन से जुड़े कुछ मुद्दों पर मैंने उनसे सवाल किये और उन्होंने सहज अन्दाज में उन सबके जवाब दिये।
तो आइये, जानते हैं बलराम जी के शब्दों में उनकी दिल से कलम तक की यात्रा का वर्णन—सीमा जैन ]

सीमा जैन
सीमा जैन : आपकी पहली दोस्ती क़िताबों से हुई या कलम से?
पहली दोस्ती नि:सन्देह किताबों से ही हुई।
सीमा जैन : किन किताबों से?
 बलराम अग्रवाल

पिताजी हम भाई-बहनों में नैतिक और आध्यात्मिक व्यवहार को रोंपना चाहते थे। इसलिए गीताप्रेस गोरखपुर की गुरु और माता-पिता के भक्त बालक, वीर बालक, सचित्र कृष्णलीला, सचित्र रामलीला जैसी किताबें वो हमारे लिए लाते थे। कोर्स के अलावा सिर्फ यही  किताबें थीं जिन्हें हम खुल्लमखुल्ला पढ़ सकते थे।  इनके अलावा अच्छी-बुरी हर किताब हमें छिपकर पढ़नी पढ़ती थी। पकड़े जाने पर पिटाई होना लाजिमी था। बाबा को स्वांग और आल्हा आदि देखने-सुनने का शौक था।  उनके खजाने में किस्सा हातिमताई, किस्सा सरवर नीर, किस्सा बिल्व मंगल, किस्सा तोता मैना, आल्हा ऊदल, तेनालीराम, अकबर बीरबल, सिन्दबाज जहाजी जैसी लोक गाथाओं की सैकड़ों पुस्तकें थीं। उनके देहावसान (1966-67) के बाद उस गट्ठर से चुराकर मैंने एक-एक किताब पढ़ी। बड़े चाचा (उन्हें हम सभी भाई-बहन ‘बाबूजी’ कहा करते थे) उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग में ट्यूबवेल ऑपरेटर थे। अपनी किताबों से भरा एक छोटा सन्दूक एक बार वे घर पर छोड़ गये क्योंकि बार-बार स्थानान्तरण के कारण किताबों का रख-रखाव ठीक से नहीं हो पाता होगा। उस बे-ताला खजाने में बृहद हस्त सामुद्रिक शास्त्र, बृहद इन्द्रजाल, बृहद कोकशास्त्र मुझे पढ़ने को मिले। यह भी 1967-68 के दौर की बातें हैं। छोटे चाचा जी की रुचि साहित्यिक पुस्तकों और पत्रिकाओं में थी। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, चन्दामामा, पांचजन्य, राष्ट्रधर्म जैसी पत्रिकाएँ उनके माध्यम से पढ़ने को मिलती रहती थीं; लेकिन पढ़ना उन्हें भी छिपकर ही होता था। माताजी के सन्दूक में ‘दमनक करटक’ नाम की एक किताब बहुत सहेजकर रखी होती थी। मोटे अक्षरों में छपी वह एक सचित्र किताब थी जो बड़े मामा जी ने उन्हें भेंट की थी। उसे पढ़ने का समय वह शायद ही कभी निकाल पायी हों। समझदार हो जाने पर माता जी उसे मुझे सौंप दिया। इस तरह पंचतन्त्र की कुछ कहानियाँ बचपन में ही पढ़ने को मिल गयी थीं; हालाँकि तब पता नहीं था कि वे पंचतन्त्र की कहानियाँ थीं। मुहल्ले में एक युवा मित्र थे—बनारसी दास जी। एक मकान की बाहरी कोठरी में किराए पर रहते थे। विवाहित थे और बाल-बच्चेदार भी। हम तब किशोर ही थे। एक बार उन्हें 15-20 दिन के लिए शहर से बाहर जाना पड़ा। चोरी आदि से बचने और देखभाल करते रहने की दृष्टि से अपने कमरे की चाबी मुहल्ले में ही मेरे मित्र किशन की माता जी को सौंप गये थे। उनसे चाबी ले हमने दोपहर का समय बनारसी दास जी के कमरे पर बिताना शुरू करने का फैसला किया। वहाँ पहले दिन ही ‘कारूं का खजाना’ हमें मिला—चन्द्रकांता, चन्द्रकांता सन्तति  के सभी और भूतनाथ के कुछ खण्ड। लोगों ने जिन किताबों को पढ़ने के लिए हिन्दी सीखी, वे लगभग सब की सब हमारे सामने रखी थीं। हम दोनों उन सारी किताबों को चाट गये। ये वो दिन थे, जब सब-कुछ पढ़ लेने का समय हमारे पास था। अब हम चुनिंदा चीजों को खरीदकर घर तो ले आते हैं लेकिन उन्हें बामुश्किल ही पढ़ पाते हैं।
सीमा जैन : यानी आपकी कलम से दोस्ती बाद में हुई?
बेशक किताबों ने ही कलम से दोस्ती का रास्ता खोला, उसे साफ किया।
सीमा जैन : किस उम्र से लेखन शुरू किया?
लिखना शुरू करने की भी एक प्रक्रिया रही, सीधे लिखना शुरू नहीं हुआ। 1965 में भारत-पाक युद्ध के समय मैं सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था। युद्ध के उपरान्त विद्यालय में कविता-कहानी आदि पठन-पाठन, मौखिक वाचन की प्रतियोगिता आयोजित की गयी थी। उसमें मैंने ‘पांचजन्य’ में छपी एक कविता को पढ़ने का निश्चय किया। घर पर किसी को बताने का सवाल ही नहीं था, रोक दिया जाता। कक्षा पाँच में एक अन्तरविद्यालय नाटक प्रतियोगिता में भाग लेने के बाद वह मेरा पहला सार्वजनिक प्रदर्शन था। मुझे अच्छी तरह याद है कि कविता-पाठ के समय मेरा पूरा बदन काँप रहा था। शायद आगे प्रोत्साहित करने की दृष्टि से मुझे ‘सांत्वना पुरस्कार’ प्रदान किया गया। मेरे जीवन का वह पहला सम्मान पत्र था जो अब मेरे पास नहीं है। परिवार में उस सब पर गर्व करने और उसे बचाए रखने की परम्परा नहीं थी। मुझे याद है कि उसी उम्र में मैंने कबीर के दोहे या मीरा के पद जैसा कुछ लिखना शुरू किया था, लेकिन पिताजी के डर से, लिखे हुए उन कागजों को मैं फाड़कर फेंक देता था। प्रामाणिक रूप से बताऊँ तो पहली प्रकाशित रचना महात्मा गाँधी के जन्म शताब्दि वर्ष 1969 में लिखी गयी थी जो विद्यालय की ही पत्रिका में छपी। उसमें मेरी अन्य रचनाएँ भी छपीं और वहीं से लेखन की निरन्तरता भी बनी।
सीमा जैन : क्या परिवार सहयोग देता तो लेखन की ऊँचाइयाँ कुछ और हो सकती थी?
लेखन को ऊँचाई ‘सहयोग’ की बजाय ‘दिशा’ देने से मिलती है। यह ‘दिशा’ निरन्तर अध्ययन के द्वारा हमें स्वयं प्राप्त करनी पड़ी।
सीमा जैन : आप किस-किस विधा में लिखते हैं?
लेखन की विधा वह कहलाती है जिसमें व्यक्ति कायिक ही नहीं मानसिक रूप से भी ‘निरन्तर’ बना रहता हो। इस आधार पर लेखन की मेरी मुख्य विधा ‘लघुकथा’ ही ठहरती है। इसके अलावा कविता, कहानी, बालकथाएँ, बाल एकांकी/नाटक, आलोचनात्मक लेख, अनुवाद, समीक्षा, संपादन समय-समय पर प्रकट होते ही रहते हैं।
सीमा जैन : अब तक आपकी प्रकाशित पुस्तकें? आपकी प्रिय पुस्तक? आपकी लिखी व पढ़ी गई दोनों?
इस प्रश्न के कुछ हिस्से का उत्तर तो आपके द्वारा वांछित परिचय में मिल जाएगा। अन्तिम हिस्से के उत्तर स्वरूप अनेक पुस्तकें हैं जो मुझे प्रिय रही हैं—जैनेन्द्र का त्यागपत्र, मोहन राकेश की सभी कहानियाँ और नाटक, मुक्तिबोध की डायरी, डॉ॰ रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि, प्रसाद की कथा-भाषा और महादेवी वर्मा और राहुल सांकृत्यायन का गद्य आदि के अलावा भी बहुत-सी बातें हैं जो मुझे पसन्द हैं।
सीमा जैन : क्या दुःख हमें माँजता है
‘रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय’—दु:ख अगर लम्बे समय तक टिक जाए तो व्यक्ति को माँजने की बजाय भाँजना शुरू कर देता है; तथापि दु:ख के दिन व्यक्ति को सांसारिक अनुभव तो देते ही हैं और उस दौर से सकुशल बाहर आ निकला व्यक्ति ही यह कहने की स्थिति में होता है कि ‘दु:ख हमें माँजता है’। दु:ख के दिनों को दूसरों के आगे बयां करने का सुख किसी भी अन्य सुख की तुलना में बड़ा, रोचक और रोमांचक होता है, यह मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ। 
सीमा जैन : आलोचनाओं को आप किस नज़र से देखते हैं?
साहित्यिक रचनाओं के सन्दर्भ में, सबसे पहले तो आलोचना करने वाले व्यक्ति के बौद्धिक स्तर पर नजर डालना जरूरी है। यदि वह साहित्य मर्मज्ञ नहीं है, हमसे निम्न बौद्धिक स्तर का है, तो मेरा मानना है कि उसके द्वारा की गयी प्रशंसा भी बेमानी यानी निरर्थक है। इसके विपरीत, उच्च बौद्धिक स्तर के व्यक्ति द्वारा की गयी कटु टिप्पणी पर भी ध्यान देना मैं श्रेयस्कर समझता हूँ। उदाहरण के लिए बता दूँ—‘चन्ना चरनदास’ की समीक्षा करते हुए वरिष्ठ कथाकार विजय जी ने मुझसे कहा—‘बलराम, तुम्हारी कहानियों का अन्त लघुकथा की तरह हो जाता है। इस बात पर ध्यान दो।’ डॉ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी ने उन कहानियों की सपाटता की ओर इंगित किया। मैंने दोनों ही अग्रज विद्वानों की बात का ध्यान परवर्ती कथाओं में रखना शुरू किया। कितना सफल रहा, यह तो शेष आलोचक बताएँगे या फिर, आने वाला समय।
सीमा जैन : लघुकथा के क्षेत्र में आपका योगदान साहित्य, आने वाली पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक है। आज आप लघुकथा को जिस स्थान पर पाते हैं उससे संतुष्ट हैं?
जिस दिन सन्तुष्ट हो जाएँगे, लिखना खुद ब खुद छूट जाएगा। बहरहाल, यह संतोष तो है ही कि लघुकथा की नयी पीढ़ी के अनेक हस्ताक्षर हमारे सपनों जैसा यानी भेदभाव और कुरीतियों से विहीन समाज की कल्पना करता सार्थक लघुकथा साहित्य रच रहे हैं।
सीमा जैन : लघुकथा को उसके दृढ़ नियमों के साथ संचार माध्यम तक पहुँचाना ज़रूरी है क्या?
समकालीन लघुकथा,  गद्य कथा-साहित्य की विधा है—इस तथ्य को तो लगभग सभी लेखक और आलोचक स्वीकार करते हैं। इसलिए उन सभी अनुशासनों पर, जिनके चलते लघुकथा कथा-साहित्य की अन्य विधाओं से अलग कही या स्वीकार की जानी चाहिए, ध्यान देना हमारा दायित्व बनता है। ‘दायित्व’ स्व-नियोजन की क्रिया है, एक बोध है, जिसे व्यक्ति अनुशासनों के माध्यम से अपने आप में पनपाता है। अनुशासन को आप कानून बनाकर किसी पर लाद नहीं सकते। इसीलिए साहित्य में ‘दृढ़ता’ की बजाय ‘रसमयता’ और ‘लयात्मकता’ को प्रश्रय दिया जाना चाहिए।
सीमा जैन : आपने तो फ़िल्म के लिए भी संवाद लिखे हैं। वो सपना जो अभी पूरा नही हो सका!
फिल्म (‘कोख’1994; लेखक व निर्देशक: आर एस विकल; गीतकार : कुँअर बेचैन; संगीतकार : रविन्द्र जैन) में संवाद लिखना मेरा सपना नहीं था। मित्रतावश सहयोग था।
सीमा जैन : लेखन घर में अगली पीढ़ी तक जा पाया है क्या? यदि नहीं, तो कारण क्या रहे?
मेरे अनुसार, सकारात्मक चिन्ताओं से जुड़े मानसिक व्यसन को ‘लेखन’ कहा जाना चाहिए। अगली पीढ़ी तक प्राय: व्यवसाय ही तुरन्त जाते हैं; आर्थिक लाभों से दूर रखने वाले मानसिक-व्यसनों को कौन अपनाना चाहेगा।
सीमा जैन : सफलता के मंत्र क्या रहे? आप अपने इस सफ़र से संतुष्ट हैं ?
आप यदि मुझे सफल समझती हैं तो इसका एक ही मंत्र रहा—निरन्तर अध्ययन और लेखन। मैं इस दृष्टि से तो संतुष्ट हूँ कि जो कुछ भी लिखा, सकारात्मक और जनहित के स्तर का लिखा; लेकिन इस बिंदु पर असंतुष्ट हूँ कि अपनी शक्ति से बहुत कम लिख सका, आलसी बना रहा।
सीमा जैन : आज की रफ़्तार से सफलता व नाम के लिए भागती पीढ़ी अपना ब्रेंड नेम स्थापित किये बगैर सिर्फ़ रचनाओं के दम पर ख़ुद को सम्हाल पाएगी? आपके सपने..?
सफलता, नाम, धन, ऐश्वर्य आदि आँखें मूँदकर पीछे भागने से हासिल नहीं होते। हो भी जाएँ तो तात्कालिक होते हैं, स्थाई नहीं। स्थायित्व के लिए ‘तप’ जरूरी है। लेखक होने के नाते, मुझे जो कुछ भी हासिल होगा, जाहिर है कि रचनाओं के दम पर ही हासिल होगा। मेरा सपना है कि मैं अपने समय को उसकी पूरी गहराई में समझने लायक बुद्धि का विकास कर सकूँ और वैसी कथा-रचनाएँ समाज को देता रहूँ।

सीमा जैन : हम भारतीयों के अंदर देश के प्रति जिम्मेदारी जगाने की बात करें तो, हमारी प्राथमिक जरूरत क्या है? उसे हम लेखक पूरा कर सकते हैं क्या?
देश के प्रति जिम्मेदारी का पहला कदम अपने घर से शुरू होता है और उस कदम का नाम है— अनुशासन। जो व्यक्ति अपने घर में अनुशासित नहीं है, वह पास-पड़ोस में; जो पास-पड़ोस के प्रति अनुशासित नहीं है, वह समाज में; जो शेष समाज के प्रति अनुशासित नहीं है, वह देश में अनुशासित नहीं रह सकता। जो अनुशासित नहीं है, वह देश क्या, किसी के भी प्रति जिम्मेदार नहीं हो सकता। अनुशासन हममें दायित्व-बोध जगाता है।

सीमा जैन : कद, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि के बाद आपके अंदर का लेखक पहले से ज़्यादा दृढ़ हुआ या लचीला?
कद, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि जैसा मैं कुछ भी महसूस नहीं करता। जितना सामान्य मैं पहले था, उतना ही आज भी हूँ।

सीमा जैन : साहित्यिक सम्मेलन में पर्यावरण के प्रति जागरूकता की बात यदि अनिवार्य कर दी जाए तो...?
केवल साहित्यिक सम्मेलन में ही क्यों, सभी सम्मेलनों में क्यों नहीं? आज, ‘पर्यावरण के प्रति जागरूकता’ को मानव संस्कृति से जोड़ने की आवश्यकता है। बहुत-से पारम्परिक रीति-रिवाज पर्यावरण के लिए खतरा बन चुके हैं, धार्मिक आस्था के नाम पर नैसर्गिक संसाधनों का दोहन ही नहीं किया जा रहा, उन्हें भ्रष्ट और अशुद्ध भी किया जा रहा है। ऐसे रीति-रिवाजों में से कुछ को त्यागने और कुछ का स्वरूप बदल डालने की तुरन्त जरूरत है।

सीमा जैन : ईश्वर और धर्म को आप कैसे परिभाषित करेंगें?
ईश्वर मनुष्य की निर्मिति है। मनुष्य है तो ईश्वर है, मनुष्य नहीं तो ईश्वर भी नहीं। जिसे अधिकांश लोग ‘धर्म’ कहते या मानते हैं, वह विशुद्ध कर्मकाण्ड है और इसीलिए स्वार्थपरक व्यवसाय है। गोस्वामी तुलसीदास रचित ‘रामचरितमानस’ में वर्णित कथा की व्याख्या कर-करके देश-विदेश के करोड़ों कथावाचक  घी-शक्कर का आनन्द ले रहे हैं। वीतराग के प्रणेता महावीर के करोड़ों अनुयायी कई-कई सौ एकड़ जमीन पर पंच-सितारा आश्रम बनाए   बैठे हैं। तुलसीदास जी ने लिखा है—कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ, दंभिन्ह निज मति कल्प करि प्रगट किए बहु पंथ। इस चौपाई के जानकार रामकथा वाचकों के भी अपने-अपने आश्रम हैं, ‘नमो नारायण’, ‘हरि ओम’, ‘जय विराट’, ‘जय जिनेन्द्र’, ‘जय श्रीकृष्ण’, ‘राधे-राधे’ आदि अपने-अपने स्लोगन हैं। मेरा मानना है कि जैसे ईश्वर का सम्बन्ध ‘मनुष्य’ से है, वैसे ही ‘धर्म’ का सम्बन्ध ‘मनुष्यता’ से है। 
                                                                                                                                'कथाबिंब' (अक्तूबर-दिसंबर 2017) 
सम्पर्क : सीमा जैन,  82,विजय नगर (माधव नगर) 201,संगम अपार्टमेंट ग्वालियर(म.प्र.) 474002 / मोबाइल : 8817711033
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