सोमवार, 26 जून 2023

सतीश दुबे और लघुकथा-विधा/बलराम अग्रवाल

समकालीन लघुकथा का सफर 1971 से सुचारु मान लिया गया है। लघुकथा के विभिन्न रचनात्मक और समीक्षात्मक बिन्दुओं पर अलग-अलग मान्यताओं के बावजूद इस एक मुद्दे पर लगभग सभी ने अपनी सहमति जता दी है। सफर को 1971 से ‘सुचारु मान लिया गया है’, मतलब जारी वह उससे काफी पहले हो चुका था। 1971 से पूर्व के जिन कथाकारों की सक्रियता बाद में भी बनी रही, उनमें रावी (पहला लघुकथा संग्रह ‘मेरे कथागुरु का कहना है’ सन् 1958 में), विष्णु प्रभाकर (‘सार्थकता’ शीर्षक पहली लघुकथा ‘हंस’ जनवरी 1939 में), रामनारायण उपाध्याय (‘आटा और सीमेंट’ तथा ‘मजदूर और मकान’ शीर्षक से लघुकथाएँ ‘वीणा’ नवम्बर 1944 में), श्याम सुन्दर व्यास (‘ध्वनि-प्रतिध्वनि’ शीर्षक से लघुकथा ‘वीणा’ अगस्त 1945 में), हरिशंकर परसाई (वे 1960 से पहले से ही लघुकथाएँ लिख रहे थे—परसाई रचनावली, भाग-1, पृष्ठ 6), सुरेन्द्र मंथन (‘घातक प्रवृत्ति’ शीर्षक पहली लघुकथा दैनिक वीर प्रताप 21 नवम्बर 1961 में), पूरन मुद्गल (‘कुल्हाड़ा और क्लर्क’ शीर्षक पहली लघुकथा दैनिक हिन्दी मिलाप 24 जून 1964 में), सतीश दुबे (‘सरिता’ 15 फरवरी, 1965 अंक में ‘ड्रेस का महत्व’) और सुगन चन्द्र मुक्तेश का नाम लिया जा सकता है। मुक्तेश जी का लघुकथा संग्रह ‘स्वाति बूँद’  सन् 1966 में आया था, लेकिन उनकी पहली लघुकथा कब, किस पत्र-पत्रिका में छपी, इस तथ्य का उल्लेख नहीं मिला। सन् 1971 के बाद भी लघुकथा लेखन में उनकी सक्रियता का प्रमाण यह मिलता है कि ‘स्वाति बूँद’ के परिवर्द्धित संस्करण (1996) में उन्होंने 30 लघुकथाएँ और जोड़ी थीं। लेकिन 1971 से पहले या उसके बाद, पत्र-पत्रिकाओं आदि में भी लघुकथा लेखन को लेकर वे कितने सक्रिय रहे, इस पर बारीकी से काम होना अभी शेष है।



बहरहाल, डॉ॰ सतीश दुबे की लघुकथाओं के बहुरंगी उपवन से गुजरते हुए लघुकथा-विधा के विविध और व्यापक पक्षों पर बिना प्रयास ही बात होती रहेगी। सन् 1965 में लघुकथाओं के प्रकाशन की शुरुआत के बाद सन् 1974 में उनकी लघुकथाओं का पहला संग्रह आया—‘सिसकता उजास’। समकालीन लघुकथा के इतिहास की गणना कोई अगर स्वातन्त्र्योत्तर काल (अगस्त1947) से करना चाहे तो अभी तक ज्ञात तथ्यों के आधार पर 1947-48 में प्रकाशित कथाकार सुदर्शन का
‘झरो
खे’

पहला लघुकथा संग्रह सिद्ध होता है। उसके बाद, 1950 में रामवृक्ष बेनीपुरी का ‘गेहूँ और गुलाब’ तथा आनन्द मोहन अवस्थी का ‘बंधनों की रक्षा’, 1951 में अयोध्या प्रसाद गोयलीय का ‘गहरे पानी पैठ’, 1952 में कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर का ‘आकाश के तारे धरती के फूल’, 1955 में शिवनारायण उपाध्याय का ‘रोज की कहानी’, 1956 में भृंग तुपकरी का ‘पंखुड़ियाँ’, 1957 में शरद कुमार मिश्र ‘शरद’ का ‘धूप और धुआँ’, सम्भवत; इसी वर्ष जगदीशचन्द्र मिश्र का ‘पंचतत्त्व’, 1958 में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित कथाकार रावी का ‘मेरे कथागुरु का कहना है’ (प्रथम भाग), रावी का ही ‘मेरे कथागुरु का कहना है’ (दूसरा भाग), 1966 में सुगन चन्द्र मुक्तेश की लघुकथाओं का संग्रह ‘स्वाति बूँद’ आया।  लेकिन समकालीन लघुकथा के काल को यदि 1970 के बाद से प्रारम्भ मानें तो डॉ॰ सतीश दुबे का ‘सिसकता उजास’ (1974) पहला और कृष्ण कमलेश का ‘मोहभंग’ (1975) दूसरा एकल लघुकथा संग्रह सिद्ध होगा।

डॉ॰ सतीश दुबे ने विपुल लघुकथा लेखन किया है। गुणात्मक दृष्टि से उनके भण्डार में एक से बढ़कर एक लघुकथा हमें मिलती है। जब यह कहा जाता है कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद गत 74-75 वर्षों के शासन ने देश को क्या दिया? तब पूर्व के सत्तारूढ़ दल-समर्थक अपने-अपने शासनकाल की मशीनी उपलब्धियों के तथ्य गिनाने लगते हैं। कितने अस्पताल बनवाये, कितने पुल बनवाये, कितने कम्प्यूटर्स का आयात किया, कितने हथियार खरीदे, विदेश नीति क्या रही आदि-आदि। उक्त अवधि में सत्ता में रहा एक भी दल यह नहीं बता पाता कि कितनी शाहबानो को न्याय दिलाया, कितने किसान परिवारों को आत्महत्या की जद्दोजहद से बाहर निकाला, कितने बलात्कारियों को, मॉब-लिंचिंग के कितने अपराधियों को तुरत-फुरत दंडित किया, देश में भयमुक्त वातावरण कितना बनाया आदि-आदि। कुल मिलाकर यह कि यदि किसी भी शासनकाल में आमजन न्याय से वंचित रहा है तो देश के द्वारा मंगल ग्रह तक यान को पहुँचाना निरर्थक है, बेमानी है। जन-इतिहास जितनी सच्चाई के साथ साहित्यिक रचनाओं में मिलता है, कभी भी इतिहास की किताबों में नहीं मिलता, मिल ही नहीं सकता। काल के विद्रूप की सत्यता को मापने और जानने का पैमाना हमेशा उस काल का साहित्य ही हुआ करता है। सतीश दुबे की लघुकथा ‘जन-सुनवाई’ स्वातन्त्र्योत्तर काल में भयजनित जन-सामान्य की उस पीड़ा को स्वर देती है जो विफल न्याय अथवा नजरअन्दाज न्याय के रूप में चप्पे-चप्पे पर व्याप्त रहा है। लोकतन्त्र में साहित्यकार का सत्य यह है कि वह वोट किसी भी नेता, किसी भी दल के पक्ष में डालता रहा हो, स्वर हमेशा दलित, पीड़ित और निरीह के पक्ष में रखता आया है।   

लघुकथा में पात्र के नाम का कितना महत्व है, इस तथ्य का अनुमान ‘गजब’ के मूँजीलाल के यथा नाम तथा चरित्र के आकलन से सहज ही लग जाता है। यह लघुकथा समीक्षित काल (इस काल को 1971 से न मानकर सीधे स्वातन्त्र्योत्तर काल भी माना जा सकता है) में जहाँ मध्यम वर्ग और मजदूर वर्ग के बीच अन्तर्सम्बन्धों पर खासा प्रकाश डालती है, वहीं मजदूर वर्ग के आत्माभिमान को प्रतिष्ठित करने का दायित्व-निर्वाह भी करती है।

हिदी की अनेक लघुकथाओं में ‘प्रत्युत्तर’ शब्द का धड़ल्ले से प्रयोग मिलता है; लेकिन इस शब्द का प्रयोग कब, कहाँ करना चाहिए, इस पर अधिकतर कथाकार सिर खपाते नजर नहीं आते, डॉ॰ दुबे भी नहीं। सीधी-सादी बात है कि ‘उत्तर के उत्तर में जो उत्तरपरक बात कही जाए, उसे प्रत्युत्तर कहा जाएगा’; बिल्कुल वैसे ही, जैसे प्रश्न के उत्तर में जो प्रश्न किया जाता है वह प्रतिप्रश्न कहा जाता है। प्रश्न अथवा जिज्ञासा का उत्तर तो ‘उत्तर’ ही होता है, ‘प्रत्युत्तर’ नहीं। बहुत संकोच के साथ लिखना पड़ रहा है कि दुबे जी की ‘हूक’,  ‘प्रश्न…?’, ‘खास दिन’, ‘इजहार’, ‘गुनहगार’, ‘खेलवाली माँ’ आदि लघुकथाओं में इस शब्द का यथोचित प्रयोग नहीं हुआ है। बार-बार के गलत प्रयोग को हम ‘चूक जाना’ भी नहीं कह सकते।

‘हूक’ लघुकथा को लेकर परिवार में बुजुर्गों की जरूरत महसूस करते बच्चे के मनोविज्ञान पर लम्बी बात की जा सकती है; लेकिन इसकी एक अन्य सुन्दरता इसमें प्रयुक्त भावों की वह बारीकी भी है जो अभिजात्य वर्ग-विशेष में बालकों और अभिभावकों के बीच पनप चुकी और सामान्य हो चुकी अंग्रेजी शब्दावली के माध्यम से व्यक्त है। लघुकथाओं के नैरेशन में दुबे जी की भाषा आम तौर पर उर्दू मिश्रित हिन्दुस्तानी भाषा है और कहीं-कहीं अंग्रेजी मिशित भी; तथापि संवादों में पात्र और परिस्थिति के अनुरूप उर्दू-बहुल और अंग्रेजी-बहुल भाषा का प्रयोग भी उन्होंने किया है। कह सकते हैं कि अपने कथाकार को उन्होंने देश-काल, परिस्थिति और पात्र के साथ चलाया है, उन सबको जबरन अपने साथ नहीं चलाया। इसी बात को हम यों भी कह सकते हैं कि कथा-पात्रों को वे उनकी अपनी भाषा बोलने की स्वतन्त्रता देते हैं, अपने स्वयं के शब्द उनके मुँह में नहीं रखते। नैरेशन में क्लिष्ट उर्दू शब्द, क्लिष्ट हिन्दी शब्द, कहीं-कहीं अंग्रेजी, कहीं हिन्दी-उर्दू मिश्रित युग्म तो कहीं हिन्दी-अंग्रेजी मिश्रित युग्म शब्द भी आ गये हैं । उदाहरणार्थ—शिफ्ट, गुफ्तगू, निजात, हमेशा-मुजब (लघुकथा ‘इजहार’), लण्डूरे, शाउट (लघुकथा ‘बाबूजी’), मातहत मुलाजिमात, कोर्निश, हुक्मादूली (लघुकथा ‘सल्तनत कायम है’), फौत, वारिसाना, खुलासेवार (लघुकथा ‘फैसला’), छाइली (लघुकथा ‘पाँव का जूता’), बद्दी, फतवी (लघुकथा ‘मोक्ष’), भृत्य (लघुकथा ‘मटमैले आकाश के बीच’),     लबूरने लगेगा (लघुकथा ‘रिश्ताई नेहबन्ध’)।

दुबे जी की अधिकतर लघुकथाएँ दायित्वपूर्ण लेखन के सुन्दर उद्धरण के रूप में प्रस्तुत हैं। इन लघुकथाओं को पढ़ते हुए यह विश्वास बनता है कि लेखक को मालूम होता था कि क्या लिखना है और क्यों? अस्मिता की रक्षा के लिए उनके स्त्री-पात्र किसी का मुँह नहीं ताकते बल्कि स्वयं सामने आते हैं, विपरीत परिस्थितियों से समझौता नहीं करते, उनसे टकराते हैं। लघुकथा ‘इनायत’ में दो बार की विधवा जुबेदा, ‘प्रश्न…?’ की उप-प्राचार्या मिसेज दीक्षित, ‘मोर्चाबन्दी’ की द्रोपदी, घंटेभर के लिए तय करके लायी गयी ‘गजब’ की मजदूरिन, ‘गुनहगार’ की गुनहगार। इसी तरह पुरुष पात्रों में ‘दस्तूर’ का सुशांत प्रिय। रामलू (लघुकथा ‘फरियाद’) जैसे विवश पात्र भी उनकी लघुकथाओं में हैं ही क्योंकि वे समाज में हैं और बहुतायत में रहेंगे भी। काश, रामलू श्रीमन्त और उनके चहेतों को ‘शैतान की भाषा’ के औतार वाले तेवर दिखा पाता।            

‘पैरों की रस्सी’ सकारात्मक सोच की ऐसी सुन्दर रचना है जिसका ताना-बाना डॉ॰ दुबे जैसा सिद्ध कथाकार ही बुन सकता था। कृषक आत्महत्या का घटना-बहुल क्षेत्र क्योंकि महाराष्ट्र रहा, इसलिए कथा में पात्रों के नाम और वातावरण उसी प्रांत से चुने जाने की सावधानी उनके द्वारा बरती गयी।

लघुकथा की आकारगत लघुता के मद्देनजर इसके वाक्य यथा-संभव, सप्रयास छोटे और गठे हुए होने चाहिए, सभी आयु-वर्ग व बुद्धि-वर्ग के पाठकों के लिए वे सहज ग्राह्य सिद्ध होते हैं; लेकिन वाक्य-प्रयोग के इस नियम या किसी भी अन्य नियम को पत्थर पर लिखी इबारत मान लेने की जरूरत नहीं है। हाँ, इसका अभ्यास अपेक्षित है, साथ ही स्व-विवेक से भी काम लेना अपेक्षित है। नियम में ढील के लिए इन या इन-जैसे अन्य वाक्यों को उद्धरण के रूप में प्रस्तुत न किया जाकर स्वयं को मुक्त रखा जाए, वही उपयुक्त होगा। ‘नया महकमा’ लघुकथा ऊपरी कमाई के अभ्यस्त लोग लहरें गिनकर भी कमा लेते हैं जैसे लोक-प्रचलित रोचक कथ्य को अपनी काया में समेटे है, उसकी पात्र कलादेवी की तरह। 

नीचे उद्धृत पूरे-पूरे पैरा अलग-अलग लघुकथाओं से एक ही वाक्य हैं। लघुकथा में दीर्घ और संयुक्त वाक्यों के प्रयोग के पीछे कथाकार की दो विवशताएँ प्रतीत होती है। पहली यह कि उसने प्रतीकों, बिम्बों, उपमाओं आदि के प्रयोग का मन बना लिया हो और बहुत-सारी बातें एक ही बार में कह देना चाहता हो; और दूसरी यह कि वह उपन्यासकार अथवा कहानीकार पहले है और दीर्घ वाक्य-प्रयोग को पूर्ण-तिलांजलि देना उसके वश में नहीं रहा है। लेकिन यह भी देखिए कि यह एक-एक दो-दो शब्दों वाले वाक्यों से रची चर्चित लघुकथा ‘पासा’ वाले ही सतीश दुबे हैं, कोई अन्य नहीं।

‘जाने और लौटने पर प्रतिदिन दिखाई और महसूस किए जाते मातमी-ताजिए को विसर्जित करने की मनःस्थिति बनाने के लिए फोन-कॉल की मेन लाइन बन्द करवाकर घर के कॉल सेण्टर ऑपरेटर यानी श्रीमतीजी को कैसे खुश किया जाए इस बिन्दु पर गहरे से सोचने-विचारने के बाद शब्दों के लोबान-गूगल लेकर उस बुर्राक-बुत को धूप देने वे पहुँचे।’                                                                         (‘नया महकमा’)

जीवन में पहली बार भयंकर आकस्मिक तनाव की स्थिति को इस प्रकार खुशी के इन क्षणों में तब्दील होते देख भावनाओं को जज्ब नहीं कर पा रहे ऑटो-अंकल नानक सिंह खड़े हो गए तथा आँखों से बहने को आतुर आँसुओं को साफ करते हुए मैडमजी के साथ एक-एक बच्चे की ओर आँखें घुमाते हुए बोले, ‘‘पुत्तरो! इस बूढ़े अंकल के साथ ये क्या मजाक...!’’                                                                  (‘खास दिन’)

अपने बच्चों की अब तक की जीवन-यात्रा से सम्बन्धित विभिन्न अनुभवों, प्रसंगों, उम्रानुकूल चर्चा-चुहुल, बलात् खोखले हँसी-ठट्ठों के बावजूद दिल-दिमाग के खालीपन की यथावत् ऊब से निजात पाने के लिए कुर्सियाँ लगाकर दोनों आँगन में बैठ गए।                                                    (‘अगला पड़ाव’)

गाँव के वे लोग, जिनको जूती की नोंक पर रखा जाता था, घर की ड्योढ़ी पर आने का साहस करना तो दूर, इस तरफ आने की सोचना ही जिनके लिए आकाश के तारों तक पहुँचना था, वे ही लोग दिन-ब-दिन सिर उठाने लगे थे।                                                               (‘रीढ़’)

बाबा ने अपने अनुभवों की तराजू में बेटे की चुनौती, तनाव, जल्दबाजी तथा ज्यादती को तोला तथा प्रेम से अपने निकट बिठाया, ‘‘बेटा महेन्द्र राणा! जवान होते हुए और बदलती हुई हवा का रुख जानते हुए भी तुम ठाकुरी खून को दबा नहीं पा रहे हो।…                      (‘रीढ़’)

महेन्द्र राणा ने बड़े आदर और नेक आशा-आकांक्षाओं के रूप में पिता को देखा और अनुभवी शिक्षक से जीवन में सफलता प्राप्त करनेवाला मन्त्रा प्राप्त कर प्रसन्न शिष्य की तरह, प्रणाम कर बाहर निकल गया।                                                                          (‘रीढ़’)

वह सुबह-भ्रमण के लिए गाँव से दो-तीन किलोमीटर दूर स्थित घने बरगद की छत तले ओटले पर स्थित शिव मन्दिर पर जाकर बैठ जाता तथा बाईं ओर वृक्षों के झुरमुट से कुछ आगे स्थित कुएँ के पानी को उलीच लेने की भागमभाग करती हर उम्र की लड़कियों की गतिविधियों को निहारा करता।                                                        (‘पेड़ों की हँसी’)

मुस्लिम बस्ती के तमाम मर्द-बच्चे हैरान-परेशान ही नहीं बदहवास-से घरों से बाहर इकट्ठा होकर एक-दूसरे का चेहरा देखते हुए सवाल कर रहे थे कि आखिर हसन साहब जैसे नेक, अमनपसन्द और कौम को सही रास्ता दिखानेवाले इन्सान का कत्ल किसने और क्यों किया...?                                                                         (‘कत्ल’)