गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

समाज के जोड़ों में हो रहे दर्द का आख्यान है लघुकथा / बलराम अग्रवाल



भाई मधुदीप ने एक साधारण नागरिक की हैसियत से 'पड़ाव और पड़ताल' नाम से समकालीन लघुकथा साहित्य को प्रस्तुत करने की जिस यात्रा की शुरुआत 1988 में शुरू की थी, फरवरी 2013 के विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में उसने अनायास ही असाधारण मुहिम का रूप ले लिया। यह नि:संदेह लघुकथा के प्रति उनके घोर समर्पण का द्योतक है कि अकेले दम पर 'पड़ाव और पड़ताल' के प्रकाशन को एक लम्बी श्रृंखला का रूप देकर सितम्बर 2015 के अंत तक यानी मात्र 31 माह की अल्प अवधि में उन्होंने उसके 15 खण्ड प्रकाशित कर दिखाए हैं। खण्ड 15 में संकलित उषा अग्रवाल 'पारस', खेमकरण सोमन, मनोज सेवलकर, शोभा रस्तोगी और संतोष सुपेकर सभी छह लघुकथाकार मुख्यत: 21वीं सदी की देन हैं। इन सभी की लघुकथाओं पर मेरा एक आलोचनात्मक लेख पुस्तक के अंत में संकलित है। सभी संकलित कथाकारों तथा संपादक व श्रृंखला संयोजक मधुदीप को अनेक बार बधाई के साथ आप सब के अवलोकनार्थ वह लेख यहाँ प्रस्तुत है।--बलराम अग्रवाल
विचार हो या कर्म, नीति हो या धर्म—सभी स्तरों पर समकालीन समाज असंगतियों का एक उलझा हुआ गुंजल्क बनकर रह गया है। इस गुंजल्क का हर घुमाव, हर मोड़ अवांछित और अप्रिय असंगति के कारण दर्द का पुंज बन गया है। समकालीन लघुकथा इस गुंजल्क के जोड़ों और घुमावों में पैठ चुके दर्द का आख्यान है। यह जो असाध्य गठिया सामाजिक ताने-बने में पैठ गया है, यह जो विरूपता पारस्परिक सम्बन्धों में आ गई है, मनुष्य के अपने ही किए कर्म और अपनी ही सोच में जो अविश्वास का जहर घुल गया है—समकालीन लघुकथा उस ओर इंगित करती है। इसलिए उसके प्रेरणा-स्रोत एवं शक्ति-स्रोत उसके अपने आन्तरिक चक्षु हैं, वह विवेक उसका शक्ति-स्रोत है जिसके द्वारा वह विभिन्न भ्रमों के जाल में फँसती और अविश्वास के दलदल में धँसती जा रही अपनी पीढ़ी को उबारने की मुहिम चलाता है। वह विवेक नहीं होगा तो लघुकथा क्या कोई भी साहित्य समाज के जोड़ों में हो रहे दर्द का रुदन भर कहलाएगा, आख्यान नहीं बन पाएगा। समकालीन लघुकथा के पास वह विवेक है; इसीलिए मैंने कहा कि वह समाज के जोड़ों में हो रहे दर्द का आख्यान है।   
लघुकथा आज उस मुकाम पर आ पहुँची है जहाँ से संजीवनी शक्ति वह स्वयं प्राप्‍त कर सकती है, किसी अन्य से उसे उधार लेने की आवश्यकता नहीं है। हाँ, एक दौर ऐसा जरूर था जब लगता था कि पुरातन बोध कथाओं, धार्मिक कथाओं, उपदेश कथाओं, दृष्टांतों का सहारा लिए बिना एक प्रभावशाली लघुकथा लिख पाना असम्भव है; लेकिन अब तो यह ‘गुफाओं’ को छोड़कर ‘मैदान’ में आ बसी है। एक समय था जब हम मानते थे कि ‘उसे (लघुकथा को) जीवन्‍त तथा प्रभावशाली रूप में अभिव्‍यक्‍त करने के लिए कहीं से और किसी भी प्रकार की सामग्री लेने से कोई संकोच नहीं होना चाहिए।’ लेकिन आज का सच यह है कि  लघुकथा को अपने समकालीन मानवीय जीवन को केन्‍द्र में रखना अनिवार्य है, और अपनी पुरातन कथन-भंगिमा में, शिल्प में, शैली में, रूप-सवरूप में वापस लौट जाने की कतई जरूरत नहीं है।
लघुकथा की प्रतिष्‍ठा को धक्का पहुँचाने वाला कोई एक कारक नहीं है, अनेक हैं। जैसे ‘खूबसूरत’ होना ही किसी-किसी का स्वयं का दुश्मन हो जाता है, वैसे ‘लघुकाय’ होना भी लघुकथा की विधापरक प्रतिष्ठा को धक्का पहुँचाने वाले अनेक कारकों में से एक है। होना तो यह चाहिए था कि ‘लघुकाय’ होना इसकी विशिष्टता बनकर उभरता, स्वीकार्य होता; लेकिन ‘कुछ पागलों ने महफिल बना दी पागलखाना’ की तर्ज़ पर वह विशिष्टता भ्रष्टता में तब्दील होकर सामने आती रही, अब भी आती रहती है और आगे भी आती रहेगी। इसके जिम्मेदार अधकचरे लेखक तो हैं ही, वे लोग भी हैं जो कम्पोजिटर के साथ बैठकर पत्र-पत्रिका का पेज सेट कराते समय ‘खाली जगह’ के अनुरूप रचना को तरजीह देते हैं, उसकी गुणवत्ता को, समय की माँग को अक्सर वे नहीं देखते। डॉ॰ कमल किशोर गोयनका के अनुसार, ‘दो पंक्तियों के हासपरक संवाद, चुटकुले, परिहास, विनोदपरक उक्तियाँ आदि को भी लघुकथा की संज्ञा के साथ प्रस्‍तुत किया जाता रहा है। मेरे विचार में लघुकथा को ऐसी अराजकता, ऐसी मनमानी, ऐसी घोषणाओं से स्‍वयं को बचाना होगा और अपने विधागत स्‍वरूप की रक्षा करने के लिए सभी प्रकार की बचकानी हरकतों पर कठोरता से अंकुश लगाना होगा।’
विषय वैविध्य की दृष्टि से देखें तो ‘सामाजिक सरोकारों की लघुकथाएँ’, ‘रूढ़ियों को तोड़ती लघुकथाएँ’, ‘बदलते जीवन-मूल्यों की लघुकथाएँ’, ‘मानवीय सरोकारों की लघुकथाएँ’, ‘सपनों में झाँकती लघुकथाएँ’, ‘मरुथल की माटी से उपजी लघुकथाएँ’, ‘जड़ संस्कारों से लड़ती लघुकथाएँ’, ‘महिला कथाकारों की लघुकथाएँ’, ‘मध्यवर्गीय विवशता की लघुकथाएँ’, ‘हिन्दीतर प्रान्तों की लघुकथाएँ’ ‘नैतिक मूल्यों की लघुकथाएँ’, ‘चारित्रिक विरोधाभास की लघुकथाएँ’, ‘समय की साँकलों को तोड़ती लघुकथाएँ’, ‘जनवादी लघुकथाएँ’, ‘प्रगतिशील लघुकथाएँ’, ‘महानगर की लघुकथाएँ’, ‘स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की लघुकथाएँ’ आदि अनगिनत विषयों को केन्द्र में रखकर लघुकथा संकलनों का संपादन या तो सामने आ चुका है या भविष्य में सामने आ सकता है। तात्पर्य यह कि समकालीन लघुकथा ने कथ्य के तौर पर जीवन को उसके समूचे विस्तार में अपनाया है, उसके रेशे-रेशे को देखा है।
इस संकलन में लघुकथाओं की शुरुआतमूँगफली टाइमपास’ (उषा अग्रवालपारस’) से होती है और समापनफितरतगढ़ में एक दिन’ (संतोष सुपेकर) से। मूँगफली टाइमपास‘डेटिंग’ का आनन्द उठाने वाले युवक-युवतियों के प्रेम-सम्बन्धों के बीच पसर चुकी पारस्परिक संवेदनहीनता की कथा है तो फितरतगढ़ में एक दिनसामान्य नागरिकों के शीशे के घरों में रहने की जिजीविषा और जीवन में एक-दूसरे के प्रति पसर आए अविश्वास तथा स्वयं की असुरक्षा की भावना को बड़ी सहजता से दर्शाती है। इस संकलन में यह अनायास हो सकता है, लेकिन समाज में इस चरित्र का उत्पन्न होना और पनपते जाना अनायास नहीं है। इस संकलन के इन दो छोरों के आधार पर हम मान सकते हैं कि समकालीन भारतीय समाज युवा प्रेम-सम्बन्धों में पनप चुकी पारस्परिक संवेदनहीनता और सामान्य नागरिकों के बीच पनप चुके अविश्वास के पाटों के बीच जकड़ा पड़ा है अथवा विवश-सा खड़ा है। और यह भी कि, जिस समाज का युवा वर्ग तथा सामान्य नागरिक वर्ग इन दुसाध्य व्याधियों से ग्रसित हो जाए, उसे नष्ट होने से बचाने के लिए कुछ सार्थक, सकारात्मक और संयुक्त प्रयासों की महती आवश्यकता होती है। कहना न होगा कि इन प्रयासों के सूत्र का सिरा भी उपर्लिखित दोनों समस्याओं के बीच ही कहीं छिपा होता है जिसे पकड़कर व्याधि को मिटाने के चरित्र का विकास किया जा सकता है। ‘मूँगफली टाइमपास’ में वह सिरा नीना के भैया के रूप में उपस्थित है जो उसका फोन सुनते ही उसे दिलासा देता है—“तुम चिन्ता मत करो, वहीं कहीं आराम से बैठो; मैं जल्दी पहुँचता हूँ।” तो ‘फितरतगढ़ में एक दिन’ में यह सिरा सर्वसम्मति से लिए गए इस फैसले में उपस्थित है “…कि दोष न शहरवासियों का है, न शीशों का। दोष तो इन नामुराद पत्थरों का है जो वक्त-बेवक्त शीशों पर गिरकर उन्हें तोड़ते हैं।” फैसलाशीर्षक से इस संकलन में दो लघुकथाएँ हैएक उषा अग्रवालपारस की तथा एक खेमकरण सोमन की। इनमें उषा अग्रवाल की लघुकथा वृद्ध माता-पिता के प्रति पुत्री के जिम्मेदार रवैये की कथा है जो अनायास ही श्याम सुन्दर अग्रवाल की बहुचर्चित लघुकथाबेटी का हिस्साकी याद दिलाती है; जब कि खेमकरण सोमन की लघुकथा पढ़ी-लिखी युवा पुत्रियों के प्रति पिता के दायित्व की कथा बयान करती है। उषा अग्रवाल कीदिल और दर्द’, ‘वैलेन्टाइन’, ‘मासूमियत’, ‘प्रीतरागप्रेम की शाश्वतता को दर्शाती अच्छी लघुकथाएँ हैं।
      खेमकरण सोमन की लघुकथाओं में कथातत्व की तुलना में विचारतत्व हावी रहता है। इसके कारण उनकी लघुकथाओं का प्रभाव कथात्मक कम और निबन्धात्मक अधिक हो जाता है; बिल्कुल वैसे जैसे अनेक कथाकारों की लघुकथाओं में कथातत्व की तुलना में काव्यतत्व, तो अनेक की लघुकथाओं में व्यंग्यात्मकता हावी रहती है। लघुकथा में कथातत्व के साथ इतर तत्व का सम्मिलन त्याज्य नहीं है, लेकिन उसे कथातत्व पर हावी नहीं हो जाने देना चाहिए। कथेतर तत्व के हावी होने पर कथा और उसके प्रभाव के गौण हो जाने के खतरे से लघुकथा को बचा पाना असम्भव सिद्ध हो सकता है। भारतीय घरों में, और समाज में भी, बालकों विशेषत: लड़कियों के प्रति अगम्भीर बर्ताव किया जाता है। खेमकरण सोमन की लघुकथावह एक लड़की हैइसी विषय को केन्द्र में रखकर लिखी गई है। उषा अग्रवालपारसकीबड़ी या छोटीघर-घर-घरतथा संतोष सुपेकर की ‘हम बेटियाँ हैं न!’ भी परिवारजनों के बीच बेटियों के प्रति हेय नजरिया होने की शिकायत करती इसी कलेवर की रचनाएँ हैं। ये लघुकथाएं प्रकारान्तर से बच्चियों के मन की टीस को ही रेखांकित करती हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने हमारे पारस्परिक सौहार्द, लगाव और मानवीय बंधनों को किस हद तक दुष्प्रभावित किया है, इसे खेमकरण सोमन ने अपनी लघुकथाचौरानवें मिस्ड कॉल्समें दर्शाया है। उनकी लघुकथाकौन है उधरमें यह तथ्य उभरकर आया है कि प्रेम की शाश्वतता प्रेम-सम्बन्धों से कहीं आगे की चीज है। खेमकरण सोनम कीविश्वग्रामऔरकूड़ा-करकटतथा मनोज सेवलकर की ‘सड़क वाले बाबा’ परिवार में बुजुर्गों के लिए लगातार कम होती जा रही जगह पर चिन्ता व्यक्त करती लघुकथाएँ है। इन्हें पढ़ते हुए सुभाष नीरव कीकमरा’, एन॰ उन्नी कीकबाड़लघुकथाएँ अनायास ही याद जाती हैं। लेकिन संतोष सुपेकर की लघुकथा ‘अर्जी’ अलग फ्लेवर की रचना है। यह कथा-साहित्य में युवा पीढ़ी द्वारा बुजुर्ग माता-पिता की उपेक्षा के बने-बनाए पैटर्न को तोड़कर उसके द्वारा बुजुर्ग माता-पिता के प्रति लगाव और प्रेम की अनुकरणीय कथा बनकर सामने आती है। इसे पढ़ते हुए श्याम सुन्दर अग्रवाल की सुप्रसिद्ध लघुकथा ‘माँ का कमरा’ सामने आ खड़ी होती है। समाज में विभिन्न प्रकार की आपाधापियों के कारण अविश्वास, असहयोग, संवादहीनता और संवेदनहीनता के प्रसार की ओर इंगित करने का काम अगर साहित्य का है तो सहृदय पाठक को विश्वास, सहयोग, संवादशीलता और संवेदनशीलता के पथ की ओर अग्रसर होने हेतु प्रेरित करने का काम भी साहित्य का ही है। हाँ, इतना जरूर है कि समकालीन लघुकथा यह काम बिना किसी नारेबाजी के संकेत मात्र से करती है। महाशरीफमें खेमकरण ने बिम्बों का प्रयोग करते हुए आज के समाजसेवियों की असलियत का भंडाफोड़ करने का प्रयास किया है।फैसलाएक क्रान्तिकारी कदम को जन्म देती-सी लघुकथा है।
लघुकथामेहमानमें मनोज सेवलकर ने दिखाया है कि मनुष्य के जीवन में गरीबी अपनों से दूर रहने को विवश करने वाला अभिशाप है। कहा भी गया है कि—‘टूट जाता है गरीबी में जो रिश्ता खास होता है।’ उनकी लघुकथा लकीरेंवस्तुत: तो जीवन में पसर आई धैर्यहीनता और विवेकहीनता की ओर ही अधिक इशारा करती है; जबकि जामा इसे स्वाबलम्बी स्त्री के अभिमान को दर्शाने का पहनाया गया है। बचपनएक अच्छे विषय की प्रस्तुति है। वफादार की तलाशलघुकथा में प्रतीक के तौर पर प्रयुक्त बिल्ली और कुत्तों के स्वाभाविक चरित्र के चित्रण का ध्यान नहीं रखा गया है। प्रतीकों के चरित्र में तदनुरूप स्वाभाविकता का निर्वाह अक्सर आवश्यक माना जाता है। बहरहाल, इसे हम नए बाजारवाद से जोड़कर देख सकते हैं और इस दिशा में सेवलकर का अच्छा प्रयास भी कह सकते हैं। खेमकरण सोमन की ‘महाशरीफ’, मनोज सेवलकर की लघुकथाएँ गिरगिट पंचायतऔरदूरदृष्टितथा संतोष सुपेकर की ‘नहीं चाहिए रक्षक’ समकालीन भारतीय राजनीतिकों की चारित्रिक गिरावट पर जबर्दस्त टिप्पणी दर्ज करती हैं।आभारनैतिक मूल्यों की पैरवी करती साधारण लघुकथा है।चेटिंगके माध्यम से मनोज सेवलकर सोशल साइट्स पर समय बरबाद करने की तुलना में घर-परिवार के सदस्यों के साथ बैठने, घुलने-मिलने की पैरवी करते हैं। जीवन में पसर आई धैर्यहीनता और विवेकहीनता को मनोज सेवलकर ने अपनी लघुकथा ‘लकीरें’ में स्थान दिया है।
राधेश्याम भारतीय ने समकालीन हिन्दी लघुकथा सम्बन्धी विषय पर पीएच॰ डी॰ उपाधि प्राप्त की है अत: लेखन और समालोचना दोनों में ही नहीं, तो कम से कम एक में उनसे अन्यों की तुलना में एक अलग स्तर की उम्मीद का बँधना स्वाभाविक है। लेकिन, समान पीढ़ी के रचनाकारों की रचनाओं में कुछेक बिन्दुओं का समान हो जाना भी स्वाभाविक ही है। राधेश्याम की लघुकथा थप्पड़ और पूड़ीका स्थापत्य यह है कि भूख व्यक्ति के अभिमान को खा जाती है; जब किपीड़ामें दिखाया गया है कि विवश कर डालने वाली स्थितियाँ व्यक्ति को पलायन की ओर धकेलती हैं। लघुकथा दु:में उन्होंने दिखाया गया है कि व्यक्ति सामान्यत: विभ्रम की स्थिति में जीता है। इनकी लघुकथाआँधीभी एक बेहतरीन लघुकथा है। राधेश्याम भारतीय कीमाँ का दिल’, ‘प्रतिरूपऔरनींदपारिवारिक रिश्तों में प्रेम और लगाव की सघनता को दर्शाती लघुकथाएँ हैं। इनकी ऐसी लघुकथाओं का नायक आम तौर परबड़ा भाईहै जो लगभग विपरीत पारिवारिक परिस्थितियों से घिरा और आर्थिक विपन्नता के मुहाने पर खड़ा होकर भी परिवार में समरसता बनाए रखने का भरसक प्रयत्न करता है। उनकी लघुकथा दूरीपढ़ते हुए पाठक का ध्यान इसी संकलन में खेमकरण सोमन की लघुकथा ‘मनीऑर्डर’ की ओर चला जाना अस्वाभाविक नहीं है। ये दोनों ही लघुकथाएँ पारिवारिक प्रेम-बन्धनों की कथा बयान करती हैं। इन लघुकथाओं को पढ़ते हुए रामेश्वर काम्बोजहिमांशुकी लघुकथा ऊँचाईतथा पवन शर्मा की अनेक लघुकथाएँ अनायास ही याद आ जाती हैं। यह निर्विवाद है कि कुछ हिन्दी लघुकथाओं ने परिवार से बाहर भी मानवीय संवेदनशीलता के उच्च आयाम स्थापित किए हैं। अशोक भाटिया कीरिश्ता’, रूप देवगुण कीजगमगाहट’, शोभा रस्तोगी कीगंदा आदमी’, दीपक मशाल कीबेचैनीआदि अनेक लघुकथाओं का नाम इस सम्बन्ध में गिनाया जा सकता है।
      काले बड़े डंकवाली मधुमक्खी की ‘भिन-भिन’ को प्रतीक बनाकर शोभा रस्तोगी ने  डंकवाली मधुमक्खीकी रचना की है। इस लघुकथा में, समय पर बेटी के घर न आने से चिन्तित एक माँ के डर का सफल चित्रण है। शोभा ने वातावरण में व्याप्त दहशत को डंकवाली मधुमक्खी में आरोपित किया है। यहाँ सिर्फ मधुमक्खी लिखने से कथाकार का मूल मन्तव्य स्पष्ट नहीं हो सकता था। यह सुन्दर और प्रभावशाली रचना है। उनकी लघुकथा ‘फरियाद’ में प्रशासनिक तन्त्र में बाबूशाही और ब्यूरोक्रेसी के दमनकारी चरित्र का चित्रण है। इसी संकलन की नकारात्मकता का गहरा कुआँ’ (संतोष सुपेकर) भी ब्यूरोक्रेसी की तनाव प्रदायिनी प्रशंसारिक्त कार्यशैली का बेहतरीन चित्रण करती है।
देवनागरी हिन्दी में अनेक संपादक ‘नुक्ता’ का प्रयोग नहीं करते हैं। उनके लिए ‘सज़ा’ और ‘सजा’ के बीच अन्तर को समझना सम्बन्धित रचना और वाक्य के आधार पर सन्दर्भानुरूप समझ लेना स्वयं पाठक की जिम्मेदारी है। किसी हद तक इसमें कुछ गलत है भी नहीं। रोमन लिपि में लिखित अंग्रेजी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वहाँ समान स्पेलिंग वाले बहुत-से शब्दों के अनेक उच्चारण मौजूद हैं और उनके सही उच्चारण को समझने की जिम्मेदारी पाठक की ही है। यथा, आरईएडी अक्षरों से बने शब्द का उच्चारण ‘रीड’ भी है और ‘रैड’ भी। एक अन्य बात नुक्ते के प्रयोग से अलग की भी है। ऐसा लगता है कि अधिकतर लेखक ‘बीबी’ और ‘बीवी’ के बीच अन्तर को नहीं जानते हैं। ‘बीबी’ शब्द का अर्थ बहन होता है जबकि ‘बीवी’ शब्द का अर्थ होता है—पत्नी। इसी तरह ‘मृगतृष्णा’ शब्द को भी समझने की जरूरत है। यह शब्द व्यक्ति की मानसिकता से जुड़ा शब्द है न कि आवश्यकता से। प्यास लगी हो या न लगी हो, कहीं दूर, पानी होने का आभास मिलते ही मृग की तृष्णा जाग उठती है। यह उसकी स्वाभाविक चारित्रिक कमजोरी है कि सरोवर के निकट खड़ा होने के बावजूद वह दूर के आभासी ताल की ओर भागता है। स्पष्ट है कि वहाँ पानी न मिलने पर हताश और निराश होता है। ‘मृगतृष्णा’ दरअसल जीवनभर भटकाने और अतृप्त रखने वाली प्यास का नाम है। शोभा रस्तोगी की लघुकथा ‘मृगतृष्णा’ को पढ़ते हुए लगता यह है कि लेखिका ने कथा को रजनी के वाक्य ‘उन्हें क्या पता पत्नी भी कुछ चाहती है!’ पर समेटकर रख दिया है; जबकि अपने इसी संवाद में रजनी अपने पति के बारे में वे सभी बातें दोहराती है जिन्हें अपनी शुष्क-कामा पत्नी रीमा के व्यवहार से आहत रवि ने सोचा था—‘काम, काम, काम। ओवरटाइम। बच्चों को उच्च शिक्षा देनी है। मकान बनवाना है। रसोई, बच्चे, बुजुर्ग…बस्स। पति तो इस लिस्ट में है ही नहीं। शौहर को भी कुछ चाहिए…ऐसी बीवी क्या जाने?’ इस लघुकथा में रवि और रजनी दोनों ही पिपासु प्राणी हैं; एक की प्यास से पत्नी तो दूसरे की प्यास से पति अनभिज्ञ है। …और रवि को तो वस्तुत: रजनी की प्यास से भी अनभिज्ञ एक भटका हुआ प्राणी कहा जाना चाहिए क्योंकि स्वयं ही गार्डन में बुलाई हुई रजनी को जहाँ का तहाँ बैठा छोड़कर वह कोई कारण बताए बिना उठ खड़ा होता है।
      मुझे लगता है कि फिलहाल शोभा रस्तोगी जैसी समर्थ कथाकार कुछेक अन्यान्य साहित्यिक कार्यकलापों में अपनी संलिप्तता को सिमेटकर अगर लघुकथा लेखन पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करें तो इस  विधा से वह बहुत-कुछ ले सकने में और इस विधा को बहुत-कुछ नया दे सकने में सक्षम हैं। उनके पास भाषा की रवानगी ही नहीं, उसका रस भी है। उनकी लघुकथा ‘रिश्ता’ में यह प्रयोग देखिए—‘आँखों से पीती रही वह उसे देर तक। फिर, खुशी की जयमाल उसके गले में पहना दी।’ ‘कहानी…नई’ में दादी के चेहरे की झुर्रियों के लिए उनका प्रयोग ‘चेहरे पर बसी गलियाँ’ आकर्षित करता है। यह एक अच्छी लघुकथा है। मनोज सेवलकर की लघुकथा ‘बचपन’ भी बूढ़े हो चुके शरीर में बचपन को उतार लाने की इच्छा को रेखांकित करती है। वैज्ञानिक दृष्टि से या कहें कि रूढ़ दृष्टि से देखा जाए तो सींचा पौधे की जड़ों को जाता है, फूल-पत्तियों को नहीं। कबीर भी कहते हैं कि—जो तू सींचै मूल को, फूलै फलै अघाय। परन्तु, ‘पुन: भगत सिंह’ में मूल की बजाय ‘फूल को सींचने’ से उसका ‘वृक्ष’ में तब्दील होना तार्किकों के लिए अवैज्ञानिक प्रक्रिया भले ही नजर आए, ममत्व के मूल को समझने वाले साहित्यिकों और सामाजिकों के लिए वह सर्वथा ग्राह्य प्रक्रिया है।
इस संग्रह में ‘डंकवाली मधुमक्खी’, ‘और कुण्डा खुल गया’ तथा ‘दिन अपने लिए’ (शोभा रस्तोगी) स्त्री-मन और जीवन के मनोवैज्ञानिक चित्रण वाली बेहतरीन लघुकथाएँ हैं; लेकिन संतोष सुपेकर की लघुकथा ‘आर्द्रता’ चारित्रिक विरोधाभास के जिस सुखद और उच्च आयाम को प्रस्तुत करती है, वह अनुपम है। परस्पर प्रेम के ताप और सौहार्द को एक अदद छतरी के माध्यम से जिस अनूठेपन के साथ चित्रित किया गया है, वह या तो कविता में सम्भव है या लघुकथा में। सामान्यत: होता यह है कि पति क्योंकि क्रोधित हो रहा है इसलिए प्रतीक के तौर पर कथाकार वातावरण में कड़ी धूप पसरी होने का या कहीं किसी चील-कौए के चिंचियाने, काँव-काँव करने का बिम्ब लेकर चलता है; लेकिन संतोष सुपेकर पति के क्रोध के विरुद्ध विपरीत अलंकार का प्रयोग करते हैं—हल्की-फुल्की बारिश के एकाएक गहन हो जाने का। समझ लीजिए की क्रोध के अंगारों पर आत्मिक प्रेम और स्नेह का पानी बरसाने का निर्णय वह शुरू में ही ले लेते हैं और कथा-प्रक्रिया के तहत अत्यन्त सहज और सुन्दर तरीके से अपने मन्तव्य को अंजाम देते हैं। लघुकथा में यही वह बिन्दु है जहाँ हमें कथा में संवेदना की काव्यपरक प्रस्तुति के समय (टाइमिंग) और सीमा (पर्सेंटेज) का सही प्रयोग देखने को मिलता है। पारिवारिक समरसता को बनाए रखने में इस पारस्परिक प्रेम और सौहार्द की नि:शंक महती भूमिका रहती है। संतोष सुपेकर की ही एक अन्य लघुकथा ‘टर्निंग प्वॉइंट’ भी पारिवारिक समरसता को दर्शाने वाली सुन्दर रचना है। ऐसी लघुकथाओं में अष्टभुजावाली’ (उषा अग्रवाल) तथा चेटिंग’ (मनोज सेवलकर) का नाम भी लिया जा सकता है। लघुकथा ‘रिश्ता’ में शोभा रस्तोगी ने लिव इन रिलेशनशिप को आधार बनाया है।
संतोष सुपेकर की लघुकथा ‘नहीं चाहिए रक्षक’ और मनोज सेवलकर की लघुकथा ‘वफादार की तलाश’ में काफी साम्य है। संतोष सुपेकर की ‘वाणिज्यिक नजरें’ और मनोज सेवलकर की ‘वफादार’ बाजारवाद को कथ्य के तौर पर उठाती हैं। इनमें ‘वाणिज्यिक नजरें’ ग्लोबलाइजेशन के बढ़ते खतरे को इंगित करती बेहतरीन लघुकथा है। समान समय में समान सूचना तंत्र के बीच रहने के कारण ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं है। संतोष सुपेकर की ‘महँगी भूख’ गरीब-अमीर के अन्तर को उद्घाटित करती लघुकथा है और ‘दुनिया में रहना है तो…’ इमोशनल टच के साथ पद के रुतबे का प्रयोग करते हुए शोषण की ओर इंगित करती लघुकथा। वाल्मीकि रामायण में एक आहत पिता के माध्यम से कहा गया है कि ‘पुत्री का पिता होना संसार में सबसे अधिक अपमानजनक है’। अगर अतिरिक्त आदर्शवाद की बात न करें तो नि:संदेह पुत्री का पिता उसकी शारीरिक व आर्थिक सुरक्षा को लेकर हमेशा ही आशंकित और डरा हुआ रहता है। नि:संदेह नये जमाने के माता-पिता ने पुत्रियों को चूल्हा-चौका सँभालने की खातिर घर-आँगन में कैद रखने के मद्देनजर बौद्धिक रूप से अशिक्षित और शारीरिक रूप से निर्बल बनाए रखने की बाधा को तोड़कर उन्हें स्वाबलम्बन की ओर बढ़ने के रास्ते खोल दिये हैं, तो भी बहुत-से क्षेत्रों में बाधाओं का टूटना अभी भी शेष है। संतोष सुपेकर की लघुकथा ‘अर्थ ढूँढ़ती सिहरन’ इस विषय पर अच्छी लघुकथा है।
इस आलेख में विवेचित सभी लघुकथाकार, मैं समझता हूँ कि इक्कीसवीं सदी की देन हैं। उन्होंने यथासम्भव नवीन विषयों को अपनी लघुकथाओं के कथ्य के रूप में चुना है। कथ्य प्रस्तुति के अलावा उनमें से कई भाषा, प्रवाह, शिल्प, शैली, बिम्ब एवं प्रतीक के चयन आदि में अलग-अलग स्तर पर कुछ आश्वस्त करते हैं तो कई को लघुकथा की प्रकृति को समझने के लिए कड़ा श्रम करने की जरूरत अभी भी है। आठवें दशक में बहुत-से स्वनामधन्य आलोचक लघुकथा-लेखन को साहित्य में स्थापित होने के शॉर्ट-कट के रूप में देख और घोषित कर रहे थे; लेकिन अब यह लगभग सिद्ध हो चुका है कि लघुकथा एक श्रमसाध्य विधा है, यह साहित्य में स्थापित होने का शॉर्ट-कट कतई नहीं है। लघु आकारीय होने के बावजूद यह आसानी से सध जाने वाली कथा विधा नहीं है। हमारे ही समय में, जिन्हें स्थापित होने या कथाकार के तौर पर नाम कमा लेने की जल्दी थी, वे या तो पूर्व मान्यता प्राप्त दूसरी विधाओं की सुरक्षित गोद में जा बैठे या लेखन ही छोड़ गये।
पुस्तक--पड़ाव और पड़ताल खण्ड-15, सम्पादक व श्रृंखला संयोजक--मधुदीप, प्रकाशक--दिशा प्रकाशन, 138/16, ओंकार नगर, त्रिनगर, दिल्ली-110035 मोबाइल(मधुदीप):09312400709