सोमवार, 23 नवंबर 2009

लाघव : लघुकथा का आधारभूत गुण/बलराम अग्रवाल



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र्तमान युग वैज्ञानिक-युग कहलाता है। समाज के हर क्षेत्र को विज्ञान ने प्रभावित किया है। यहाँ तक कि मनुष्य की जीवन-दृष्टि में भी विकासात्मक परिवर्तन आया है। पूर्व की पूर्ण आदर्शपरकता, परम्पराओं व रीति-रिवाजों के अन्धानुकरण की जमीन दरक गई है। उस पर यथार्थपरकता ने अपने पाँव जमा लिए हैं। इस यथार्थपरक जीवन-दृष्टि ने व्यक्ति की परम्परागत चिंतन-शैली को बदल डाला है। बदली हुई इस चिंतन-शैली ने उसे सकारात्मक रचनात्मक तेवर प्रदान किए हैं। इन तेवरों को समकालीन लेखन में, शिल्प में, कला मेंतात्पर्य यह कि सक्रिय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आसानी से रेखांकित किया जा सकता है। लघुकथा-लेखन में तो इन्हें बड़ी आसानी से रेखांकित किया जा सकता है।
1965 के बाद से हिन्दी लघुकथा-लेखन में निरन्तरता के चिह्न परिलक्षित होते हैं, लेकिन तब के पत्र-पत्रिकाओं में इसका स्वरूप अधिकांशत: हाशिए की रचना जैसा ही दिखाई देता है। 1970 के पश्चात् इसने आंदोलन का रूप लेना प्रारम्भ किया और आठवें दशक के पूर्वार्द्ध में ही इसने अपनी स्पष्ट तस्वीर संपादकों व कथा-आलोचकों के सम्मुख प्रस्तुत कर दी। इस तथ्य के प्रमाणस्वरूप 1973 में कमलेश्वर के सम्पादन में प्रकाशित सारिका के लघुकथांक को देखा जा सकता है; यद्यपि उससे पहले ही इस पत्रिका ने लघुकथाओं को सम्मानजनक स्थान देना प्रारम्भ कर दिया था। उस समय तक लघु-पत्रिकाएँ लघुकथा के प्रति गंभीर हो चुकी थीं, परन्तु सभी व्यावसायिक पत्रिकाओं में इसका परिवर्द्धित रूप स्वीकार्य नहीं था। इस अस्वीकार का मुख्य कारणलघुकथा के किसी समर्थ प्रवक्ता का कथा-कहानी केन्द्रित किसी व्यावसायिक पत्र-पत्रिका तक न पहुँच पाना था। बाद में रमेश बतरा, बलराम, महेश दर्पण, चित्रा मुद्गल जैसे नई पीढ़ी के ऐसे कथाकार जो लघुकथा को जानते-समझते थे, बड़े प्रकाशन-प्रतिष्ठानों से जुड़े, तब गम्भीर समझी जाने वाली लघुकथाओं को व्यावसायिक स्तर पर प्रचारित-प्रसारित पत्र-पत्रिकाओं में स्थान मिलना प्रारम्भ हुआ। चारों ओर से कहानी के प्रवक्ताओं से घिरे इन जैसे लघुकथा-प्रवक्ताओं को लघुकथा को बड़े मंच पर प्रस्तुत करने हेतु कितना संघर्ष करना पड़ा होगा, इसका अनुमान लगाना आसान नहीं है। इस बारे में अपने अनुभव बताने के लिए भले ही रमेश बतरा अब हमारे बीच नहीं हैं, परन्तु अन्य अनेक कथाकार मौजूद हैं।
1971 में मानव-चरण चन्द्रमा के धरातल को नाप चुके थे। प्रगतिशील लेखन अपने चरम पर था। आम आदमी की आकांक्षाएँ हताशाजनक परिस्थितियों के बावजूद भी नए शिखरों की ओर गतिशील थीं। इनके मद्देनजर माना जाना चहिए कि हिन्दी लघुकथा आन्दोलन ने अपने जन्म से ही प्रगतिशील तेवरों को अपने भीतर पाया है। वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि उसका स्वभाव है। इन्हीं सब कारणों के चलते अति-आवश्यक है कि लघुकथा के आधारभूत गुणों का अध्ययन हम वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में करें।
वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य क्या है?इसे समझने के लिए आवश्यक है हमारा यह जानना कि विज्ञान क्या है? कहा गया है किविशिष्ट ज्ञानं विज्ञानं अर्थात् विषय-विशेष का क्रमबद्ध ज्ञान विज्ञान है। अपनी पुस्तक भाषा विज्ञान की रूपरेखा में भाषा विज्ञान की वैज्ञानिकता विषय पर विस्तृत चर्चा करते हुए डॉ हरीश शर्मा ने लिखा है--विज्ञान प्रमुखत: तीन आवश्यकताओं से अनुशासित होता है
(अ) उपचार पूर्णतासम्पूर्ण उपयुक्त सामग्री का यथोचित एवं पूर्ण उपचार होना विज्ञान का एक महत्वपूर्ण दायित्व है।
(आ) अंत:संगतिप्रयोग के उपरांत प्राप्त निष्कर्ष एवं उसके कथन में किसी प्रकार का अन्तर्विरोध न हो। तथा,
(इ) लाघवविज्ञान यथार्थमूलक होता है अत: अयथार्थ और निराधार के लिए यहाँ कोई अवकाश नहीं होता। इस दृष्टि से विज्ञान(अर्थात् प्रस्तोता) का यह दायित्व हो जाता है कि कथन में अनर्गल कुछ भी न हो। यह विज्ञान की तीसरी आवश्यकता है।
विज्ञान के विद्यार्थी इस सत्य से भली-भाँति परिचित हैं कि विषय-विशेष पर कार्य करते हुए विषय-केन्द्रित बने रहना उनके लिए अति-आवश्यक है। अन्य विषय भले ही विवरण-प्रिय होते हों, विज्ञान के विषय विवरण-प्रिय नहीं होते। किसी वैज्ञानिक-प्रयोग के दौरान आवश्यक सामग्री से इतर सामग्री को जुटाकर रखना पूर्णत: अवांछित माना जाता है। बिल्कुल इसी प्रकार, प्राप्त निष्कर्षों को भी वहाँ निष्कर्षाभिमुख क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। विज्ञान की इस कार्य-पद्धति को 1970 के आसपास की कथापीढ़ी ने अपने लेखन में अपनाया। इसमें तो कोई दो राय नहीं कि काल ही सबसे बड़ा प्रेरक होता है और वही सबसे बड़ा निर्णायक भी है। 1970 के आसपास भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ बेहद उद्वेलनकारी थीं। नक्सलवाद उस काल में लगभग चरम पर था। वे आम आदमी की हताशा और असंतोष के दिन थे। ये हताशा और असंतोष ही उस काल में शनै: शनै: हिन्दी सिनेमा के परदे पर एंग्री यंग मैन का रूप व आकार ग्रहण करते हैं यानी कि अमिताभ बच्चन का पूर्ण उदय। काव्य में सौंदर्य-बोध के मुहावरे बदल चुके थे। चाँद का मुँह कवि को टेढ़ा नजर आने लगा था। कहानी लम्बे समय तक साहित्य के केन्द्र में रही है। इस हताशा और असंतोष को स्वर देने की गहरी तड़प स्वातंत्र्योत्तर काल की कहानी में खूब नजर आती है। कहानी के विभिन्न आंदोलन उस तड़प का ही परिणाम हैं। कहानी को लगातार लगता रहा है कि वह आम पाठक से दूर होती जा रही है। उससे पुन: निकटता बनाने के प्रयास में वह नई कहानी, अकहानी, सचेतन कहानी, सहज कहानी, समांतर कहानी, जनवादी कहानी, सक्रिय कहानी आदि नित नये चोले बदलती रही, परंतु बात बनी नहीं। सही कहा जाय तो प्रेमचंद के जीवनकाल में ही इस तड़प के अंकुर दिखाई देने लगे थे। प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता करने का सम्मान उन्हीं को सौंपा गया था। यद्यपि जनवादी और सक्रिय कहानी आंदोलन का समय लगभग 1980 के आसपास तक फैला है तथापि इसी अवधि के दौरान 1971-72 में लघुकथा-लेखन भी एक अघोषित आंदोलन का रूप ले चुका था। एक के बाद एक धराशायी होते कहानी-आंदोलनों ने तत्कालीन युवा-कथाकारों को कथा-लेखन में लाघव की ओर प्रवृत्त किया। अत: समकालीन दृष्टि से लाघव को लघुकथा-लेखन का वैज्ञानिक-सूत्र कहा जा सकता है और समकालीन लघुकथा का आधारभूत गुण भी। लाघव ही है जो किसी कथा-रचना का लघुकथा होना और कहानी न होना तय करता है। लाघव के व्याकरण एवं शब्दकोश सम्मत अर्थों को रूढ़ दृष्टि से परखने की बजाय विज्ञान-सम्मत परिमार्जित दृष्टि से परखने व खुले मस्तिष्क से ग्रहण करने की आवश्यकता है। शब्द को Arbitrary अर्थात् स्वतंत्र/यदृच्छिक प्रकृति का माना जाता है। शब्दकोशों के 1950 के आसपास के संस्करणों में दी गई हार्डवेअर के अर्थों की सूची में कम्प्यूटर हार्डवेअर(Hardware) का जिक्र शायद ही हो। आज, सेनिटरी (sanitary) सामान वाले भी हार्डवेअर बेच रहे हैं और कम्प्यूटर सामान वाले भी। मेरा मानना है कि शब्दकोश कितने ही भारी क्यों न हों, उनमें प्राय: शब्द के पूर्व(एवं वर्तमान में) प्रचलित अर्थों को ही स्थान मिल पाता है, निहित अर्थों(की खोज) के लिए हमे दर्शन, विज्ञान, लोक आदि सम्बद्ध साहित्य की ओर अग्रसर होना होता है। लघुकथा में प्रयुक्त लाघव को भाषा-विज्ञान की सामान्य शब्दावली में विवरण-लाघव अर्थात् इकॉनमी ऑव ओरल डिस्क्रिप्शन(Economy of oral description) कह सकते हैं।
शब्द, वाक्य और भाषा को जानने-पहचानने के लिए हमारे पास प्रमुखत: दो शास्त्र हैंव्याकरण और भाषा-विज्ञान। इनमें व्याकरण को रूढ़शास्त्र कहा जाता है। इसके नियम निर्धारित हैं और अपरिवर्तनशील हैं। राम को सर्वनाम या क्रिया नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत भाषा-विज्ञान को विकासशील/प्रगतिशील शास्त्र कहा जाता है। इसमें नित नए शोध होते हैं। भाषा-विज्ञान शब्द और भाषा में होने वाले परिवर्तन को विकास की संज्ञा देता है तथा उसे भाषा की प्राणवत्ता और जीवन्तता का लक्षण मानता है। व्याकरण एक सीमित और संकुचित शास्त्र है। यहाँ एक तथ्य को मैं उद्धृत करना चाहूँगा जिसे डॉ हरीश शर्मा ने भाषा विज्ञान की रूपरेखा के वाक्यविज्ञान और अर्थविज्ञान उपशीर्ष तले यों व्यक्त किया है—‘भाषात्मक शब्दों के कोषगत अर्थों से अधिक महत्वपूर्ण उनके प्रयोगगत अर्थ होते हैं। व्याकरणगत शब्द-भेद एक कामचलाऊ व्यवस्था है, जिसके बारे में बहुत कुछ आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। प्रसंगभेद से उनकी कोटियाँ और उनके अर्थ बदल जाते हैं।
वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत-हिन्दी कोश में लाघव के जो दस अर्थ दिए गए हैं, उनमें क्रमांक 7,8 व 9 पर लिखे अर्थ इस प्रकार हैं
(7) क्रियाशीलता, दक्षता, तत्परताभाषा-विज्ञान इन्हें हस्तलाघव कहता है।
(8) सर्वतोमुखी प्रतिभाभाषा-विज्ञान में इसे बुद्धिलाघव कहते हैं।
(9) संक्षेपभाषा-विज्ञान इसे अभिव्यक्तिलाघव की संज्ञा देता है।
श्रीयुत चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शर्मा द्वारा संपादित संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ(संस्करण:1928ईस्वी) में लाघवका एक अर्थ सभी विषयों में पारदर्शिता भी दिया हुआ है।
अत: लघुकथा में लघु के विश्लेषण की बात चलने पर इसके रूढ़ अर्थ को त्यागकर उसे लाघव का प्रतिनिधि ही मानना पड़ेगा। इसके अर्थ की पुरातन लीक को जब तक हम नहीं त्यागेंगे, लघुकथा के समकालीन, अधिक स्पष्ट कहूँ तो यथार्थपरक और वैज्ञानिक दृष्टियुक्त तात्पर्य से दूर ही रहेंगे। न सिर्फ तात्पर्य से, बल्कि उद्देश्य से भी। एक आलोचक के रूप में कोई भी पुरातन दृष्टि से इस सशक्त कथा-विधा के साथ न्याय नहीं कर पायेगा और जीवनभर छोटा ही आँकता रहेगा।

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

‘लघुकथा’ संवेदनात्मक-क्षण को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करने वाली कथा-रचना है/बलराम अग्रवाल

--> --> -->बलराम अग्रवाल से जितेन्द्र ‘जीतू’ की बातचीत
लघुकथा-विधा पर शोधरत बिजनौर निवासी भाई जितेन्द्र जीतू द्वारा दिनांक 2-11-2009 को ई-मेल के माध्यम से पूछे गए तीन प्रश्न और उनके उत्तर:
कहानी लघुकथा के तत्वों के बी
च क्या हम कोई विभाजन रेखा खींच सकते हैं? यदि हाँ, तो कौन-सी?
साहित्य में कुछ रचना-प्रकार समान-धर्मा होते हैं। काव्य-साहित्य में क्षणिका और कविता तथा कथा-साहित्य में लघ्वाकारीय कहानी(हिन्दी कहानी के वर्तमान मेंलम्बी कहानी, कहानी एवं छोटी कहानीआकार के अनुरूप ये तीन पद प्रचलित हैं। 1000 शब्दों से 1500 शब्दों तक की कथा-रचना को छोटी कहानी तथा उससे ऊपर 3000-4000 शब्दों तक की कथा-रचना को कहानी माना जा रहा है।) और लघुकथा ऐसे रचना-प्रकार हैं जिनके बीच किसी भी प्रकार की स्पष्ट विभाजन रेखा सामान्यत: नहीं खिंच पाती है। सामान्य पाठक के लिए छोटी कहानी और लघुकथादोनों ही कहानी हैं, लेकिन अध्ययन, शोध और विश्लेषण में रुचि रखने वालों के लिए ये दो अलग प्रकार की रचनाएँ हैं। आकार-विशेष अथवा शब्द-संख्या-विशेष तक सीमित रहने या सप्रयास रखे जाने के बावजूद कुछ कथा-रचनाओं को नि:संदेह लघुकथा नहीं कहा जा सकता, जबकि आकार-विशेष और शब्द-संख्या-विशेष की वर्जनाओं को तोड़ डालने वाली अनेक कथा-रचनाएँ स्तरीय लघुकथा की श्रेणी में आती हैं। स्पष्ट है कि इन दोनों के बीच विभाजन के बिन्दु मात्र आकार अथवा शब्द-संख्या न होकर कुछ-और भी हैं। मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना वाली कहावत का मान रखते हुए यह कहना उचित ही होगा कि विभाजन के वे बिन्दु अनेक हो सकते हैं। उनमें से एक को राजेन्द्र यादव के शब्दों में स्वयं की बात को कहने का प्रयास करूँ तो यों कहा जा सकता है कि—‘समकालीन लघुकथाकार ने अपने कथा-चिंतन को यहाँ और इसी क्षण पर केन्द्रित कर दिया है, उसका अपना यही क्षण, उसका कथ्य है, तथ्य है और उसका जीवन-मूल्य भी है। तात्पर्य यह कि लघुकथा संवेदनात्मक-क्षण को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करने वाली वह कथा-रचना है जो संदर्भित तथ्यों को निबन्धात्मक, विवरणात्मक रूप में प्रकटत: प्रस्तुत करने की बजाय सावधानीपूर्वक इस प्रकार रचना के नेपथ्य में सुरक्षित पहुँचा देती है कि आवश्यकता पड़ने पर सुधी पाठक जब चाहे तब लम्बी कहानी की तरह उसका आस्वादन ले सकता है।
क्या लघुकथा के अन्त का विस्फोटक होना या विरोधाभासी होना लघुकथा का आवश्यक गुण है?
समकालीन लघुकथा-लेखन के प्रारम्भिक दौर में, विशेषत: 1970 से 1975 तक की अवधि में, एक ही पात्र की दो विपरीत मानसिकताओं को चित्रित करने का चलन लघुकथा में रहा। समाज में सम्मान-प्राप्त एवं अनुकरणीय समझे जाने वाले व्यक्तियों के असंगत व्यवहारों अर्थात् उनकी कथनी और करनी के भेद को चित्रित करने को, नेताओं व धार्मिकों के चरित्रों को उनके द्वारा व्याख्यायित होने वाले सामाजिक मूल्यों से इतर होने को, परिवार में बड़ी उम्र के लोगों द्वारा स्वयं से छोटों अर्थात् माता-पिता द्वारा बच्चों व सास-ससुर-जेठ-जेठानी-पति आदि द्वारा बहू-पत्नी के प्रति किए जाने वाले दमनपूर्ण व्यवहार को एक झटके में बता देने की अधीर प्रवृत्ति ने उक्त प्रकार के कथा-लेखन को पैदा किया होगा। उच्च-सामाजिकों की चरित्रहीनता व दायित्वहीनता से 1965-66 के आसपास से ही सामान्य नागरिक स्वयं को वस्तुत: अत्याधिक त्रस्त महसूस करता दिखाई देता है। उक्त त्रास को सुनने वाला उसे जब कोई भी कहीं नजर नहीं आया, तब गल्प, जिसे आम बोलचाल में गप्प कहा जाता है, ने उसका हाथ पकड़ा। दमनकारी स्थितियाँ जब भी आम आदमी पर इस हद तक भारी पड़ती हैं, सबसे पहले वह यही मार्ग चुनता है और अपनी त्रासद स्थितियों को अपने गली-मुहल्ले, ऑफिस और चौपाल के संगी-साथियों के सामने सुनाना प्रारम्भ करता है। मैं समझता हूँ कि कथा-साहित्य को परोक्ष-अपरोक्ष कच्चा-माल गल्प कह पाने की क्षमता से लैस यह आम आदमी ही सप्लाई करता है। कथित काल में कथाकार कहलाने की क्षुधा से पीड़ित कुछ आकांक्षियों को ऐसा लगता रहा होगा कि यह कच्चा माल ज्यों का त्यों भी समाज की पीड़ा को स्वर देने में सक्षम है और यही लघुकथा है जिसे लिख डालना बहुत आसान काम है। सारिका जैसी तत्कालीन स्तरीय कथा-पत्रिका में ऐसे लेखक वैसी रचनाओं के साथ लगातार जगह पाते रहे। इस प्रवृत्ति ने लघुकथा को जहाँ बहु-प्रचारित करने का महत्वपूर्ण काम किया, वहीं लगातार कच्चा और एक ही तरह का माल परोसे जाने के कारण इस विधा का अहित भी बहुत किया। वास्तविकता यह है कि लघुकथा एक ही व्यक्ति अथवा व्यक्ति-समूह के दो विपरीत कार्य-व्यवहारों का चित्रण-मात्र नहीं हैइस तथ्य को समर्थ लघुकथा-लेखकों ने तभी से लगातार सिद्ध किया है।
मेरा मानना है कि लघुकथा में शीर्षक, कथ्य-प्रस्तुतिकरण की शैली, भाषा की प्रवहमण्यता आदि अनेक अवयव ऐसे हैं जो उसमें प्रभावशीलता को उत्पन्न करते हैं। कथा का प्रारम्भ, मध्य और अन्त कैसा होइसका निर्धारण अलग-अलग रचनाओं में अलग-अलग ही होता है। इस दृष्टि से लघुकथा के अन्त का अनिवार्यत: विस्फोटक होना स्वीकारणीय नहीं प्रतीत होता है। कुछ लोग लघुकथा के अन्त को चौंकाने वाला मानते व प्रचारित करते हैं और इस चौंक को लघुकथा का प्रधान तत्व तक घोषित करते हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि लघुकथा में तत्व-निर्धारण मेरी समझ से बाहर का उद्योग है। शास्त्रीयता का सहारा लेना आलोचक का धर्म तो हो सकता है, कथाकार का नहीं। कथाकार अगर 5-5 ग्राम सारे तत्व रचना में डालने की जिद पकड़े बैठा रहेगा तो जिन्दगीभर तोलता ही रह जाएगा, लिख कुछ नहीं पाएगा।
क्या लघुकथा के शीर्षक पर इतराया जाना जरूरी है?
लघुकथा क्योंकि छोटे आकार की कथा-रचना है, अत: शीर्षक भी इसकी संवेदनशीलता व उद्देश्यपरकता का वाहक होता है; तथापि इतराने के लिए लघुकथा क्या किसी भी कथा-विधा के पास मात्र कोई एक ही अवयव होता हो, ऐसा नहीं है। किसी रचना का कथ्य इतराने लायक होता है तो किसी का प्रस्तुतिकरण। जहाँ तक शीर्षक का सवाल है, कथा-रचनाओं के शीर्षक सदैव ही व्यंजनापरक नहीं होते, कभी-कभी वे चरित्र-प्रधान भी होते हैं। शीर्षकहीन शीर्षकों से भी कुछ कहानियाँ व लघुकथाएँ पढ़ने में आती रही हैं। से रा यात्री की एक कहानी का शीर्षक कहानी नहीं है तो पृथ्वीराज अरोड़ा की एक अत्यन्त चर्चित लघुकथा का शीर्षक कथा नहीं है। ऐसे शीर्षक कथ्य के सामान्यीकरण का सशक्त उदाहरण सिद्ध हुए हैं। कुछ शीर्षक काव्यगुण-सम्पन्न भी होते हैं अर्थात् संकेतात्मक अथवा यमक या श्लेष ध्वन्यात्मक। नि:संदेह, कुछ शीर्षक लघुकथा के समूचे कथानक को कनक्ल्यूड करने की कलात्मकता से पूरित होते हैं, लेकिन कुछ प्रारम्भ में ही समूचे कथानक की पोल खोलकर रचना के प्रति पाठक की जिज्ञासा को समाप्त कर बैठने का भी काम करते हैं। ऐसे किसी भी शीर्षक पर कैसे इतराया जा सकता है? शीर्षक को रचना के प्रति जिज्ञासा जगाने वाला होना चाहिए। परन्तु, अगर किसी लघुकथा का शीर्षक कथ्य को उसकी सम्पूर्णता में अभिव्यक्त करने में सक्षम सिद्ध होता है; या फिर, अगर पाठक को वह कही हुई कथा के नेपथ्य में जाने को बाध्य करने की शक्ति से सम्पन्न सिद्ध होता है तो बेशक उस पर इतराया भी जा सकता है।