गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

बलराम अग्रवाल से सुरेश जाँगिड़ ‘उदय’ की बातचीत


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सूक्ष्म एवं समग्र कथात्मक प्रस्तुति का नाम लघुकथा है

सुरेश जाँगिउदयआपकी दृष्टि में लघुकथा क्या है? लघुकथा के आवश्यक तत्व कौन-कौन से हैं?
बलराम अग्रवालमनुष्य के समसामयिक संवेदन-तंतुओं को प्रभावित करने वाली वस्तु विशेष की सूक्ष्म एवं समग्र कथात्मक प्रस्तुति का नाम लघुकथा है। पाठक को मानवीय सरोकारों से जोड़ने, छल-छद्म और कपटपूर्ण आचारों के प्रति आगाह करते रहने का दायित्व निभाने में यह पूर्णता के साथ सक्षम है। जहाँ तक आवश्यक तत्वों का मामला है, लघुकथा में मैं शास्त्रीय नियमों का जड़-पक्षधर नहीं हूँ। जिन्हें तत्व कहा जाता है, मैं उन्हें मात्र अवयव मानता हूँ। तत्व तो वह है जिसे कथाकार कथानक के माध्यम से पाठक तक पहुँचाने का प्रयास कर रहा होता है। किसी वस्तु विशेष की कथात्मक-प्रस्तुति के लिए कथाकार जिन अवयवों को उस समय-विशेष में आवश्यक समझता है, उस लघुकथा के वे ही आवश्यक अवयव होंगे। इस प्रकार अपनी-अपनी शैली, शिल्प और कौशल के अनुरूप एक ही कथाकार अलग-अलग रचना में अलग-अलग कथा-अवयवों का प्रयोग करता है।
सुरेश जाँगिड़ उदयआज भी लघुकथा की सर्वमान्य परिभाषा क्यों नहीं उभरकर आ रही है?
बलराम अग्रवालपहली बात तो यह है कि एक ईमानदार रचनाकार को कभी भी परिभाषाओं के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। दूसरी बात यह कि जिस तरह एक रचना ही मानक नहीं हो सकती, उसी तरह सिर्फ एक ही परिभाषा भी अन्तिम नहीं हो सकती। मेरा मानना है कि लघुकथा अभी भी एक विकासमान कथा-विधा है; और विकास का नियम यह है कि मील के पत्थर को लगातार पीछे छोड़ते जाना पड़ता है। क्या आप चाहेंगे कि उत्तरोत्तर विकास को प्राप्त लघुकथा का प्रवाह रुक जाए; वह भी मात्र एक अन्तिम और सर्वमान्य परिभाषा को पा लेने की खातिर?
सुरेश जाँगिड़ उदयक्या लघुकथा को शब्दों की सीमा में बाँधना उचित है? यदि हाँ, तो अधिकतम कितने शब्द एक लघुकथा में होने चाहिएँ?
बलराम अग्रवाललघुकथा रचना और तत्संबंधी आलोचना से जुड़े लोगों के बीच विमर्श से यह निश्चित हो चुका है कि शब्दों की सीमा नहीं, उनकी अर्थवत्ता ही महत्वपूर्ण है। आकार में बड़ी अब तक जितनी भी देशी-विदेशी लघुकथाएँ मैंने पढ़ी हैं, वे डिमाई आकार की पुस्तक के दो पृष्ठों तक की भी हैं तथापि महत्वपूर्ण यही अधिक है कि आकार में छोटी रहकर भी कथा-रचना लघुकथा का फार्म कायम रख पाई है अथवा नहीं।
सुरेश जाँगिड़ उदयलघुकथा और लघु-कहानी में मूलत: क्या अन्तर है?
बलराम अग्रवालअंग्रेजी की शॉर्ट स्टोरी ही हिन्दी में कहानी कहलाती है। उसी को कुछ विद्वानों ने शब्दानुवाद के द्वारा लघु कहानी नाम दिया है। कुछ इस भ्रम में भी हैं कि लघुकथा शब्द शॉर्ट स्टोरी का शब्दानुवाद है; जबकि तथ्य यह है कि लघुकथा अनेक अर्थों में शॉर्ट स्टोरी यानी लघु-कहानी से भिन्न कथा-रचना है।
सुरेश जाँगिड़ उदयआज की लघुकथा और पुरानी जातक कथा, नीति कथा तथा प्रेरक प्रसंग में क्या अन्तर है?
बलराम अग्रवालकिसी विशेष भाव, नीति, शिक्षा या बोध को सम्प्रेषित करने के उद्देश्य से गढ़े गए कथानक वाली रचना को कथा-अवयवों से युक्त और लघु-आकारीय होने के बावजूद लघुकथा नहीं माना जा सकता। यह सिर्फ इसलिए कि समकालीन लघुकथा मनुष्य के इहलौकिक-जीवन से जुड़ी समसामयिक सुखद अथवा भयावह, उत्थानशील अथवा पतनशील स्थितियों-परिस्थितियों, घटनाओं-दुर्घटनाओं के कथापरक चित्रण की विधा है। इसमें नैतिक आदर्श का, नीति का, बोधपरकता का समावेश ही न हो ऐसा नहीं है; लेकिन इन सब की स्थापना-मात्र इसकी रचना का उद्देश्य नहीं होता…ये गौण रहती हैं। उदाहरण के लिए रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की लघुकथा ऊँचाई, रघुवीर सहाय की लघुकथा ‘’ तथा रामनिवास मानव की लघुकथा झिलमिलाहट आदि कुछ लघुकथाओं के नाम गिनाए जा सकते हैं।
सुरेश जाँगिड़ उदय’—आपकी दृष्टि में हिन्दी की प्रथम लघुकथा कौन-सी है?
बलराम अग्रवालकिसी भी छोटे आकार की कथा-रचना को किसी पूर्व पत्र-पत्रिका या पुस्तक में छपे पाए जाने भर को मैं पहली लघुकथा हो जाने का आधार नहीं मानता। इसके और-भी अनेक आधार होने चाहिएँ…हैं। मेरी दृष्टि में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की पुस्तक परिहासिनी(1876) में प्रकाशित उनकी रचना अंगहीन धनी हिन्दी की पहली लघुकथा है। यह रचना पहली लघुकथा होने के प्रत्येक निकष पर खरी उतरती है।
सुरेश जाँगिड़ उदयलघुकथा में वैचारिकता का क्या स्थान है?
बलराम अग्रवालइस बारे में अन्तिम रूप से यह जान लेना जरूरी है कि लघुकथा निबंध नहीं है, कथा-रचना है। दूसरे, विचार एक स्फुलिंग का नाम है, बोरा-भर पोथियों का नहीं।
सुरेश जाँगिड़ उदयआज की लघुकथा का केन्द्रीय-स्वर क्या है?
बलराम अग्रवालसमसामयिक जीवन-स्थितियों से उपजे सवाल और उन सवालों से कथाकार के टकराव से उत्पन्न तिक्त और तीक्ष्ण ध्वनि ही आज की लघुकथा का केन्द्रीय-स्वर है।…और अगर नहीं है, तो होना चाहिए।
सुरेश जाँगिड़ उदयक्या आप लघुकथा के वर्तमान स्वरूप से सन्तुष्ट है?
बलराम अग्रवालबेशक।
सुरेश जाँगिड़ उदयआपको आजकल प्रकाशित हो रही लघुकथाओं में क्या और कौन-कौन सी कमियाँ दिखाई देती हैं?
बलराम अग्रवालसिर्फ एक। वो ये कि छोटे आकार में कुछ-भी, कैसा-भी लिख और छाप डालने की प्रवृत्ति जोर पकड़ती जा रही है। स्थितियों या घटनाओं को लिख देना भर ही तो लघुकथा नहीं है।
संदर्भ: लघुकथा-संकलन छोटी-सी हलचल(संपादक: सुरेश जाँगिड़ उदय, 1997)
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मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

बलराम अग्रवाल से डॉ श्याम सुन्दर दीप्ति की बातचीत

 

दुनियाभर के लघुकथाकारों के चिन्तन का केन्द्र-बिन्दु मानवीयता है…

 
डॉ दीप्तिआप लघुकथा के अलावा अन्य विधाओं में भी लिखते हो। वह कौन-सा केन्द्र-बिन्दु है जो आपको किसी घटना के लिए लघुकथा लिखने को प्रेरित करता है?
बलराम अग्रवाललघुकथा लिखने के लिए किसी घटना का घटित होना आवश्यक है, ऐसा मैं नहीं मानता। कोई रचनाशील व्यक्ति जब विचार और चिन्तन के दौर से गुजर रहा होता है, तब क्या चीज उसे लिखने या रचने के लिए प्रेरित कर देगी, कहा नहीं जा सकता। आप स्वयं रचनाकार हैं, मेरी बात को आसानी से समझ सकते हैं कि धरती पर कोई ऐसा चेतनशील मनुष्य नहीं, जिसमें विचार न उत्पन्न होता हो और जिसका अन्तर अभिव्यक्त होने के लिए उसे लगातार उकसाता न हो। परन्तु बहुत कम लोग हैं जो अपने अन्तर की इस प्रेरणा के अनुरूप कार्यरत हो पाते हैं। लेखक होने के नाते आप यह भी समझ सकते हैं कि लिखने के लिए प्रेरित करने वाला हर विचार कागज पर नहीं उतर पाता, कभी किसी कारण से तो कभी किसी कारण से। जब लेखक कहलाने वाले लोगों का यह हाल है तो उन आमजनों के हाल का अन्दाजा आसानी से लगाया जा सकता है जो लेखक नहीं हैं। जहाँ तक केन्द्र बिन्दु का सवाल है, मेरी अपनी बात यह है कि आदमी को आदमीयत से दूर ले जाने वाले कृत्य और विचार मुझे तकलीफ देते हैं और आदमीयत से जोड़ने वाले विचार और कृत्य शक्ति। इस ओर किसी भी प्रकार के संघर्ष को मैं बनाए रखना चाहता हूँ। मैं भावुक और आँसू-टपकाऊ कथानकों को पसन्द नहीं करता। बचाव के प्रति जागरूक रहना हर व्यक्ति का पहला कर्तव्य है। मैं काँस की जड़ें खोदने की बजाय उनमें मठा डालने और डालते रहने की चाणक्य-नीति का समर्थक हूँ।
डॉ दीप्तिआप अपनी पहली लघुकथा के बारे में लिखो कि इसे लिखने का विचार आपको कैसे आया?
बलराम अग्रवालमेरी पहली लघुकथा लौकी की बेल है। यह लघुकथा 1972 में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका कात्यायनी के जून अंक में प्रकाशित हुई थी। इस रचना को पढ़कर आप आसानी से जान सकते हैं कि यह लगभग दृष्टांत-शैली की लघुकथा है। अपने शुरुआती दौर में लघुकथा-आंदोलन खलील जिब्रान के भाववादी कथ्यों और भारतीय पुरातन साहित्य के दृष्टान्तवादी कथ्यों से बेहद प्रभावित था। हालत यह थी कि उन दिनों लघुकथात्मक व्यंग्य तक पौराणिक पात्रों और घटनाओं की पैरोडी-रचना के रूप में लिखे जा रहे थे। मैं ग्रामीण-संस्कार का व्यक्ति हूँ। अपनी जमीन से कटकर ऊँचा उठने की अन्धाकांक्षा मुझमें प्रारंभ से ही नहीं रही। अपनी इसी भावना को मैंने लौकी की बेल में व्यक्त किया था। हालाँकि इसी कथ्य की यों भी व्याख्या की जा सकती है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने जातीय-अस्तित्व को बचाए व बनाए रखने के लिए हममें से किसी को भी एक विशेष प्रकार का बलिदान आवश्यक हो जाता है; बिल्कुल उसी तरह जिस तरह कि अगली फसल हेतु बीज बनने-बनाने वाले लौकी आदि के फलों को करना पड़ता है।
डॉ दीप्तिलघुकथा लिखते हुए आप विचारों को किस तरह नियोजित करते हैं? कितनी बार रचना का सुधार करते हैं या उसे लिखते हैं?
बलराम अग्रवालमेरे कथा-लेखन की बुनियाद विचार है। वह मस्तिष्क में कहीं पक जाता है, तभी कथा का कलेवर पाता है। इसे अलग से नियोजित करने की जरूरत अक्सर नहीं पड़ती। हाँ, रचना को लिख लेने के बाद सुधारना अवश्य पड़ता है। एक ही बार में उसे अन्तिम रूप से लिख डालूँइतना कुशल मैं नहीं हूँ। इतना जरूर है कि रचना को मैं तुरन्त नहीं सुधारता, कुछ समय रख देने के उपरान्त एक पाठक की हैसियत से पढ़ते हुए उसमें सुधार करता हूँ।
डॉ दीप्तिलघुकथा को लिखते हुए आप सबसे अधिक महत्व किस बात को देते होशीर्षक को, शुरुआत को, अंत को, वार्तालाप को या पेश किए जा रहे विचार को?
बलराम अग्रवालमेरे अन्दर विचार ही पहले आता है। यों अलग-अलग मानसिक-अवस्था में अलग-अलग तरह से इसे सुनिश्चित किया जा सकता है। विचार किसी वार्तालाप को सुनकर भी उत्पन्न हो सकता है, कहीं पर कुछ लिखा देखकर भी उत्पन्न हो सकता है और कहीं पर कुछ घटित होता देखकर भी। शीर्षक, शुरुआत, अंत अथवा समापनये सब मैं रचना को लिख लेने के दौरान या उसके बाद ही तय करता हूँ।
डॉ दीप्तिलघुकथा की कितनी पुसतकें आपने पढ़ी हैं? कौन-सी पुस्तक ने आपको प्रभावित किया है? कोई खास रचना सुनाएँ/लिखें जो आज तक आपको याद हो और आपको मापदंड लगती हो।
बलराम अग्रवालयह बता पाना कि कितनी पुस्तकें पढ़ी हैं, बहुत मुश्किल है। बहुत-सी गैर-जरूरी पुस्तकें पढ़ डाली हैं और बहुत-सी जरूरी पुस्तकें अभी पढ़नी बाकी हैं। अनेक रचनाएँ हैं जो अलग-अलग कारणों से याद रहती हैं या प्रभावित करती हैं। कुछ अपने कथ्य के कारण, कुछ शैली और शिल्प के कारण तो कुछ किन्हीं-और कारणों से। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की लघुकथा अंगहीन धनी मुझे बहुत प्रभावित करती है। उनकी इसी रचना को मैं हिन्दी की पहली लघुकथा मानता हूँ। यह रचना यद्यपि उनके काल में प्रकाशित उनकी किसी पत्रिका में अवश्य छपी होगी, और उसके पश्चात 1876 में उन्होंने इसे परिहासिनी नामक अपनी पुस्तक में संग्रहीत किया। अब, चूँकि पत्रिका का कोई अंक उपलब्ध नहीं है, अधिक विस्तृत होना है। किसी लघुकथा के अच्छा होने का मापदण्ड भी यही होना चाहिए कि पाठक को वह अपने भीतर कितना गहरा उतार पाती है, बमुकाबले इसके कि पाठक के भीतर वह कितना उतर पाती है। आठवें दशक से लेकर अब तक जो रचनाएँ मुझे मुख्यत: याद हैं, उनमेंसुशीलेन्दु की पेट का माप, कैलाश जायसवाल की पुल बोलते है, श्यामसुन्दर दीप्ति की सीमागुब्बारे, श्यामसुन्दर अग्रवाल की सन्तू, अशोक भाटिया की रंग, रिश्ता, कपों की कहानी, भगीरथ की तुम्हारे लिए, दाल-रोटी, सुकेश साहनी की गोश्त की गंध, बैल, ठंडी रजाई, बलराम की बहू का सवाल, अशोक मिश्र की आँखें, पृथ्वीराज अरोड़ा की कथा नहीं, सुभाष नीरव की मकड़ी, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की ऊँचाई, विष्णु प्रभाकर की शैशव, कमल चोपड़ा की मैं सोनू, असगर वजाहत की आलमशाह कैंप की रूहें, राजेन्द्र यादव की अपने पार, प्रेमपाल शर्मा की वैदिक धर्म, सुशान्त सुप्रिय की बदबू आदि सैकड़ों नाम गिनाए जा सकते हैं। जहाँ तक मापदण्ड का सवाल हैयह किसी एक रचना के लिए नहीं होता, इसलिए किसी एक रचना को मापदण्ड नहीं कहा जा सकता। लघुकथाएँ रची जाती हैं, गढ़ी नहीं जातीं। तात्पर्य यह कि इसका कोई साँचा तय नहीं किया जा सकता।
डॉ दीप्तिदूसरी भाषाओं में लिखी जा रही लघुकथाओं से आप किस तरह का अनुभव करते हैं?
बलराम अग्रवालदूसरी भाषा से आपका तात्पर्य नि:संदेह हिन्दीतर अन्य भारतीय भाषाओं से (तथा विदेशी भाषा की लघुकथाओं से) है। भारतीय भाषाओं में मुख्यत: तीन भाषाओंपंजाबी, मलयालम और तेलुगुकी लघुकथाओं से मेरा सामना गहराई के साथ हुआ है। पजाबी और मलयालम लघुकथा के मैंने अपनी पत्रिका वर्तमान जनगाथा के विशेषांक भी संपादित/प्रकाशित किए थे और तेलुगु लघुकथाओं पर कार्यरत हूँ। तेलुगु में ये 'नेटि कथा' अर्थात् आज की कथा के नाम से लोकप्रिय है और तेलुगु-भाषी दैनिक पत्रों में नियमित कॉलम के रूप में स्थान पा रही है। परन्तु मैंने वस्तु के स्तर पर इसे हिन्दी, पंजाबी, उर्दू या मलयालम जितना समृद्ध नहीं पाया। इसका कारण यह भी हो सकता है कि मेरे प्रयास ही उस समृद्धि तक पहुँच पाने में असफल रहे हों।
              पंजाबी में, उर्दू की तर्ज़ पर, इसे 'मिन्नी कहानी' नाम से पुकारा जाता है। उर्दू में यद्यपि इसके लिए 'अफसांचा' शब्द भी है; लेकिन इस अर्थ में कि अन्य भाषाओं की तुलना में उर्दू दूसरी भाषा के शब्दों को बड़ी सहजता से अपनाती और आत्मसात् करती है, मैं एक महान भाषा के रूप उसका सम्मान करता हूँ। मेरा मानना है कि हर भाषा में यह लचीलापन या कि विशाल-हृदयता होनी ही चाहिए कि अभिव्यक्ति के अधिक-से-अधिक निकट पहुँच पाने वाले शब्द वह बेहिचक दूसरी भाषा से ले ले। इस बात को मैं यहाँ पंजाबी-परिप्रेक्ष्य के उदाहरण द्वारा ही स्पष्ट करने का प्रयास करूँगा। 'भंगड़ा' और 'गिद्दा' विशुद्ध पंजाबी शब्द हैं। शब्दकोश में इनके अर्थ क्या होंगे, यह बताने की आवश्यकता नहीं है; और न ही यह कि सिर्फ 'पंजाबी मर्दाना नाच' और 'पंजाबी जनाना नाच' कह देने भर से इन नृत्यों के उल्लास, उमंग और संस्कार को किसी भी तरह सम्प्रेषित नहीं किया जा सकता। अत: भंगड़ा और गिद्दा को ज्यों का त्यों ही प्रयोग करना श्रेयस्कर होगा। क्षेत्रीय शब्दों का अपना अलग ही वज़न, तेवर और लोच होता है। कोई अन्य शब्द आसानी से उनका स्थान नहीं ले पाता। बात मिन्नी कहानी की चल रही थी। मिन्नी कहानी में वह सब-कुछ पूरी शिद्दत के साथ है, जो उर्दू  और पंजाबी की किसी भी अन्य कथा-विधा में है। पंजाब की मिट्टी और यहाँ की हवा जिस साहस, बलिदान-वृत्ति, मौजमस्ती और खिलंदड़ेपन के लिए दुनियाभर में विख्यात है, यहाँ के कथाकारों ने उस सब को पूरी गहराई के साथ मिन्नी कहानी में उतार पाने में सफलता पायी है। इसलिए, जब मैं यह कहता हूँ कि पंजाब में श्याम सुन्दर दीप्त, श्याम सुन्दर अग्रवाल और उनकी टीम ने 'लघुकथा' को नहीं, 'मिन्नी कहानी' को आगे बढ़ाया है तो इसका यही विशिष्ट तात्पर्य होता है। मलयालम में लघुकथा को 'पाम स्टोरी' के रूप में जाना जाता है। केरल में इसकी स्पष्ट और गहरी परम्परा है। वहाँ पर यद्यपि पंजाबी अथवा हिन्दी की तरह एक आन्दोलन के तहत इसे नहीं लिखा जा रहा; तथापि कुछ उल्लेखनीय लघुकथा-संग्रह मलयालम में अवश्य प्रकाशित और चर्चित हुए हैं। इससे भी अधिक गर्व की बात यह है कि मलयालम के विशिष्ट से लेकर लगभग अपरिचित तक हर कथाकार ने लघुकथाएँ लिखी हैं। मेरे द्वारा सम्पादित 'मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ' पढ़कर केरल में हो रहे समृद्ध लघुकथा-लेखन को आसानी से रेखांकित किया जा सकता है।  
               इनके अतिरिक्त चीनी-लघुकथाओं से भी मेरा परिचय हुआ है। यह जानकर अतीव प्रसन्न्ता और आश्चर्य होता है कि चीन में भी नई पीढ़ी के कथाकारों ने लघुकथा को गई सदी के नवें दशक से एक आन्दोलन के रूप में अपनाया है। चीनी-भाषा में लघुकथाओं के अनेक महत्वपूर्ण संकलन प्रकाशित हो चुके हैं जिन्होंने राष्ट्रीय ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है। अनुवाद की दृष्टि से देखा जाए तो मेरा वास्ता अमरीकी, कनाडाई, अरबी, रूसी, जर्मनी, पाकिस्तानी आदि विभिन्न देशों की लघुकथाओं से पड़ा है, लेकिन उन सबके मैंने अंग्रेजी अनुवाद ही पढ़े हैं, मूल नहीं। हर देश की लघुकथा में एक चीज लगभग कॉमन है; वो ये कि दुनियाभर के लघुकथाकारों के चिन्तन का केन्द्र-बिन्दु मानवीयता है…सिर्फ मानवीयता।
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संदर्भ: मिन्नी द्वारा अक्टूबर 1997 में रेल कोच फैक्ट्री, कपूरथला(पंजाब) में आयोजित लघुकथा सम्मेलन व माता शरबती देवी लघुकथा सम्मान से पूर्व सम्भवत: सितम्बर 1997 में डॉ दीप्ति द्वारा प्रेषित सवालों के जवाब

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

लघुकथा में नेपथ्य/बलराम अग्रवाल

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घुकथा, कहानी और उपन्यास की प्रकृति और चरित्र में इनके नेपथ्य के कारण भी आकारगत अन्तर आता है। उपन्यासकार स्थितियों-परिस्थितियों और घटनाओं को यथासम्भव विस्तार देता है तथा पाठक के समक्ष पात्रों की मन:स्थिति, चरित्र, परिस्थितियाँ, गतिविधियाँ एवं तज्जनित परिणाम तक का ब्यौरा देने को उत्सुक रहता है; इस तरह उपन्यास अत्यल्प या कहें कि नगण्य नेपथ्य वाली कथा-रचना है। कहानीकार जीवन के विस्तृत पक्ष को रचना का आधार नहीं बनाता। इसके अतिरिक्त, जीवनखण्ड से जुड़ी अनेक घटनाओं को विस्तार से लिखने की बजाय उनको वह आभासित करा देना ही यथेष्ट समझता है, क्योंकि गति की दृष्टि से उपन्यास की तुलना में कहानी को एक त्वरित रचना होना चाहिए। अत: उपन्यास की तुलना में कहानी का नेपथ्य कुछ अधिक गहरा और विस्तृत हो सकता है। बावजूद इसके, कहानी का नेपथ्य उपन्यास की प्रकृति और चरित्र से को-रिलेटेड और को-लिंक्ड रहता है, अत: कहानी ने सहज ही उपन्यास जैसी पूर्णता का आभास अपने पाठक को दिया और प्रतिष्ठित उपन्यासकारों व जड़-आलोचकों के घोर विरोध के बावजूद व्यापक जनसमूह के बीच अपनी जगह बना ली। लघुकथा आकार की दृष्टि से क्योंकि कहानी की तुलना में अपेक्षाकृत बहुत छोटी कथा-रचना है, अत: जाहिर है कि उसका नेपथ्य कहानी की तुलना में बहुत अधिक विस्तृत और गहरा होगा; लेकिन उसे कहानी के नेपथ्य से उसी प्रकार को-रिलेटेड और को-लिंक्ड रहना चाहिए जिस प्रकार कहानी का नेपथ्य उपन्यास के नेपथ्य के साथ रहता आया है। लघुकथा-लेखक इस तथ्य से अक्सर ही अनभिज्ञ और लापरवाह रहे हैं। उन्होंने अधिकांशत: ऐसी रचनाएँ लघुकथा के नाम पर लिखी हैं जिनमें प्रस्तुत रचना तथा उसके नेपथ्य में एक और सौ का अनुपात नजर आता है जो किसी भी रचना के लिए स्वस्थ स्थिति नहीं है। कोई भी पाठक किसी रचना के अन्धकूप सरीखे नेपथ्य में भला क्यों उतरना चाहेगा? इसी के समानान्तर एक सोच यह भी है कि लेखक पाठक-विशेष या रचना-विधा के सिद्धान्त-विशेष को ध्यान में रखकर रचना क्यों करे? अपने आप को अभिव्यक्ति के धरातल पर उन्मुक्त क्यों न रखे? वस्तुत: अभिव्यक्ति के धरातल पर उन्मुक्तरहने का अर्थ उच्छृंखल अथवा अनुशासनहीन हो जाना नहीं माना जाना चाहिए। इंटरनेट के माध्यम से ५ शब्दों से लेकर ५०० या ज्यादा शब्दों तक की ‘Flash Story’ लिखना सिखाने वाली व्यावसायिक साइटें कथा-विधा का भला कर रही हैं, कथा-लेखकों का भला कर रही हैं या स्वयं अपनायह तो समय ही तय करेगा; फिलहाल यहाँ हिन्दी की कुछ कौंध-कथाएँ यानी Flash Stories साभार प्रस्तुत हैं:-
एक
राजपथ से गुजरती हुई सैनिक टुकड़ी क्विक मार्च करते हुए गा रही थी-हम सब एक हैं। फुटपाथ पर खड़े पुलिस के अफसर, सेठ रामलाल और प्रसिद्ध जुआरी गोवर्द्धन एक दूसरे की आँखों में हँसते हुए न जाने क्यों गाने लगे- हम सब एक हैं।
दो
शेर गुर्राया, हिरण को खूँखार दृष्टि से देखा और फिर हिरण को कुछ किए बगैर गुफा के अँधेरे में चला गया। दोनों एक ही कश्ती के सवार थे।...
बाहर आदमी घात लगाए बैठा था।
इनके साथ ही मैं Wits अर्थात विलक्षण-वाक्यकथा की ओर भी लेखकों/पाठकों और संपादकों का ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा। इन्होंने भी लघुकथा में हो रहे गंभीर प्रयासों को काफी धक्का पहुँचाया है। हिन्दी में लघुकथा के नाम पर प्रचलित Wits के कुछ नमूने निम्न प्रकार हैं-
एक
इंपालाकी पिछली सीट पर बैठे अल्सेशियन को देखकर अंगभंग भिखारी बच्चों ने ठंडी साँस लेकर कहा, “काश! हम भी ऐसे होते!
दो
डियर इतिहास’,
तुम्हारे अध्याय अब कलमें नहीं, मैं लिखूँगी...
मैं हूँ
बन्दूक
तीन
मैंने जब भी डुबकी लगानी चाही
सारा मानसरोवर
चुल्लू हो गया!
चार
सामान्य-ज्ञान की परीक्षा में एक परिक्षार्थी एक सरल से प्रश्न पर अटक गया। प्रश्न था-भारत का प्रधानमन्त्री कौन है?’ उत्तर परीक्षार्थी को पता था, इस पर भी वह परेशान था। अन्तत: उसने लिख ही दिया,पर उसमें एक वाक्य और बढ़ा दिया। उसने लिखा-आज भारत के प्रधानमन्त्री श्री...हैं, परचा जाँचते समय कौन होगा, मालूम नहीं। इन विलक्षण-वाक्यकथाओं के लेखकों की हिन्दी-लघुकथा के क्षेत्र में लम्बी कतार है; और इन सब की प्रेरणा के मूल में सम्भवत: सुप्रसिद्ध कथाकार रमेश बतरा की बहुचर्चित लघुकथा कहूँ कहानीरही है, जो निम्नप्रकार है-
रफीक भाई! सुनो...उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी लिए, रात मैं घर पहुँचा तो मेरी बेटी ने एक कहानी कही, ”एक लाजा है, वो बो...S...त गलीब है।" यहाँ हमारा हेतु क्योंकि लघुकथा की रचनात्मक प्रकृति और चारित्रिक तीक्ष्णता तथा उसके सही स्वरूप एवं स्तर को रेखांकित करना भर है, अत:कौंधकथाऔर विलक्षण-वाक्यकथा समझी जाने वाली ऊपर उद्धृत हिन्दी रचनाओं के साथ उनके लेखक और संदर्भित पत्र-पत्रिका, संग्रह-संकलन अथवा संपादक के नाम का आदि का उल्लेख नहीं किया गया है। यह ठीक है कि कोई अकेला आदमी लघुकथा का नियन्ता नहीं हैं, और यह भी कि किसी भी दृष्टि से हमारे द्वारा हेय तथा त्याज्य समझी जाने वाली, लघुकथा शीर्ष तले छपने वाली Flash Stories Wits अन्य आलोचकों-समीक्षकों अथवा संपादकों को प्रभावशाली महसूस हो सकती हैं; तथा हमारे द्वारा स्वीकार्य रचनाएँ त्याज्य। इस बारे में विवाद की गुंजाइश हमेशा बनी रहेगी, परंतु लघुकथा को कौंधकथाऔरविलक्षण-वाक्यकथासे अलग रखना ही होगा।
मैं पुन: अपने नेपथ्य बिंदु पर आना चाहूँगा। वस्तुत: नेपथ्य वह वातायन है जिसे लेखक अपनी रचना में तैयार करता है और पाठक को विवश करता है कि वह उसमें झाँके तथा रचना के भीतर के व्यापक और गहरे संसार को जाने। कई बार मुख्य-कथा के एक या अनेक पात्र भी लघुकथा के नेपथ्य में रहते हैं। लघुकथा में उनका सिर्फ आभास मिलता है, वे स्वयं उसमें साकार नहीं होते। दरअसल, घटनाओं और स्थितियों का यह प्रस्फुटन लघुकथा के नेपथ्य में उतरे उसके पाठक के मन-मस्तिष्क में होने वाली निरन्तर प्रक्रिया है। अगर कोई रचना, जो इस प्रक्रिया को जन्म देने में अक्षम है, वह नि:संदेह अच्छी रचना नहीं हो सकती। अपने इसी गुण के कारण लघुकथा गंभीर प्रकृति के पाठक को जिज्ञासु बनाए रखने में सफल रह सकी है। इसी बात को मैं यों भी कहना चाहूँगा कि अपने समापन के साथ ही जो लघुकथा पाठक के भीतर विचार की एक श्रॄंखला जाग्रत कर देने की क्षमता रखती है, वह एक सफल लघुकथा है।
लघुकथा में नेपथ्य की उपस्थिति को जानने के बाद यह अवधारणा पूर्णत: निर्मूल सिद्ध हो जाती है कि कोई कथाकार लघुकथा लिखता है क्योंकि वह कथा को कहानी जितना विस्तार दे पाने में अक्षम है। सही बात यह है कि लघुकथाकार कथा के मात्र संदर्भित बिंदुओं पर कलम चलाता है और शेष को नेपथ्य में बनाए रखता है। यही उसका कथा-कौशल है और यही लघुकथा की प्रभावकारी क्षमता।