बुधवार, 27 दिसंबर 2017

डॉ॰ अनिल शूर ‘आजाद’ एवं श्रीमती इंदु वर्मा का डॉ॰ बलराम अग्रवाल से पत्र-साक्षात्कार

        हमारा काम ईमानदारी से लेखन करना हैबलराम अग्रवाल 
डॉ॰ अनिल शूर ‘आजाद’
श्रीमती इंदु वर्मा
डॉ॰ अनिल शूर आज़ाद और श्रीमती इंदु वर्मा की ओर से  संयुक्त रूप से मोबाइल मैसेंजर पर दिनांक 24-12-2017 को  निम्न सवाल भेजे गए थे। प्रस्तुत हैं उक्त सभी सवाल मेरे द्वारा उन्हें भेजे गये  जवाबों के साथ               — बलराम अग्रवाल

    01-   आपने लिखना कैसे और कब आरम्भ किया था?
मेरे साथ हुआ यह कि लिखना मैंने शुरू नहीं किया, बल्कि लिखना कक्षा सात में एकाएक शुरू हो गया। कबीर, रहीम के दोहों जैसा कुछ। उन्हें मैं रद्द कागज की पट्टियों पर लिखता और पिताजी के डर से फाड़कर फेंक देता क्योंकि कोर्स की किताबों के अलावा कुछ भी पढ़ना-लिखना वाहियात काम माना जाता था।
     02-   आपने किन-किन विधाओं में लिखा है तथा कृपया अपनी प्रमुख पुस्तकों की जानकारी भी दीजिए।
लिखना तो कविता से शुरू किया था। फिर लेख, समीक्षा, लघुकथा, कहानी, आलोचना, अनुवाद, संपादनसबसे जुड़ाव रहा। कहानी और लघुकथा के संदर्भ में—1॰ सरसों के फूल (1994, लघुकथा संग्रह) 2॰ ज़ुबैदा (2004, लघुकथा संग्रह)  3॰ चन्ना चरनदास (2004, कहानी-लघुकथा संग्रह)  4॰ पीले पंखोंवाली तितलियाँ (2014, लघुकथा संग्रह)  5॰ खुले पंजोंवाली चील (2016, कहानी संग्रह) 6॰ हिन्दी लघुकथा का मनोविज्ञान (आलोचना पुस्तक)।
     03-   मौलिक लेखन के अतिरिक्त क्या आपने सम्पादन-कार्य भी किया है? कृपया इसपर भी संक्षेप में ही सही, कुछ बताइए।
1972 में ‘मिनीयुग’ के प्रकाशन की शुरुआत से ही उससे जुड़ गया था और 1989 तक जुड़ा रहा। 1976 में बुलन्दशहर से ‘दैनिक बरन दूत’ समाचार पत्र की शुरुआत हुई तो उसके संपादन से जुड़ गया। 1993 से 1996 तक त्रैमासिकवर्तमान जनगाथाका संपादन/प्रकाशन किया। 2014 में ‘शोध समालोचन’ नाम की पत्रिका के संपादन से जुड़ा। 1997 से आज तक हिन्दी साहित्य कला परिषद, पोर्ट ब्लेअर की अर्द्धवार्षिक हिन्दी पत्रिका ‘द्वीप लहरी’ को संपादन सहयोग दे रहा हूँ। उसके लिए 2 लघुकथा विशेषांक, 2 बाल साहित्य अंक, 1857 की 150वीं वर्षगांठ पर 2007 में विशेषांक का अतिथि संपादन का दायित्व निर्वाह किया। इस पत्रिका के कुछेक अंक लघुकथा-बहुल, बाल साहित्य बहुल और कहानी बहुल भी संपादित किए। प्रेमचंद, प्रसाद, शरदचन्द्र, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बालशौरि रेड्डी की कहानियों के दो दर्जन के करीब सकलनों का संपादन किया। ‘साहित्य अमृत’ के जनवरी 2017 में प्रकाशित लघुकथा विशेषांक के लिए सामग्री उपलब्ध कराईं। ‘पड़ाव और पड़ताल खण्ड-2’ (लघुकथा रचना व आलोचना पुस्तक)  ‘समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद’ (आलोचना पुस्तक) का संपादन।   
     04-   लम्बे समय से आप साहित्य-साधना में जुटे हैं।आपके लेखन को कई सम्मान/पुरस्कार आदि मिले होंगे। कृपया इस बाबत भी कुछ प्रकाश डालें।
सम्मान-पुरस्कार मिले हैं, लेकिन उन सबका कभी लेखा नहीं रखा।
    05-   जहां तक हमारी जानकारी है 'लघुकथा विधा' के प्रति भी आपका गहन रुझान रहा है। कृपया इस बाबत आपके लेखन-सम्पादन एवं अन्य गतिविधियों/उपलब्धियों को भी तनिक शेयर करें।
लघुकथा के प्रति रुझान दिनों-दिन बढ़ रहा है। अतिथि संपादक के रूप में नाम न दिया जाने के बारे में स्पष्ट जान लेने के बावजूद ‘साहित्य अमृत’ के लघुकथा विशेषांक, जनवरी 2017 के लिए सामग्री जुटाकर देना इस रुझान का ही परिणाम था। अनेक बार अनेक तरह की आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ता है, लेकिन हम हतोत्साहित नहीं होते हैं। इस बारे में इस बात पर विश्वास करते है कि ‘आलोचना काम करने वालों की ही हुआ करती है। निठल्लों पर कोई क्या तंज कसेगा और क्यों?’ लेखन से मिली सबसे बड़ी उपलब्धि तो यह है कि इसकी बदौलत दोस्त बहुत अच्छे-अच्छे मिले हैं।
     06-   आधुनिक हिंदी-लघुकथा का आरम्भ आप कब से मानते हैं.. छठा, सातवां या आठवां दशक से अथवा कोई अन्य?
‘आधुनिक हिन्दी लघुकथा’ का आरम्भ-बिंदु सभी एकमत से 1971 को मानते हैं, हम भी। इसमें समझने और स्वीकार करने की बात यह है कि विधाएँ यथावत् शुरू होने से कुछ समय पहले ही अपने आगमन की आहट देना शुरू कर देती हैं और उनके परिपक्व होने की प्रक्रिया भी बाद के अनेक वर्षों तक जारी रहती है। आधुनिक लघुकथा के साथ भी वैसा ही है।
    07-   लघुकथा के आकार को लेकर बहस की स्थिति सदैव रही है, लघुवादी-लघुकथा जैसे आंदोलन तक चले हैं। आप आदर्श लघुकथा की शब्दसीमा क्या मानते हैं?
आधिकारिक रुप से ‘कहानी’ की शब्द-सीमा आज तक तय नहीं हुई। न इस ओर, न उस ओर। यानी ‘कहानी’ में कम से कम कितने शब्द हों; या अधिक से अधिक कितने, ताकि वह ‘उपन्यास’ से अलग नजर आए; यह तय करने की जरूरत किसी ने महसूस नहीं की। दरअसल, जरूरत कभी समझी ही नहीं गयी। आठवें दशक में लघुकथा आंदोलन की शुरुआत से पहले ‘लघुकथा’ की भी शब्द-सीमा की बात कभी चली हो, मुझे ज्ञान नहीं है। मेरा सोचना है कि कथ्य की संवेदनात्मक घनीभूतता और अपनाया गया शिल्प उसका आकार जो भी तय कर दें, वहाँ तक रचना को जाने देना चाहिए। इस प्रक्रिया में वस्तुत: वह स्वयं ही यथेष्ट आकार ग्रहण कर लेती है। मैं स्वयं इसी नियम को अपनाता हूँ। लघुवादी-लघुकथा आंदोलन के बारे में आज पहली बार सुन रहा हूँ। अनेक मित्र मेरी कुछ रचनाओं को ‘लघुकथा’ मानने में संकोच करते हैं। किया करें। मैं अपने आपको ‘लघु’ के प्रति उतना समर्पित महसूस नहीं करता, जितना ‘कथा’ को उसकी पूर्णता में प्रस्तुत करने की ओर सचेत रहता हूँ… संवेदना को उसकी पूर्ण तीक्ष्णता में प्रस्तुत करने के प्रति  अपने आप को अधिक जिम्मेदार महसूस करता हूँ।
     08-   कृपया स्प्ष्ट करें कि बोधकथा/संस्मरण/कहानी/व्यंग्य आदि से लघुकथा किस तरह भिन्न है?
पूर्वकालीन लघुकथा बोधकथा या उपदेश कथा से अधिक भिन्न नहीं है। यहाँ तक कि वह चुटकुले और कतिपय हास-परिहास से भी बहुत भिन्न नजर नहीं आती है। भिन्न होती तो आज की लघुकथा को हम ‘आधुनिक’ या ‘समकालीन’ लघुकथा न कह रहे होते। संस्मरण मूलत: कथापरक विधा नहीं है। कहानी और लघुकथा में संवेदना की समानता हो सकती है और कई बार उनका आकार ही समान हो सकता है। फिर अन्तर क्या है? यहाँ अन्तर है—भाषा और शिल्प का। जहाँ आकार की समानता न हो वहाँ हम देखते हैं कि कहानी का विस्तार फलक बाहरी यानी स्थूलत; भी विस्तृत होता है; जबकि लघुकथा का विस्तार भीतरी यानी सूक्ष्म होता है। एक रचना के रूप में व्यंग्य तथा एक अवयव के रूप में लघुकथा में प्रयुक्त व्यंग्य के बीच वही अन्तर है जो थैलीभर नमक और खाने की किसी वस्तु में स्वादानुसार प्रयुक्त नमक के बीच होता है। हरिशंकर परसाई व्यंग्य को कथन में तीक्ष्णता लाने वाला एक अवयव ही मानते थे; लेकिन प्रोन्नत होकर व्यंग्य ने आज ‘थैलीभर’ होने का रूप धारण कर लिया है। व्यंग्य नामक अवयव से युक्त होकर लघुकथा की प्रभावशीलता में नि:संदेह गुणात्मक परिवर्तन देखने को मिलता है।
     09-   लघुकथा में 'कालदोष' क्या बला है?
‘कालदोष’ को आपने सवाल में ही ‘बला’ कहकर कुछ लघुकथा-मनीषियों की स्थिति को और इससे जुड़े अपनी धारणा को भी स्पष्ट कर दिया है; अब मैं क्या कहूँ?
10- आत्मकथात्मक शैली की रचना अर्थात जिसमें लेखक स्वयं भी 'एक पात्र' होता है… किस सीमा तक स्वीकार्य हैं।
यह कहना गलत है कि आत्मकथात्मक शैली में लेखक स्वयं भी एक पात्र होता है। कथा में ‘मैं’ पात्र से तात्पर्य लेखक स्वयं कतई नहीं है। जहाँ तक लेखक के स्वयं पात्र होने की बात है, पात्र का कोई नाम रखने के बावजूद वह स्वयं पात्र की तरह व्यवहार कर सकता है जो कि शैल्पिक कमजोरी ही अधिक मानी जाएगी। सुदृढ़ शिल्प वाली लघुकथा में ‘मैं’ पात्र पाठक में अपनत्व का भाव जगाकर अधिक जुड़ाव का अहसास दिलाने वाला महसूस हो सकता है।
11- विशेषतया लघुकथा के विधागत विकास में 'सोशल मीडिया' की भूमिका पर आप क्या कहना चाहेंगे?
किसी भी विकास में या ह्रास में ‘सोशल मीडिया’ स्वयं कोई भूमिका नहीं निभाता। वह तो कठपुतली है। विकास या ह्रास उन हाथों और मस्तिष्कों की नीयत और क्षमता पर निर्भर करता है जो सोशल मीडिया पर किसी भी विधा को चला रहे हैं। लघुकथा पर भी यही बात लागू होती है। सोशल मीडिया पर इसको विकसित  और परिष्कृत करने वाले तथा इसका बंटाढार करने वाले, दोनों स्तर के हाथ और मस्तिष्क कार्यरत हैं और वे सब के सब लघुकथा के (और अपने भी) विकास का उद्देश्य लेकर ही कार्यरत हैं।
12- देखने में आता है कि जुम्मा-जुम्मा चार दिन की हुई इस विधा में खेमेबाजी की खींचतान, अपना/अपनों का महिमामंडन करने तथा अन्यों की निंदा/उपेक्षा करने जैसी हरकतें फिर बढ़ने लगी हैं। इसका विधा पर क्या असर पड़ता है/पड़ सकता है?
जिस ‘आधुनिक लघुकथा’ की शुरुआत हम अब से 47-48 साल पहले हुई मान रहे हों, उसे ‘जुम्मा-जुम्मा चार दिन की विधा’ मानना मेरे लिए संभव नहीं है। परस्पर खींचतान हो तो विकास नि:संदेह अवरुद्ध होता है; लेकिन समर्पित लेखक हर अवरोध के बावजूद जुटे हुए हैं, जुटे रहेंगे।
13- आपको क्या लगता है कहानी, उपन्यास, नाटक या एकांकी की तरह कभी 'लघुकथा' भी अपना सम्मानित स्थान बनाने में सफल हो पाएगी? हां तो..कब तक?
रचना विधाओं का क्रम नाटक, उपन्यास, कहानी, एकांकी बनता है। इनमें नाटक, उपन्यास और कहानी हमें पैतृक संपत्ति की तरह मिले हैं। ‘एकांकी’ को तब के रचनाकारों ने पनपाया और उसकी स्थापना के लिए परंपरावादी नाट्य-आलोचकों से कड़ा संघर्ष किया। ‘लघुकथा’ का आकार हमें पैतृक संपत्ति के रूप में मिला है, बाकी सब इस काल के कथाकारों ने श्रमपूर्वक निर्मित और परिवर्द्धित किया है। इस नवनिर्मित और परिवर्द्धित नए भवन की वास्तुगत स्वीकृति में वे सब बाधाएँ आनी स्वाभाविक हैं जो किसी समय उपन्यास के समक्ष आने पर कहानी के और नाटक के समक्ष आने पर एकांकी के सामने आ खड़ी हुई थीं। हमारा काम ईमानदारी से लेखन करना है। किसी भी विधा की सर्व-स्वीकृति का रास्ता स्तरीय लेखन से होकर गुजरता है, मात्र महत्वाकांक्षी होने से नहीं।
14- लेखन सम्बन्धी आपकी भावी योजनाओं की भी कुछ जानकारी दीजिए।
कार्यरूप में परिणत होने से पहले हर योजना वायवीय है, दिवास्वप्न है। इसलिए घोषित रूप से कोई भावी योजना नहीं।
15- एक आखिरी सवाल - आपके लेखन के संदर्भ में आपके परिवार के सदस्यों का क्या रुख रहता है..सहयोगी, तटस्थ अथवा विरोधी का? ओर हां.. लेखकों की नई पीढ़ी के लिए आप क्या सन्देश देना चाहते हैं?
जब तक परिणाम से न जुड़ जाएँ, कलाएँ वाहियात रोग कहलाती हैं। दादाजी की ओर का परिवार सांस्कृतिक रुचियों वाला अनपढ़ और गरीब परिवार था; और नानाजी की ओर का परिवार आर्थिक रूप से सम्पन्न, साक्षर लेकिन असाहित्यिक। ‘लेखन’ से जुड़ना किसी के विज़न में नहीं था; और तो और, विवाह के बाद ससुराल भी कैरियर ओरिएन्टिड मिला। हाँ, पत्नी सुयोग्य मिली। उन्होंने पढ़ने-लिखने में कभी कोई बाधा उत्पन्न नहीं की; और अब तो वह मेरे लेखन की ताकत ही बन गयी हैं। हर कदम पर साथ। एक बेटी है, दो बेटे। एक दामाद हैं और दो बहुएँ। लेखन से किसी का भी दूर-दूर तक नाता नहीं; लेकिन सब के सब लेखन को एन्ज्वाय खूब करते हैं। लेखन में बाधा उत्पन्न न करना, लेखक और उसके आगन्तुक मित्रों को नाक-भौं सिकोड़े बिना आदर-मिश्रित मुस्कान के साथ समय पर चाय-खाना देते रहना भी परिवार के सदस्यों का लेखन में सहयोग कहलाता है। वह सहयोग मिलता रहा है। लेखकों की नई पीढ़ी के लिए मेरा एक ही संदेश है—अपनी रुचियाँ और प्राथमिकताएँ निश्चित करें। तत्संबंधी विषय की पुस्तकों का जितना अधिक हो सके अध्ययन करें, तब लिखें।                        संपर्क डॉ॰ बलराम अग्रवाल, एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032                   मोबाइल : 8826499115