सोमवार, 7 मार्च 2022

आत्मग्लानि / बलराम अग्रवाल

बेतरतीब पन्ने-9

एक था गणेश। बनिया परिवार था, लेकिन गरीबी की रेखा से गजों नीचे। 1967-68 में उसका परिवार हमारे मोहल्ले में किराये पर रहता था। कुल चार प्राणियों का परिवार था—माता-पिता, बड़ी बहन और स्वयं गणेश। पिता कमर से कमान बने हुए थे और दुष्यन्त के इस शे’र को चरितार्थ करते थे, कि—

ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,

मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा! 

वह कहीं न कहीं नौकरी अवश्य करते रहे होंगे अन्यथा किराये के मकान में गुजारा करना आसान नहीं था। बड़ी बहन शादी-शुदा थी और टी॰बी॰ की मरीज होने के कारण हमेशा चारपाई पर ही लेटी रहती थी। बीमारी के चलते ही, बहुत सम्भव है कि ससुराल वालों ने उसका त्याग कर रखा हो।

उसके एक खास डायलॉग की वजह से वह मुझे हमेशा याद रहती है। हुआ यों कि कंचे या गुल्ली-डंडा जैसा कोई खेलकर मैं और गणेश उसके घर में घुसे। गर्मी के दिन थे। उसकी माँ ने हम दोनों को हिदायत दी कि गली-मुहल्ले की मिट्टी में खेलकर आये हो, नल पर हाथ धोकर आओ।

हम दोनों गये। पहले मैंने नल चलाया और गणेश ने अपने हाथ धोये। उसके बाद गणेश ने नल चलाया। मैंने फटाफट अपने हाथ हैंडपंप के चलते पानी में भिगोये और एक हाथ के पानी को दूसरे हाथ की मुट्ठी से निचोड़ता हुआ चल दिया। खरहरी खाट पर लेटी, खुद पर बीजना झलती बड़ी बहन ने दुत्कारा, “देख, कैसा शरबत-सा टपक रहा है हाथों से! दोबारा धो, चल।”

मैंने भी अपने हाथ से टपकते 'शरबत' को देखा। गन्ने के पेरकर निकाला हुआ-सा, एकदम मैला। दोबारा हाथ धोये। उस दिन के बाद तो जब भी हाथ धोता हूँ, अन्दर से वह डाँटती-सी लगने लगती है। पहली ही बार में कसकर धोता हूँ। 

गणेश का किस्सा इतना ही नहीं है, इससे कहीं आगे तक बरकरार है। 

मैं नवीं कक्षा का छात्र था जब मुझे हॉल में जाकर सिनेमा देखने की ‘लत’ लग गयी थी। कैसे लगी, यह फिर कभी लिखूँगा, इस वक्त सिर्फ इतना कि गणेश उन दिनों सातवीं या आठवीं में पढ़ता था और गरीबी के चलते उस साल के बाद दो दुर्घटनाएँ उसके साथ हुईं। पहली यह कि पढ़ाई छोड़कर उसे पिता का हाथ बँटाने के लिए किराने की किसी दुकान पर नौकरी कर लेनी पड़ी; और दूसरी यह कि (शायद किराया समय पर न चुकाने के कारण) मालिक मकान ने उस परिवार से मकान खाली करा लिया। इस प्रकार गणेश का परिवार मोहल्ला छोड़कर कहीं और चला गया तथा हम दोनों मित्रों का मिलना भी समाप्त हो गया।

इस घटना के 7-8 साल बाद, एक शाम हमारे घर के पिछवाड़े वाले सुप्रसिद्ध शिव मन्दिर के प्रांगण में गणेश एक कीर्तन-मंडली के साथ झाँझ-मंजीरे और ढोलक की धुन पर मस्ती में झूमता-नाचता हुआ दिखाई दे गया। मैं लम्बे अरसे बाद मन्दिर की ओर गया था इसलिए वह भजन-मंडली मेरे लिए नयी थी। साथ गये अपने एक दोस्त से मालूम किया—“रोजाना चलता है यह कीर्तन?” 

“पिछले कुछ महीनों से लगातार चल रहा है।” उसने कहा।

“कितने बजे से कितने बजे तक?”

“शाम छ: बजे से आठ बजे तक।” उसने कहा। 

मैंने कलाई में बँधी घड़ी देखी, आठ बजने में 2-4 मिनट ही बाकी थे। गणेश से बात करने के लालच में दोस्त के साथ मैं दूसरी ओर जाकर रुक गया। कुछ ही देर बाद प्रसाद आदि के वितरण से निवृत्त होकर गणेश मेरे पास आ खड़ा हुआ। साथ में बहुत खूबसूरत एक महिला थी।

“राधे-राधे भाई!” वह आते ही हाथ जोड़कर बोला।

“राधे-राधे गणेश! कैसे हो?” मैंने पूछा।

“बहुत कष्ट में हूँ।” उसने पीड़ा उँड़ेलते स्वर में कहा, “उसमें थोड़ा हाथ तेरा भी है।”

“मेरा!!!” मैं बुरी तरह चौंका। इस भले आदमी के कष्ट में होने में मेरा क्या हाथ है?

“हाँ।” इस बार वह लगभग क्रोधित अन्दाज में बोला—“तेरे कहने से, सिनेमा देखने के लिए एक बार जिद करके अपनी अम्मा से पैसे माँगे थे मैंने। बस, उस दिन के बाद ऐसा चस्का लगा कि आज तक छूटा ही नहीं है।”

“मुझे तो ऐसी कोई घटना बिल्कुल भी याद नहीं है गणेश।” मैंने मासूमियत के साथ कहा क्योंकि मुझे वाकई ऐसी कोई घटना याद नहीं थी। दूसरे, यह बातचीत होने के समय तक तो बहुतायत में सिनेमा देखना भी मैं लगभग छोड़ ही चुका था। यही बात मैंने उससे कही भी।

“उस रोग से तूने तो पीछा छुड़ा लिया, मुझे फँसा दिया।” वह बोला। उसकी मुख-मुद्रा उस समय ऐसी थी कि पता नहीं किस लिहाज के कारण वह अपने आपको मेरे गाल पर झापड़ मारने से रोके हुए था। 

“यह कौन हैं?” बात को बदलने की दृष्टि से मैंने साथ खड़ी युवती के बारे में पूछा।

“वाइफ है।” उसने छोटा-सा जवाब दिया।

“अम्मा, पिताजी…बहन जी?” मैंने पूछा।

“जीजी तो मोहल्ला छोड़ने के कुछ दिन बाद ही चली गयी थीं।” उसने बताया, “उसके कुछ महीने बाद पिताजी भी चले गये थे…”

“अम्मा कैसी हैं?” 

“पिछले महीने अम्मा भी चली गयीं।” कहते हुए उसकी आँख में आँसू भर आये, “यह और मैं रह गये हैं, बस।”

मैं सांत्वना के दो बोल उससे कहता, उससे पहले ही वह बोला, “मैं अब चलूँगा।” और आँखें पोंछता हुआ चला गया। पीछे-पीछे उसकी पत्नी भी।

मैं अच्छी तरह समझ सकता हूँ कि गणेश क्यों सिनेमा की लत को छोड़ नहीं पा रहा था या क्यों वह अपनी पत्नी के साथ शाम के दो घंटे कीर्तन के नशे में बिताता था। उसकी कंगाली का कारण मैं नहीं था; लेकिन उस कंगाली में रोटी के लिए कमाई जा रही रकम में सिनेमा का टिकट खरीदने की जोंक मेरी लगायी हुई है, यह सोचकर अपराध-भाव से दब-दब जाता हूँ। 

इस घटना को भी चालीसेक साल तो बीत ही चुके हैं। गणेश अपनी कंगाली पर पार पा सका होगा या कंगाली ने ही उन पति-पत्नी को चबा डाला होगा, नहीं मालूम। इतना जरूर जानता हूँ कि उसने कभी भी मुझे माफ नहीं किया होगा।

02-3-22/03:04 (चित्र साभार : गूगल)

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