मंगलवार, 10 अगस्त 2021

कोरोना कlल और 1960-62 के दिन

बेतरतीब पन्ने-1

किसी को शायद ही कभी विश्वास हो कि कचरा हमने भी बीना है। मल-मूत्र के उस ढेर में हम भी बड़े शौक से घुसे हैं।
एक समय था जब मैं और मुहल्ले का सखा सन्नी शहर के कब्रिस्तान को पार करते हुए रोडवेज बस अड्डे की एक दीवार के पिछवाड़े फेंके जाने वाले कूड़े के ढेर पर जाकर जाते थे। मैं उन दिनों पाँचवीं का छात्र था और सन्नी चौथी का; या फिर मैं छठी कक्षा का छात्र था और सन्नी पाँचवी का। बहरहाल, हमें सिगरेट के पैकेट्स और बीड़ी-बंडलों के रैपर्स से खेलना होता था तो अनूठे पैकेट्स और रैपर्स उस ढेर के अलावा शहर की किसी भी मुख्य या भीतरी गली की सड़क पर नहीं मिल सकते थे। कूड़े के उस ढेर की ओर ही बस स्टैंड के पेशाबघर की मोरी भी खुलती थी, लेकिन कोई परवाह नहीं। हम ढेर को उलटने-पलटने पर ध्यान केंद्रित रखते थे, गीले-सूखे में उंगलियाँ डलने पर नहीं। सिगरेट्स में चार मीनार, गोल्ड फ्लेक, कैवेंडर और पनामा  तथा बीड़ियों में बीड़ी नं॰ 27 और फव्वारा के रैपर्स बहुत आम थे इसलिए उनकी कीमत भी 5-5, 10-10 यानी बहुत कम हुआ करती थी। जितना रेअर डिजाइन, उतनी ही अधिक कीमत। पैकेट के, रैपर के आकर्षक और लुभावना होने के अनुपात में 500 और 1000 तक भी जाती थी। जीतते थे तो वही फव्वारा और गोल्ड फ्लेक और हारते थे तो कभी-कभी 500-1000 वाले रैपर्स भी गँवाने पड़ जाते थे। ऐसी हालत में उन रेअर डिजाइन्स की तलाश में ही हमें मल-मूत्र के उस ढेर में पुन: पुन: घुसना पड़ता था। समय बीतने के साथ उन कीमती पैकेट्स और रैपर्स के बंडल भी पीछे छोड़ देने पड़े।
आज कोरोना काल में, दिनभर में हम बिना कहीं जाए, बिना कुछ छुए भी साबुन से 20 बार हाथ धोते हैं, रगड़-रगड़ कर। उन दिनों कभी धोए हों, याद नहीं।
(फोटो साभार: गूगल)

गुरुवार, 5 अगस्त 2021

रचना और आलोचना / डॉ पुरुषोत्तम दुबे

रचना

डर / बलराम अग्रवाल 

दोनों अगल-बगल बैठे थे।पहला किसी चिंता में मग्न था।                              "बहुत चुप है आज!" कुछ देर उसे निहारता रहने के बाद दूसरे ने पूछा, "बात  क्या है?"
"बात!" दोस्त का सवाल सुन पहले ने धीमे स्वर में कहा, "सोचो तो बहुत बड़ी है, न सोचो तो कुछ भी नहीं।"
"हुआ क्या?"
"हुआ यह कि, " पहले ने बताना शुरू किया, "कल रात, लिखने की अपनी मेज पर बैठा मैं कुछ सोच रहा था कि एक युवती कमरे में दाखिल हुई। मुस्कुराते हुए उसने अभिवादन किया और सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई।"
"फिर?"
"उसने कहा कि वह एक अन्तरराष्ट्रीय कहानी सर्वे के भारतीय प्रतिनिधिमंडल की सदस्य है। बोली, आप वरिष्ठ कथाकार हैं। कृपया अपनी 30 ऐसी कहानियों की सूची मुझे दें, जिन्हें आप उच्च स्तरीय मानते हों।"
"यह तो कोई मुश्किल काम नहीं था।" दूसरे ने कहा।
"यार, बिरला ही कोई कथाकार होगा जिसे अपनी सभी कहानियों के शीर्षक याद रह गए हों!"
दूसरा इस तर्क का तुरंत प्रतिवाद नहीं कर पाया।
"उनमें भी, श्रेष्ठ का चुनाव!" पहले ने कहना जारी रखा, "मेहनत जरूर करनी पड़ी, लेकिन अपनी पसंद की 30 श्रेष्ठ कहानियों की सूची बनाकर मैंने उसके आगे रख दी।"
"फिर?"
"सूची को देखकर उसने कहा, इन्हें कृपया अपनी दृष्टि से वरीयता के क्रम में लिख दें। मैंने वह भी कर दिया।"
"फिर?"
"उस नई सूची पर क्रमांक 16 से 30 तक के नामों को अपने हाथ में पकड़े पेन से उसने एक बॉक्स में बंद कर दिया; फिर मुझसे कहा, ऊपर की 15 में से यदि 10 कहानियों का चुनाव करना हो, तो आप किन्हें चुनना चाहेंगे?
इस तरह उसने पाँच कहानियाँ और अलग करवा दीं।"
"यानी सिर्फ दस कहानियों की सूची अपने पास रखी?" दूसरे ने पूछा।
"अरे नहीं, " पहले ने दुखी अंदाज में कहा, "बोली--इन 10 कहानियों को सम्पादक अगर 5-5 की दो किस्तों में छापना चाहें, तो जिन 5 को आप पहले छपवाना चाहेंगे; उन्हें कृपया पहले, दूसरे, तीसरे... स्थान के वरीयता क्रम में लिख दें।"
"यह तो कोई मुश्किल काम नहीं था।" दूसरे ने कहा।
"यार, 300 में से 30 कहानियों के नाम चुनने में ही मेरी ऐसी-तैसी हो गई थी और तुम कह रहे कि यह कोई मुश्किल काम नहीं था!" पहले ने गुस्सेभरी तेज आवाज में कहा। दूसरे को उसका यह अंदाज बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा; लेकिन उसने प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। 
"मैं उसके शिकंजे में फँस चुका था और अब वह चालाक युवती उसे कसे जा रही थी।" पहला कुछ देर बाद अपने-आप में बुदबुदाया फिर स्पष्ट आवाज में बोला, "इतना कर चुकने के बाद मैंने झिड़ककर उसे भगा देना चाहा, लेकिन... न जाने क्या सोचकर वह क्रम भी बना दिया।"
"फिर?"
"फिर वह हुआ जिसकी मुझे सपने में भी उम्मीद नहीं थी।" पहले ने दुखी स्वर में कहा।
"क्या?"
"उस सूची को देखते ही उसने कहा--सर, स्वयं चुनी हुई 30 में से 25 कहानियों को तो आप ही निचले पायदान पर रख चुके हैं। खेद की बात यह कि पाठकों और आलोचकों की संयुक्त राय के आधार पर तैयार श्रेष्ठ कहानियों की जो सूची हमारे पास है, उसमें इन पाँच में से एक का भी नाम  नहीं है।"
"ओह!" दूसरे के कंठ से निकला।
"मैं तो 'ओह' भी नहीं कह पाया था, " पहला बोला, "उसका निर्णय सुनकर बेहोश-सा हो गया।"
"हे भगवान!" दूसरे ने चिंता जताई, "फिर क्या हुआ?"
"चैतन्य हुआ तो कमरे में सिर्फ मैं था।" पहले ने कहा।
"यानी कि वह जा चुकी थी!" दूसरे ने आश्चर्य व्यक्त किया।
"आई ही कब थी!" पहले ने ठंडे स्वर में कहा, "पत्नी-बच्चे सब बाहर गए हुए हैं। सिक्योरिटी गार्ड्स को 'डोंट डिस्टर्ब' बोल रखा था। फ्लैट अंदर से बंद। मेरा कमरा अंदर से बंद। रात, दो बजे का समय। कौन आ सकता था!!!"
"डर!" दूसरे ने सधे स्वर में कहा।
पहले ने नजरें उठाकर बगल में देखा--वहाँ दूसरा कोई नहीं था। 
सिर्फ वह था, निपट अकेला।

आलोचना

निडर होकर लिखी गई बलराम अग्रवाल की 'डर  लघुकथा

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समकालीन लघुकथाकार बलराम अग्रवाल की निहायत ही ताज़ातरीन लिखी लघुकथा 'डर' जिसे लघुकथाकार ने 2021 के नवम्बर माह की 25 तारीख यानी अपने 70वें जन्मदिन से मात्र एक दिन पूर्व प्रणीत किया है।
    बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ आनन-फ़ानन में निर्मित न होकर  गहरी विचारशीलता का प्रतिफलन होती हैं। उनकी लघुकथाओं में मनोविज्ञान के स्वर मुखरित हुए मिलते हैं जो मानव मन की अवस्थाओं तथा मानव मन पर पड़ने वाले प्रभावों को विवेचित करते हैं। उनकी लघुकथाओं में मनोविज्ञान का होना लघुकथाओं को दुरूह बनाने हेतु प्रयोजित नहीं होता है प्रत्युत लघुकथाओं का तात्विक अध्ययन किए जाने की तरज़ीह लेकर उपस्थित हुआ करता है। जहाँ मनोविज्ञान है वहॉं 
   लेखकीय चिन्तन लेखक की गवेषणात्मक शक्ति का परिचय देता मिलता है। विशेषकर जब लेखक या लघुकथाकार 'डर' सरीखी पृथक भावभूमि की लघुकथा निर्मित कर पटल पर लाता है।
       प्रायः  रचना के साथ उस रचना के प्रकाशन की  तीव्र लालसा जुड़ी होकर उस रचना को सम्पादन की दिशा में अग्रसरित किए जाने की  उत्कण्ठा रचनाकार के मन को अनवरत रूप में सालती रहती है? तबतक, जबतक लेखक रचना को प्रकाशन का रास्ता नहीं दिखा देता या जबतक उसकी रचना कहीं से प्रकाशित होकर उसकी आँखों की खुराक़ नहीं बन जाती!
     बलराम अग्रवाल की लघुकथा 'डर' कथ्य का ऐसा रचनात्मक उत्पाद है जिसके ऊपर 'प्रकाशन विषयक ग्यारेन्टी' का मार्का चस्पां नहीं होकर प्रकाशन बाबत असमञ्जस की स्थिति से पगा है!
     लघुकथा 'डर' एक ऐसे सृजनरत कहानीकार को केन्द्र में रखकर घटित होती है, जिसके पास उसकी लिखी कहानियों की लम्बी फ़ेहरिस्त है। संयोगवश अंतरराष्ट्रीय कहानी सर्वे के भारतीय प्रतिनिधि मण्डल की सदस्य  प्रकाशन बाबत उस कहानीकार से मिलती है और उससे उसकी लिखी  30 श्रेष्ठ कहानियों की सूची माँगती है। कहानीकार अपनी लगभग 300 कहानियों  में से 30 कहानी का चयन कर उसके आगे रखता है। अंततः बात यह पैदा होती है कि वह अपने द्वारा चयनित 30 कहानियों में से फिर 15 श्रेष्ठ कहानी का चयन करें। बात यहाँ तक आती है कि वह उनमें से कोई 10 कहानियों का चयन करे और अंततः सर्वे मण्डल की सदस्य उसे निर्दिष्ट करती है कि इन 10 कहानियों में से 5-5 कहानियों के 2 सैट तैयार करे। इसके बाद वरीयता के क्रम में छपवाने की दृष्टि से चयनित 5 कहानियों को क्रम से विभक्त करे । इस जटिल कार्य को भी प्रकाशन की तीव्र लालसा में वह सम्पादित करता है। यहीं आकर बलराम अग्रवाल की लघुकथा 'डर' यू-टर्न लेती है। जब लेखक द्वारा चयनित की गईं 5 लघुकथाओं का वह उसके पास रखी उस फ़ेहरिस्त के माध्यम से मिलान करती है कि उसके पास आलोचकों द्वारा अबतक जिन चुनिन्दा कहानियों की समीक्षा की गईं हैं उन कहानियों में आपकी लिखी कोई कहानी देखने में नहीं आई है।
     यहीं आकर लघुकथाकार बलराम अग्रवाल को अपनी लघुकथा 'डर' को विराम दे देना चाहिए था। इसी जगह रुककर 'डर' एक उम्दा व्यंग्यात्मक लघुकथा होने का तमगा बेशक़ हासिल कर सकती है।
    लघुकथा में आगे का ब्यौरा उस सर्वेयर की उपस्थिति को काल्पनिक बना देता है जो लघुकथा की सृजन प्रक्रिया को बलात् खण्डित करने का लेखकीय आरोपित प्रयास ही है !
   बलराम अग्रवाल ने 'डर' लघुकथा का कथानक उनकी उर्घ्वगामी दृष्टि से उतारा है अतः इस कथानक का अंत अधोगामी न दिखाकर लघुकथा का रचनात्मक सौष्ठव बचाया जा सकता है।
      अन्त में, एक बात को कहना और ज़रूरी है कि लघुकथा 'डर' का पात्र अपनी रचनाओं के प्रकाशन के तारतम्य में महत्वाकांक्षी है, लेकिन फ़क़त रचना प्रकाशन को लेकर उम्मीद जताने के बदले उसे चाहिए कि वह समकालीन आलोचना एवं युगीन आग्रहों से कटिबद्व होकर अपने रचना विधान को जन्म देने का निर्णय स्वयं से ले।
तथापि मैं बलराम अग्रवाल को  उनकी इस ताज़ातरीन लघुकथा 'डर' को लेकर उनको बधाई देता हूँ कि उन्होंने रचनात्मकता में दिनोदिन बढ़ते कुहासे पर प्रस्तुत लघुकथा के माध्यम से सृजनकर्ताओं की धुंधली दृष्टि को नज़र का चश्मा पहनाने की सकारात्मक कोशिश की है।

● डॉ. पुरुषोत्तम दुबे 
शशीपुष्प
74 जे ए स्कीम न 71
 इन्दौर (म.प्र.)
मोबाइल 9329581414
(नोट : 11-12-2021 को पोस्ट किया। एक पुरानी पोस्ट पर  लिखने के कारण पुरानी तारीख दिखा रहा है)

लगुकथा-विशेषांक-2021/योगराज प्रभाकर (सं.)

लघुकथा कलश     आलेख महाविशेषांक-2 

वर्ष 4 अंक: 7  जनवरी-जून 2021 मूल्य: ₹500/

संपादकीय (सातवाँ पग)

चिंतन विविधा

● समकालीन लघुकथा में संघर्ष चेतना (कमल चोपड़ा)

● लघुकथा और फटेसी (कुमारसंभव जोशी)

• सार्वभौमिक लघुकथाएँ (चंद्रेश कुमार छतलानी) • पौराणिक काल पर आधारित आधुनिक संदर्भ की लघुकथाएँ (मालती वसंत)

प्रांत विविधा

● उत्तराखंड के हिंदी लघुकथाकारों की लघुकथाओं में समाज-संस्कृति (खेमकरण 'सोमन')

• लघुकथा की कहानी महाराष्ट्र के लघुकथाकारों की जुबानी (हेमलता मिश्र 'मानवी')

• लघुकथा में हिमाचल (रतन चंद 'रत्नेश')

विमर्श विविधा

• अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक दृष्टिकोण और हमारी लघुकथाएँ (अंतरा करवड़े)

● लघुकथा में नवीन विषयों की आवश्यकता (नीरज सुधांशु).

● समकालीन साहित्य में लघुकथा (रेखा लोढ़ा).

• लघुकथा में भाषाई सौंदर्य (संतोष सुपेकर)

• नवागत लघुकथाकारों की पीठ पर भ्रमों की पोटली ( सविता इंद्र गुप्ता)

• रचनात्मकता में आए बदलाव ही सृजन की दिशा तय करते हैं (सूर्यकांत नागर).

भाषा विविधा

● लघुकथा विधा के प्रति आस्था और विश्वास का पर्याय सिंधी लघुकथा (हूंदराज बलवाणी)

• पंजाबी लघुकथा के प्रमुख हस्ताक्षर (जगदीश राय कुलरियाँ)

व्यक्तित्व विविधा

● अनेक कालजयी लघुकथाओं के सर्जक: अशोक लव (अनिल शूर 'आज़ाद')

• डॉ. जसबीर चावला का व्यक्तित्व एवं कृतित्व (धर्मेंद्र कुमार राठवा)

• खिड़कियों से झाँकता लेखक : दीपक मशाल (खेमकरण 'सोमन)

• पारस दासोतः विषय वैविध्य के अन्वेषी लघुकथाकार (पुरुषोत्तम दुखे)

● मार्टिन जॉन की लघुकथाओं में शिल्प प्रयोग का तात्त्विक अभिव्यंजन (पुरुषोत्तम दुबे)

● लघुकथा के सौम्य सत्याग्रही डॉ. योगेंद्रनाथ शुक्ल (पुष्पेंद्र दुबे) 

● डॉ. राजकुमार निजात की लघुकथाओं में मानवीय संवेदनाएँ (आशा खत्री 'लता')

● 'स्व' की अनुभूति से 'सर्व' को अभिभूत करने वाले रचनाकार रामकुमार आत्रेय (राधेश्याम भारतीय) 

● लघुकथा के कुरुक्षेत्र में डॉ. रामकुमार घोटड़ का योगदान (भगीरथ परिहार).

● जन-जन के कुशलचितेरे डॉ रामनिवास मानव (सत्यवीर मानव) 

● लघुकथा के प्रौढ़ शिल्पी रूप देवगुण (ज्ञानप्रकाश 'पीयूष')

• लघुकथा के विकास में सतीशराज पुष्करणा का अवदान (अनिता राकेश)

● हिंदी लघुकथा के विकास में सुकेश साहनी का योगदान (सतीशराज पुष्करणा).

साक्षात्कार

● कोई भी लेखक अपने समय से कटकर जिंदा नहीं रह सकता (मिथिलेश दीक्षित की मधुदीप से वार्ता )

• लघुकथाओं में 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम' का सनातन रूप दृष्टिगोचर होना चाहिए (प्रताप सिंह सोढ़ी की डॉ पुरुषोत्तम दुबे के लघुकथा में अवदान पर वार्ता)


संस्थान / शहर / प्रकाशन विविधा

● लघुकथा की संस्कारधानी: जबलपुर (कुँवर प्रेमिल )

● मील के पत्थर स्थापित करती पत्रिका: अविराम साहित्यिकी (ज्योत्सना कपिल)

● लघुकथा के विकास में अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच' की भूमिका (ध्रुव कुमार)

● लघुकथा के विकास में 'कथादेश' पत्रिका का योगदान (नितिन सेठी).

● राष्ट्रीय फलक पर लघुकथा नगर सिरसा (शील कौशिक).

संस्मरण

एक नया अध्याय (सुधा भार्गव)

अमूल्य धरोहर

● हिंदी लघुकथा की अमूल्य धरोहर- 'राही': लघुकथा-आलेख अंक

पुस्तक समीक्षा

• महानगर के लघुकथाकारों की श्रेष्ठ लघुकथाएँ (कैलाश विद्यालंकार)..

प्राप्त पुस्तकें

घोषणा :

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