गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

कलाजयी बलराम अग्रवाल की कालजयी लघुकथाएं-4/डॉ. ब्रजकिशोर पाठक

दोस्तो, 26 नवम्वर 2011, 7 दिसंबर 2011 तथा 15 दिसंबर 2011 के अंकों में आपने अलाव फूँकते हुए में संकलित मेरी 25 लघुकथाओं पर डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक के लेख की तीसरी किश्त पढ़ी। इस बार प्रस्तुत है उक्त लेख की चौथी व अंतिम किश्तबलराम अग्रवाल
(चौथी व अंतिम किश्त)
बलराम अग्रवाल की अधिकांश लघुकथाएं आत्मकथ्य शैली में लिखी गई हैं। वे कई लघुकथाओं में विभिन्न पात्रों का रूप धारण कर रचना के साथ चलने वाली घटना या स्थिति में अपने को साथ लेकर चलते हैं, ताकि कथ्य की विश्वसनीयता अधिक जानदार और लेखक की स्वानुभूत मार्मिकता सिद्घ हो। जहाँ अग्रवाल जी ने अपने को अलग रखकर लघुकथाएँ लिखी हैं, वहाँ पर लेखकीय टिप्पणियाँ ऐसी बनी हैं कि लगता है कि रचना की घटना-स्थितियां लेखक के भोगे हुए यथार्थ से प्रादुर्भव हैं। कहीं भी ऊपर से ओढ़ा हुआ मामला नहीं लगता। ऐसा भी नहीं लगता है कि लेखक ने किसी से सुनकर किसी लघुकथा की रचना की है।
युद्घखोर मुर्दे शीर्षक लघुकथा में अग्रवाल जी कॉफी हाउस में सिगारधारी सज्जन, सुरेश, नरेश और पत्रकार महोदय के बीच चल रही असल आजादी की ऊँची-ऊँची बात करने वाले युद्घखोर मुर्दों के बीच देखे जाते हैं। बदलेराम कौन है में वे पार्टी के एक सक्रिय कार्यकर्त्ता हैं। जुबैदा में होटल के आगे ऑटोरिक्शा से उतरने वाले और तलाकशुदा जुबैदा के कंधों पर हाथ रखने वाले भीरू किस्म के सज्जन भी वे ही हैं। औरत और कुर्सी में कामुक दृष्टि से ठंडा हुए हवस के दीवाने धनाढ्‌य व्यक्ति भी अग्रवाल जी ही हैं जो कॉलगर्ल के साथ सोकर नारी देह की गरमाहट पाने में ही अपनी सार्थकता समझते हैं। हम देख चुके हैं कि अकेला कब तक लड़ेगा जटायु में अग्रवाल जी अकेली युवती को भोगने की नीयत रखते हैं पर गुण्डों से उसे बचा नहीं पाते और जटायु की तरह युद्घ में गुण्डों से घायल यात्री से डाँट खाते हैं। जिस लघुकथा में लेखक ने अपने को अलग रखकर तटस्थ भाव से घटनाओं-पात्रों का चित्राण किया है, वह प्रस्तुति में इतना सच्चाई लिए है कि लगता है कि घटना, स्थिति और पात्रों के साथ पीछे-पीछे चल रहा है। हिन्दी लघुकथा में लेखकीय उपस्थिति का यह अहसास वस्तुतः दुर्लभ-सा रहा है।
बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं की विशेषता है कि पात्रों के चयन और उनके चारित्रिक-विन्यास में वे अत्यंत सजग है। उनके पात्र वर्तमान जीवन में पैदा हुई विसंगति और विद्रूपताओं की उपज हैं। हर वर्ग, हर जाति और हर मन:स्थिति के लोग इनकी लघुकथाओं में हैं। इसी कारण अग्रवाल जी की लघुकथाएँ एक साथ घटनाप्रधान और चरित्राप्रधान हो जाती हैं। सबसे मजे की बात यह है कि पात्रों के नाम उनकी गुणवत्ता या चरित्र को ध्यान में रखकर दिये गये हैं। बदलेराम, रामभरोसे, जतन बाबू ऐसे ही लोग हैं जो अपनी करनी-धरनी से अपने नाम की सार्थकता सिद्घ करते हैं। इनकी लघुकथाओं में कुबेर पाण्डे और शर्माजी जैसे व्यावसायिक राजनेता हैं तो कड़क कुर्ता-पाजामा पहने लौडें-लफाड़े भी हैं; जो सिद्घांतहीन होकर चुनाव-काल में पैसा कमाने के लिए मालदार पार्टी कार्यकर्ता बनकर अपनी रोटी सेंकते हैं। इनकी लघुकथाओं में जंगी जैसा मजदूर नेता है तो गोखरू जैसा ग्रामीण युवक भी, जो अपनी पत्नी की चिकित्सा के दौरान लिए गए कर्ज को चुकाने के लिए कुत्तों का काम सीखता और करता है। यहाँ जगन बाबू भी हैं जो आजादी के दिनों में अंग्रेज अफसरों को बम से उड़ाते हैं और अपने बागी मित्र द्वारा लगाए गुलमोहर के पेड़ को खाद-पानी से सींचकर जवान बनाते हैं, पर उसमें एक भी फूल आते न देखकर मायूस हो जाते हैं। यहाँ ऐन जैसी ईसाई लड़की है जो अपने पिता की इच्छानुसार देह व्यापार कर पैसे कमाती है। यहाँ गरम माँस वाली देह की कॉलगर्ल भी है जो पैसा कमाने के साथ देह की भूख भी मिटाना चाहती है। इसी प्रकार लेखक वह को बेनामी पात्र के रूप में उपस्थित कर हमारे आसपास के लोगों के कारनामे दिखाता है। वे यहाँ अपने नाम से नहीं वरन्‌ अपनी करतूत से जाने जाते हैं। जैसे ओस लघुकथा की दादी माँ, ठिंगना युवक, सेठ और पड़ोसी। अंतिम संस्कार में वह बेटा है, जो दरिद्रता के कारण अपने बाप की चिकित्सा नहीं करवा पाता और कर्फ्यू के कारण अपने तेज हथियार से मृत पिता का पेट काटकर सड क पर फेंक देने की लाचारी झेलता है।
बलराम अग्रवाल लघुकथा में चूंकि कहानीपन के हिमायती हैं, इसलिए इनकी रचनाओं में स्थिति और वातावरण के चित्रण पर अधिक सर्तकता देखने को मिलती है। इनके चित्रण में कभी काव्यात्मकता का स्वरूप देखने को मिलता है, तो कभी सीधी-सरल भाषा में गत्यात्मक चित्रों-बिम्बों का आयोजन। यह दक्षतापूर्ण वैदुर्य बहुत कम लघुकथाकारों में देखने को मिलता है। अन्य लघुकथाकार या तो नाटकीय त्वरा से सहसा अपनी लघुकथाओं को आरंभ करते हैं और कुछेक पात्रों के माध्यम से घटना-स्थिति को उठाते-पटकते झटके से अंत देकर कथ्य को अंतिम वाक्य से कहकर स्वशब्दवाच्यत्व दोष से ग्रसित कर देते हैं। बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ वातावरण, स्थिति चित्रण के रंग में पात्रों को समेटते हुए झटके देती हैं जरूर, पर कथ्योद्‌घाटन का उपर्युक्त दोष कहीं भी नहीं मिलता। बलराम अग्रवाल पाठक-समीक्षकों का दायित्व समझते हैं कि वे उनकी लघुकथाओं के कथ्य को सम्पूर्ण रचना के अंतर्गत चित्रित स्थिति वातावरण के संदर्भ में विश्लेषित-उद्‌घाटित करें। उनकी प्रस्तुति का यह यथार्थवादी आग्रह वही है जो प्रेमचन्द की सर्वश्रेष्ठ तीन कहानियोंशतरंज के खिलाड़ी, कफन और पूस की रात का है।
बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं में ठंड के स्थिति-चित्र बार-बार आते हैं, विभिन्न संदर्भों आयामों से जुड़कर। वह ठंड लेखक की दृष्टि में शहर और गाँव में रहने वाले निम्न वर्ग के लोगों की त्रासद जिन्दगी को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली स्थिति है। चाहे ओस लघुकथा हो, चाहे औरत और कुर्सी’, चाहे अलाव के इर्द-गिर्द हो, चाहे अकेला कब तक लड़ेगा जटायु’—बलराम सर्वत्र जाड़े की रात, ठंड की पीड़ा और सिहरन पैदा करने वाली हवा के काव्यात्मक, चित्रात्मक, बिम्बात्मक विधायक हैं। ऐसे उनकी लघुकथाओं में, पात्रों के क्रियाकलाप भी गत्यात्मक चित्र खींचते हैं। अंगूठी शीर्षक लघुकथा में जमूरे की चादर और जमूरे की हरकतों का चित्रमय दृश्यांकन किया है। 'अलाव के इर्द-गिर्द में इसी प्रकार शुरू से लेकर चित्रात्मक दृश्य और पात्रता साकार हुई है। टखनों तक खेत में धँसे मिसरी ने सीधे खड़े होकर पानी से भरे अपने पूरे खेत पर निगाह डाली। नलकूप की नाली में बहते पानी में उसने हाथ-पाँव और फावड़े को धोया और श्यामा के बाद अपना खेत सींचने के इन्तजार में अलाव ताप रहे बदरू के पास जा बैठा।... चिंगारी कुरेद रहे बदरू से डण्डी को लेकर मिसरी ने जगह बनाई और फेफड़ों में पूरी हवा भरकर चार-छः लम्बी फूँक उसकी जड़ में झोंकी। झरी हुई राख के ढेरों चिन्दे हवा में उड़े और दूर जा गिरे। अलाव ने आग पकड़ ली। कुहासेभरी उस सर्द रात के तीसरे पहर लपटों के तीव्र प्रकाश में बदरू ने श्यामवर्ण मिसरी के तांबई पड़ गये चेहरे को देखा और अलाव के इर्द-गिर्द बिखरी डंडियों-तीलियों को बीनकर उसमें झोंकने लगा। यह चित्रात्मक दृश्य प्रमाणित करता है कि बलराम शब्दों की आत्मा को खूब जानते हैं और एक कुशल फोटोग्राफर की भांति स्थिति या पात्रों के व्यक्तित्वनिरूपण में रेशा-रेशा उतारते हैं।
बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं में मुख्यरूप से तीन वर्गों के पात्र हैं। पहले वर्ग के पात्र वे हैं जो नगर-महानगरों में रहते हैं। दूसरे वर्ग में वे लोग आते हैं जो गाँव छोड़कर शहर में आजीविका के लिए रह रहे हैं। तीसरा वर्ग उन लोगों का है जो गाँवों में जनमे, बढ़े और वहीं के वातावरण में जी रहे हैं। अग्रवाल जी ने अपनी लघुकथाओं में इन तीनों वर्गों के लोगों को ध्यान में रखकर ही अपनी लघुकथाओं में संवाद योजना की है। शहरी वर्ग के पात्र तो शुद्घ भाषा अंग्रेजीनुमा भाषा बोलते है; पर गाँव से शहर में आये लोगों की भाषा में शहरी और ग्रामीण संस्कार मिले-जुले हैं। जो लोग बिलकुल गाँवों के हैं, वे आंचलिक भाषा का प्रयोग करते हैं। शहर में पलने वाले विभिन्न वर्ग के पात्र अपने अनुकूल भाषा बोलते हैं। बदलेराम कौन है में चरवाहा बोलता है—“तुम सब सुनोवोट के वास्ते आने वालों की अगवानी के लिए गाँव के हर मकान की छत पर बच्चे हाथों में ढेले लिये खड़े हैं। पुश्तैनी गाम में ननकू करन से कहता है—“तू देख लीजो, अबकी बार तिल्लोकी कू कोई ना हरा सकै। अबे भाड़ में जाय ससुरा तिल्लोकी। अपन तो वोट देंगे ठाकुर साब कू। ननकू बोला।
इस प्रसंग में एक मार्के की बात है कि अग्रवाल जी ने अपनी लघुकथा की प्रस्तुति-काल में थ्री एक्ट प्ले की तरह अधूरे वाक्यों दूसरे पात्रों द्वारा पूर्ण कराये हैं। संवादों के ऐसे आयाम केशव की रामचन्द्रिका या रसखान के सवैयों की नाटकीय काव्यात्मक त्वरा की याद दिलाते हैं। अंगूठी में—“नहीं दूँगा...नहीं दूँगा यह अंगूठी ...। बन्द मुट्‌ठी को अपनी डंडा जांघों के बीच फँसाकर लड़का चिल्लायाभुखमरी के दिनों सेरभर चावल जबरन हमारे घर डालकर साहूकार मेरी बहन को ले गया था। माँ उसी दिन से पागल हो गई है।... सब डरपोक हैं... मुझे साहूकार के खिलाफ लड़ना है...मुझे...।
इस प्रकार, बलराम अग्रवाल हिन्दी के उन कुछेक लघुकथाकारों में हैं, जिन्होंने लघुकथा को कहानी के तत्त्वों के स्पर्शमात्र के कथाभास के आयाम निर्मित कर इसके एक स्वरूप को निर्धारित किया है। बेकारी, मानवीय संवेदनहीनता, मानसिक जड ता और आजादी की विडम्बना, राजनीतिक छलावा, अवशिष्ट जमींदारी, जातिगत पाखंड, आजादी के प्रति मोहभंग आदि आज की जिन्दगी की सचाइयों को अपने लघुकथा-संसार का विषय चुनकर अग्रवाल जी ने समकालीन चेतना को यथार्थवादी स्वर प्रदान किया है। आज के गाँवों की दुर्दशा, अपहरण, उनके आपसी टकराव, पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी की आस्थाओं का पारस्परिक संघर्ष, नागरिक जीवन में पैसे के लिए फैला देह व्यापार भी इनकी लघुकथाओं के मूलस्वर बने हैं। बलराम अग्रवाल अपनी अधिकांश लघुकथाओं में एक बिन्दु पर हर जगह केन्द्रित दीखते हैं। यह बिन्दु है शहर से गाँवों तक फैले हुए राजनीतिक छल-छद्म और वासनापूर्ति की घृणित व्यूह-रचना! कृषक जीवन का सीधा-सादा रूप आज कैसे धन्ना सेठों के प्रभाव में आकर अस्तित्वहीन होता जा रहा है, अग्रवाल जी ने अपनी कई लघुकथाओं में यथार्थवादी परणति के रूप में उजागर किया है! उनकी लघुकथाओं में जो लेखकीय संवेदनशीलता, अनुत्तेजना से उत्पन्न होने वाली उत्तेजना और व्यंग्य के तीखे स्वर-संधान हैं, वे कम ही लघुकथाओं में देखने को मिलते हैं। घटना-स्थिति को चित्रात्मक बिम्बात्मक आयाम देकर लघुकथा की प्रस्तुति-कला की दुर्लभ क्षमता इन्हें प्राप्त है।***

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

कलाजयी बलराम अग्रवाल की कालजयी लघुकथाएं-3/डॉ. ब्रजकिशोर पाठक

दोस्तो, 26 नवंबर 2011 तथा 7 दिसंबर 2011 के अंकों में आपने अलाव फूँकते हुए में संकलित मेरी 25 लघुकथाओं पर डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक के लेख की दूसरी किश्त पढ़ी। इस अंक में प्रस्तुत है उक्त लेख की तीसरी किश्तबलराम अग्रवाल
(तीसरी किश्त)
इसी प्रकार अकेला कब तक लड़ेगा जटायु एक नये मिजाज की लघुकथा है। इस लघुकथा में शाश्वत संवेदना है जो आज की सभ्यता की उपज है। आज के आदमी का एक वर्ग समाज के परम्परागत आदर्शों, नैतिकता को तिलांजलि देकर अपहरण, बलात्कार, हत्या में लगा हुआ है। अपराधियों को अपराध में संलग्न देखकर भी हम अलग कट जाते हैं। जो एकाध लोग दुस्साहस दिखाकर भिड़ना चाहते हैं वे अकेले पड जाते हैं और जोखिम उठाकर शारीरिक दंड के शिकार हो जाते हैं। अगर अपराधियों से भिड़ने के लिए लोगों में एकता हो जाय तो इक्के-दुक्के इन गुण्डों की एक न चले! यह लघुकथा इसी तथ्य पर आधारित है; पर बीच-बीच में सेक्स की मनोवैज्ञानिक सचाई को भी उकेरा गया है। लेखक ट्रेन में यात्रा कर रहा है। किसी स्टेशन पर लेखक और एक नवयुवती को छोड़कर सारे पंसिजर उतर जाते हैं। सर्दियों के दिन हैं। कम्पार्टमेंट की एकांतता लेखक को कामुक बना देती हैउस अकेली सिहरती-सहमी युवकी को देखकर लेखक सोचने लगता कि कितना अच्छा होता कि उसकी पत्नी मायके होती या अस्पताल में पड़ी होती! लेखक लड़की के पास जाकर बैठ जाता है। अगले स्टेशन पर तीन लोग उस कम्पार्टमेंट में प्रवेश करते हैं। उनमें से दो तो उन दोनों के सामने बैठते हैं और तीसरा कहीं दूर संडास के पास। सामने बैठे दोनों यात्रीी लेखक और उस युवती से परिचय पूछते हैं। लेखक सहम जाता है। पर युवती बताती है कि वह उसकी पत्नी है। इसी बीच दोनों युवक गुण्डे तेरे शौहर की ऐसी-तैसी कहकर लड़की को लेखक की बाँह से छुड़ाकर एक झापड़ मारते हुए उठा लेते हैं। लड़की बचाने को चीख भरती जाती है, छटपटाती है, चिंघाड़ती है, पर गुण्डों के बलप्रयोग से लेखक निस्सहाय हो जाता है। उधर संडास के पास बैठा हुआ आदमी लड़की को छोड़ देने की चेतावनी देता है। गाड़ी चली जा रही है। वह तीसरा यात्री गुण्डों से हाथापाई, मारपीट करता जाता हैअकेले जटायु की तरह; जैसे सीताहरण काल में रावण से जटायु अंतिम साँस तक युद्घ करता रहा। कई स्टेशनों के गुजर जाने पर लेखक पेशाब करने के बहाने कम्पार्टमेंट के संडास के पास जाने की हिम्मत जुटाता है। वह दरवाजा खोलता है। आहट पाकर वह लेखक को धिक्कारता हैजैसे जटायु ने सीताहरण में अपनी युद्घगाथा कही थी। जटायु ने तो कहते समय पश्चातापमयी करुणा से सिक्त होकर प्राण त्यागे थे, पर वह तीसरा आदमी क्रोधाभिभूत पश्चाताप से द्रवित होकर लेखक को धिक्कारता है—“मर मिटने का तिलभर भी माद्दा तुम अपने अंदर सँजोते तो लड़की बच जाती... और गुण्डे...। लग रहा था वह तीसरा यात्रीी लेखक पर थूक रहा हो। अग्रवाल जी ने इस लघुकथा को विश्वसनीयता का आयाम देने के लिए सारी घटनाओं को अपने अनुभव से जोड़कर प्रस्तुत किया है और संवेदित रूप प्रदान करने के लिए आत्मकथ्य शैली को मौजूं बनाया है।
बलराम अग्रवाल केवल वर्तमान नगर-महानगर जीवन की विडम्बनाओं के कथाकार नहीं हैं। ये केवल उन लोगों तक अपनी लघुकथाओं को सीमित नहीं रखते जो जीने-कमाने के ख्याल से शहरों में नौकरी करते या मजदूर बने हुए हैं। नाना प्रकार के सम्पन्नों द्वारा राजनैतिक चालबाजी करने वाले ही इनकी कथाओं में नहीं आते, बल्कि वे लोग भी यहाँ मौजूद हैं जो शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आर्थिक शोषण के शिकार होकर छटपटाहटभरी जिन्दगी जीने के लिए विवश है। अग्रवाल जी के कथाकार का दूसरा रूप आज के गाँवों से भी जुड़ा है। इसी कारण ग्राम्य-जीवन से जुड़े हुए हिन्दी कहानी-लेखन में जो ग्राम-कथा ओर आंचलिक-कथा के आंदोलन चले, उनको भी इन्होंने अपनी लघुकथाओं में समेट लिया है। वे एक ओर अपनी कथाओं में परम्परावादी अंधविश्वासों में जीने वाले लोगों का चित्रण करते हैं तो नई जागरूकता के प्रतीक युवापीढ़ी की मानसिकता को बखूबी उतारते हें। रामभरोसे’, ‘बदलेराम कौन है’, ‘अलाव के इर्द-गिर्द आदि लघुकथाएं वस्तुतः आज के दूरदराज गाँवों में फैली हुई पुरानी और नई पीढ़ियों के टकराव और नवजागरण के आयामों का सटीक संदर्भन हैं। यह उनकी यथार्थवादी संवेदनशीलता का प्रमाण है।
राम भरोसे शीर्षक लघुकथा ग्राम-कथा और आंचलिक-कथा का समन्वय है। रामभरोसे लघुकथा में ग्रामीण युवावर्ग की नवजाग्रत मानसिकता को आयाम देकर पुरानी पीढ़ी के अंधविश्वासों से टकराव का बड़ा ही जीवंत चित्रण है। रामभरोसे नई पीढ़ी का और उसकी माँ तथा चाचा रामआसरे पुरानी पीढ़ी के प्रतीक हैं। रामभरोसे चाहता है कि जिस पंडित ने उसकी बहन के साथ योग किया है, उसे वह या तो टाँगी से टुकड़े-टुकड़े कर देगा या उसकी बहन को अपनाकर उसे उसकी दलित जाति में शामिल होना पड़ेगा। रामआसरे उसे समझाता है कि उसे ब्रह्महत्या का पाप लगेगा। उधर रामभरोसे की माँ अपनी बेटी को पीटती-कोसती है कि पंडित अगर मर गया तो ब्रह्महत्या का पाप लगेगा, बदनामी अलग होगी और हम लोग फाँसी पर चढ़ेंगे अलग। उधर रामभरोसे को झटका देकर गुस्से में जाते देखकर घर की औरतों और बच्चों के बीच कुहराम मच जाता है। रामआसरे ब्राह्मण की हत्या के परिणामों की कल्पना मात्र से टूट जाता है। रामभरोसे का तर्क है कि महापंडित रावण को मारने से जब राम का परलोक नहीं बिगड़ा तो इस महामूरख पंडित को मारने से भी कुछ नहीं होगा। रामआसरे रामभरोसे को कुल्हाड़ी फेंक देने का आग्रह करता है, और पंडित के मरने का पाप न लेने की बात समझाता है। वह रहस्य खोलता है कि उसकी बहन और कोई नहीं, बल्कि उसकी माँ के साथ पंडित के अत्याचार का फल है। उसको नरक अवश्य मिलेगा। यह सुनते ही रामभरोसे का पारा और चढ जाता है। वह कुल्हाड़ी को और ठीक से पकड लेता है और कहता है कि वह पंडित की हत्या अवश्य करेगा और बिरादरी वालों को चेतावनी देगा कि भविष्य में कोई भी अपने बच्चे का नाम रामआसरे या रामभरोसे न रखे। इस प्रकार अग्रवाल जी ने इस लघुकथा में गाँवों की नीची जाति में पैदा हुई नास्तिकता, जाति-वर्ग भेद को पैने व्यंग्य से उजागर करते हुए संकेत दिया है कि गाँवों के तथाकथित उच्च-जाति के लोग चरित्र से घिनौने हैं। रामभरोसे और रामआसरे नीची जाति के बीच परम्परा से चली आ रही पापपुण्य की जड़तावादी भावना को संकेतित करते हैं। यह लघुकथा अपनी सम्पूर्ण प्रस्तुति में ग्राम-कथा के अंतर्गत आंचलिक कथा का मिजाज दिखलाती है। यहाँ पात्रों के नाम के साथ नई पीढ़ी की जागरूकता व्यंजित होती है। पात्रानुकूल आंचलिक संबंधों से जुड कर यह रचना यथार्थवादी चेतना की लेखकीय पकड़ को जनवादी रचना सिद्घ करती है।
इस प्रसंग में बलराम अग्रवाल की बहुचर्चित और बहुप्रशंसित लघुकथा अलाव के इर्द-गिर्द का मूल्यांकन आवश्यक है। यह एक सशक्त ग्राम आंचलिक कथा है। इस लघुकथा में बदरू-मिसरी के वार्तालाप के द्वारा लेखक ने प्रतिपादित किया है कि आजादी के बाद भी जमींदारी प्रभाव और शोषण, उत्पीड़न और हड़पने की नीति बरकरार है। श्यामा और बदरू तथा चौधरी की सूच्यकथाओं के माध्यम से लेखक ने ग्राम्य-जीवन में अभी भी चल रही शोषण और हड़प-नीति को साकार करते हुए प्रजातंत्र और आजादी की व्यर्थता को उजागर किया है। न्याय-प्रक्रिया पर यहाँ करारी चोट मारी गयी है। इस रचना में मिसरी बदरू से अलाव के पास बैठकर बीड़ी का कश मारते हुए कहता है—“ई ससुर सुराज तो फिस्स हुई गया... गाँधी का छोरा पिर्जातन्त... ई कोर्ट-कचहरी का न्याय तो भैया पैसे वालों के हाथों में जा पहुँचा। सब बेकार... थारी जमीन दबाते समय ही हम एका बरतते तो चौधरी आज इत्ता हावी न हो पाता... एका नहीं होगा तो थोड़ा-थोड़ा करके हर किसान का खेत चबा जाएगा चौधरी... थारे से निबटते ही इस श्यामा की जमीन पर गड़ेंगे उसके दाँत। ये सारे संवाद आज की ग्रामीण जिन्दगी की विवशता को हर तरफ से रेखांकित करते हैं। गाँधीवादी विचारधारा की निरर्थकता और आजादी के प्रति ग्रामीणों के मोहभंग को यहाँ बड़ी ही कलात्मक दक्षता से व्यंजित किया गया है। कितनी बड़ी सच्चाई है कि चौधरी जैसे लोग पैसे के बल पर कोर्ट-कचहरी के माध्यम से ग्रामीणों की जमीन अपने पक्ष में न्याय खरीदकर हड़प जाते हैं। इस लघुकथा में मिसरी देखता है कि खेत पटाता हुआ श्यामा गर्वान्वित है कि बित्ता-बित्ता जमीन उसी का है। श्यामा के इस गर्व से मिसरी में निर्भीकता आती है। इस लघुकथा में कुछ ऐसी बातें हैं जो समासोक्ति के रूप में प्रयुक्त होकर सतही बातों के माध्यम से गहरी बातें समझाती हैं। अलाव निश्चित रूप से हमारे गाँव, देश, समाज, परिवार का प्रतीक है और मिसरी और बदरू का रह-रहकर बुझते अलाव को जलानानवजागरण तथा अपने अधिकारों के प्रति सजग रहने की बात संकेतित करता है। इस लघुकथा में मिसरी की लम्बी फूँक से अलाव को फिर से जगाने की बात कही गई है। इसका अर्थ है कृषकों के भीतर श्यामा के गर्व से प्रेरित अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता उत्पन्न होना। फूँक के प्रभाव से राख बनकर दूर तक उड.ने वाली चिंदिया वस्तुतः चौधरी-जैसे प्रभावशाली धन्ना सेठ के प्रभावहीन हो जाने की संकेतक हैं। बिखरी हुई तिल्लियाँ अलाव की आँच में झोंकी जा रही हैं। ये तिल्लियाँँ हैं ग्रामीण किसानों के आपसी बिखराव के प्रतीक, जो जल रही नई जागरूक चेतना की आँच में जलकर राख बनेंगे।
डॉ. किरन चन्द्र शर्मा ने इस लघुकथा में प्रतीकात्मक यथार्थ के रूप देखे हैं। उनका मानना है कि अलाव गाँव और गरीबी से जुड़ा शब्द है...हम गाँव के अलाव के इर्द-गिर्द से शुरू होकर उस व्यापक अलाव की ओर अनजाने ही बढ़ने लगते हैं जिसमें हमारा घर, हमारा पड़ोस, हमारा गाँव और हमारा देश जल रहा है और हम केवल इसके इर्द-गिर्द बतियाते चले जा रहे हैं।... कितनी बड़ी विवशता के बीच जी रहे हैं हम कि सब-कुछ जाता देखकर भी उसके इर्द-गिर्द इकट्‌ठा भर होने में अपनी सार्थकता मान लेते हैं...। दरअसल जो अलाव जलाया है बदरू ने, मिसरी उसे धीरे-धीरे कुरेदता हुआ अपनी आँच से फूँक देता है। बात सुराज से शुरू होकर पिर्जातन्त्र, तथा कोर्ट-कचहरी से होती हुई न्याय व्यवस्था पर पहुँचती है और वहाँ से खेत सींचते हुए श्यामा से जुड़कर जमींदार पर आकर ठहर जाती है और अलाव की आँच में पड ने लगती है; पर मिसरी फूँक मारकर उसे जला देता है। व्यक्तिगत अनुभव के दायरे में सभी कुछ समेटता हुआ यह लघुकथाकार भिन्न-भिन्न व्यापक आयाम दर्शाता हुआ चलता है। मजेदार बात यह है कि जहाँ लगता है, अलाव बुझ रहा है, वहाँ फिर से कुरेदता हुआ फूँक मारने लगता है।
बलराम अग्रवाल की लघुकथा बदलेराम कौन है एक ग्रामीण लघुकथा है। इस रचना में ग्राम की बदहाली और ग्रामोत्थान का आश्वासन देने वाले राजनेताओं की मुखौटेबाजी को यथार्थ स्वर दिया गया है। लेखक ने बदलेराम को चुनावी जीत हासिल कराने वाला राजनीतिक दलदल बताया है। नेताजी का यह नामकरण उनकी चारित्रिक गुणवत्ता को उजागर करता है। लेखक बताता है कि आजादी के इतने वर्ष बीत गये; पर बदलेराम अपने दल के उम्मीदवार व कार्यकर्त्ताओं के साथ कीचड़ भरे गड्ढों के कारण दो किलोमीटर पीछे कार छोड़कर पैदल गाँव पहुँचता हैं। मैं जो उस इलाके से उम्मीदवार के रूप में खड़ा है, भी उनके साथ है। ग्रामीणों पर सहानुभूति जताकर वह उनकी मुख्य समस्या की जानकारी चाहता है। बदलेराम इस गाँव की मुख्य समस्या पानी बताता है, परन्तु उम्मीदवार से इस जानकारी लेने का मतलब जानना चाहता है। वह बताता है कि वह ग्रामीणों को सिंचाई के लिए नलकूप देने का आश्वासन देगा। बदलेराम का चेहरा जहरीला हो जाता है, क्योंकि बिजली के बिना नलकूप नहीं चल सकता। ... मैं बिजली की लाइन खिंचवा देने की बात कहता है तो बदलेराम बताता है कि यह झाँसा तीस वर्ष पहले ही ग्रामीणों को दिया जा चुका है। उम्मीदवार बताता है कि मैं अतिरिक्त विश्वास के साथ कहूँगा कि गाँव के किनारे-किनारे नहर खुदवा दिया जायगा। बदलेराम उसकी तरह बाहर से लाया गया गँवई उम्मीदवार नहीं, वह अपनी पार्टी का कर्मठ कार्यकर्त्ता है। वह उसकी बात से क्षुब्ध हो जाता है—“कम-से-कम दस चुनाव उनके सिर से गुजर चुके हैं... वोटर अब उतना कच्चा नहीं रहा। वह कहता है। इसी समय खेत के किनारे बैठा हुआ चरवाहा किस्म का एक युवक हाँक लगाता है और उन लोगों से पूछता है कि उनमें से बदलेराम कौन है? युवक की आतंकवादी मुद्रा देखकर बदलेराम की घिग्घी बँध जाती है। मैं थरथराती आवाज में उस युवक से पूछता है कि वह किस बदलेराम को जानना चाहता है। युवक गाली देते हुए बताता है कि वही साला, जिसने आजादी की हवा तक पहुँचने नहीं दी गाँव में। वह क्रोधित होकर बताता है कि हर मकान की छत पर बच्चों के हाथों में ढेले हैं। वे खड़े हैं वोट माँगने वालों के स्वागत में। इस प्रकार, प्रस्तुत लघुकथा सीधे तीर मारती हुई हमें बताती है कि आजादी के बाद चुनावों में सत्ता के लोभी किस प्रकार वाग्जाल, झूठे आश्वासन और फरेबी झाँसों के मीठे बोल दे-देकर सारे ग्रामीणों को ठगकर अपना घर भरने में लगे रहे और बेचारे ग्रामीण आजादी के नाम पर होने वाले सारे विकास-कार्यों से वंचित होते रहे। यहाँ चरवाहे के क्रोध में, बच्चों के आक्रोश में, लेखक ने जो ग्रामीणों के बीच आई चुनाव की महत्ता का ज्ञान चित्रित किया है, वह प्रगतिशील लेखकों की प्रचारवादिता का रूप न होकर यथार्थवादी सच्चाई की पहचान है। कितनी बड़ी सच्चाई है कि चुनाव-पर-चुनाव होते रहे और ग्रामीणों को लुभावने आश्वासन देकर नेता चुनाव जीतकर मालामाल हो गये! गाँवों में न तो आवागमन का मार्ग बना, न बिजली मिली, न पेयजल की समस्या ही सुलझाई गई! सिंचाई की व्यवस्था की बात कौन कहे! इन अनपढ गँवारों को अपनी आजादी के तहत मिलने वाले अधिकारों और नेताओं के कर्त्तव्य का ज्ञान हो गया है। ये अब ठगे नहीं जा सकते। यह जानकारी राजनेताओं को भी मालूम हो गयी है कि लोग अब लुभावने आश्वासनों के जाल में नहीं फँस सकते! बच्चा-बच्चा जाग गया है। अग्रवाल जी ने ग्रामीण जागरण की इस सच्चाई को यथार्थ की अनुभूति से जो व्यंग्य के सीधे प्रहार इस लघुकथा में दिए हैं, वह उनकी जनवादी दृष्टि को अधिक जानदार बनाती है। (चौथी व अंतिम किश्त आगामी अंक में…)

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

कलाजयी बलराम अग्रवाल की कालजयी लघुकथाएं-2/डॉ. ब्रजकिशोर पाठक


दोस्तो, 26 नवम्वर 2011 के अंक में आपने अलाव फूँकते हुए में संकलित मेरी 25 लघुकथाओं पर डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक के लेख की पहली किश्त पढ़ी। इस अंक में प्रस्तुत है उक्त लेख की दूसरी किश्तबलराम अग्रवाल

(दूसरी किश्त)

बलराम अग्रवाल ने स्वातंत्र्योत्तर शहर, महानगर और गाँवों की बदल रही दोगली मानसिकता और संस्कृति को अपनी लघुकथाओं का आधार बनाया है। शहरों-महानगरों में गाँवों से भागे लोगों की स्वार्थपरक जड़ता भी इनकी लघुकथाओं का केन्द्र बिन्दु है। दूर-दराज स्थित गाँवों में पुरानी और नई पीढ़ी का मानसिक टकराव, यथास्थितिवादी जीवन- मूल्यों की आँच में जलती हुई उनकी जिन्दगी इनकी लघुकथाओं में घटना और स्थिति के मेल से कथाभास की संरचना करती है। कहीं तो शहर से लेकर गाँवों तक फैली हुई नई पीढ़ी की जागरूकता मिलती है और कहीं बेहद ग्रामीण संस्कार से जुड़े अपनी दुःस्थिति पर किंकर्तव्यविहीन लोग करुणा में भीगते मिलते हैं। इसी कारण इनकी लघुकथाओं में कहानी की सतर्कता मिलती है तो नगर, ग्राम और आंचलित कथाओं का समन्वित संदर्भन। इस प्रसंग में उनकी एक कलाजयी लघुकथा गुलमोहर की प्रतीकात्मक व्यंग्यात्मक प्रस्तुति द्रष्टव्य है। आजादी के पूर्व देशप्रेमियों का दिया गया बलिदान और आजादी के प्रति आज के आदमी का मोहभंग प्रस्तुत लघुकथा का मूलाधार है। अग्रवाल जी ने इस कथ्य-सत्य को आधार बनाकर यह सुघर लघुकथा लिखी है। इस लघुकथा की प्रस्तुति उन लोकगीतों की भावभूमि पर आधारित है, जिनमें कहा गया है कि पति ने जिस पौधे को लाकर विदेशगमन किया, वह हरा-भरा होकर फूल-फल देने लगा है। पर, उसके लगाने वाले पति अब तक नहीं लौटे। वह लोकगीत प्रतीकात्मक ढंग से पत्नी की कामपीड़ाओं को मुखरित करता है। बलराम अग्रवाल ने कुछ इसी पद्घति पर गुलमोहर की रचना की है। गुलमोहर के पौधे के साथ आजादी के सपनों के बिखर जाने की पीड़ा की बड़ी ही सफल कलात्मक प्रतीकात्मकता की योजना इस लघुकथा में हुई है। बात यह है कि जतन बाबू अपने मकान के लॉन में सूरज की ओर पीठ कर बैठे-बैठे अपने आप में सोचते रहते हैं। यहाँ जतन बाबू आजादी के सपनों को जतन से संजोकर रखने वाले यथा नाम तथा गुण पुरुष हैं। सूरज की ओर पीठ कर उनका बैठना वर्तमान आजादी के प्रति उनकी दृष्टिपरकता है। वे देखते हैं कि गुलमोहर दिन-ब-दिन झरता जाता है। आजादी का प्रतीक गुलमोहर का झरते जाना आजादी के सपनों का मिटते जाना प्रतिपादित करता है। गुलमोहर के पेड से जतन बाबू की संवेदना इतने गहरे रूप से जुड़ी हुई है कि धूप के तेज होने पर भी वे वहाँ से नहीं हटते। लेखक अपने मकान मालिक लालाजी से गुलमोहर के प्रति जतन बाबू की इस आत्मीयता का रहस्य जानना चाहता है। लालाजी बताते हैं कि गुलामी के दिनों में जतन बाबू ने कई अंग्रेज अफसरों को बम से उड़ाया था। इनके एक बागी दोस्त ने इस गुलमोहर के पौधे को यह कहकर रोपा था कि इस पर आजाद हिन्दुस्तान की खुशहालियाँ फूलेंगी। लेकिन उसी रात वह साथियों के साथ पुलिस से घिर गया और शहीद हो गया! जतन बाबू ने तभी से इस पौधे को सींच-सींचकर वृक्ष बनाया है। खाद-पानी मिलने से यह हरा रहता है, लेकिन देश को आजाद हुए इतने वर्ष बीत गये, इस पर फूल एक भी नहीं खिला। इस लघुकथा द्वारा बलराम ने व्यंग्य किया है कि जिस आजादी की प्राप्ति के लिए क्रांतिकारियों ने अपने को शहीद बनाया, इसे प्राप्त करने के बाद आजादी के दीवानों के सपने बिखर गये और एक भी उनकी मनोकामना सिद्घ नहीं हुई।
बलराम अग्रवाल ने कलाजयी ही नहीं कालजयी लघुकथाएं भी लिखीं हैं। उनकी लघुकथा तीसरा पासा इसी प्रकार की है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में, पूंजीपतियों का वर्चस्व राजनीति में कैसे बनता है, चुनावी राजनीति व्यावसायिक कैसे होती जा रही है, और आम आदमी चुनाव से कैसे ठगा जाता हैइस लघुकथा के मूल बिन्दु हैं। लेखक ने इस लघुकथा में इन्हीं बिन्दुओं के, प्रदेश पार्टी अध्यक्ष कुबेर पाण्डे और जिलाध्यक्ष शर्माजी के तर्कों-वितर्कों के माध्यम से, बड़े तीखे व्यंग्य के शर-संधान किये हैं। व्यंजना-शक्ति से सम्पन्न यह लघुकथा अंततः प्रतीकात्मक संदर्भन देकर प्रस्तुति कला की अद्‌भुत दक्षता प्रमाणित करती है। बात यह है किचुनाव होने वाला है और प्रदेश पार्टी अध्यक्ष और जिलाध्यक्ष उम्मीदवारों के चयन पर शतरंज के पासे एक-दूसरे पर फेंकते हैं। जिलाध्यक्ष अपने इलाके के लिए तपनेश बाल्मीकि को सही उम्मीदवार ही नहीं मानते हैं, वह शरणबाबू को चाहते हैं। तपनेश का निम्न, पिछड़ी और सभी जातियों पर प्रभाव है। प्रदेशाध्यक्ष की मान्यता है कि वह निर्धन तो है, पर पार्टी से मिलने वाले पैसे से वह चुनावी जीत अवश्य हासिल करेगा। लेकिन शर्माजी चाहते हैं कि उम्मीदवार अपने पैसे से चुनाव लड़े और पार्टी से मिलने वाला धन आपस में बाँट लिया जाय। पार्टी के कार्यकर्त्ता भी उम्मीदवार के पैसे हड़पें। पाण्डेजी के आगमन पर कमेटी हॉल में कार्यकर्त्ताओं की बैठक बुलाई जाती है। अग्रवाल जी कार्यकर्त्ताओं के रहन-सहन और व्यवहार पर चित्रात्मक व्यंग्य के गोले दागते हुए लिखते हैं—“एकदम सफेद कलफदार कड़क कुर्ता-पाजामा और टोपी पहनकर शहर के नामी-गिरामी लौंडे-लफाड़ों को प्रमुख कार्यकर्त्ता बनाकर अपेक्षाकृत अनुशासित ढंग से यहाँ-वहाँ बैठा दिया गया है। इस बैठक में कुबेर पाण्डे और शर्माजी एकदूसरे पर उम्मीदवारचयन के प्रश्न पर पासे-पर-पासे फेंकते हैं। उनके आपसी तर्क-वितर्क हास्य के साथ व्यंग्य की फुलझरियाँ छोड़ते हैं। शर्माजी का तर्क हैतपनेश के नाम पर यहाँ के कार्यकर्ताओं में रोष है। उसकी उम्मीदवारी से पार्टी की साख और एकता खतरे में पड जाएगी।... प्रभाव उम्मीदवार का नहीं, कार्यकर्ताओं का होता है। पार्टी चुनाव लड़ने के लिए धन देती है। ...तपनेश और शरणबाबू में एक बुनियादी अन्तर यह है कि तपनेश मजदूर नेता होने के कारण लोकप्रिय है, जबकि शरणबाबू धनी होने के नाते जाने जाते हैं।...तपनेश का स्वभाव विद्रोही है। वह अधिकारों की लड़ाई छेडकर सबों के लिए ही नहीं, पार्टी के लिए भी खतरा बन सकता है। शरणबाबू पूंजीपति है। वे अधिकार पाने की लड़ाई सपने में भी नहीं लड़ सकते। फिर सबसे बड़ी बात है कि चुनाव लड़ने के लिए पार्टी से मिलने वाला धन आपके पास रहेगा। शर्मा जी ने तपनेश और शरणबाबू का जो यहाँ तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है, उसमें हास्य के साथ व्यंजना के कई स्तर ध्वनित होते हैं। किसी पार्टी के अधिकारी चुनावकाल में धन बटोरने की मुख्य प्रवृत्ति से घिरकर सही को गलत और गलत को सही सिद्घ करते हैं, यही यहाँ दिखलाया गया है। चुनाव में उम्मीदवार की हार और जीत से इन अधिकारियों का लगाव नहीं होता। चुनाव के नाम पर धन संचय और खाने-पकाने की व्यावसायिकता मुख्य होती है। बलराम अग्रवाल लिखते हैं किशर्मा जी के तर्कों से लगा कि उन्होंने मछली फँसा ली है। वे व्यंग्य को और तीखा करते हुए लिखते हैं कि—“कमेटी हॉल की दीवारों पर लिखे दलितों और शोषितों के उत्थान सम्बन्धी गाँधी, नेहरू, अम्बेडकर के सद्‌वाक्यों की ओर पीठ किए बैठे, सुलह से प्रसन्न कार्यकर्त्ता जलपान में मशगूल हो गये। इस लघुकथा की गहरी मार तब देखने को मिलती है जब लेखक अंत में टिप्पणी देता है—“शोषण से त्रस्त दिन-रात चूँ-चाँ चिल्लाता हॉल की छत के बीचों-बीच लटका पंखा बिना किसी विद्रोही स्वर के दनादन घूमता रहा। यहाँ छत पूरे देश का, पंखा शोषित-पीड़ित देश के आम आदमी का प्रतीक है। ऐसी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति के साथ गहरे व्यंग्य-रंग से सना हुआ वाक्य कम ही लघुकथाओं में देखने को मिलता है। इस लघुकथा में जो तराश है, उत्सुकता की क्षमता है, व्यंग्य के विभिन्न स्तरों के उद्‌घाटन की जो दक्षता है, वह अन्यत्र नहीं दीखती। इस लघुकथा के कॉमा, फुलस्टॉप बोलते हैं और आज के राजनीतिक प्रजातंत्र के माहौल की विद्रूपता को लेखक यथार्थ के स्तर पर बखूबी उतारते हैं। इस लघुकथा में व्यंग्य के वो डंडे चलते हैं कि उसकी मार से अलग-बगल का आदमी भी तिलमिला उठता है। ऐसी सशक्त प्रस्तुति के लिए यह लघुकथा बलराम अग्रवाल को अनन्यता प्रदान करती है।
अंतिम संस्कार बलराम अग्रवाल जी की एक नगर-कथा है। यह उनकी यथार्थवादी संवेदनहीन मानवीय विवश चेतना की परिणति है। शहर में लगे कर्फ्यू के दौरान पिता के अंतिम संस्कार की लेकर पुत्र की विवशता से उत्पन्न संवेदनशून्यता की परिणति इस लघुकथा में जो चित्रित है, वह अत्यन्त मर्मघाती है। इतना होते हुए वातावरण की कठोर जड़ता के प्रतिपादन में यहाँ हास्य के साथ व्यंग्य के गोले दागे गये हैं। कितनी बड़ी लाचारी है कि पुत्र का हाथ खाली है और चिकित्सा के अभाव में उसके पिता तड़प-तड़प कर दम तोड देते हैं। इधर शहर में कर्फ्यू लगा हुआ है और पुलिस की गश्त जारी है। सब लोग अपने-अपने घरों में कैद है। स्थिति यह है कि लोग अखबार पर पाखाना करके पुटली बनाकर फेंक दे रहे हैं। बड़ी हिम्मत करके पिता का पुत्र खिड़की खोलकर देखना चाहता है कि वह घर में पड़े मृत पिता का अंतिम संस्कार कर सकता है कि नहीं? पुत्र और उसकी पत्नी ठीक से रोकर अपनी पीड़ा दृष्टिगत नहीं कर सकतेऐसा आतंक है। पुत्र अंत में निर्णय लेता है कि आत्मरक्षा के लिए उसने जो औजार रखे हैं, उसी को पिजाकर उससे अपने पिता का पेट फाड़कर सड़क पर फेंक देगा कि दंगे के दौरान उसकी हत्या की गई है। वह खंजर को अपने सिरहाने रखकर आँसुओं से भरी आँखें लिये रात के गहराने की प्रतीक्षा में खाट पर पड जाता है। लघुकथा एक मर्मभरी विवशता की करुणा बहाकर यहीं पर समाप्त तो होती है; पर अपनी सम्पूर्ण प्रस्तुति के साथ कर्फ्यू के नाम पर जो आर्थिक अभाव से मानवीय जड़ता का जो संकेत है, वह लेखकीय संवेदना का उदाहरण भी बनाया हे।
इसी प्रकार नया नारा एक ऐसी नगर-कथा है, जिसमें ग्रामीण मजदूरों की हड़ताल के माध्यम से व्यंग्य किया गया है कि आज के पूँजीवादी औद्योगिक युग में जैसे राष्ट्रीयता, भावना से न जुड़कर झण्डों और वेशभूषा तक सीमित हो गयी है, वैसे ही मजदूरों के अधिकार और उनकी माँगें इंकलाबी नारों ओर उनके झंडों तक सीमित हो गये हैं। इस लघुकथा में पूरक नारा झंडाबाद इसी तथ्य की ओर संकेत देता है। जंगी जानता है कि सही नारा इंकलाब जिंदाबाद होता है। पर वह बोलता हैइन-कि-लाश... झंडाबाद! जंगी अपनी नौकरी के आरंभिक दिनों में सामान्य मजदूरों की तरह हड़ताल में जिंदाबादी नारे लगाता रहा। वह जानता है कि इंकलाब जिंदाबाद का नारा माँगों के पूरा हो जाने पर लगाया जाता है; लेकिन माँगों के पूरा होने के पहले के नारे का जनक होकर वह मजदूर-नेता बन गया है। उसका यह नारा—‘इन-कि-लाश..झंडाबाद! है। लेखक ने गत्यात्मक चित्र उकेरते हुए लिखा है—“जंगी जब नारे बोलता है तो उसके गले की सारी नसें मुट्‌ठी भींचकर हवा में तैरते सैकड़ों हाथों की तरह खड़ी हो जाती हैं। इस चित्र से जंगी का विद्रोही व्यक्तित्व सामने आता है तो हवा में तने सैकड़ों हाथों द्वारा हड़ताल की निरर्थकता का संकेत मिलता है। जंगी जब उत्तेजित होकर कहता है कि—‘क्या होता है सही नारा? नारे बनाये जाते हैं, रटे नहीं जाते... शोषण के खिलाफ महज आवाज नहीं, तलवार उठाऊँगा मैं...जब तक दमन चलता रहेगा, यही कहूँगा। जंगी के इस कथन में मजदूरों की जागृति का उद्‌घाटन हुआ है। इस लघुकथा का जंगी के नवनिर्मित इसी नारे से आरंभ हुआ है और इसी नारे से अंत भी। इस नारे का अन्तनिर्हित भाव व्यक्त करते हुए उसने बताया है—“हाँ, माँगें पूरी नहीं हुई तो इन-कि-लाश ही करूँगा और झंडे पर लटका दूँगा उस लाश को।
इसी तरह की एक नगर-कथा है—‘और जैक मर गया। इस रचना में ग्रामीण व्यक्ति की नौकरी की चाह को शहरी धन्ना सेठ के शुष्क व्यवहार से जोड़कर जड़ता और संवेदनहीनता के साथ असम्बद्घता के सिद्घांत को कलात्मक प्रस्तुति दी गई है। किस्सागो की शैली में लिखी गई है यह लघुकथा। बीच-बीच में हास्य के साथ व्यंग्य दागने वाली चिनगारियाँ हैं। गोखरू एक मजदूर बाप का बेटा है। उसकी माँ उसके बचपन में ही मर जाती है। घर सँभालने के लिए किसनी को बचपन में ही उसकी औरत बनाकर घर ले आया जाता है। किसनी को टी. बी. की बीमारी हो जाती है। वह कर्ज लेकर उसका इलाज करवाता है; परन्तु वह मर जाती है। कर्जा चुकाने के लिए वह शहर आता है नौकरी की तलाश में। के. के. से उसकी मुलाकात होती है। वह कहते हैं कि उनके काम को, उन्हें शक है कि वह बखूबी कर पायेगा। वह अपनी ग्रामीण भाषा में निवेदन करता है कि दो-चार दिन वे उसका काम देख लें, अगर ठीक लगे तो पैसे दें। के. के. को जैक नाम का कुत्ता है। वह कुछ दिनों से बीमार है। के. के. साहब कहते हैं कि आज शाम तक वह जैक के काम के तरीके को देखकर सीख ले। जब तक वह बीमार है, तब तक उसकी नौकरी पक्की रहेगी। गोखरू जैक की हरकतों को ठीक से देखता है। कोठी के अन्दर गेट के पास मँडराना, कोठी के सामने से गुजरने वालों पर बेवजह भौंकना, अजनबियों पर खौफनाक तरीके से झपट पड़ना, के. के. को देखते ही दौड़ पड़ना, उनके पाँवों पर लोटना, पूँछ हिलाते हुए उनकी हथेलियाँ और तलवे चाटनायही जैक का काम है। गोखरू को नौकरी मिल जाती है। वह और सब तो करने में सफल हो जाता है, पर पूँछ हिलाना, पाँवों पर लोटना, तलवे चाटना वह नहीं कर पाता है। गोखरू जानता है कि जैक उसकी नौकरी के लिए खतरा है। वह एक रात चुपचाप जैक के कमरे में घुसता है। जैक उस पर गुर्राता है, लेकिन भौंकने के पहले ही गोखरू उसका गला टीप देता है। जैक की मृत्यु हो जाती है। इस प्रकार यह लघुकथा चरित्र प्रधान है। कितनी बड़ी बिडम्बना है कि धनोन्माद में के. के. साहब आदमी को कुत्तो की पाँत में रखकर सोचते हैं। किस्मत का हर तरह मारा गोखरू कर्जा चुकाने के लिए के. के. के यहाँ कुत्तो का काम करने को विवश है! कर्जे की मार और भूख की पीड़ा तथा अकेला बना हुआ बेचारा गोखरू संवेदनहीन होकर जैक की हत्या कर अपनी नौकरी पक्की कर लेता है! विवशता के परिणाम की यह हद है। अग्रवाल जी की यह लघुकथा चुप्पी के साथ विवरण देती जाती है, समूची कथा का बयान करती जाती है; पर बीच-बीच में तलवे चाटना’, ‘पूँछ हिलाना आदि की बात चलाकर धारासार व्यंग्य की वर्षा करती जाती है। (तीसरी किश्त आगामी अंक में…)

शनिवार, 26 नवंबर 2011

कलाजयी बलराम अग्रवाल की कालजयी लघुकथाएं-1 / डॉ. ब्रजकिशोर पाठक

2-9-92 को लिखित डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक के पत्र की फोटोप्रति
दोस्तो, इसी सप्ताह की 23 तारीख को मैंने कुलदीप जैन द्वारा संपादित लघुकथा संकलन ‘अलाव फूँकते हुए’ में संकलित मेरी लघुकथाओं पर डॉ॰ कमल किशोर गोयनका द्वारा लिखित पत्रात्मक आलोचना को प्रस्तुत किया था। आज 60वें वर्ष में प्रविष्ट कराते अपने जन्मदिवस पर प्रस्तुत कर रहा हूँ उन दिनों मेरे लिए पूर्णत: अपरिचित आलोचक डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक द्वारा मेरी उक्त 25 लघुकथाओं पर केन्द्रित आलोचनात्मक लेख की पहली किश्त। डॉ॰ पाठक ने उक्त लेख को शीर्षक दिया था—‘कलाजयी बलराम अग्रवाल की कालजयी लघुकथाएँ’ जिसे पढ़कर मैं संकोच से गड़ गया था। इस बारे में यह कहते हुए कि ‘मैं इस विशेषण के योग्य नहीं तथा मुझे लघुकथा में अभी बहुत-सा काम और करना है’ मैंने तुरंत उन्हें पत्र भी लिखा। उनका जवाब आया—‘आलोचक की दृष्टि पर एतराज का अधिकार लेखक को नहीं होना चाहिए’। मैं नत-मस्तक हो गया। बावजूद इस सबके, अपने संग्रह ‘सरसों के फूल’ में डॉ॰ पाठक के लेख को मैं उनके द्वारा प्रदत्त शीर्षक से प्रकाशित कराने का साहस नहीं दिखा पाया। उसे शीर्षक दिया—‘कलाजयी लघुकथाएँ’। लघुकथा संग्रह ‘ज़ुबैदा’ में भी मूल शीर्षक से इसे प्रकाशित कराने का साहस मैं नहीं कर पाया। वहाँ शीर्षक गया—‘ये लघुकथाएँ’। परंतु यहाँ, ‘लघुकथा-वार्ता’ में, मैं उक्त लेख को उसके मूल शीर्षक से दे रहा हूँ। इसका कारण यह नहीं कि मेरा पूर्व संकोच हट गया है और कुछ दर्प मन में घर कर गया है बल्कि यह है कि तिरुवनंतपुरम (केरल) में अध्यापनरत मलयालमभाषी हिन्दी अध्यापक श्री रतीश कुमार ने ई-मेल करके जानना चाहा है कि उक्त लेख का सही शीर्षक क्या है? श्री रतीश कुमार ‘हिन्दी व मलयालम लघुकथाओं का तुलनात्मक अध्ययन’ विषय पर पी-एच॰ डी॰ की उपाधि हेतु शोधरत हैं। संदर्भत: यह बता देना आवश्यक है कि मुझे लेख भेजने से काफी समय पूर्व डॉ॰ ब्रज किशोर पाठक जी॰ एल॰ ए॰ कॉलेज, डाल्टनगंज, पलामू(झारखंड) में रीडर(हिन्दी विभाग) पद को सुशोभित कर वहाँ से सेवानिवृत्त हो चुके थे। हिन्दी लघुकथा पर उनके अनेक शोधालेख कितने ही पत्रों, पत्रिकाओं व संकलनों में प्रकाशित हैं जो अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।–बलराम अग्रवाल

हिन्दी लघुकथा लेखन आन्दोलन का मैं प्रत्यक्षद्रष्टा रहा हूँ। लघुकथा की रूपाकृति पर बहसें होती रही हैं और आज तक मैं देख रहा हूँ कि बहसों का दौर जारी है और लघुकथा की रूपाकृति अभी भी निश्चित नहीं हो पायी है। आज तक जितनी लघुकथाएँ लिखी गई हैं, उनकी रूपाकृति के मूल्यांकन के लिए एक अलग आलेख की आवश्यकता बन पड़ी है। मैंने अपने कई आलेखों में इस विषय को रेखांकित करने का प्रयास किया है। स्थूल रूप से मैंने हिन्दी लघुकथाओं के पहले वर्ग को ‘लघुत्तम लघुकथा’ की संज्ञा दी है। ऐसी लघुकथाएँ क्षणिकाओं या चुटकलों के रूप में प्रस्तुत हुई हैं। दो-चार पंक्तियों से लेकर सात-आठ पंक्तियों में ये तीखे व्यंग्य की धार लिए सहसा शुरू होकर बिजली की कौंध के साथ समाप्त हो जाती हैं। ऐसी रचनाओं में घटना सूक्ष्म बिन्दु में रचनाकार की अनुभूति बनकर व्यंग्य की उत्तेजना पैदा करती है। ऐसी रचनाओं का एक-एक वाक्य महाकाव्य की भूमिका अदा करता है। ऐसी ही रचनाओं को कुछ लोगों ने चुटकुला का एक रूप समझकर ‘फिलर’ के रूप में प्रकाशित कर उपहास किया था। डॉ. वेदप्रकाश वंशल ने इन रचनाओं को होम्योपैथी की गोलियाँ या कैप्सूल कहा था; पर उन्होंने इनके प्रभाव को रामबाण और पोषकशक्ति से भरपूर बताया था।

लघुकथा के दूसरे रूप को मैंने ‘लघुकथा’ की संज्ञा दी है। ऐसी रचनाएँ आधे पृष्ठों में समाप्त हो जाती हैं। इस काया में लिखी गयी रचनाएँ एक घटना या स्थिति के इर्द-गिर्द दो-एक पात्रों की भूमिका द्वारा समाप्त होती हैं। कलात्मक प्रस्तुति की दृष्टि से ऐसी लघुकथाओं में कई प्रयोग हुए। कुछ लोगों ने कहानी के सभी तत्वों का स्पर्श करते हुए समाहरण की शक्ति दिखलाई और समस्याप्रधान बनाकर धारदार मारक हथियार का काम लघुकथाओं से करने लगे। कुछ लोगों ने मिथक प्रतीक कथाओं को लिखकर अपने युग की विसंगतियों, त्रासद स्थितियों, मानवीय संवदेनहीनता/जड़ता, परम्परागत मूल्यों के विघटन, दहेज, पुलिसिया आतंक, देह-व्यापार, टूटते रिश्तों में अर्थतंत्र की गहरी भूमिका जैसी समस्याओं को कथ्य बनाया और इन्हें घटनास्थितियों, पात्रों और उनके संवादों से बड़ी तीखी रचनाएँ दीं। कुछ लोगों ने तो मात्र संवादात्मक शैली में रचनाएँ लिखकर नाटकीय त्वरा के साथ सूक्ष्मरूप से अपनी समस्याओं को व्यंजित किया। लघुकथा की यह संश्लिष्टता प्रस्तुति में अधिक उत्तेजक सिद्घ हुई। लघुकथा के तीसरे रूप को मैंने ‘लघुतर लघुकथा’ के नाम से अभिहित किया है। ऐसी लघुकथाएँ कहानीपन को साथ लेकर एक कथाभास का अनुभव कराती है। रूपाकृति में ये रचनाएँ एक से डेढ पृष्ठों में समाप्त होती हैं। ऐसी ही लघुकथाओं को देखकर कुछ आलोचकों ने लघुकथा को कहानी की एक शैली, छोटी कहानी या लघुकहानी कहा था। इन लघुकथाओं में व्यंजनाशक्ति से उत्पन्न व्यंग्य के दर्शन होते हैं। कुछ लघुकथाकारों ने बीच-बीच में हास्य के साथ-साथ ‘टॉन्ट’ और ‘आइरनी’ का बड़ा ही भव्य संयोजन किया है। ऐसी लघुकथाओं की शैली संवेदनात्मक होती है। एक प्रमुख घटना या स्थिति को केन्द्र में रखकर ऐसे लघुकथाकार कभी-कभी प्रासंगिक और सूच्य घटना-स्थिति का आयोजन करते हैं। रचना कभी-कभी किस्सागो की भाँति शुरू होती है और कभी-कभी एकाएक शुरू होकर मंथर गति से बढ़ती हुई अन्त में ऐसा वेग धारण करती है कि सिर धड़ से अलग हो जाता हैं। व्यंजना शक्ति पर आधारित ये लघुकथाएँ कहानी तत्वों की ऐसी घनीभूत इकाई बन जाती हैं कि सहृदय समीक्षकों के लिए इनसे आर-पार गुजरना एक जोखिमभरा कार्य हो जाता है। ये ध्वनि काव्य की भाँति सहृदयों को कथ्याकथ्य की मन:स्थिति में ले जाती हैं। साधारण लोगों के लिए ऐसी रचनाएँ आरोप-पत्र की तरह लगती है; पर जिन्हें साहित्यिक कृति की सजग पाठ-प्रक्रिया की तमीज मालूम है, वे इसकी गहराई को पाकर अभिभूत हो जाते हैं। सच पूछा जाय तो 1935 से 52 तक छोटी कहानी लिखने का कठिन कार्य एक आन्दोलन के तहत सर्वश्री जानकी वल्लभ शास्त्री, स्व. भवभूति मिश्र, विष्णु प्रभाकर, नलिन विलोचन शर्मा, विनोद शंकर व्यास ने सम्पन्न किया था। लघुत्तर लघुकथा लेखकों ने जाने-अनजाने उसकी आवृत्ति ऐसी लघुकथाएँ लिख कर की। लेकिन उनसे इन कथाकारों में अंतर यह आया कि आजादी के बाद नई कहानी लेखन के तहत ग्राम कथा, नगर कथा, अकहानी, आंचलिक कथा, समान्तर कथा आदि कथा-लेखन आन्दोलन की सारी कथ्य एवं शिल्पगत विशेषताओं को समेट लिया। इसी कारण, लघुकथा को इन कथा-आन्दोलनों की प्रतिक्रिया कहा गया और स्थापना दी गई कि उक्त कथ-आन्दोलनों में विभिन्न नामभर सामने आए, इनके पास कुछ नया कहने को नहीं था। सच पूछा जाये तो ऐसी लघुकथाओं के पास अर्जुन की वह शक्ति है जो पानी की छाया देखकर सटीक शर-संधान करता है।

हिन्दी लघुकथा लेखन और मूल्यांकन में जिन कुछेक लोगों ने सशक्त रचनाधर्मिता से अपनी अलग पहचान बनाई है, उनमें बलराम अग्रवाल का नाम कनिकाधिष्ठित है। लघुकथा-लेखन में कूड़ा-कर्कट परोसने वाले तथाकथित नामी-गिरामी हंगामेबाज लोगों की भीड छाँटकर जिन कुछेक लोगों ने इस रचना विधा को सही मार्ग दिखलाया उनमें श्री अग्रवाल का इतिहास इसलिए बनता है, चूँकि इन्होंने आलेखों के माध्यम से भी लघुकथा को एक निश्चित रूप प्रदान किया है। उनकी लघुकथाएँ अपनी विशिष्ट पहचान के कारण विभिन्न पत्रिकाओं में ही नहीं छपीं, वरन्‌ ‘कथानामा’ और ‘लघुकथा कोश’ में भी सादर संकलित हुईं। यह मामूली बात नहीं है कि इन्होंने अपनी स्वधर्मिता से लघुकथा को आसान रचनाविधा मानकर रातों-रात साहित्यकार बनने वाले साधन-सम्पन्न सेठिया सामंतों का कद इतना छोटा कर दिया कि वे बौने बन गये। बलराम अग्रवाल के लघुकथाकार की यही ऐतिहासिक भूमिका है।

हमने ऊपर लघुकथा के जिन तीन रूपों की चर्चा की है, उसके संदर्भ में बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं की परीक्षा अनिवार्य है। बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ मूलतः लघुत्तर लघुकथा के साँचे में ढली हुई हैं, वैसे इन्होंने ‘शोषित को देखकर’ व ‘औरत और कुर्सी’ (बाद में इस रचना का शीर्षक ‘कुर्सी का बयान’ कर दिया गया—बलराम अग्रवाल) जैसी दूसरे दर्जे की भी कुछ कथाएँ लिखी हैं। अग्रवाल जी अपनी लघुकथाओं को, चुटकुला जैसी क्षणिकायें लिखकर लघुकथा को होम्योपैथी गोलियाँ या कैप्सूल बाँटना नहीं चाहते। उनकी लघुकथाओं की रूपाकृति से स्पष्ट होता है कि वे मानकर चलते हैं कि लघुकथा यदि कथा साहित्य की कोई स्वतंत्र विधा है, तो उसमें कहानीपन अवश्य होना चाहिए। बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ एक ओर व्यंजना शक्ति से उत्पन्न व्यंग्य के कई संदर्भ निर्मित करती हैं तो हास्य-व्यंग्य का तेवर और मिजाज भी दर्शाती हैं। यह काम पाठकों, समीक्षकों और आलाचकों का है कि वे उनकी लघुकथाओं का विश्लेषण कर बतावें कि किस दक्षता से वे आज के आदमी, समाज और परिवेश की त्रासदियों, विद्रूपताओं, विसंगतियों और विडम्बनाओं की मनोवैज्ञानिक सचाई की हममें अंतः प्रेरणा जाग्रत करती हैं। वस्तुतः उनकी लघुकथाएँ वर्तमान जीवन की सड़ाँध की तीव्र अनुभूति की स्वयं प्रेरित प्रतिक्रिया हैं, जो हमारे अंतस्‌ में बिजली की कौंध रह-रहकर प्रकट करती हैं और कुछ कर डालने की प्रेरणा देती हैं।

बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ हममें अहसास पैदा कराती हैं कि वे किसी समस्या पर आधारित नहीं हैं। वे वस्तुतः युग-सत्य के स्थिति-चित्र हैं। अग्रवाल जी की दृष्टि यथार्थवादी है। युग की किसी सच्चाई पर उनकी गहन अनुभूति, तीव्र ज्वाला के रूप में कहीं काव्य-सत्य के रूप में प्रकट है तो कहीं देखा-भोगा हुआ यथार्थ लेखक की गहरी संवेदना में डूब जाता है। यही कारण है कि अग्रवाल की लघुकथाओं में संवेदित अनुभूत स्थितियाँ चित्रों-बिम्बों के माध्यम से फूटती हैं। प्रायः हर स्थल पर वे वर्तमान जीवन की त्रासदियों, विसंगतियों, विद्रूपताओं को उकेरते हैं और एक चित्रकार की भाँति उनका रेशा-रेशा अभिव्यक्ति के विविध रंगों में कलम की कूची बनाकर डुबोते-उतारते हैं।

इस प्रसंग में श्री कुलदीप जैन द्वारा संपादित ‘अलाव फूंकते हुए’ में संकलित उनकी लघुकथा ‘ओस’ का मूल्यांकन आवश्यक है। यह लघुकथा अग्रवाल जी की एक ऐसी लघुकथा है, जो उनकी अन्य लघुकथाओं से प्रस्तुतिकला की दृष्टि से अपनी अलग पहचान बनाती है। इसमें एक ओर प्रसाद की कहानियों में प्रयुक्त अमूर्त का मूर्तिकरण और छायावादी और काव्यात्मक चरित्र है तो दूसरी ओर प्रेमचंद की कहानी ‘पूस की रात’ की भयावहता तथा प्रकारान्तर से मार्क्स के असंबद्घतावादी सिद्घान्त का नियोजन है। ‘ओस’ लघुकथा अपनी सम्पूर्ण प्रस्तुति में छायावादी काव्य तत्वों पर आधारित है जिसके कारण बलराम अग्रवाल एक साथ कवि-कहानीकार की भूमिका बखूबी निभाते हैं। एक किस्सागो की भाँति, अपना कवि-व्यक्तित्व सँभाले अग्रवाल जी इस लघुकथा का आरम्भ करते हैं—‘रात्रि की शीत का आभास पाकर सूर्य समय से शायद कुछ पहले ही संध्या के आँचल में छिप जाना चाहता था। शरीर के ताप को चीर देने वाली शीत ने हल्के अंधकार में ही नगर के मकानों के द्वार बन्द कर दिये थे। धीरे-द्हीरे घोर अंधकार नगर की गलियों में बिखर गया। चिंघाड़ती वायु शीत का सहयोग पाकर वृक्षों का सीना चीर देना चाहती थी।” वे इसी काव्यात्मक भाषा में आगे बढ़ते हैं—“नगर से दूर खेतों-खलिहानों के बीच एक पुरानी झोंपड़ी में दीपक की लौ शीत लहर को न झेल पाने के कारण कुछ समय काँपने के पश्चात लुप्त हो गई। खेतों में कहीं दूर कई सियार एक साथ हूके...।” इस काव्यात्मक चित्रमय अभिव्यक्ति के साथ एक कहानी उभरती है कि एक झोंपड़ी में एक वृद्घा फटे-चिटे लिहाफ में लिपटी पड़ी है। इस झोंपड़ी के दरवाजे के समीप एक कोने में बछिया सिर को पेट में और घुसेड़ लेती है। इसी समय एक ठिंगना युवक भागता हुआ झोंपड़ी में पहुँचता है और बछिया से टकरा जाता है। बछिया ‘अम्बा’ की आवाज लगाती है। बुढ़िया जब युवक का परिचय पूछती है तो युवक उसे ‘दादी माँ’ सम्बोधन देकर रात बिता लेने की बात बताता है। कुछ देर बाद बुढ़िया को खाँसी उभरती है। वह टूटती आवाज में ईश्वर से उठाने की प्रार्थना करती है। यह शेष शब्दों को कफ में मिलाकर धरती पर उलट देती है। युवक उससे सो जाने का आग्रह करता है। युवक ठंड के मारे ‘घुटनों को पेट में घुसेड़कर अपन दोनों हाथों के घेरे में’ जकड. लेता है। सुबह होती है। सूर्य की किरणें कपाटहीन झोंपड़ी के दरवाजे पर पड़ती हैं। बुढ़िया के ढेर सारे कफ पर मक्खियाँ भिनभिनाने लगती हैं। युवक रातों-रात बछिया को चुराकर चुपके से भाग जाता है, क्योंकि उसे मालूम हो गया है कि बुढ़िया की मृत्यु हो गई है। बुढ़िया की मृत्यु का संकेत लेखक ने बछिया के चुरा ले जाने की बात कहकर दिया है, क्योंकि अगर बुढ़िया जिन्दा रहती तो बछिया की ‘अम्बा’ आवाज गूँजने लगती! लेखक आगे बताता है कि बुढ़िया की झोंपड़ी पर लताएँ चढ़कर फूल-फल रही हैं। लेखक यहाँ पर एक सूक्ष्म तथ्य को व्यंजित करता है कि बुढ़िया का अपना कोई परिवार नहीं है। तभी तो एक धन्नासेठ बुढ़िया की झोंपड़ी को गिरवी पर लेकर पड़ोसियों को उसकी अरथी सजाने के लिए कुछ पैसे देता है। इसी स्थल पर, प्रकारान्तर से अग्रवाल जी सम्पन्न व्यक्तियों की मानसिक जड़ता, क्रूरता और संवेदनहीनता का संकेत देकर मार्क्सवादी असम्बद्घता के सिद्घान्त (Theory of non-allienment) का व्यावहारिक रूप प्रतिपादित करते हैं। लेखक इस लघुकथा का अंत करते हुए लिखता है—“मोहक कहलाने वाली गुनगुनी किरणें शीत वायु को पीठ पर टिकाकर श्मशान को एक और आगमन का संदेश सुना आईं।”

मैं समझता हूँ, ऐसी संवेदनात्मक शैली का सफल प्रयोग हिन्दी के बहुत ही कम लघुकथाकार कर पाये हैं। स्वयं बलराम अग्रवाल ने अपनी अन्य कथाओं में इसका प्रयोग पुनः नहीं किया है। इस लघुकथा में प्रयुक्त सारे स्थिति-चित्र करुण संवेदना के साथ व्यंग्य की चिंगारियाँ बिखेरते हैं। यदि सावधानी से इस लघुकथा का पाठ किया जाये तो अनुभव होगा कि इसकी संरचना ही गंभीर व्यंग्य के रूप में हुई है। सारे के सारे शब्द-वाक्य रह-रहकर व्यंग्य के तीर छोड़ते हैं। लघुकथाकार ने पड़ोसियों की दीनता को उकेरते हुए, बुढ़िया के अकेलेपन को चित्रित कर पाठकों में करुणा के साथ उत्तेजना पैदा की है। तारीफ की बात है कि लेखक लेखन में कहीं भी भावावेश में नहीं आता, वह केवल गाँव की स्थिति का चित्रण आत्मानुशासन के साथ करता जाता है और हममें उस समाज को फूँक देने का आवेश पैदा करता है जिसमें धन्ना सेठ जैसा क्रूर, ठिंगना जैसा जड़ और पड़ोसियों जैसे असमर्थ व्यक्ति जी भर रहे हैं।

डॉ. किरन चन्द्र शर्मा ने बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं पर टिप्पणी देते हुए लिखा है कि—उनकी कथाएँ तीखी और ठण्डी एक साथ होती हैं।...उनकी लघुकथाओं में तीखापन...आकर बड़े ठण्डे तरीके से काम कर जाता है। डॉ. शर्मा इस ‘अंतर्विरोध’ को बलराम अग्रवाल की शक्ति मानते हैं। वे कहते हैं—“जहाँ बड़े ही ठण्डेपन के साथ कुछ चुभता चला जाय, वहाँ चुभन का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।” डॉ. शर्मा की उक्त स्थापना बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं की प्रवृत्ति और पाठकीय प्रभाव तथा कथाभास की संरचना पर बहुत सटीक बैठती है। वे वस्तुतः लघुकथाओं की संरचना और प्रस्तुति में स्वयं उत्तेजित नहीं होते, पर साहित्य के मर्मज्ञ, सहृदय भावक-वर्ग को उत्तेजित कर देते हैं। वे बड़ी गम्भीर मुद्रा में स्थिति-सत्य को प्रस्तुत कर भावक-वर्ग को जिन्दगी के कड़वे सत्य से परिचित कराकर उनमें उमड़न-घुमड़न पैदा करते हैं। डॉ. शर्मा ने अग्रवाल की लघुकथाओं में जिस ‘चुभन के अनुमान को सहज नहीं होने’ की बात कही है, वह एक महत्वपूर्ण तथ्य का संकेत देती है। वे संभवतः यह बताना चाहते हैं कि श्री अग्रवाल की लघुकथाओं के पाठकीय प्रभाव सहज नहीं होते, वे अनिवार्य सजग पाठ-प्रक्रिया की माँग करते हैं। एक साँस में यदि उनकी लघुकथाओं को पढ़ा जाये तो पाठक को सहजरूप से कुछ भी नहीं मिलेगा, उनकी लघुकथाओं से आरपार गुजरने में बड़ी सतर्कता की अपेक्षा होती है। यही बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं की पठन-मुद्रा है।
[शेष आगामी अंक में………]

बुधवार, 23 नवंबर 2011

जीवन से रस लेती है लघुकथा/ डॉ॰ कमल किशोर गोयनका


[दोस्तो,
1990 में लघुकथाकार कुलदीप जैन ने लघुकथा संकलन ‘अलाव फूँकते हुए’ का संपादन किया था। इसमें उन्होंने जगदीश कश्यप की 26, मेरी यानी बलराम अग्रवाल की, सुकेश साहनी तथा स्वयं अपनी 25-25 लघुकथाएँ संकलित की थी यानी कुल 101 लघुकथाएँ। इसकी भूमिका डॉ॰ किरन चन्द्र शर्मा ने लिखी थी। इसमें संकलित मेरी लघुकथाओं पर डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक का समीक्षात्मक लेख तथा डॉ॰ कमल किशोर गोयनका का समीक्षात्मक पत्र प्राप्त हुआ था। इनमें से डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक के लेख को मैंने अपने पहले लघुकथा संग्रह ‘सरसों के फूल’ में साभार स्थान दिया था। ‘लघुकथा-वार्ता’ के इस अंक में प्रस्तुत है डॉ॰ कमल किशोर गोयनका का पत्र उपयुक्त शीर्षक के साथ।–बलराम अग्रवाल]


29-9-91
जबलपुर
प्रिय भाई,
मैं दो दिन के लिए जबलपुर आया हूँ। कल यहाँ से दिल्ली के लिए चलूँगा। रास्ते में पढ.ने के लिए ‘अलाव फूँकते हुए’ लेता आया था। इस पुस्तक के बारे में मैंने तुम्हें पोस्टकार्ड डाला था और मुझे याद है कि मैंने लिखा था कि तुम्हारी लघुकथाओं के बारे में बाद में लिखूँगा।
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि तुम बुलन्दशहर के हो। मेरी जन्मभूमि भी बुलन्दशहर है। वैसे तो सारा भारत ही अपना देश है, पर इसमें भी अपनी जन्मभूमि, मातृभूमि सबको प्यारी होती है। हमारे शहर में लेखकों की कोई ऐसी परम्परा नहीं है, जिसके कारण तुम लेखक बने हो। यह तुम्हारे अन्दर की बेचैनी, जीवनानुभव तथा उन्हें शब्दों में अभिव्यक्त कर पाने की कुशलता है, जिसने तुम्हें लेखक बनाया है, इस कारण भी मैं, तुम्हें बधाई देता हूँ कि तुमने इस कठिन साधना एवं तपस्या के मार्ग को चुना है। साहित्य साधना का मार्ग है तथा संसार में अन्य सृष्टियों के समान यह भी पीड़ाजनक है। यह एक प्रकार से पीड़ा की साधना है और जिस लेखक की यह साधना जितनी अधिक पीड़ाजनक होगी, उसकी लेखनी से उतने ही प्रभावशाली साहित्य की रचना होगी। मुझे विश्वास है, तुम इस साधना के मार्ग पर चलने का व्रत लेकर आये हो।
लघुकथा पर विगत दो तीन वर्षों में मैंने कुछ लेख आदि लिखे हैं। यद्यपि मेरा कोई लक्ष्य लघुकथा की ओर जाना नहीं था, परन्तु तुम्हारे जैसे कुछ युवा लघुकथाकारों की प्रेरणा से मैंने लघुकथा पर कुछ कहने का दुस्साहस किया है। मैं नहीं जानता कि वह कितना सही है या गलत, पर जैसा मैं सोचता हूँ, उसे मैंने कहने का प्रयत्न किया है। साहित्य में सहमति-असहमति होती है, और वह होनी भी चाहिए, क्योंकि दूसरे के मत के प्रति यदि हम लेखक सहिष्णु नहीं होंगे तो हम फिर समाज से क्या अपेक्षा रख सकते हैं?
लघुकथा एक जीवंत विधा है, क्योंकि वह साक्षात्‌ जीवन से जुड़ी है, जीवन से रस लेती है। लघुकथा और जीवन मुझे कई बार पर्याय लगते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि जिस लघुकथा में मानव-जीवन न हो, उसकी धड़कन न हो, उसकी पीड़ा और आनन्द न हो, उसका पतन और उत्थान न हो, उसका संकल्प और विकल्प न हो, वह लघुकथा नहीं है। लघुकथा को उसकी शब्दसीमा से पहचानने की चेष्टा मुझे अनुचित लगती है, क्योंकि शब्दसीमा, शब्दसंख्या या शब्दों का समूह रचना को रचना नहीं बनाते, बल्कि उन शब्दों में छिपी संजीवनी-शक्ति ही उनमें प्राणों की प्रतिष्ठा करती है। लघुकथा वह ही रचना बन सकती है, जो जीवन की इस प्राणशक्ति को अपने अणु-अणु में समाये हो। लघुकथा एक बहुत ही छोटी विधा है, अतः इसमें संवेदनाओं की सघनता का होना अत्यावश्यक है, क्योंकि लघु तभी प्रभावशाली होगा जब वह घनीभूत होगा, ठोस होगा, सघन होगा। तुलसीदास ने लिखा है कि सूर्य देखने में छोटा है, पर वह ब्रह्मांड का अंधकार दूर करता है। इसी प्रकार छोटा-सा अंकुश हाथी को वश में कर लेता है। मैं लघुकथा को इसी रूप में देखता हूँ और चाहता हूँ कि आधुनिक लघुकथा इस शक्ति को ग्रहण करे और लघु होकर भी गहरा और स्थायी प्रभाव अंकित करे।इस संग्रह में मैंने तुम्हारी लघुकथाएँ पढ़ी हैं और उनसे प्रभावित हुआ हूँ। पहले ‘अलाव के इर्द-गिर्द’ को ही लूँ। यह एक महत्वपूर्ण रचना है। किसान का अपनी जमीन से जो प्रेम है, वह माँ का अपनी संतान के प्रेम से कतई कम नहीं है। जमीन उसका प्राण है और उसका जीवन भी। इस जमीन के सवाल को प्रेमचंद ने ‘रंगभूमि’ में उठाया और ‘गोदान’ में भी। होरी अपनी तीन-चार बीघा जमीन की किले की तरह रक्षा करता है और अन्त में संसार से चला जाता है। प्रेमचंद ने कहा था कि यह जमीन उसकी है जो इसे जोतता है या उसकी, जिसने इसे बनया है, अर्थात्‌ ईश्वर की। आज भी, प्रजातंत्र में, होरी की जमीन को हड़पने वाले चौधरी हैं और हमारा प्रजातंत्र मूक बैठा है। ‘अलाव के इर्दगिर्द’ इसी बड़े यथार्थ को अपनी छोटी काया से अभिव्यक्त करती है। मैं समझता हूँ, इस संग्रह का नाम इस लघुकथा पर रखकर, सम्पादक ने बड़ी समझदारी का काम किया है, पर मेरा यह भी कहना है कि यदि शीर्षक को इसी कहानी नाम दिया जाता तो ज्यादा अच्छा था। यह शीर्षक और यह लघुकथा जीवन का ऐसा सत्य है जो स्वतंत्राता से पूर्व भी सत्य था और आज भी है। मुझे प्रेमचंद की कहानी ‘पूस की रात’ भी याद आती है, जिसमें अलाव के पास ही पूरी कहानी घटित हो जाती है। स्थान-संकोच की यह स्थिति कहानी को घनीभूत संवेदना से परिपूर्ण बनाती है और लघुकथा के लिए तो यह अनिवार्य स्थिति है। लघुकथा का रंगमंच जितना केन्द्रीभूत होता है, जितना सीमित और अपरिवर्तनीय होता है, उतनी ही रचना प्रभावान्विति से समृद्घ होती है। ‘अलाव के इर्द-गिर्द’ अर्थात्‌ अलाव के इर्द-गिर्द जो जीवन है, जो सुख-दुःख है, जो अस्तित्व का संकट है, वह अलाव फूँकने से बहुत ज्यादा बड़ा है। देश का छोटा किसान उसी प्रकार अस्तित्व के संकट से घिरा है, जैसे होरी घिरा था। परतंत्रता में होरी मरते दम तक अपनी जमीन को छाती से लगाकर चिपकाये रहा, परन्तु स्वतंत्रता के बाद के होरी, मिसरी, बदरू, श्यामा आदि सभी हाथ से फिसलती जमीन को बचा नहीं सकेंगे। अब प्रजातंत्र ही उनका शत्रुु है और वे पहले की तरह असंगठित भी हैं। बदरू आखिर में अलाव के इर्द-गिर्द पड़ी बिखरी डंडियों, तीलियों को उसमें झोंकता है, अर्थात्‌ वह सभी कुछ को, अपने शत्रुओं को अग्नि में झोंकने का प्रतीकात्मक अर्थ देता है, परन्तु यह लेखक का मन्तव्य है, बदरू का नहीं, क्योंकि वह जो करता है, वह साधारण कर्म है, किसान आसपास की डंडियों को इसी प्रकार अलाव में डालकर उसमें आग को बनाये रखते हैं, परन्तु लेखक बदरू नहीं है, वह लेखक है और उसका अभिप्रेत है कि अलाव की आग को जिन्दा रखना है, इसकी ज्वाला को प्रज्ज्वलित रखना है, सम्भवतः इस व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए अलाव की इस आग की आवश्यकता पड.े।
तुम्हारी कुछ लघुकथाएँ राजनेता, राजनीतिक भ्रष्टाचार तथा प्रजातंत्र की अप्रजातांत्रिक प्रवृत्तियों पर हैं। उनमें से कुछ में मौलिकता है और वे प्रभावित करती हैं। कुछ लघुकथाओं में अमानवीयता का उद्‌घाटन है, परन्तु कहीं-कहीं मानवीयता का उभरता चित्र भी है। कहीं हताशा भी है, जैसे, ‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु’; पर, कहीं हताशा के बीच से जन्म लेती जीवटता है, दृढ़ता है, और अन्याय का सामना करने का साहस है। ‘जुबैदा’ की कहानी यही है। इसका नेरेटर कहता है, “...दुविधा और विषाद मौत के ही दूसरे नाम हैं। संघर्ष ही सच है जुबैदा।” जुबैदा शाहबानू की प्रतीक है, जिसने वृद्घावस्था में सर्वोच्च न्यायालय तक पति के विरुद्घ मुकदमा लड़ा। वह जीती, परन्तु हमारी सरकार ने उसे हरा दिया; वैसे ही, जैसे यहाँ नेरेटर संघर्ष की कामना के बावजूद जुबैदा के मिलने पर उसका साथ देने को तैयार नहीं होता। दुर्भाग्य यही है कि शाहबानू हो या जुबैदा, वह अन्याय के संघर्ष में अकेली है। बातों में लोग उसके साथ हैं, पर मैदान में वह अकेली है। वह अभिमन्यु की तरह अकेली है और अन्यायी शक्तियों से घिरी है। जब अभिमन्यु जैसा योद्घा न बचा तो जुबैदा क्या कर पायेगी?
मैं एक लघुकथा ‘गोभोजन कथा’ पर भी कुछ कहना चाहता हूँ। इस लघुकथा में मानवीयता का स्पर्श है। इसका संदेश मानवता का संदेश है और साथ ही तुमने गाय और मनुष्य में से मनुष्य को चुनने का विचार रखा है, जो इससे पूर्व भी कई लेखकों तथा विचारकों के द्वारा रखा जाता रहा है। पशुहत्या और मनुष्यहत्या में से पहले मनुष्य की रक्षा की बात तो मैं समझ सकता हूँ, लेकिन गर्भिर्णी गाय और स्त्रीी के गर्भ में पलने वाले बच्चे का सवाल है तो क्या दोनों की रक्षा नहीं होनी चाहिए? नये ज्ञान-विज्ञान ने हमें समझा दिया है कि मनुष्य और प्रकृति एक-दूसरे के पूरक हैं। मनुष्य को यदि जीवित रहना है तो प्रकृति का सम्पूर्ण परिवेश बनाये रखना होगा और यहाँ तो गाय के बच्चे की रक्षा का प्रश्न है, जिसे जीवित रखकर ही हम स्त्री के गर्भ में पलने वाले बच्चे को जीवनदान दे सकते हैं। तुमने लघुकथा में यदि एक चुटकी आटा ही गाय के सम्मुख डलवा दिया होता तो लघुकथा की ऊँचाई और बढ. गयी होती। मानवीयता की किरण जितनी दिशाओं में जा सके तथा जितने व्यापक जीवन को प्रकाशित कर सके, उतना ही अच्छा है; क्योंकि लेखक, चाहे वह लघुकथाकार हो, मानवता का साधक और गायक होता है। मानवता की सिद्घि ही उसके लेखकीय कर्म की सिद्घि है।
पत्र लम्बा हो गया है और मुझे स्टेशन की ओर भागना है। 2॰35 पर ‘महाकौशल एक्सप्रेस’ पकड़नी है। मैं तुम्हारी कुछ-और लघुकथाओं पर भी चर्चा करना चाहता था तथा कुलदीप जैन एवं सुकेश साहनी की रचनात्मकता पर भी लिखना चाहता था, परन्तु मैंने कलम न रोकी तो रेल छूट जायेगी। अतः यह काम भविष्य के लिए छोड़ता हूँ।
पत्र की प्राप्ति की सूचना देना।
आशा है, सानंद होंगे।
तुम्हारा
कमल किशोर गोयनका

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

सार्थक और सहज लघुकथाओं की सृजनशीलता / डॉ. किरन चन्द्र शर्मा

[ दोस्तो, लघुकथा-वार्ता के इस अंक में प्रस्तुत है मेरे प्रथम लघुकथा-संग्रह ‘सरसों के फूल’ पर डॉ॰ किरनचन्द्र शर्मा द्वारा लिखित समीक्षात्मक आलेख।]

जीवन में जैसे सभी कुछ सहज और स्वाभाविक नहीं होता ठीक वैसे ही हर सहज स्वाभाविक सदैव सार्थक नहीं होता। रचना के स्तर पर यही पहचान लेखकीय सृजनशीलता को जन्म देती है, देती रही है। जितनी और जैसी पहचान रचनाकार को इस सत्य की होगी, उसकी सृजनशीलता उनती ही सार्थक और सहज एक साथ होगी। प्रश्न उठता है कि वह स्वाभाविकता क्या है जो सार्थक भी हो और सहज भी? इसी प्रश्न का साहित्यधर्मी रूप यह हो सकता है कि सृजनशीलता, सहजता क्या है? या फिर, हमारे जीवन में ऐसा क्या है जिसे सृजनशील समझा जा सके; या, ऐसा क्या है जो सृजनशील नहीं है?

मुझे अपनी बात इस नकार से ही आरम्भ करनी है। यदि जीवन को हम एक चुनौती मानकर चलते हैं तो सृजनशीलता भी एक चुनौती है। चुनौती हमेशा ही सार्थक के साथ-साथ सहज भी होती है। जो सहज है परन्तु सार्थक नहीं, सामान्य है—वह चुनौती नहीं हो सकता। एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करूँ तो, मनुष्य के रूप में पैदा होना एक सहजता है और केवल सहजता है।
इसमें कहीं भी कोई ध्वनि नहीं है कि मनुष्य के रूप में पैदा होना कोई सार्थक प्रक्रिया है, और चूंकि सार्थक प्रक्रिया नहीं है इसलिए यह चुनौती भी नहीं है, किन्तु मनुष्य बनना अथवा होना एक चुनौती है, और यह चूंकि चुनौती है इसलिए सार्थक और सहज दोनों एक साथ है। अतः वह जीवन-प्रक्रिया जो तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी सहज रूप से इस चुनौती को स्वीकारती है कि व्यक्ति मानवजाति के हित में मनुष्य बनने की निरन्तर प्रक्रिया में बना रहे—वही सार्थक है, और चूंकि वह सार्थक और सहज दोनों है इसलिए वही सही सृजनशीलता भी है। सम्भवतः अब मुझे और स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है कि जो सार्थक है, वह सहज और स्वाभाविक होते हुए भी आवश्यक रूप से सृजनशीलता नहीं है। इसलिए रचना का रचा जाना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है रचनाकार का सृजनशीलता से सही-सही परिचय होना। यानी कि उसका रचना के माध्यम से सार्थक और सहज की अभिव्यक्ति दे पाने में सक्षम होना। यह अभिव्यक्ति एक क्षण की भी हो सकती है और एक लम्बे कालखण्ड में जिये गये जीवनपक्ष की भी।
इसी तरह, यह एक व्यक्ति की भी हो सकती है और एक परिवार, समाज, समुदाय या राष्ट्र की भी। बलराम अग्रवाल की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उसे इस सृजनशीलता की पहचान है। उसकी अनेक लघुकथाएँ जो मेरे सामने बिखरी पड़ी हैं— सृजनशीलता की इस सहज पहचान से ही सर्जित हैं। इसलिए वे सार्थक और सहज एक साथ हैं। इस तरह का रचनाकार आदर्श के लिए भी सहज और स्वाभाविक वातावरण की तलाश में रहता है।
अपनी बात को मैं उसकी दो लघुकथाओं को समानान्तर/समीप रखकर स्पष्ट करूँगा कि सृजनशीलता की उसकी पहचान कहाँ और कैसे सहज रचना-प्रक्रिया में ढल जाती है। इनमें से पहली लघुकथा है—‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु’ और दूसरी—‘गोभोजन कथा’। इन दोनों लघुकथाओं का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर स्पष्ट हो जाता है कि दोनों की जीवन-पद्घति और धरातल एक नहीं हैं, पर दोनों में एक चुनौती है और वही चुनौती सृजनशीलता को जन्म देती है। ‘...जटायु’ में तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी दूसरे के दुःख से दुःखी हो उठना मानव बनने की रचना-प्रक्रिया को जन्म देता है। यह सच है कि अकेला जटायु रावणवत्‌ इतने राक्षसों से दीर्घ समय तक नहीं लड़ सकता; लेकिन अमानवीय कृत्यों के खिलाफ उठ खड़ा होना, लड़ना—यह उसका चरित्र है। लड़ने से पहले या लड़ते हुए, वह कभी भी हताश नहीं होता, पर लड़ाई हार जाने पर जो दर्द उसे होता है वह सालता है; साथ ही पूरे के पूरे समाज के सामने एक सार्थक चुनौती प्रस्तुत करता है कि मनुष्यता को अगर बचाना है या तमाम वहशीपन के खिलाफ यदि सकारात्मक लड़ाई लड़नी है, तो जटायु के साथ जुटना ही होगा। उसे इस अकेले लड़ते जाने से मुक्ति दिलानी ही होगी। यह सारी की सारी बात इस लघुकथा में एक सहज और स्वाभाविक रचना-प्रक्रिया के तहत यथार्थ की भूमि पर घटती है और उसी सहजता के साथ अभिव्यक्ति भी पाती है। इस तरह वस्तु, शिल्प और रचना-प्रक्रिया तीनों एकात्मरूप से इस रचना का निर्माण करते हैं। देखें—‘मर मिटने का तिलभर भी माद्‌दा तुम अपने अन्दर संजोते तो लड़की बच जाती... और गुण्डे...’ कहती, मेरे मुँह पर थूकती... थू थू करती आँखें। उफ्‌।”
इससे बड़ी और सार्थक सृजनशीलता क्या होगी कि वह एक सार्थक और सहज हलचल पैदा कर दे।
यथार्थ की इस भूमि से बिल्कुल विपरीत भूमि है ‘गोभोजन कथा’ की। आदर्शोन्मुख भूमि। रचनाकार यहाँ सहज यथार्थ का इस्तेमाल न कर सहज मनोभावों का इस्तेमाल करता है। बच्चा पाने की अभिलाषा में गाय को (लघुकथा में गर्भिणी गाय) आटा खिलाने का उपक्रम एक पारम्परिक मानसिक भाव है जो एक मनोभाव प्रेरित कर्म को जन्म देता है। वर्षों का यह संस्कार उस समय एकदम डगमगा जाता है जब कथानायिका माधुरी गाय को खिलाने के लिए लाया गया आटा गाय के स्थान पर बशीर की गर्भिणी किन्तु भूखी और असहाय विधवा को दे देती है। कहा जा सकता है कि यह एक विचाराधारात्मक आदर्श की स्थापना है जो यथार्थ पर चोट करता है, और चूंकि यथार्थ पर चोट करता है तो सहजता पर भी चोट होती है, भले ही वह कितनी भी सार्थक क्यों न हो। लेकिन, इस लघुकथा की सहजता दूसरी है। वह एक संस्कार पर दूसरे संस्कार का आघात है। गाय के स्थान पर विधवा, वह भी विजातीय/विधर्मी, की मदद करना विचारधारा से प्रेरित कर्म न होकर तत्कालीन यथार्थ से प्रेरित होकर एक संस्कार पर दूसरे संस्कार का आघात है। ज्योतिषी ने कहा है कि गर्भिणी गाय को खिलाने से उसकी कोख हरी हो सकती है। यह एक तरह का पारम्परिक संस्कार है जो उसे इस कार्य के लिए विवश करता है लेकिन यहीं एक दूसरे तरह का संस्कार बशीर की गर्भिणी विधवा को देखकर सक्रिय हो उठता है जो पहले संस्कार पर अधिक शक्ति से प्रहार करता है। एक तरह से मानवता के प्रति दयावान होना एक खास तरह के करुणाजनक संस्कार को जन्म देता है जो निजी और स्वार्थपूर्ण संस्कारों पर आज तक हर तरीके से भारी पड़ता है। इस दूसरे आघात का परिणाम निश्चय ही व्यापक और अधिक मानवीय है। सामाजिक स्तर पर व्यक्ति हमेशा ही मानवीयता का पक्षधर रहा है, इसलिए अनिश्चित परिणामवाला स्वार्थ तिरोहित होकर निश्चित परिणामवाला संस्कार बन जाता है। इस तरह इस लघुकथा की रचना-प्रक्रिया एक सहज और सार्थक सृजन को जन्म देती है।
इन दोनों ही लघुकथाओं के विश्लेषण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि बलराम अग्रवाल में सृजनशीलता की पहचान है जो उससे रचना करवाती है। यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ कि जब मैं यह कह रहा हूँ कि जीवन में सार्थक सहजता ही रचनाधर्मिता को जन्म देती है अथवा देती रही है तो इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि सहजता और स्वाभाविकता मात्रा निरर्थक होती हैं। सहजता और स्वाभाविकता जीवन का गुण-धर्म हैं और वह रचना में भी उसी तरह सहायक होता है जिस तरह जीवन में; किन्तु सृजनशीलता का कारण महज सहजता और स्वाभाविक नहीं हो सकतीं। अपनी बात को और स्पष्ट करने के लिए उनके संग्रह ‘सरसों के फूल’ की दो अन्य लघुकथाओं 'गाँठ’ और ‘गुलमोहर’ को लेता हूँ।
किसी भी समय ‘गाँठ’ का लग जाना एक अनायास क्रिया है, किन्तु ध्वजारोहण जैसे संवेदनशील अवसर विशेष पर गाँठ का लग जाना, वह भी इस तरह कि  खुलने में ही न आए—रचनाकार की सार्थक उपस्थिति को प्रकट करता है। इतना ही नहीं, मिनिस्टर की चापलूसी के लिए उसी व्यक्ति को पीछे धकेल देना जिसे उस गाँठ को पाने की दक्षता प्राप्त थी—इस सार्थक उपस्थिति को और व्यापक और गहरा बना है। तत्पश्चात्‌ दोषी मानकर उसी व्यक्ति  का निलम्बन तथा उसी का गाँठ खोलने के लिए आमन्त्रण! यह उपस्थिति अर्थ की अनेक परतों को खोलती-सी प्रकट होती है। इस तरह सृजनशीलता परत-दर-परत सार्थक होती चली जाती है। दूसरी लघुकथा ‘गुलमोहर’ भी लगभग उसी भावभूमि की लघुकथा है। आजादी की लड़ाई में बागी करार दिये गये देशभक्त द्वारा गुलमोहर का एक पौधा जतनबाबू के बंगले के बाहर लॉन में रोप दिया जाता है। आज़ादी पा लेने के उपरान्त जतन बाबू दिन-रात उस पौधे की  देखभाल करते हैं और प्रतीक्षा करते हैं कि हरे-भरे इस वृक्ष पर फूल क्यों नहीं लग रहे? यहाँ सहज और सार्थक की प्रक्रिया में अनेक अर्थ एक-साथ फूटते-से दिखाई देते हैं। चाहकर पालने-पोसने पर भी आजादी का यह पेड़ कोई फूल क्यों नहीं देता? यही प्रश्न इस लघुकथा को सहज और सार्थक एक-साथ बना देता है। इस तरह की अनेक लघुकथाएँ इस संग्रह में हैं जो लघुकथा की सृजनशीलता की सार्थक अभिव्यक्ति कही जा सकती है।
मेरी बात अधूरी ही रहेगी यदि मैं यहाँ वर्तमान स्थिति को उजागर करने वाली सर्वाधिक सशक्त लघुकथा ‘अलाव के इर्द-गिर्द’ की चर्चा नहीं करता। यह लघुकथा, लघुकथा के विधान और सही सहज सृजनशीलता दोनों को एक-साथ दर्शाती है। ‘अलाव’ गाँव और गरीबी से जुड़ा शब्द है।  एक तरह से, जहाँ यह लघुकथा समाप्त होती है, वहाँ से ही यह सारा संकलन अपनी व्यापकता और विकीर्णता ग्रहण करता दिखाई देता है। यानी हम गाँव के अलाव के इर्द-गिर्द से शुरू होकर उस व्यापक अलाव की ओर अनजाने ही बढ़ने लगते हैं  जिसमें हमारा घर, हमारा पड़ोस, हमारा गाँव, हमारा शहरऔर हमारा देश सभी कुछ जल रहा है और हम उसके केवल इर्द-गिर्द बतियाते चले जा रहे हैं, बस।  कितनी बड़ी विवशता के बीच जी रहे हैं हम कि सब-कुछ जलता देखकर भी उसके इर्द-गिर्द इकट्‌ठा-भर होने में अपनी सार्थकता मान लेते हैं और निरन्तर चलता रहता है यह सिलसिला—मुझे (और शायद सभी को) कई सारे कुछ मुद्‌दे इसी सिलसिले में से ढूँढने हैं। यहीं आकर यह भी लगने लगता है कि बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ तीखीऔर ठंडी एक-साथ होती हैं। ‘अलाव के इर्द-गिर्द’ से ही यह भी पता  चलता है कि उनकी लघुकथाओं में तीखापन कहाँ जाकर अपना काम कर जाता है ! हालांकि यह परस्पर विरोधी बात लगती है, पर यह विरोध रचनाधर्मिता को और पुष्ट करता है। दरअसल, जो अलाव जलाया है बदरू ने, मिस री उसे धीरे-धीरे कुरेदता हुआ अपनी आँच से फूँक देता है। बात ‘सुराज’ से शुरू होकर ‘पिर्जातन्त’ तथा ‘कोट-कचहरी’ से होती हुई ‘न्याय-व्यवस्था’ पर पहुँचती है और वहाँ से सीधे खेत सींचते हुए श्यामा से जुड़कर चौधरी पर ठहर जाती है। एक क्षण को ऐसा लगता है कि रचना चौधरी पर आकर ठहर गयी है और यहीं ‘अलाव’ की आँच धीमी पड़ने लगती है, पर मिसरी फिर फूँक मारकर उसे दहका देता है। व्यक्तिगत अनुभव  के  दायरे में सभी-कुछ समेटता हुआ यह कथाकार भिन्न-भिन्न और व्यापक आयाम दर्शाता हुआ चलता है। मजेदार बात यह है कि जहाँ लगता है कि अलाव बुझ रहा है, वहाँ वह धीरे से उसे कुरेदता हुआ पुनः उसमें फूँक मारने लगता है। इसीलिए जिस अन्तर्विरोध की बात मैंने ऊपर कही थी  कि इनकी लघुकथाएँ तीखी और ठंडी एक साथ हैं—वही अन्तर्विरोध इसलघुकथा-लेखक की शक्ति बन जाता है। जहाँ बड़े ही ठंडेपन के  साथ कुछ चुभता चला  जाए वहाँ उस चुभन की गहराई का अनुमान सहज ही नहीं लगाया जा सकता। बलराम अग्रवाल के कथाकार की यह विशेषता उसकी अन्य कई लघुकथाओं में भी व्यक्त हुई है—‘बदलेराम कौन है’, ‘युद्धखोर मुर्दे’, 'जुबैदा’, ‘कलम के खरीदार’ जैसी तेज चुभन वाली लघुकथाओं में भी उसका वह ठंडापन सहज ही हमें आकर्षित करता है। फिर, ‘तीसरा पासा’, ‘अन्तिम संस्कार’, ‘नया नारा’, ‘अज्ञात गमन’, ‘गुलाम युग’, ‘पुश्तैनी गाम’ जैसी लघुकथाएँ तो हैं ही इस पद्धति पर रची हुई।
इस तरह से बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ मात्र लेखन तक सीमित नहीं रह जातीं वरन्‌ लघुकथा की सृजनशीलता का एक उदाहरण हमारे  सामने प्रस्तुत करती हैं।
[नोट : समीक्षक डॉ॰ किरन चन्द्र शर्मा दिल्ली विश्वविद्यालय के अंतर्गत खालसा कॉलेज (सांध्य) में हिन्दी विभागाध्यक्ष थे। अब स्वर्गीय।]
('सहकार संचय' जनवरी 1998; सम्पादक:राधाचरण विद्यार्थी, पृष्ठ 52-54)

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

शिल्प की चकाचौंध से दूर 'चन्ना चरनदास'/डॉ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी

[दोस्तो, 'चन्ना चरनदास' की ही एक समीक्षा सुप्रसिद्ध आलोचक श्रद्धेय डॉ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी ने भी कृपापूर्वक लिखी थी। उनकी समीक्षा-दृष्टि के आगे 'चन्ना चरनदास' और अपने-आप को मैंने 'भासा भनिति भोरि मति मोरी' पाया, सो संकोचवश इसे प्रकाशनार्थ कहीं भेज नहीं सका। सन् 2006 में प्राप्त यह समीक्षा भी गड़े-दबे कागजों में से निकली है। प्राप्त होने के अब लगभग पाँच वर्ष बाद इसे आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।--बलराम अग्रवाल]
बलराम अग्रवाल द्वारा लिखित 'चन्ना चरनदास' की कहानियाँ सीधे-सादे ढंग से देखे-सुने लोगों की कथा-कहानी हैं। आजकल की अधिकांश कहानियाँ सीधे-सादे ढंग से नहीं कही जातीं। उनमें शिल्प की चमक ज्यादा पाई जाती है। वे पाठकों को चौंकाती ज्यादा हैं, प्रभावित कम कर पाती हैं। 'चन्ना चरनदास' की कहानियाँ दूसरे ढंग की हैं। ये कहानियाँ देर तक पाठक को अपने में बाँधे रहती है> संग्रह की शीर्षक कहानी 'चन्ना चरनदास' का प्लॉट काफी सीधा और सपाट है; लेकिन इसी सीधे-सपाट बयान में संयुक्त परिवार को जोड़कर रखने वाली नैतिकता का संदेश बहुत सीधे ढंग से दिया गया है। वस्तुत: इतने सीधे ढंग से कहानी कहकर उसे आकर्षक बनाए रखना भी कला है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। जीवन अपने आप में बहुत कलाकारिता समेटे है। उसके किसी अंश को कथा का आधार बनाएँ तो कला अपने आप आ जाती है। 'चन्ना चरनदास' के अतिरिक्त कहानी संकलन में छोटी-बड़ी तीस कहानियाँ और हैं। लेकिन, जो कहानी मुझे सबसे अच्छी लगी, वह है--'वह हथेली औरत की नहीं थी'। इस कहानी में एक सामान्य नाक-नक्श चेहरे वाली औरत के संघर्षशील चरित्र के परस्पर विरोधी व्यक्तित्व को बड़ी कुशलता से उभारा गया है। एक सामान्य औरत अपने औरतपने को दुर्बल स्थितियों में कैसे सँभालती है, इसकी मार्मिकता व्यंजित है। ट्रेन में अकेले सफर कर रही उस औरत का रूखा बर्ताव उसकी सुरक्षा का कवच है। लेकिन आत्मीयता का विश्वास पाते ही वह विनम्र हो जाती है। हमारे यहाँ औरत को अरक्षित, हमेशा दब्बू और भयभीत रहने वाली समझा जाता है। इस कहानी में दिखाया गया है कि संघर्षपूर्ण स्थितियों से टक्कर लेने की क्षमता ने औरत को कितना समझदार और दुनियादार बना दिया है। और इन सब विपरीत परिस्थितियों के बीच वह पति-प्रेम की अनन्यता कैसे सँभाले है। आज नारी चेतना वाली अनेक कहानियों से बलराम अग्रवाल की यह कहानी मुझे ज्यादा अच्छी लगी। संग्रह में अनेक लघुकथाएँ संग्रहीत हैं।बलराम अग्रवाल की ये कहानियाँ संवेदनशील कहानियाँ हैं। उनके पास आंचलिक भाषा और जीवन का अनुभव है जिसे शिल्प साधना के जरिए कहानी-कला में ढालकर उल्लेखनीय और भी कहानियाँ लिखी जा सकती हैं। उन्हें आगे अभी बहुत-कुछ सीखना और जानना भी है।
                                                                            समीक्षक संपर्क : बी-5 एफ-2, दिलशाद गार्डन, दिल्ली-95