सोमवार, 28 जून 2021

समकालीन लघुकथा : लघ्वाकारीय शिल्प और संवाद शैली / बलराम अग्रवाल

'लघुकथा विश्वकोश' पटल पर कथाकार सुरेश बरनवाल ने 'तात्पर्य' शीर्षक निम्न रचना को लघुकथा कहकर एक प्रश्न के रूप में दिया है।

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'पुरुष ने चुम्बन लिया और स्त्री ने चुम्बन दिया। इससे क्या तात्पर्य निकलता है?'

'जी...इसका अर्थ है कि पुरुष प्रेम में है और स्त्री बदचलन है।'

'लघुकथा' होने के लिए ऐसे  (अति लघ्वाकारीय) शिल्प और शैली (संवाद शैली) की कथाओं में दो चीजों में से किसी एक (मुख्यतः समापन वाक्य का) अथवा दोनों का होना आवश्यक है। पहली चीज है, कथा-प्रसंग जिसे कि संवादों के माध्यम से ही  सहज स्पष्ट होना होता है और दूसरी पूर्णता। समापन वाक्य में अगर सर्वमान्य सत्य की अभिव्यक्ति न होकर एकपक्षीय हुई है, तो रचना अपूर्णता का आभास देती रहेगी। ऐसी दशा में, उसमें उपयुक्त कथा-प्रसंग और यथायोग्य समापन, दोनों आवश्यक हो जाते हैं। लेखक के मन्तव्य अथवा उसके आभास तक पहुँचने का मार्ग  पाठक को अवश्य मिलना चाहिए। उदाहरण के लिए उपर्युक्त रचना में समापन वाक्य को पुरुष सत्तात्मक मानसिकता का द्योतक बताकर बचाव की कोशिश की जा सकती है; लेकिन रचना में समापन वाक्य निर्णय की मुद्रा में आया प्रतीत होने से अधिकतर पाठकों के चिन्तन का एक ही दिशा में चले जाना स्वाभाविक माना जायेगा।  जबकि लेखक का मन्तव्य अवश्य ही वैसा नहीं रहा होगा।

लघ्वाकारीय शिल्प में संवाद शैली की आदर्श लघुकथा खलील जिब्रान की 'आजादी' है :

वह मुझसे बोले, "किसी गुलाम को सोते देखो, तो जगाओ मत। हो सकता है, वह आजादी का सपना देख रहा हो।"

"किसी गुलाम को सोते देखो, तो उसे जगाओ और आजादी के बारे में उसे बताओ।" मैंने कहा।

चाहें तो, इस रचना में पूर्व कथा-प्रसंग कुछ भी जोड़ सकते हैं जिसकी पहले वाक्य से संगति हो, लेकिन वह अनावश्यक ही सिद्ध होगा क्योंकि इस कलेवर में ही यह एक पूर्ण कथा है। 

एक अन्य लघुकथा रमेश बतरा की 'कहूँ कहानी' है। देखिए  :

-ए रफीक भाई। सुनो... उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी लिए, रात मैं घर पहुंचा तो मेरी बेटी ने एककहानी कही--‘एक लाजा है, वो बोत गलीब है।’

सिर्फ एक वाक्य। इसमें न पूर्व प्रसंग ही अनबूझ है न समापन संदेहास्पद। परन्तु प्रस्तुत रचना 'तात्पर्य' का समापन वाक्य सार्वभौमिक अथवा सर्व-स्वीकृत सत्य को प्रकट नहीं करता। वह एकपक्षीय पुरुष सत्तात्मक विचार की प्रस्तुति है, स्त्री का पक्ष इसमें ध्वनित ही नहीं है, इसलिए इसमें अधूरापन लगेगा ही। लघुकथा संकेत की विधा है, पहेली की विधा नहीं है।

दो पंक्तियों की, यहाँ तक कि एक पंक्ति की भी रचना में पूर्णता का जो गुण खलील जिब्रान,  मंटो, जोगिन्दर पाल, काफ्का, इब्ने इंशा आदि में मिलता है, वह असम्भव न सही, आसान नहीं है। उसे गहन अध्ययन और लम्बे अभ्यास से ही साधा जा सकता है। इसे अपनाने की जल्दबाजी कथाकार के वर्तमान मौलिक कथा-कौशल  को भी ले डूब सकती है।   

आइए, पढ़ते हैं, मंटो की लघुकथा 'रिआयत' : 

“मेरी आँखों के सामने मेरी जवान बेटी को न मारो…”

“चलो, इसी की मान लो… कपड़े उतारकर हाँक दो एक तरफ़…”

ये दो संवाद पूरा प्रसंग पाठक के समक्ष रखने में सक्षम हैं। पूर्व प्रसंग मात्र इतना है कि यह भारत-विभाजन के दौरान घटित है। इसके समापन में सर्व-स्वीकृत पूर्णता है, इसीलिए यह रचना अपूर्ण नहीं है, पूर्ण है।

संपर्क:8826499115

सोमवार, 21 जून 2021

समकालीन लघुकथा और प्रयोगधर्मिता / बलराम अग्रवाल

 कहानी का पुराना पैटर्न यह था कि विभिन्न घटनाक्रमों को कहानीकार 1, 2, 3 आदि संख्याओं के द्वारा अलग करते हुए रचना को आगे बढ़ाते और पूरा करते थे। यह पैटर्न कहानी ने अपनी पूर्ववर्ती उपन्यास विधा से लिया था।

लघुकथा क्योंकि 'कहानी' नहीं है और घटनांतर या दृश्यांतर को उसमें बरकरार रखना भी है, तो क्या करें? 1, 2, 3 के स्थान पर हमने दृश्य एक, दृश्य दो, दृश्य तीन लिखना शुरू कर दिया। बेशक, नया प्रयोग तो है लेकिन सिर्फ इतना कि बोतल का आकार बदल दिया गया है।

इन प्रयोगों से एक और भी संकेत यह मिलता है कि भीतर एक कहानीकार बैठा है जिसे ठोंक-ठोंककर हमने लघुकथाकार बनाया हुआ है। मुझे स्वयं अपने बारे में कई बार यह महसूस होता है और क्षोभ भी होता है कि मैंने अपनी कलम से कई कहानियों की हत्या की है, कभी अनजाने में तो कभी जिद में। लघुकथा को हम प्रयोगों की बारीक और धधकती हुई नलिका से निकाल रहे हैं, निकालें; लेकिन गर्भ से असमय निकाले जा रहे या अनगढ़ हाथों द्वारा दुनिया में लाए जा रहे बच्चे की तरह उसकी हत्या न हो जाए, यह ध्यान रखना भी जरूरी है। लघुकथा में प्रतीकों, बिम्बों, रूपकों के प्रयोग का हिमायती होने के बावजूद मैं यह मानता हूँ कि सामान्य से लेकर प्रबुद्ध तक, हर स्तर के पाठक को रचना में एक सरल कथा अवश्य चाहिए, सरल और सपाट कथा। हिन्दी लघुकथा में यह करिश्मा दिखाने वाले कथाकारों में पृथ्वीराज अरोड़ा और एन. उन्नी प्रमुख हैं।

(इन पंक्तियों पर अपनी राय प्रकट करने का अधिकार सबको है और मुझसे सवाल करने का भी; लेकिन किसी के किसी भी सवाल का जवाब मैं नहीं दे पाऊंगा। अग्रिम क्षमायाचना 🙏) 

20-7-2020 /09:50

गुरुवार, 17 जून 2021

दस्तावेज-1992


विषय : लघुकथा और लघु कहानी में अंतर।

दिनांक : 02-11-1992 / वार्ता रिकॉर्ड होने की तारीख।

           : 30-11-1992 / 'पत्रिका' कार्यक्रम में प्रसारण

           : 02-12-1992 / 'साहित्यिकी' कार्यक्रम में

              प्रसारण

भागीदार : राजकुमार गौतम, बलराम और बलराम                           अग्रवाल ।

कार्यक्रम अधिकारी : कुबेर दत्त, विवेकानंद। 

संचालक : डाॅ. अवनिजेश अवस्थी।