शनिवार, 19 जून 2010

समकालीन लघुकथा और बुजुर्गों की दुनिया/बलराम अग्रवाल

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भाग-२
ई और शहरी पीढ़ी को घर-परिवार और गाँव से जोड़े रखने का यह दायित्व गले की चैन देकर ही पूरा होता हो ऐसा नहीं है। हर बुजुर्ग इसे अपनी आर्थिक क्षमता तथा बौद्धिक-स्तर के अनुरूप पूरा करता है। रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की लघुकथा ऊँचाई के पिताजी बेटे-बहू की समस्त शंकाओं के पार जाकर उन्हें अचम्भित ही नहीं उस समय लज्जित भी कर देते हैं जब खाना खा चुकने के बाद वे बेटे के हाथ में सौ-सौ के दस नोट पकड़ाकर कहते हैं कि उन्हें रात की गाड़ी से वापस लौट जाना है। कमल चोपड़ा की लघुकथा संतान की ग्रामीण माँ तो मात्र दो स्वेटर ही भेजकर दायित्वहीन बहू को अपना बना लेती है। सवाल यह पैदा होता है कि वे बुजुर्ग जो स्वेटर भी दे सकने की स्थिति में नहीं रह गए हैं, बिखरते जा रहे परिवार को कैसे बचाएँ? इसका एक समाधान सुभाष नीरव की लघुकथा तिड़के घड़े प्रस्तुत करती है जिसमें बहू-बेटे के रोज-रोज के तानों-उलाहनों से परेशान बाऊजी सोते समय अम्माजी को यों समझाते हैं—“तुम दिल पर क्यों लगाती हो। कहने दिया करो जो कहते हैं। हम तो अब तिड़के घड़े का पानी ठहरे। फेंकने दो कंकर-पत्थर। जो दिन कट जायँ, अच्छा है। माँ-बाप अगर चुप रहने की आवश्यकता पर स्वयं अमल नहीं करेंगे तो स्पष्ट है कि विचार और व्यवहार दोनों स्तरों पर निर्लज्ज हो चुके बेटे-बहू के द्वारा उन्हें यह आवश्यकता समझाई भी जा सकती है(मौन, राजेन्द्र नागर निरन्तर)। भारतीय परिवारों में अपनी वर्तमान स्थिति का आकलन वृद्ध किस रूप में प्रस्तुत करते हैं, मीरा जैन की हम और हमारे पूर्वज उसे मात्र एक वाक्य में समेट देने में सक्षम है—“उस वक्त परिवार में हमारे पूर्वजों की स्थिति नाथ की-सी होती थी, हमारी स्थिति अनाथ जैसी है।
बढ़ी-उम्र के लोगों में परिवार को जोड़े रखने की कवायद से अलग, आने वाली पीढ़ी को शारीरिक, सामाजिक व सांस्कारिक प्रत्येक प्रकार की सुरक्षापरक चेतना देने सम्बन्धी प्रयासों के रूप में भी देखने को मिलती है। कुँवर प्रेमिल की लघुकथा मंगलसूत्र तथा मणि खेड़ेकर की लघुकथा हार में जीत की सास पात्राएँ दायित्व-निर्वाह के इस मुकाम से भली-भाँति परिचित हैं। और सबसे बड़ी बात तो संतोष सुपेकर की लघुकथा लक्ष्मण रेखा में व्यक्त हुई है—“घर के बुजुर्ग का जूता भी बाहर पड़ा हो तो मुसीबत आने से हिचकती है। मुसीबतों से बचे रहने के लिए ही नहीं बल्कि दैनिक जीवन में विलासिताओं का उपभोग करने हेतु भी कुछेक युवा घर के बुजुर्ग माता-पिता के नाम का उपयोग करने से नहीं चूकते हैं। उनके प्रति अपने दायित्व-निर्वाह से वे कितने ही दूर रहें, उनके होने से लिए जा सकने वाले सांसारिक लाभ से वे कभी दूर नहीं रहते। रामयतन यादव की लघुकथा चिट्ठी तथा रामकुमार आत्रेय की लघुकथा पिताजी सीरियस हैं तथा सुरेश शर्मा की लघुकथा पितृ प्रेम के वृद्ध पात्र युवाओं की ऐसी ही स्वार्थपरकता से आहत हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि जैसे-जैसे आदमी की उम्र बढ़ती है, खुद से लड़ने की उसकी ताकत में गिरावट आने लगती है। अगर कोई शारीरिक रोग उसको नहीं है तो ताकत में आने वाली इस गिरावट का पता अक्सर उसे नहीं लगता; उम्र क्योंकि एकाएक नहीं, बल्कि धीरे-धीरे आदमी पर हावी होती है। उम्र पर हावी होने के लिए आवश्यक है कि आदमी जीवन को जिए और उम्र को भूल जाए; लेकिन यह भूलना भी उसकी प्रकृति पर निर्भर करता है। हर आदमी उम्र को नहीं भूल सकता। सच तो यह भी है कि भारतीय समाज में उम्र को पकड़कर बैठ जाने वाले लोगों की संख्या ही अधिक है, भूल सकने वालों की नगण्य। यों भी, भूलने को अपने चरित्र में सभी विकसित नहीं कर पाते। न भूल पाने वाले व्यक्तियों को देर-सबेर मन:ताप अवश्य ही घेर लेता हैयह याद रखना चाहिए। हरभजन खेमकरनी की लघुकथा कबाड़वाला कमरा के बुजुर्ग पात्र परिवार में अपनी भावी तथा मनोज सेवलकर की लघुकथा कचरा का बुजुर्ग अपनी वर्तमान स्थिति को समझते हुए वैसा ही आचरण भी करते हैं और जीने का एक सार्थक ढंग तलाश करने का प्रयत्न करते हैं।
आम कहावत है कि सिर्फ बुढ़ापा ही वह चीज है जो बिना प्रयास ही मनुष्य की झोली में आ पड़ती है। और एक बार आ पड़ने के बाद? कहा जाता है किजाके न आए वो जवानी देखी, आके न जाए वो बुढ़ापा देखा। बुढ़ापा जब आ जाता है और व्यक्ति को असहाय और निरीह स्थिति में पहुँचा देता है, तब वह अपने गत जीवन पर दृष्टि डालता है और अपनी अनेक गलतियों का अहसास करता है। वे गलतियाँ यद्यपि अलग-अलग स्तर की हो सकती हैं तथापि उनमें से एक बड़ी भयंकर वह भी नजर आती है जिसका खुलासा सूर्यकांत नागर की लघुकथा रोशनी की गंगा चाची करती हैं—‘अम्मा, तुमने बड़ी भूल की। जो कुछ था, सब बेटों पर लुटा दिया। उनको रास्ते लगाया। उनकी गृहस्थी जमाई, पर तुम्हें क्या मिला? आज अंधी होकर बैठी हो। अंधा होने से बचाने की दृष्टि से ही संतोष सुपेकर की लघुकथा एक बेटा का फ्रांसिस दो सप्ताह बाद रिटायर होने को तैयार अपने सहकर्मी देवीसिंह को सलाह देता है कि वह अपने तीन बेटों को नहीं बल्कि मिले हुए फण्ड को ही अपना एकमात्र बेटा समझे और उसे सम्हालकर रखे। साबिर हुसैन की श्रवण कुमार, अंजना अनिल की दर्द, जसबीर ढंड की छमाहियाँ, डॉ बलदेव सिंह खहिरा की जिम्मेवारी, दर्शन जोगा की निर्मूल, हरजीत कौर कंग की कलयुगी श्रवण, बलराम अग्रवाल की कसाईघाट और झिलंगा, गफूर स्नेही की और जीवित रहती माँ, सुरेन्द्र कुमार अंशुल की जरूरत, शील कौशिक की हिसाब-किताब, कालीचरण प्रेमी की विकल्प, श्याम सुन्दर अग्रवाल की पुण्यकर्म, प्रताप सिंह सोढ़ी की तस्वीर बदल गई, जलनस्वाभिमान, योगेन्द्रनाथ शुक्ल की ईर्ष्या आदि अनगिनत लघुकथाएँ परिवार में बूढ़े माता-पिता के प्रति बेटे-बहू के दायित्वहीन व्यवहार को केन्द्र में रखकर लिखी गई हैं। यद्यपि इन सभी लघुकथाओं की भाषा, शैली और शिल्पसभी एक-दूसरे से भिन्न हैं तथापि केन्द्रीय कथ्य एक ही है।
नई धारा(वृद्ध विमर्श विशेषांक, अप्रैल-मई 2010/पृष्ठ 63-64

बुधवार, 9 जून 2010

समकालीन लघुकथा और बुजुर्गों की दुनिया/बलराम अग्रवाल

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भागः1
पनी आज तक की आयु के अनुरूप अपने सांसारिक अनुभवों पर दृष्टि डालता हूँ तो पाता हूँ कि अपने-आप को मैं सत्तावन साल का बूढ़ा(‘प्रौढ़ शब्द अंग्रेजी के मेच्योर शब्द के पर्याय रूप में प्रयुक्त होता है जिससे वैचारिक प्रौढ़ता का भी भान होता है, इसलिए उसका प्रयोग अपने लिए नहीं कर पा रहा हूँ) तो कह सकता हूँ, बुजुर्ग नहीं। और इसी आधार पर मैं यह कह पाने की स्थिति में भी स्वयं को पाता हूँ कि हममें से अधिकतर लोगों का बौद्धिक-विकास किसी एक ओर, किसी एक विषय पर केन्द्रित होता है और इह-जीवन के ही अन्य अनेक क्षेत्र हमसे अनछुए व अनजाने ही रह जाते हैं। कह सकते हैं कि हमारा आंशिक विकास ही हो पाता है, पूर्ण विकास नहीं। अगर हुए तो किसी एक क्षेत्र में ही हम प्रौढ़ हो पाते हैं, दूसरे बहुतों में बचकाने सिद्ध होते रहते हैं। रोजमर्रा की जिन्दगी में भूत, भविष्य और वर्तमान हमें कभी पीछे धकेलते हैं, कभी आगे ठेल देते हैं और कभी जहाँ का तहाँ जड़ कर देते हैं।
बढ़ चुकी उम्र में, मुझे लगता है कि, प्रत्येक व्यक्ति को यह जरूर महसूस होता है कि किशोरावस्था में उसके पिता उसे ठीक ही डाँटा-डपटा करते थे। दिनचर्या को अनुशासित रखने की उनकी बातों पर वह अमल करता तो आज शरीर का यह हाल न हो गया होता। और इस बात पर भी किसी को आश्चर्य व्यक्त नहीं करना चाहिए कि ठीक उसी समय उसकी संतान सोच रही होती है कि पापा सठिया गए है, उसके अहसासों और जज्बातों की कद्र करना उनके वश की बात नहीं है। भूत और वर्तमान की एक अन्य दुविधाग्रस्त स्थिति में हर व्यक्ति अक्सर यह भी महसूस करता है कि उसकी शुरुआती आधी उम्र माँ-बाप ने बरबाद कर दी और बाद की आधी बच्चों ने।
बुढ़ापा किसे कहते हैं? इस सवाल का कभी भी एक और सिर्फ एक जवाब नहीं हो सकता; जबकि लगता यही है कि इस सवाल का सिर्फ और सिर्फ एक ही जवाब हैबढ़ी उम्र के कारण शरीर का शिथिल हो जाना या होते जाना। दुनियाभर के चिंतक मानते हैं कि बुढ़ापे का सम्बन्ध सिर्फ उम्र के बढ़ने से नहीं है। बुढ़ापे का गहरा सम्बन्ध मनुष्य की मानसिक-स्थिति से है। जीवन के प्रति जितना आपका विश्वास गहरा है, आत्म-विश्वास गहरा है, आशाजनक दृष्टि गहरी है आप उतने ही युवा हैं और जितना आपका संदेह गहरा है, डर गहरा है, हताशा-निराशा गहरी है उतने ही आप बूढ़े हैं। साबिर हुसैन की लघुकथा मृत्यु का अर्थ का बूढ़ा किसान इस जीवन-दर्शन से न केवल भली-भाँति परिचित है, बल्कि अपने जीवन में उसने इसे उतार भी रखा है। इस उम्र में तो आराम करने की सुधीर बाबू की सलाह पर वह कहता है—“समय से पहले मैं मरना नहीं चाहता। मृत्यु का मतलब शरीर का निष्क्रिय हो जाना ही तो है। मैं जीते-जी निष्क्रिय कैसे हो जाऊँ? इसी दर्शन का सजीव उदाहरण रामशंकर चंचल की लघुकथा शंभु काका का मुख्य पात्र शंभुकाका है जो बेटे-बहू द्वारा घर से निकाल दिये जाने के बाद सत्तर साल की उम्र में भी खेतों में मेहनत कर प्रसन्नता का जीवन जीता है। सुकेश साहनी की विजेता के बूढ़े बाबा भी इसी दर्शन का अनुसरण करते हैं। जगदीश राय कुलरियाँ की अपना घर के विधुर वृद्ध को उसका मित्र भावी जीवन को सुगमतापूर्वक बिताने का एक अन्य तरीका सुझाता हैपुनर्विवाह का तरीका। भारतीय समाज की वर्तमान मान्यताओं के मद्देनजर उसकी सलाह कुछ अटपटी लग सकती है, क्योंकि वर्तमान में पुनर्विवाह आम तौर पर युवा एवं प्रौढ़ आयु के पुरुषों तक ही सीमित नजर आता है; लेकिन भविष्य में वृद्ध इस पर अमल करने से अछूते शायद न रह पाएँ।
व्यक्ति के जीवन में बुढ़ापा एक अलग स्थिति है और बुजुर्गियत एक अलग स्थिति। कोई बुजुर्ग बूढ़ा हो यह तो हो सकता है, लेकिन हर बूढ़ा बुजुर्ग भी हो्गा यह मानने योग्य बात नहीं है। उम्र द्वारा दी गई झुर्रियाँ जिस व्यक्ति के शरीर के साथ-साथ मन और बुद्धि पर भी पड़ गई हों उसे कोई कैसे बुजुर्ग मान सकता है! विक्रम सोनी की लघुकथा बनैले सुअर के पंडित रामदयाल मिश्र और रघुनाथ चौबे ऐसे ही बूढ़े हैं, बुजुर्गियत जिन्हें छू भी नहीं गई है। ये लोग सांस्कारिक रूप से बूढ़े हैं। जातिवाद में जकड़े भारतीय समाज में ऐसे बूढ़ों की संख्या कम नहीं है। बातचीत के दौरान ऐसे बूढ़ों को बुजुर्ग सम्बोधित करना शिष्टाचार, सही कहा जाय तो भयजनित शिष्टाचार से अधिक कुछ नहीं है।
बढ़ी हुई उम्र के बावजूद भी जो लोग समकालीन समाज और नई पीढ़ी, भले ही अपनी संतान मात्र, के हित में कुछ सोचते-करते हैं, सही अर्थ में उन्हीं को बुजुर्ग कहा जा सकता है, सभी को नहीं। ऐसे बुजुर्ग नई और पुरानी पीढ़ियों के बीच निरंतरता पकड़ते जा रहे खिंचाव और तनाव को कम करने, पारस्परिक सम्बन्धों को समरसता प्रदान करने, उन्हें टूटने से बचाने का महत्वपूर्ण दायित्व निभा रहे होते हैं। पृथ्वीराज अरोड़ा की लघुकथाएँ बुनियादजरूरत इस सत्य को गहराई से रेखांकित करती हैं।
-->अच्छा या बुरा कोई भी संदेश कभी भी सिर्फ परिवार तक या गली-मोहल्ले तक सीमित नहीं रहता, दूर तक जाता है; प्रभाव की दृष्टि से भी वह कालातीत सिद्ध हो सकता है। सतीश राठी की लघुकथा आग्रह में पत्नी नई पीढ़ी के उस वर्ग की प्रतिनिधि है जोगाँव और पुरानी पीढ़ीदोनों से घृणा करती है—“मैं नहीं जाऊँगी उस नर्क में सड़ने के लिए। बहुत गंदा है तुम्हारा गाँव और उसके लोग! निकट सम्बन्धों से दूर होती जा रही इस पीढ़ी को जड़ों से जोड़े रखने का दायित्व मन के मैल को किनारे करते हुए पुरानी पीढ़ी को यों निभाना पड़ता है—“…फसल अच्छी आई है। बहू आ जाए तो गले की चैन बनवा दूँगी। बहुत दिनों से इच्छा है।… इस संवाद में इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए कि बहू गाँव में आएगी, माँ गले की चैन तब बनवाएगी, उससे अलग स्थिति में नहीं।
-->नई धारा(वृद्ध विमर्श विशेषांक, अप्रैल-मई 2010/पृष्ठ 62-63