सोमवार, 26 दिसंबर 2016

लघुकथा : परम्परा और विकास-10 / बलराम अग्रवाल




इस अध्याय की दसवीं यानी समापन किस्त


दिनांक 19-12-2016 से आगे


आठवें दशक के प्रारंभ से ही ‘लघुकथा’ चूँकि अपने नए परिवेश के अन्तर्गत नए कथ्य, शिल्प, प्रभाव के साथ प्रस्तुत हुई थी; इसीलिए अन्य रचनाओं के मध्य यह विशेष प्रभावोत्पादक रही और इसी प्रभावोत्पादकता ने पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। बढ़ती पाठकीय रुचि ने न केवल संपादकों, बल्कि लेखकों को भी आकृष्ट किया। इसकी क्षमता से अनभिज्ञ जो संपादक अपनी पत्रिकाओं में इसका उपयोग मात्रा विविध रचनाओं को स्थान देने एवं रिक्त रहे स्थान की पूर्ति हेतु ही जाने-अनजाने या विवशतावश कर रहे थे, इसके बढ़ते जा रहे महत्त्व से सजग होकर इस नवीन विधा के स्थापन या प्रस्तुतिकरण का सेहरा अपनी-अपनी पत्रिका के सिर बँधवाने के लिए सही-गलत सभी तरह का प्रचार करने लगे। फलस्वरूप, इन सब क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं ने ‘लघुकथा’ को चर्चा देकर इसे एक आन्दोलन का रूप दे दिया और इस लघुकथा-आन्दोलन के सिंचन ने (समकालीन) लघुकथा को पल्लवित किया।
       इस पल्लवन के परिणामस्वरूप ही ‘लघुकथा’ पर अनेक ऐसे स्वतन्त्र साहित्य-विचारकों ने भी अपना मत प्रकट किया जिनके लिए साहित्य निरन्तर शोध का पर्याय है। डाॅ. महेश चन्द्र शर्मा ने ‘लघुकथा’ विषयक एक लेख में अपने विचार यों प्रकट किये हैं—‘...कुछ और विशेषताएँ भी हैं जो इसे एक ‘स्वतंत्र साहित्यिक विधा’ के आसन पर अधिष्ठित करने में समर्थ हैं। ये विशेषताएँ निम्नस्थ हैं :
       (1) लघुकथा जीवन से उस प्रकार सम्प्रक्त नहीं होती, जिस प्रकार एक कहानी होती है। उसका लक्ष्य जीवन के किसी मार्मिक सत्य को प्रकाशित करना होता है जो बहुधा बिजली की कौंध की भाँति अभिव्यक्त होता है।
      (2) लघुकथा में अत्यल्प साधनों से ही जीवन के चरम सत्य को उजागर करने की चेष्टा की जाती है। ये जीवन की मार्ग निर्देशिकाएँ हैं।
      (3) लघुकथाएँ प्रकृति को एक अभिन्न सहचरी के रूप में लेकर चलती हैं। जड़ और चेतन प्रकृति इनके लिए सक्रिय और संवेदनशील सत्ता है। इनमें प्रकृति की मौन वाणी मुखर हो उठती है।
     (4) लघुकथाएँ संकेतात्मकता और बोधकता (बोधगम्यता) पर कहानी की अपेक्षा अधिक ध्यान देती हैं। ये वातावरण निर्माण के लिए बहुत सचेष्ट नहीं रहतीं। इनका वातावरण इनकी अपनी संक्षिप्त और संकेतात्मक योजनाओं में से स्वतः अभिव्यक्त होता रहता है।
      (5) लघुकथाएँ प्राचीन बोधकथाओं के बहुत निकट हैं। इनमें अति-कल्पनाओं का बहुत खुलकर प्रयोग होता है।
       (6) शिल्प की दृष्टि से लघुकथाएँ गद्य-काव्य और रेखाचित्र के बहुत निकट हैं। इनमें दृष्टांतों का अधिक उपयोग होता है। संलापों की भाँति इनमें भी एकाधिक पात्रों का परस्पर कथन-प्रति-कथन चलता है।’
    डा. शर्मा के उपर्युक्त विचार-बिन्दुओं में पाँचवें को छोड़कर शेष सभी बिन्दु ‘लघुकथा’ के साथ-साथ ‘समकालीन लघुकथा’ की विशेषताओं को भी व्यक्त करते हैं। इसकी प्रसंगिकता, संक्षिप्तता एवं सम्प्रेषणीयता व प्रभावोत्पादकताइन तिहरी-चौहरी विशेषताओं ने इसे तीव्र गतिशील बन दिया। साथ ही इन लघु पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों को यह लघुकथात्मक रचना-सहयोग, बिना अतिरिक्त मूल्य या अति श्रमसाध्य प्रयत्नों के सुलभ होता रहा, क्योंकि बड़े-बड़े प्रतिष्ठित नामों की अपेक्षा इसे नए युवा हस्ताक्षरों ने ही समर्पित भाव से समृद्ध किया। इसके तराश, इसके प्रस्तुतिकरण में सूत्रधार की भूमिका निभाई। अतः युवा हस्ताक्षरों ने लघु पत्र-पत्रिकाओं को न केवल अपना रचनात्मक सहयोग ही दिया, बल्कि इससे सन्दर्भित अन्य सम्भव सहयोग व साधन भी उन्हें उपलब्ध करवा सकने के प्रयास किए तथा सम्बन्धित सुझाव भी दिए। फलस्वरूप लघुकथा की यात्रा, तीव्र से तीव्रतर गतिशील होती चली गई।
       समकालीन हिन्दी लघुकथा के उदय को सन् 1970 के बाद हुआ स्वीकारते हुए बलराम का मत है कि—‘‘मई, 1971 की ‘सारिका’ में विवेकराय की ‘मकड़जाल’ हमारा ध्यान आकृष्ट करती है। इसके बाद शुरू होता हैलघुकथा का नवोन्मेष... एक पूरा आन्दोलन...।’' 1965 के बाद से हिन्दी लघुकथा लेखन में एक निरन्तरता का आभास मिलता है। परन्तु अधिकांशतः इसका स्वरूप परम्परागत हाशिए की रचना जैसा ही होता था। 1970 के पश्चात् इसने आन्दोलन का रूप लेना प्रारम्भ किया और आठवें दशक के पूर्वार्द्ध में ही इसने अपनी एक स्पष्ट तस्वीर कथा-आलोचकों के समक्ष प्रस्तुत कर दी।
       शंकर पुणताम्बेकर,  सतीश दुबे, मोहन राजेश,  कृष्ण कमलेश, सत्यशुचि, भगीरथ, सिमर सदोष, महावीर प्रसाद जैन, मधुदीप, अशोक भाटिया, कमल चोपड़ा, श्याम सुन्दर अग्रवाल, श्याम सुन्दर दीप्ति आदि अनेक रचनाकार भी आधुनिक (समकालीन) हिन्दी लघुकथा को आठवें दशक की उपज मानते हैं।
      आठवें दशक में लघुकथा-लेखन दो धाराओं में बह रहा था। व्यावसायिक पत्रिकाओंखास तौर पर ‘सारिका’ में प्रकाशित लेखन, शिल्प के स्तर पर पैरोडी-कथाओं एवं व्यंग्य-कथाओं तक ही सीमित था। ‘नवनीत’ और ‘कादम्बिनी’ में लघुकथाएँ बोध और नीति कथाओं का पर्याय थीं। ‘कहानीकार’ में पंचदेव, सुदर्शन एवं विनायक रूप के स्तर पर फैंटेसी के प्रयोग कर रहे थे, लेकिन कथ्य आदर्शपरक ही था।
       पैरोडी एवं व्यंग्य लघुकथाओं में पौराणिक कथाओं, पंचतंत्र की कथाओं, लोक कथाओं को आज की स्थितियों/पात्रों के सन्दर्भ में उठाकर व्यंग्य और हास ही प्रस्तुत किया जाता था। वस्तु के स्तर पर वे आधुनिक भाव-बोध की वाहक थीं। ऐसी रचनाओं को खासी लोकप्रियता भी हासिल हुई। एकबारगी ऐसा लगा कि ‘लघुकथा’ व्यंग्य के बिना अपंग है। ऐसी लघुकथा लिखने वालों में प्रमुख थेसर्वश्री श्रीकांत चौधरी, शंकर पुणताम्बेकर, दुर्गेश, मनीषराय, सनत मिश्र, श्रीराम ठाकुर ‘दादा’, यशवंत कोठारी आदि।  आठवें दशक में परसाई जी ने  लघुकथाएँ ही अधिक लिखीं, इस तथ्य को स्वयं उन्होंने अपनी पुस्तक ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ की ‘कैफियत’ शीर्षक से लिखी भूमिका में स्वीकार किया है। उस भूमिका से पेशे-नजर हैं ये पंक्तियाँ—‘कुछ चुनी हुई रचनाएँ इस संग्रह में हैं। ये 1975 से 1979 तक की अवधि में लिखी गई हैं। 2-4 पहले की भी हो सकती हैं। पिछले सालों में मैंने लघुकथाएँ अधिक लिखी हैं। वे इस संग्रह में हैं।’ इस संग्रह की भूमिका एक ओर जहाँ परसाई के लेखकीय व्यक्तित्व और मानवीय सरोकारों को हमारे सामने रखती है, वहीं उस पूरे दौर के चरित्र को भी सामने रखती है—‘इस दौर में चरित्रहीन भी बहुत हुआ। वास्तव में यह दौर राजनीति में मूल्यों की गिरावट का था। इतना झूठ, फरेब, छल पहले कभी नहीं देखा था। दगाबाजी संस्कृति हो गई थी। दोमुँहापन नीति। बहुत बड़े-बड़े व्यक्तित्व बौने हो गए। श्रद्धा सब कहीं से टूट गई। इन सब स्थितियों पर मैंने जहाँ-तहाँ लिखा। इनके सन्दर्भ भी कई रचनाओं में प्रसंगवश आ गए हैं।
       आत्म-पवित्रता के दंभ के इस राजनीतिक दौर में देश के सामयिक जीवन में सब-कुछ टूट-सा गया। भ्रष्ट राजनीतिक संस्कृति ने अपना असर सब-कहीं डाला। किसी का किसी पर विश्वास नहीं रह गया थान व्यक्ति पर न संस्था पर। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का नंगापन प्रकट हो गया। श्रद्धा कहीं नहीं रह गई। यह विकलांग श्रद्धा का भी दौर था। अभी भी सरकार बदलने के बाद स्थितियाँ सुधरी नहीं। गिरावट बढ़ रही है। किसी दल का बहुत अधिक सीटें जीतना और सरकार बना लेना, लोकतंत्र की कोई गारंटी नहीं है। लोकतांत्रिक स्पिरिट गिरावट पर है।’
       रामनारायण उपाध्याय का संकलन ‘नया पंचतंत्र’ पैरोडी शैली की लघुकथाओं का बेहतरीन उदाहरण है।  डाॅ. शंकर पुणताम्बेकर के संपादन में प्रकाशित ‘श्रेष्ठ लघुकथाएँ’ तथा नरेन्द्र मौर्य व नर्मदाप्रसाद उपाध्याय के संपादन में ‘समानांतर लघुकथाएँ’ ने इसे और पुष्ट किया। एक बार तो यह फाॅर्म ही लघुकथा का पर्याय बना रहा। ऐसा नहीं था कि अव्यवसायिक स्तर पर इस तरह का लेखन नहीं होता था लेकिन इसके साथ ही अन्य प्रयोगों की ओर भी समुचित ध्यान दिया जाता था। यह ठीक था कि विरोधाभासों, पाखंडों और चालाकियों को उघाड़ने में व्यंग्य का हथियार काफी कारगर सिद्ध हुआ है, किन्तु संवेदना के कई और स्तर भी थे जहाँ व्यक्ति अपने गुस्से की करुणा को अभिव्यक्त कर सके।
        ‘अन्तर्यात्रा’, ‘अतिरिक्त’, ‘मिनीयुग’, ‘दीपशिखा’, ‘तारिका’, ‘साहित्य निर्झर’ कुछ ऐसी पत्रिकाएँ थीं जो प्रयोगों को प्रमुखता देती थीं और ‘लघुकथा’ के पूरे परिदृश्य को रेखांकित करती थीं।...कुछ ऐसी महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुईं कि ‘लघुकथा’ का पूरा परिदृश्य ही बदल गया। पुरानी मान्यताएँ ढह गयीं और ‘लघुकथा’ का वह सार्वभौमिक रूप उभरकर सामने आया जिसमें सभी तरह के प्रयोगों के लिए समान अवसर और आदर है तथा कन्फ्यूजन की स्थिति से कमोबेश ‘लघुकथा’ ने निजात पा ली है।
       ‘लघुकथा’ ने इस तरह प्रयोगों से गुजरते हुए नीति-कथा, दृष्टान्त-कथा, उपदेश-कथा, लोककथा, काव्यगन्धी गद्य, गद्यगीत, चुटकुले, व्यंग्य एवं कहानी से अलग पहचान बना ली है। इसके विकास की प्रक्रिया में पीढ़ियों के बीच विशेषतः दो कथाकार पुल का निर्माण करते मिलते हैं। पुराने कथाकारों में विष्णु प्रभाकर परम्परावादी भाव-बोध और आधुनिक यथार्थ-बोध के बीच खाई को पाटने की अनवरत कोशिश करते हैं; उनसे न परम्परा का मोह छूटता है, न आधुनिकता का; लेकिन हरिशंकर परसाई निर्द्वन्द्व रहकर पुल के आधुनिक यथार्थ-बोध वाले सिरे पर आ डटते हैं। ये दोनों कथाकार अपने अन्तिम समय तक यह कार्य अपनी-अपनी तरह से करते रहे।
        हिन्दी लघुकथा ने आज के मनुष्य के समकालीन यथार्थ के साथ तनावपूर्ण व द्वन्द्वात्मक सम्बन्धों की प्रस्तुति बहुत सजीव व मार्मिक रूप में की है।... 20वीं शताब्दी की हिन्दी लघुकथा जहाँ समकालीन सामाजिक परिवेश में मनुष्य की हो रही दुर्गति का सजीव वृत्तांत पेश करती है, वहीं पर ऐसी असंगत व्यवस्था के विरुद्ध पाठकीय मानसिक संक्षिप्तता, तीव्रता और सांकेतिकता लघुकथा को कहानी से अलगाते हैं। डाॅ. शकर पुणताम्बेकर के शब्दों में—‘कहानी को जिस भाँति उपन्यास का लघुरूप नहीं माना जाता, उसी तरह लघुकथा को हम कहानी का लघुरूप नहीं कह सकते। उपन्यास की अपेक्षा कहानी में अनुभूति कहीं अधिक होती है और कहानी की अपेक्षा लघुकथा में और भी अधिक। आकार में अत्यन्त संक्षिप्त होने के कारण लघुकथा में अनुभूति की तीव्रता इतनी घनीभूत होती है कि वह हमें बिजली के तार की भाँति झटका दे जाती है। हमारी चेतना को एकदम झकझोर देती है।’
        बहरहाल, हिन्दी लघुकथा का यथावत् विकास आधुनिक युग में होने का प्रधान कारण यही है कि यह न केवल हमारे समकालीन यथार्थ की, बल्कि भोगे हुए यथार्थ की अभिव्यक्ति है। यद्यपि लघुकथा के रूप में कथा के नवीन विकास से अनभिज्ञ तथा कुछेक दुराग्रही लोगों के व्यवहार में ‘लघुकथा’ को अभी तक भी ‘लघु-कथा’, ‘लघु कथा’ एवं ‘छोटी कहानी’ लिखा-पढ़ा-समझा-प्रचारित किया जा रहा है, तथापि अधिकतर प्रबुद्ध आलोचकों ने इस नव्य कथा-विधा का सकारात्मक स्वागत किया है। सम्प्रति, हिन्दी कथा साहित्य के क्षेत्र में ‘लघुकथा’ शब्द का अर्थ कथा के एक विशिष्ट प्रकार के रूप का बोध कराता है जो अपने कथ्य, तथ्य, शिल्प, प्रभाव, उद्देश्य आदि में अपने प्राचीन स्वरूप से भिन्न है; और कथा के इस विशिष्ट रूप का, जो हिन्दी में ‘लघुकथा’ नाम से अभिहीत है, विकास कहानी की तरह ही भारतेन्दु-युग से जोड़कर देखते हुए रूपसिंह चन्देल ने लिखा है—‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से चलकर जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, प्रेमचन्द, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, छबीलेलाल गोस्वामी, बालकृष्ण बलदुआ, रावी, विष्णु प्रभाकर, सुदर्शन आदि की रचनात्मकता द्वारा सिंचित और रमाकांत, यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, शंकर पुणताम्बेकर, सतीश दुबे, विक्रम सोनी, भगीरथ, रमेश बतरा, बलराम, पृथ्वीराज अरोड़ा, बलराम अग्रवाल, सुकेश साहनी, अशोक भाटिया आदि कथाकारों की सूक्ष्म पर्यवेक्षण दृष्टि द्वारा पोषित और विकसित हिन्दी लघुकथा आज विश्व की तमाम भाषाओं की लघुकथाओं के समकक्ष उपस्थित है।’