गुरुवार, 18 जुलाई 2013

समकालीन लघुकथा : वर्तमान परिदृश्य / बलराम अग्रवाल



दोस्तो, प्रस्तुत लेख का किंचित संक्षिप्त रूप 15 जुलाई, 2013 को आकाशवाणी, दिल्ली के साहित्य वार्ता कार्यक्रम हेतु रिकॉर्ड कराया था। आप भी देखें:


                                            चित्र:बलराम अग्रवाल
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश कथा-साहित्य लघुकथापरक रचनाओं का महासागर है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि लघुकथा विश्व कथा-साहित्य की प्राचीनतम विधा है; तथापि हिंदी में समकालीन रचना-विधा के रूप में सका अस्तित्व गत सदी के सातवें दशक के उत्तरार्द्ध अथवा आठवें दशक के प्रारम्भ से ही माना जाता है। भारत में यह काल राजनीतिक व उससे जुड़ी धार्मिक सोच में अपकर्ष का तथा आम सामाजिक की सोच में तज्जनित आंदोलनों का काल रहा है। इसलिए समकालीन लघुकथा में विभिन्न सामाजिक व राजनीतिक दबावों, मूल्यहीनताओं और विसंगतियों को आसानी से रेखांकित किया जा सका है। यह दो मान्यताओं के टकराव का भी दौर था, इसलिए समकालीन लघुकथा का रवैया और सके मुख्य सरोकार द्वंद्वात्मक भी रहे हैं। राजनीतिक व धार्मिक चरित्रों के इस द्वैत को सर्वग्राह्य बनाने की दृष्टि से पूर्ववर्ती लघुकथाकार समकालीन स्थितियों, दबावों, संबंधों और दशाओं को उजागर करने के लिए अधिकांशत: पौराणिक कथ्यों, पात्रों, कथाओं, संकेतों आदि को व्यवहार में लाए। इसीलिए लघुकथा उन्नयन के उक्त प्रारम्भिक दौर में कथा-रचना व कथा-चिंतन की केंद्रीय पत्रिका ‘सारिका’ में प्रकाशित लघुकथाओं में ऐसे रुझान बहुतायत में देखने को मिलते हैं। लेकिन लघुकथा के प्रति गम्भीर व जुझारू रचनाकारों ने लघुकथा के प्रारम्भिक स्वरूप में ऊर्ध्व परिवर्तन को स्थान देते हुए विचार-वैभिन्न्य, कथ्य, भाषा, शिल्प, शैली आदि का कालानुरूप सम्मिश्रण किया। उनके साहसपूर्ण प्रयासों के चलते यह अपने युग के रस्मो-रिवाजों को साहित्यिक अभिरुचियों के अनुरूप चित्रित कर पाने में सफल रही है। आम जीवन के सुपरिचित रोषों का, वेदनाओं और व्यथाओं का, जीवन को नरक बना डालने वाली रीतियों और रिवाजों का इसमें ईमानदार चित्रण हुआ है। उदाहरण के लिए देखें स्व॰ श्यामसुन्दर व्यास की लघुकथा ‘संस्कार’ :
                                                चित्र:बलराम अग्रवाल
सार्वजनिक नल पर पानी भरने वालों की भीड़ जमा हो गई थी। हंडा भर जाने के बाद बूढ़ी अम्मा से हंडा उठाया नहीं जा रहा था।
लोगों का अधैर्य बड़बड़ाहट में बदलने लगा। मनकू ने हंडा हटाकर अपनी बाल्टी लगाते हुए बूढ़ी से कहा, बहू को मेंहदी लगी है क्या, जो तू आ गई?
कातर स्वर में बूढ़ी के बोल फूटे—“उसका पाँव भारी है।
मनकू को लगा जैसे किसी ने उस पर घड़ों पानी डाल दिया हो।
उसने हंडा उठाया और बूढ़ी अम्मा के द्वार पर रख आया।
समकालीन लघुकथा में चरित्रों की बुनावट कहानी या उपन्यास में चरित्रों की बुनावट से काफी भिन्नहै। कुल मिलाकर इसे यों समझा जा सकता है कि समकालीन लघुकथा में चरित्रों केप्रभावशाली चित्रण की दृष्टि से किया जाने वाला कोई भी विस्तार वांछित नहीं है। यही बात वातावरण के बाह्यरूप के चित्रण, के प्रति रुझान, शोक अथवा करुणा के व्यापक प्रदर्शन आदि के संबंध में भी रेखांकनीय है। ये सब बातें इसमें बिम्बों, प्रतीकों, संकेतों और व्यंजनाओं के माध्यम से चित्रित की जाती हैं। इसीलिए समकालीन लघुकथा कथा-कथन की अप्रतिम विधा सिद्ध होती है, इसके प्रत्येक चरण में मौलिकता है। इसमें भावनाएँ हैं तो संवेदनाएँ भी हैं। वास्तविक जीवन के सार्थक समझे जाने वाले चित्र हैं तो मन के उद्वेलन और प्रकंपन भी हैं। नीतियाँ और चालबाजियाँ हैं तो आदर्श भी हैं। देखिए, प्रबोध कुमार गोविल की लघुकथा ‘माँ’ :
                                              चित्र:बलराम अग्रवाल
उसका बाप सुबह-सुबह तैयार होकर काम पर चला गया। माँ उसे रोटी देकर, ढेर-सारे कपड़े लेकर नहर पर चली गई।
     वह घर से निकली थी कि उसी तरह रूखे-उलझे बालों वाली उसकी सहेली अपना फटा और थोड़ा ऊँचा फ्राक बार-बार नीचे खींचती आ गई। फिर एक-एक करके बस्ती के दो-चार बच्चे और आ गये।
“चलो, घर-घर खेलेंगे।”
“पहले खाना बनाएँगे। तू जाकर लकड़ियाँ बीन ला… और तू यहाँ सफाई कर दे।”
“अरे ऐसे नहीं। पहले आग तो जला!”
“मैं तो इधर बैठूँगी।”
“चल, अपन दोनों चलकर कपड़े धोयेंगे।”
“नहीं, चलो, पहले सब यहाँ बैठ जाओ। खाना खाओ, फिर बाहर जाना।”
“मैं तो इसमें लूँगा।”
“अरे, भात तो खतम हो गया? इतने सारे लोग आ गये…चलो, तुम लोग खाओ, मैं बाद में खा लूँगी।”
“तू माँ बनी है क्या?”
कहीं पर यह दैनन्दिन-जीवन की ऊबड़-खाबड़ धरती पर खड़ी है तो कहीं पर यह सीधी-सपाट-समतल जमीन के अनचीन्हे संघर्षों के चित्रण में मशगूल है। बस यों समझ लीजिए कि समकालीन लघुकथा निराशा, संकट, चुनौती और संघर्षभरे जीवन में आशा, सद्भाव और सफलता की भावना के साथ आमजन के हाथों में हाथ डाले विद्यमान है। इसमें संकट का यथार्थ-चित्रण है, लेकिन यथार्थ-चित्रण को साहित्य का संकट बनाकर प्रस्तुत करने की कोई जिद इसमें नहीं है। देखिए डॉ॰ योगेन्द्रनाथ शुक्ल की लघुकथा ‘आशंका’ :
घर के सामने कार रुकने की आवाज़ आते ही पिता छड़ी के सहारे रूम की ओर चल दिए।
बेटा! यात्रा में कोई कष्ट तो नहीं हुआ?
नहीं पिताजी।
कार्यक्रम अच्छी तरह निपट गया?
जी पिताजी। चाचाजी आपको बहुत याद कर रहे थे…मैंने कह दिया कि आपकी तबियत ठीक नहीं थी, इसलिए नहीं आ सके।
बेटा, तुम्हारी चाची बहुत अच्छी महिला थी…तुम्हें तकलीफ तो हुई होगी, लेकिन उनके तेरहवें में शामिल होना बहुत जरूरी था…उनका परिवार भले ही दूसरे शहर में रह रहा हो, पर हमारा खून तो एक ही है…। यह कहते हुए उनकी आँखें भर आई थीं; किन्तु उन्हें मन ही मन सन्तोष भी था कि पुत्र और पुत्रवधू ने उनकी आज्ञा का पालन किया था।
रात को यश उनके कमरे में आया—“दादाजी, पापा कानपुर से मेरे लिए ये वीडियो-गेम लाए हैं।
यह तो बहुत अच्छा है! जरा मुझे भी बताओ…। उसके सिर पर हाथ फेरते हुए दादाजी ने कहा।
दादाजी, मम्मी कह रही थी कि चाचीजी की साग-पूड़ी चार हजार में पड़ी।…दादाजी, क्या साग-पूड़ी इतनी मँहगी मिलती है?
यश अपने प्रश्न का जवाब चाह रहा था और दादाजी अपने भावी जीवन के प्रति आशंकित हो मूर्तिवत खड़े थे।
नए विषयों की चौतरफा पकड़ का जैसा गुण समकालीन लघुकथा में है, वह इसे सहज ही समकालीन कथा-साहित्य की कहानी-जैसी सर्व-स्वीकृत और सर्व-ग्राह्य विधा बनाता है। इसमें यथार्थ के वे आयाम हैं जो अब तक लगभग अनछुए थे। इसमें ग्रामीण, कस्बाई, नगरीय, महानगरीय हर स्तर के जीवन-रंग हैं। जहाँ एक ओर घर की बेटी या नन्हें शिशु की माँ परिवार या शिशु के पोषण के लिए तन बेच रही है, वहीं तन और मन की तृप्ति को वैयक्तिक अधिकार सिद्ध करते नव-धनाढ्य भी हैं जो चंद सिक्कों के बल पर सदाशयता का नाटक खेलते रहते हैं इस संबंध में उदाहरणार्थ प्रस्तुत है श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथा ‘भिखारिन’ :
 “बच्चा भूखा है, कुछ दे दे सेठ!” गोद में बच्चे को उठाए एक जवान औरत हाथ फैलाकर भीख माँग रही थी।
“इस का बाप कौन है? अगर पाल नहीं सकते तो पैदा क्यों करते हो?” सेठ झुंझलाकर बोला।
औरत चुप रही। सेठ ने उसे सिर से पाँव तक देखा। उसके वस्त्र मैले तथा फटे हुए थे, लेकिन बदन सुंदर व आकर्षक था। वह बोला, “मेरे गोदाम में काम करेगी? खाने को भी मिलेगा और पैसे भी।”
भिखारिन सेठ को देखती रही, मगर बोली कुछ नहीं।
“बोल, बहुत से पैसे मिलेंगे।”
“सेठ, तेरा नाम क्या है?”
“नाम! मेरे नाम से तुझे क्या लेना-देना?”
“जब दूसरे बच्चे के लिए भीख माँगूँगी और लोग उसके बाप का नाम पूछेंगे तो क्या बताऊँगी?”
यह कहना कि समकालीन लघुकथा ने आम-आदमी की उसके सही अर्थों में खोज की है, कोई अतिशयोक्ति न होगी। यह सामाजिक और मनोवैज्ञानिक सच्चाई है कि व्यक्ति-जीवन से परंपरा की रंगत कभी भी धुल नहीं पाती है, उसका कुछ न कुछ अंश बना जरूर रहता है और वही रंग व्यक्ति को उसके अतीत गौरव से जोड़े रखने व नए को अपनाने के प्रति सचेत रहने की समझ प्रदान करता है। समकालीन लघुकथा में एक ओर हमें परम्परा के दर्शन होते हैं तो दूसरी ओर आधुनिकता के भी दर्शन होते हैं। विषयों और कथ्यों के तौर पर इसने गाँव-गँवार से लेकर इंटरनेट चैट-रूम तक पर अपनी पकड़ बनाई है। इसमें आधुनिकता की ओर दौड़ लगाता मध्य और निम्न-मध्य वर्ग भी है और उससे घबराकर परंपरा की ओर लौटता या वैसा प्रयास करता तथाकथित अत्याधुनिक वर्ग भी है।
समकालीन लघुकथा ने परंपराजन्य एवं व्यस्थाजन्य अमानवीय नीतियों-व्यवहारों के प्रति आक्रोश व्यक्त करने के अपने दायित्व का निर्वाह बखूबी किया है और लगातार कर रही है। यह इसलिए भी संभव बना रहा है कि अधिकांश लघुकथाकारों ने आम व्यक्ति का जीवन जिया है। वे गर्हित राजनीति और धर्म के त्रास से लेकर जीवन की हर मानसिक व शारीरिक कष्टप्रद स्थिति से गुजरे हैं और आज भी गुजर रहे हैं। उन्होंने हर प्रकार का त्रास झेला है और आज भी झेल रहे हैं। उनकी लेखनी से इसीलिए किसी हद तक भोगा हुआ यथार्थ ही चित्रित होकर सामने आ रहा है। समकालीन लघुकथाकार सामाजिक सत्य का वह विद्रूप चेहरा भी प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं  जिसकी ओर परंपरावादी स्त्री-पुरुषों की दृष्टि जाती ही नहीं हैइसके उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत है स्व॰ चन्द्रशेखर दुबे की लघुकथा ‘कामकाजी महिला’ :
टेलीफोन की घंटी बजी तो उन्होंने चोंगा उठाकर कहा, “हलो!”
                                             चित्र:बलराम अग्रवाल
दूसरी ओर से उनकी बहू घबराये-से स्वर में बोली, “बाबूजी…”
“हाँ बेटी!”
“आप किचन में जाकर जल्दी से देखिए कि गैस का चूल्हा खुला तो नहीं रह गया है? मैंने आँच पर दूध गरम करने को रखा था। बन्द करना शायद भूल गई।”
“देख लेता हूँ बेटी। तुम चिन्ता मत करो। ऑफिस से ही बोल रही हो न?”
“नहीं बाबूजी, अभी ऑफिस कहाँ पहुँच पाई! राह में ही चूल्हे का ख़्याल आया तो…। आप जल्दी जाइये बाबूजी।”
“जा रहा हूँ। तुम निश्चिंत होकर ऑफिस जाओ।”
चोंगा रखकर बाबूजी मन-ही-मन बुदबुदाये—देहरी से बाहर जाकर कामकाजी महिला का क्या जीवन है? घर में रहती है तो दफ़्तर की चिंता रहती है; दफ़्तर में घर की चिंता!
इसप्रकार, हम देखते हैं कि समकालीन लघुकथा अपने समय के मुहावरे से न सिर्फ टकराने का माद्दा रखती है, बल्कि स्वयं नया मुहावरा गढ़ भी रही है। वस्तुत: तो समकालीन लघुकथा अपने समय का मुहावरा आप है। *****

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

समकालीन लघुकथा और मनोविज्ञान-2/बलराम अग्रवाल



                                                                                                         चित्र:बलराम अग्रवाल

(…गतांक से आगे)
समसामयिक परिस्थितिया और तात्कालिक स्थितियाँ किस तरह मनुष्य के मनोविज्ञान को प्रभावित करती हैं और उनका कितना प्रतिकूल संदेश जनमानस में प्रसारित होता है, समकालीन लघुकथा के संदर्भ में इस सत्य को रतीलाल शाहीन ने यों लिखा है—‘आज की लघुकथा के संदर्भ में अगर आप पूछेंगे, तो मैं सन् 1992 के मुंबई के दंगों से यह हवाला देना चाहूँगा। दंगों के बाद महानगर के लोगों का जीवन ही उजड़ गया। मुंबई में ही धार्मिक उपनिवेशवाद ने सख्ती से जन्म ले लिया। मकान बेचते और खरीदते समय धर्म सर्वोपरि बन गया। लोग एक जगह इंसानियत नहीं, एकता नहीं, हिन्दुस्तानी नहीं, संबंध नहीं सिर्फ हिन्दू, सिर्फ मुसलमान, सिर्फ मराठी होने के नाते से रहने के लिए विवश हो गए।
     उसके बाद जैसाकि हर दंगे या लड़ाई या युद्ध के बाद होता है, तबाही खामियाजा भी उन्हीं लोगों को ही भरना होता है। महँगाई इतनी बढ़ी, रहनसहन इतना अलगाववादी हो उठा कि मुंबई में जहाँ कभी किसी पर जुल्म होने पर सारी जनता एक स्वर से चिल्लाने लगती थी,  विरोध में हाथ उठा लेती थी, अब वह भावना ही चली गई। विरोध में उठने वाले हाथ या स्वर दब्बू की तरह दबकर रह जाते हैं। न जाने कौन ए॰ के॰ 47 या बम या गुप्ती ही निकाल ले। अब संवेदना और हमदर्दी के स्वर संवेदनाशून्य हो गए।
    इस बीच कम्प्यूटर ने अपना रुतबा दिखाना शुरू किया। जो लोग दंगे से नहीं उजड़े, उनको कम्प्यूटरीकरण ने उजाड़ दिया। पिक्चरें थियेटरों में कम, केबलों पर ज्यादा देखी जाने लगीं। काम करने वाले हाथ कम हो गए। बेकारी बढ़ती जा रही है।––सड़क और रेलों के किनारे रहने और रोजीरोटी चलाने वाले उजड़े, उजड़ रहे हैं।
    कहने का तात्पर्यजीवन में आमूलचूल परिवर्तन आते ही चले गए। कहानियाँ तो कम, लघुकथाएँ ज्यादा छप रही हैं।1
       ‘लघुकथा में आम आदमी के जीवन से जुड़ी संवेदना, आघातप्रतिघात, अकल्प परिणाम व अन्त, नफरत की अपेक्षा में स्नेह या आनन्द से आश्चर्यचकित कर देने वाला मानवीय व्यवहार, यह सब निश्चित रूप से पाया जाता है। आम या अमीर आदमी की संवेदना का चित्रण लघुकथा में होता है तो साथ में राजकीय, सामाजिक परिस्थितियों में प्रकट होती करुणा, व्यंग्य और कटाक्ष का आलेख भी लघुकथा में अक्सर होता रहता है।2
     आज का लोकाचार—‘झूठहि लेना झूठहि देना, झूठहि भोजन झूठ चबेनाआज की लघुकथाओं का आधार है। कोई चुनाव में खड़ा हुआ है। प्रत्याशी झूठ बोलकर धोखा देना अपना धर्म समझता है। कुत्ते की बोली बोलकर, सियार की बोली का अनुकरण कर वातावरण को बदल देना आज की लघुकथा में हम आसानी से देख सकते हैं। राजनीति का हस्तक्षेप, प्रशासन का ढीलापन, स्वार्थपरताखुदगर्जीपन, भाईभतीजावाद, शोषण, उठापटकवाद आदि से संबंधित लघुकथाएँ नि:संदेह कल आज के इतिहास का अतापता देंगी।3 
    कुछ लघुकथाकारों ने बीचबीच में हास्य के साथसाथ टॉन्टऔर आइरनीका बड़ा ही भव्य संयोजन किया है। ऐसी लघुकथाओं की शैली संवेदनात्मक होती है। एक प्रमुख घटना या स्थिति को केन्द्र में रखकर ऐसे लघुकथाकार कभीकभी प्रासंगिक और सूच्य घटनास्थिति का आयोजन करते हैं। रचना कभीकभी किस्सागो की भांति शुरू होती है और कभीकभी एकाएक शुरू होकर मंथर गति से बढ़ती हुई अन्त में ऐसा वेग धारण करती है कि सिर धड़ से अलग हो जाता है। व्यंजना शक्ति पर आधारित ये लघुकथाएँ कहानीतत्वों की ऐसी घनीभूत इकाई बन जाती हैं कि सहृदय समीक्षकों के लिए इनके आरपार गुजरना एक जोखिमभरा कार्य हो जाता है। ये ध्वनिकाव्य की भाँति सहृदयों को कथ्याकथ्य की मन:स्थिति में ले जाती हैं।4
    बलराम अग्रवाल के अनुसार—‘लघुकथा एक पारदर्शी कथारचना है जो अपने लघु आकार में पूरे परिवेश, मनोवृत्तियों और मनोभावों को समेटे रहती है।5 परंन्तु क्या यह सब बहुत आसान है। नहीं। नि:संदेह पूंजीवादी साजिशें और ताकतें लघुकथाओं के आन्तरिक संसार में धुंध फैलाकर मिसगाइड करती हैं। लेकिन प्रगतिशील एवं जनवादी दृष्टिकोण की लघुकथाएँ पूंजीवादी साजिशों के धुंध का सहज सफाया कर देती हैं तथा एक नयी गाइडलाइन तैयार करती हैं। ये रचनाएँ गाँव को शहर ले जाती हैं तथा शहर को गाँव पहुँचाकर आत्मीय संबंधों में बाँधती हैं। एकदूसरे की भोग यथार्थ की अनुभवयात्रा के सहसंबंधों को प्रगाढ़ करती हैं। यह अवश्य है कि लघुकथाएँ अपने संक्षिप्त आकार, सार्थक भाषा और जेनुइन स्वर के माध्यम से विचारक्रांति, जनजाग्रति तेजी से लाती हैं और अपनी स्थापनाओं के साथ जनसमुदाय पर जल्दी ही हावी हो जाती हैं। सुखद बदलाव की स्थितियाँ पैदा करने का यह सशक्त माध्यम हैं लेकिन यह लघुकथालेखक की रचनात्मक क्षमता, कलावादिता की रचनात्मक उ़र्जा पर निर्भर है।6 तथापि यह भी सच है कि वर्तमान परिवेश और परिप्रेक्ष्य में लिखी जा रही लघुकथाएं विचारक्रांति के सुखद बदलाव की कोशिशों में संलग्न न होकर प्रचारसुख का अनुभव करने में लगी हैं।7
    विक्रम सोनी के अनुसार—‘आज का लघुकथाकार अपने पीछे की साहित्यिक उपलब्धियों का सम्मान करता है, लेकिन बीते कल की सामाजिक, राजनीतिक मान्यताओं पर आस्था नहीं जतलाता। वह अपने वर्तमान में ही जीना चाहता है। एकएक क्षण को भोगना चाहता है। बुद्धिविवेक की तुला पर दृष्टिपैमाइश के माध्यम से भोगग्राह्य को परिणाम की कसौटी पर कसने के बाद ही तथ्य को सत्य निरूपित करता है। यह मानने से कतई इंकार नहीं कि नए लघुकथाकार लघुकथा की टेक्नीक के मामले में थोड़ा भ्रमित है लेकिन उन्हें आठवें दशक के जन्मे और नौवें दशक में स्थापित लघुकथाकार साथ लेकर चलें, तो नए भी सही दिशा पा लेंगे। दरअसल, आज लघुकथा के स्वस्थ चिंतन पक्ष पर लिखने की आवश्यकता है। आठवें दशक के तपस्वी कलमोंके परस से जीवन्त लघुकथाओं की स्थापना को एकाएक नौवें दशक के आरम्भ में आई बाढ़ने गंदोला करने का प्रयास जरूर किया था; किन्तु यह प्राकृतिक सत्य है कि बाढ़ जल्दी उतर जाता है। आज की लघुकथाएँ बाढ़ उतरने के बाद की जायज लघुकथाएँ हैं।…प्रथम श्रेणी की लघुकथाएँ लिखते हुए(आठवें दशक के उत्तरार्द्ध से ही) डॉ॰ कमल चोपड़ा, कमलेश भारतीय, अशोक भाटिया, धीरेन्द्र शर्मा, सुरेन्द्र मंथन, प्रबोध कुमार गोविल, भगवती प्रसाद द्विवेदी, विक्रम सोनी, नन्दल हितैषी, संतोष सरसजहाँ चोरबाजारी, बेईमानी, फरेब, अनैतिकता की जन्माई तमाम कुरूपताओं, विसंगतियों से लेकर आदमी के पशुपन और ईश्वर की सत्ता पर प्रहार करने से नहीं चूक रहे हैं वहीं रमेश श्रीवास्तव, हीरालाल नागर, अंजना अनिल, चित्रेश, जसवीर चावला, अनवर शमीम, उर्मि कृष्ण, दुर्गेश, डॉयश गोयल, हसन जमाल, हरनाम शर्मा, बलराम अग्रवाल, रतीलाल शाहीन, कृष्णा बांसल, रामप्रसाद कुमावतµवैज्ञानिकता, यांत्रिकता के आग्रह को स्वीकारते हुए अपनी विशिष्ट चिंतनप्रणाली, जीवनदृष्टि को अभिव्यंजित करने के लिए कटिबद्ध हैं। लघुकथाओं के माध्यम से व्यवस्था पर, छद्म पर, मोहभंग की स्थिति पर, विवशता पर, आर्थिक विषमता, कुण्ठाजन्य मानसिकता पर हथौड़े बरसाने में कहीं पीछे नहीं दिखते। इनमें से कई तो अपेक्षाओं से उ़पर उठकर लघुकथा के कर्जदार हो गए हैं। विधा को पूर्णत: समर्पित ये नाम नौवें दशक की प्रबलतम संभावनाओं में से प्रथम हैं।8
    समकालीन लघुकथा में मनोवैज्ञानिक यथार्थ का समावेश अनगिनत रूपों में हुआ है। उसे देखते हुए बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि मानवमन की जितनी भी भंगिमाएँ संभव हैं उन सभी का सफल चित्रण समकालीन लघुकथा में हुआ है। उदाहरण के लिए प्रस्तुत हैं कुछ लघुकथाएँ:
विकलांग9
लंगड़ा भिखारी बैसाखी के सहारे चलता हुआ भीख माँग रहा था।
‘‘तेरी बेटी सुख में पड़ेगी। अहमदाबाद का माल खायेगी। मुम्बई की हुण्डी चुकेगी। दे दे सेठ, लंगड़े को रुपएदो रुपए।’’
उसने साइकिल की एक दुकान के सामने जाकर गुहार लगाई। सेठ कुर्सी पर बैठाबैठा रजिस्टर में किसी का नाम लिख रहा था। उसने सिर उठाकर भिखारी की तरफ देखा।
‘‘अरे, तू तो अभी जवान और हट्टाकट्टा है। भीख माँगते शर्म नहीं आती? कमाई किया कर।’’
भिखारी ने अपने को अपमानित महसूस किया। स्वर में तल्खी भरकर बोला,‘‘सेठ, तू भाग्यशाली है। पूरबजनम में तूने अच्छे करम किए हैं। खोटे करम तो मेरे हैं। भगवान ने जनमते ही एक टाँग न छीन ली होती तो मैं भी आज तेरी तरह कुर्सी पर बैठा राज करता।’’
सेठ ने इस मुँहफट भिखारी को ज्यादा मुँह लगाना ठीक नहीं समझा। वह गुल्लक में भीख लायक परचूनी ढूँढ़ने लगा। भिखारी आगे बढ़ा।
‘‘ये ले, लेजा।’’
भिखारी हाथ फैलाकर नजदीक गया। परन्तु एकाएक हाथ वापस खींच लिया, मानो, सामने सिक्के की बजाय जलता हुआ अंगारा हो। कुर्सी पर बैठकर राज करने वालेकी दोनों टांगें घुटनों तक गायब थीं।
अदलाबदली10
‘‘क्या आप मुझे गोद लेना पसन्द करेंगे?’’
सुनकर उस हरिजन व्यक्ति ने सिर से पैर तक उस नवयुवक को देखा, जिसका यह प्रश्न था।
‘‘मुझे इसकी क्या जरूरत है? मेरा भी लड़का तुम्हारी उम्र का है।’’
‘‘नहीं, मेरा मतलब––मेरा मतलब सिर्फ सरकारी कागजों पर मुझे अपना लड़का बना लें। मैं ब्राह्मण हूँ। मेरे पिताजी मुझे आगे पढ़ाने में असमर्थ हैं। आपका लड़का बनने पर मुझे हरिजनस्कॉलरशिप मिल जायगी।’’
‘‘मेरा भी लड़का पढ़ता है, पर वहाँ सवर्ण लोगों के साथ अपने को हीन समझता है और अपनी जाति को कोसता है। कहता हैऐसी जाति में जनम लेने से मर जाना अच्छा! तुम अपने पिताजी से पूछकर आओ कि क्या वे मेरे लड़के को गोद ले लेंगे?’’
काम11
मौसम की शुरुआत में आम खाने का मजा ही और है। सो, इस बार भी मैं अकेला होने के बावजूद एक किलो आम खरीद लाया। खाने बैठा तो खाऊँ कैसे?  खिड़की में खड़ा सोच ही रहा था कि सामने से पड़ोस का किशोर गुजरता नजर आया ।
‘‘अरे किशोर! भीतर आ जाओ। आम खायेंगे।’’ मैंने उसे आग्रहपूर्वक आवाज देकर बुलाया।
किशोर और मैंने साथसाथ आम खाए ।
कुछ देर खामोश बैठा रहने के बाद वह बोला,‘‘अंकल, आपको मुझसे क्या काम है?’’
‘‘कैसा काम ? मैं समझा नहीं।’’ मैंने उलटे उसी से पूछा।
‘‘असल में अंकल, वो सामने वाले सुरेश भाईसाहब हैं न, जब भी उन्हें मुझसे कोई काम करवाना होता है––बुलाकर पहले कुछ न कुछ खिलाते जरूर हैं। मैंने सोचा, शायद आपको भी…अंकल, कोई काम हो तो आप मुझे आवाज देकर बुला लेना।’’ कहकर वह भोलेपन-से बाहर निकल गया।
डाका12
परिवार के बाकी सदस्यों के साथ राममनोहर जी अपने घर में लुटेपिटेसे बैठे हैं। आर्थिक दुश्चिन्ताओं से सबके चेहरे मलीनक्लान्त हैं। चारों तरफ जैसे मातमी माहौल छाया है।
कल तक घर का कोनाकोना जगमगजगमग कर रहा था। घड़ी, सोफा, फ्रिज, टेपरिकार्डर, डबलबेड, स्टील के बर्तन और ऐसी ही चीजों से घर भरा पड़ा था। तिजोरी नोटों से फुल थी।
पर आज…! आज कोनाकोना खाली है। न तो वहाँ कोई डाका पड़ा है और न ही किसी आतंकवादी ने वहाँ कोई विस्फोट किया है।
हाँ, लोग बताते हैं कि उनके घर से आज सुबह बेटी की विदाई हुई है।
अगर पेट न होता13
चाय की दुकान पर लोग चाय पी रहे थे और गप्पें हाँक रहे थे। अचानक एक व्यक्ति बोल उठा,‘‘अगर पेट न होता तो…?’’
‘‘…तो मेरी मां रखैल नहीं होती। मेरी बहन रंडी नहीं होती और मैं भड़वा नहीं होता।’’ दूसरा बोला; परन्तु वह जो बोला, वह किसी ने न सुनान जाना।
चाबी14
आज कोर्ट में उसका छठा चक्कर था । मुकदमे की एक जरूरी फाइल पेशकार के बाबू की कैद में थी। बाबू उसे प्रतिदिन कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देता था।
आज भी उसने बुझे कदमों से बाबू के कमरे में प्रवेश किया। टेबुल के पास पहुँचकर झुका और बोला,‘‘साहब, फाइल मिली?’’
‘‘अरे क्या बताएँ माखनलाल, फाइल तो मिल गई। काम भी तुम्हारा हो गया। परन्तु बड़े बाबू आज छुट्टी पर हैं और अलमारी की चाबी भी पता नहीं कहां रख गये हैं। ऐसा करो, कल ले लेना।’’ बाबू ने कहा।
वह बुझे कदमों से फिर लौट पड़ा। लौटते वक्त नमस्कार की मुद्रा में कुछ ज्यादा ही झुका तो एक अठन्नी उसकी जेब से निकलकर बाबू की मेज की फाइलों पर जा गिरी।
वह अभी दरवाजे तक ही आया था कि पीछे से बाबू की आवाज आई,‘‘अरे भाई माखनलाल, चाबी मिल गई ।’’
उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। पलटकर देखा तो बाबू उसे चाबी दिखा रहा था। उसकी दूसरी मुट्ठी बंद थी।
    उपर्युक्त लघुकथाएँ समकालीन हिन्दी लघुकथा में मनोविज्ञान के विभिन्न पहलुओं की उपस्थिति को दर्शाने की दृष्टि से उसके विशाल भण्डार से बानगीभर हैं। मनोविश्लेषण की दृष्टि से भी समकालीन हिन्दी लघुकथा में व्यापकता व पूर्णता के दर्शन होते हैं। अपने उत्तरदायित्व को अनेकायामी करने के कारण ही समकालीन लघुकथाकारों की लघुकथाओं में असामान्यताएँ आई हैं। वह अन्तस के उद्घाटन की इच्छा भी रखता है और मानस के विश्लेषण की भी। वह यह जानता है कि उसके उ़पर एक बड़ी सामाजिक जवाबदेही है। इस प्रयास में उपलब्ध सफलता उसे अपर्याप्त लगती है, वह उससे संतुष्ट नहीं हो पाता है। परिणामत: हताशा उत्पन्न होती है जो उसे असामान्यता की ओर प्रेरित करती है। लेकिन यह बात भी स्पष्ट रूप से जान लेनी चाहिए कि समकालीन हिन्दी लघुकथा में दर्शित विकृति, असामान्यता और जटिलता कहानीकार की देन नहीं बल्कि जटिल असामान्यजीवन की प्रतिक्रिया है। सच्चाई यह है कि आज व्यक्ति और समाज के बीच तालमेल समाप्तप्राय: हो गया है। व्यक्ति का व्यक्तित्व खंडित हो गया है। समाज में व्यक्ति तभी तक ग्राह्य है जब तक वह उसके काम का है। यह बात व्यक्ति को हीन भी बना रही है और असामान्य भी। जीने के लिए दमन और बलात् समायोजन का विकल्प व्यक्ति के सामने है। समकालीन हिन्दी लघुकथाकार ने इसे कुशलता के साथ अपनी रचनाओं में निबाहा है।
संदर्भिका:
1॰ रतीलाल शाहीन : हिन्दी लघुकथा:दशा और दिशा : समांतर(लघुकथा अंक, जुलाईसितम्बर, 2001) : पृष्ठ 33
2॰ हरीश पंड्या : सीमित सर्जन की कला:लघुकथा : समांतर(लघुकथा अंक, जुलाईसितम्बर, 2001) : पृष्ठ 35
3॰ डॉ स्वर्ण किरण : लघुकथा:एक इतिहास भी : ज्योत्स्ना(लघुकथा विशेषांक, जनवरी 1988) : पृष्ठ 8
4॰ डॉब्रजकिशोर पाठक : हिन्दी लघुकथा आन्दोलन : द्वीप लहरी(लघुकथा विशेषांक, अगस्त 2002) : पृष्ठ 15
5॰ बलराम अग्रवाल : लघुकथा विमर्श : द्वीप लहरी(लघुकथा विशेषांक, अगस्त 2002) : पृष्ठ 64
6॰ राधेलाल बिजघावने : लघुकथाओं की वैचारिकता : लघु आघात(जुलाईदिसम्बर 1984) : पृष्ठ 37
7॰ वही, पृष्ठ 37
8॰ विक्रम सोनी : लघु आघात : (मानचित्र, विशेषांक, जनवरीजून 1983) : पृष्ठ 7
9॰ माधव नागदा : विकलांग : आग(लघुकथा संग्रह) : पृष्ठ 12
10॰ मालती महावर : अदलाबदली : अतीत का प्रश्न(लघुकथा संग्रह) : पृष्ठ 29
11॰ महेश दर्पण : काम : द्वीप लहरी(लघुकथा विशेषांक, अगस्त 2002) : पृष्ठ 56
12॰ महेन्द्र सिंह महलान : डाका : लघु आघात(गणतन्त्रांक, जनवरीमार्च 1988) : पृष्ठ 13
13॰ रत्नेश कुमार : अगर पेट न होता : लघु आघात(जुलाईसितम्बर 1982) : पृष्ठ 25
14॰ वी॰ के॰ जौहरी बदायूंनी’ : लघु आघात(जुलाईसितम्बर 1982) : पृष्ठ 24