शनिवार, 22 नवंबर 2025

कवि-हृदय कथाकार आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र / बलराम अग्रवाल

आलेख भाग—एक

आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र

साहित्य की कोई भी धारा एकाएक नहीं प्रारम्भ होती, वह अपने अतीत से, पूर्ववर्ती स्रोत से शक्ति और सामर्थ्य लेती है। नवीनतम होते हुए भी उससे जुड़ाव रखती है। लघुकथा के संदर्भ में यह बात विशेष रूप से ध्यान रखने वाली है। गुरु-गंभीर होते हुए भी ‘यशी वकील’ आज चुटकुले के समकक्ष समझी जा सकती है। ‘अंगहीन धनी’ और ‘अद्भुत संवाद’ शीर्षक गुरु गम्भीर लघुकथाएँ ‘परिहासिनी’ नामक जिस पुस्तिका में संकलित हैं, उसे स्वयं भारतेंदु जी ने कुछेक जनों के ‘हास-परिहास और विनोदार्थ संकलित किया’ कहा था। ‘एक टोकरीभर मिट्टी’ अपनी प्रकृति में बोधकथा-जैसी ठहरती है। बावजूद इस सबके ये हमारी थाती हैं। ये, वो टहनी हैं, जिनकी किसी न किसी गाँठ से हम फूट निकले हैं। पूर्ववर्ती लघु आकारीय कथाओं को हमें इसी दृष्टि से पढ़ना-परखना चाहिए।

‘खाली भरे हाथ’ की भूमिका ‘बोध कथाएँ’ में डॉ. रामकुमार वर्मा ने लिखा है—‘साहित्य में सत्यं शिव सुन्दरम् की त्रिवेणी प्रवाहित करना ही आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र का ध्येय रहा है।’

आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र की लघुकथाओं पर विचार रखने से पूर्व उनकी प्रकृति के बारे में जान लेना आवश्यक और महत्वपूर्ण दोनों है। उनके कहानी संग्रह धूप-दीप की ‘यह धूप-दीप’ शीर्षक भूमिका (पृष्ठ 3) में श्रीयुत् कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ ने स्पष्ट लिखा है—‘वे राजनीति में आये, पर बढ़ न सके। वे साहित्य में आये और ठहर गये। पर उनके जीवन की पृष्ठभूमि राजनैतिक है या साहित्यिक ? असल में उनका मानसिक धरातल सांस्कृतिक है और राजनीति एवं साहित्य उनके लिये संस्कृति के पोषक तत्व होकर जीवन में आये है। संक्षेप में वे सांस्कृतिक होकर भी युगदर्शी है, युग के साथ हैं और अपनी कहानियों में जैसे पुकारकर कह रहे हैं—‘ठहरो, यह कलाविहीन राजनीति हमारे जीवन को एक मशीन के रूप में परिणत कर देगी, यह भयंकर है और ठहरो, राजनीतिविहीन यह कला हमारे जीवन को अकर्मण्य स्वप्नों से भर देगी, यह भी भयंकर है। इस प्रकार वे कला में राजनीति और राजनीति में कला का साहचर्य देखते हैं यानी कला और उपयोगिता के समन्वय में ही जीवन का सुख पाते हैं।’ बाबा तुलसीदास के शब्दों में—‘सन्त हृदय नवनीत समाना’। आचार्य मिश्र का जीवन उनके समकालीन कथाकार कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की दृष्टि में ऐसा ही रहा।

आचार्य मिश्र के ज्येष्ठ सुपुत्र वैद्य शरद कुमार मिश्र ‘शरद’ के लघुकथा संग्रह ‘धूप और धुआँ’ में ‘हिन्दी साहित्य में लघुकथाएँ’ शीर्षक से भूमिका स्वरूप लिखे अपने लेख में लक्ष्मण त्रिपाठी जी ने लिखा है—‘आचार्य मिश्र जी की लघुकथाओं में यथार्थ के कठोर धरातल पर कल्पना और आदर्श की नींव डाली गई रहती है। उनकी लघुकथाओं में कथा के तत्व पूर्णरूपेण सन्निहित रहते हैं। जो कुछ उन्हें कह‌ना है, उसे बिना किसी भूमिका के कह देते हैं, सीधे-सादे शब्दों में बहुत ही सरलता के साथ और इसीलिए उनकी लघुकथाएं पाठक के अन्तर्मन को कुछ इस तरह स्पर्श कर लेती हैं कि वह उन्हें भुलाये नहीं भूल पाता। ‘पंचतत्व’ आचार्य मिश्र जी की चुनी हुई लघुकथाओं का संग्रह है, जिसमें भावात्मक सामाजिक ऐतिहासिक लघुकथाएं, लोक-कथाएं और बोध-कथाएं संग्रहीत हैं।’

शरद कुमार मिश्र ‘शरद’ के ही अन्य लघुकथा संग्रह ‘निर्माण के अंकुर’ में ‘हिन्दी लघुकथा : उपलब्धि और सम्भावना’ शीर्षक लेख में डॉ॰ राजकुमार शर्मा ने हिन्दी लघुकथा के प्रकार, प्रवृत्ति और प्रकृति पर बहुत-सी महत्वपूर्ण बातें कही हैं। लघुकथा पर बात करने वाले प्रत्येक आलोचक और शोधार्थी के लिए यह एक आवश्यक लेख है। आचार्य मिश्र की लेखन-यात्रा के बारे में उन्होंने लिखा है—‘जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि सर्वप्रथम 1920-1921 ई में आचार्य जी की लघुकथाएँ प्रकाशित हुई थीं। साहित्यिक, राजनैतिक अथवा राजनीति-साहित्येतर कारणों से बीच में तीस वर्ष का अन्तराल पड़ गया। किन्तु पुनः सन् 1951 से आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र की सबल लेखनी का मौन-काल समाप्त हुआ, वह फिर मुखर हो उठी। परिणामतः 'मौत की खोज' कहानी संकलन में कुछ पुरानी और कुछ नई कहानियों के साथ उनकी तीन लघुकथाएँ (1) मौत की खोज (2) धन का विभाजन, तथा (3) अव्यर्थ स्तुति भी प्रकाशित हुईं, जिन्हें विद्वान आलोचकों तथा सुरुचि-सम्पन्न पाठकों ने हिन्दी में अपने प्रकार की अकेली बेजोड़ और अभूतपूर्व स्वीकार किया।’

आचार्य मिश्र ने विजयादशमी सन् 1957 में प्रकाशित ‘पंचतत्व’  को अपनी लघुकथाओं का पहला संग्रह माना है। इसमें उनकी 52 लघुकथाएँ संग्रहीत हैं। इस पुस्तक की ‘आचार्य मिश्र की कहानी कला’ शीर्षक अपनी भूमिका में श्रीयुत् प्रकाश चन्द्र गुप्त ने लिखा है—‘ ‘जय-पराजय’ माला की कुछ रचनाएँ और भी पुरानी हैं। उन (रचनाओं) का रचनाकाल सन् 1921 से शुरू होता है।’ (इस पुस्तक का पृष्ठ 13) डॉ. राजकुमार शर्मा ने भी अपने आलेख ‘हिन्दी लघुकथा : उपलब्धि और सम्भावना’ (वैद्य शरद कुमार मिश्र ‘शरद’ का लघुकथा संग्रह ‘निर्माण के अंकुर’, पृष्ठ ‘ड’) में लिखा है—‘1920-21 ई. के लगभग प्रकाशित आचार्य जी की लघुकथाओं के शीर्षक हैं—बूढ़ा ब्यापारीतथा अग्नि मित्र की प्रेम परीक्षा। प्रथम रचना महात्मा गाँधी पर आधारित प्रतीकात्मक शैली में भावात्मक लघुकथा है। दूसरी लघुकथा व्यंग्यात्मक शैली में सामाजिक रचना है। और, 1951 के बाद की प्रकाशित आचार्य जी की रचनाओं में मौत की खोज’, ‘पंचतत्व’, ‘खाली भरे हाथ’, ‘उड़ने के पंख’, ‘जय-पराजय’, ‘मिट्टी के आदमीशीर्षक संग्रह प्रमुख हैं।तो क्या यह माना जाए कि आचार्य मिश्र का कथा-रचनाकाल 1920-21 से शुरू होता है। अपनी ­इसी भूमिका में प्रकाश चन्द्र गुप्त जी आगे लिखते हैं—‘आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र भावना और कल्पना से परिपूर्ण कहानियाँ लिखते हैं। यथार्थ और विचार की अपेक्षा उनकी कला प्रतीकात्मक और आदर्शोन्मुखी अधिक है। स्वर्गीय जयशंकर प्रसाद और चण्डी प्रसाद ‘हृदयेश’ की परम्परा का अनुसरण लेखक ने इन कहानियों में किया है। उसकी भाषा काव्यमयी और आलंकारिक है। स्वस्थ भावना और अनुभूति से लेखक की सभी रचनाएँ ओत-प्रोत हैं।’ गुप्त जी का आकलन इन सभी रचनाओं के बारे में शत-प्रतिशत सही है। इस भूमिका के आरम्भ में गुप्त जी ने लिखा है—‘इस संकलन में आपकी सामाजिक और ऐतिहासिक कथाएँ हैं, और कुछ लघु-कथाएँ भी।’ यह भूमिका भी निश्चित रूप से इस पुस्तक के प्रकाशन-वर्ष समय में ही लिखी गयी होगी। इस भूमिका के अन्त में गुप्त जी ने कहा है—‘आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र की कहानियों में हमें स्वस्थ प्रेरणा प्रचुर मात्रा में मिलती है। इन रचनाओं में कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि उनकी आत्मा कहानी की अपेक्षा काव्य के अधिक निकट है। हिन्दी कहानी के इतिहास में विशेष रूप से दो प्रवृत्तियाँ परिलक्षित होती हैं—‘प्रसाद’ की काव्यमय शैली और प्रेमचन्द की यथार्थवादी, आदर्शोन्मुखी शैली। इन दोनों धाराओं ने हिन्दी कहानी को समृद्ध किया है। आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र  ‘प्रसाद’ के ‘रोमैन्टिक स्कूल’ के अनुयायी हैं। उनकी कला रसदायिनी तो है ही, पाठक की भावनाओं को उन्नत और उदार बनाती है।’ गुप्ता जी का यह कथन कि ‘आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र  ‘प्रसाद’ के ‘रोमैन्टिक स्कूल’ के अनुयायी हैं’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह न केवल आचार्य मिश्र की प्रस्तुत लघुकथाओं के सन्दर्भ में बल्कि उक्त काल के शेष लघुकथा-लेखन के सन्दर्भ में भी युक्तियुक्त ठहर सकता है।

आचार्य मिश्र के ‘पंचतत्व’ नामक संग्रह की 52 कथाओं को 5 खंडों में विभक्त किया गया है—भावात्मक लघुकथाएँ (10), सामाजिक लघुकथाएँ (15), ऐतिहासिक लघुकथाएँ (8), लोक-कथाएँ (9) तथा बोध-कथाएँ (10)। समकालीन दृष्टि से आकलन करें तो ‘सामाजिक लघुकथाएँ’ के अलावा शेष सभी खंड अतीत की ऐसी घटना बनकर रह गये हैं जिनका महत्व लघुकथा विधा के क्रमिक विकास की दृष्टि से, लघुकथा का ऐतिहासिक विकास-क्रम जानने की दृष्टि से ही बना रह गया है, अन्यथा नहीं। उदाहरणार्थ, ‘भावात्मक लघुकथाएँ’ में ‘पंचतत्व’ शीर्षक की लघुकथा वस्तुत: केन-उपनिषद के एक आख्यान का पुनर्लेखन है। पुनर्लेखन के ऐसे उदाहरण कुछेक अन्य कथाएँ भी हैं। इससे प्रतीत होता है कि वह काल पूर्व आख्यानों के पुनर्लेखन का भी रहा होगा। यों तो इन दिनों भी ‘चाणक्य के दाँत’ जैसी लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं। ‘सामाजिक लघुकथाएँ’ में अपेक्षाकृत लम्बे आकार की कथाएँ हैं। ये सब की सब शब्द संख्या और आकार की रूढ़ता को तोड़ती ऐसी कथाएँ हैं जिन्हें आज की परिस्थिति में ‘लघुकथा’ कहते स्वयं मुझे भी संकोच होता है। इनमें ‘एक राजनैतिक इंटरव्यू’ (रचनातिथि:12-8-57) आज की दृष्टि से भी अत्यन्त स्तरीय लघुकथा है। ‘स्टेशन मास्टर’ शीर्षक रचना लघुकथा के रूढ़ कलेवर को तोड़ती सशक्त और सुन्दर रचना है। इस खंड की ‘अग्निमित्र की प्रेम परीक्षा’ तथा ‘मौत की खोज’ अपने समय में खासी चर्चित रह चुकी हैं। ‘बोध-कथाएँ’ खंड की रचनाओं में आचार्य मिश्र ने अपनी अनुपम मौलिकता का परिचय दिया है। उक्त खंड से ‘पुरुष की पहचान’ शीर्षक यह रचना उदाहरणार्थ प्रस्तुत है—

एक दिन एक मनुष्य ने अपनी स्त्री से, जो उसकी नित्य की नई-नई माँगों से विक्षुब्ध हो गया था, झुंझलाकर कहा—“भई! अब मैं बहुत थक गया हूँ। मैं अब तुम्हारी कोई भी माँग पूरी नहीं कर सकता।” 

उसकी स्त्री ने अविचलित भाव से उत्तर दिया—“प्रियतम! क्या तुम पुरुष नहीं हो? मैंने बचपन में सुना था पुरुष कभी थका नहीं करते!” 

तीत के अध्ययन से हम जानते हैं कि छायावाद के प्रभाव में आकर कवि तो कवि, कथाकार भी ‘स्व’ की अनिर्वचनीय वेदना और अनुभूति के रंग में ‘विश्व’ को डुबो रहे थे। उनके लिए आत्मवेदना ही सबसे ऊपर थी और वही ऐकान्तिक वेदना थी। ‘स्व’ की वेदना को ही तब के कवि-कथाकार विश्वव्यापी वेदना मानते थे। विश्व की वेदना को न तो वे पहचान ही सके और न ही  अपनी वेदना बना सके थे। काल का प्रभाव ही कुछ ऐसा था कि अधिकतर कवि-कथाकारों को सिवा अपनी धड़कन के और कोई अन्य ध्वनि न तो सुनने का अवकाश था, न देखने का। उदाहरण के लिए प्रस्तुत है आचार्य मिश्र की एक बोध-कथा ‘संयोग-वियोग’ जिसे गद्य-काव्य कहना अधिक उपयुक्त होगा—

एक दिन काले-काले मंघों ने इकट्ठा होकर तड़ित से कहा—“देवि! वैसे तो तुम दिव्य हो; आलोकमयी हो: तुम्हें पाकर हम धन्य हुए हैं; परन्तु तुम्हारी वाणी अत्यन्त भीम है। जब तुम गर्जन करती हो तो भय से हमारे आलिंगन छूट जाते हैं। उस समय तुम भी हमारे वक्ष से बाहिर निकलकर खड़ी हो जाती हो। यदि तुम्हारी वाणी भी मधुर होती तो हम उम्र भर भी तुम्हारा यह वियोग न देखते।”

तड़ित ने उत्तर दिया—“बन्धुओ, फिर संसार को यह ज्ञान कैसे होता—कालिमा में भी कुछ दिव्य है; आलोक में भी कहीं तिमिर छिपा है; संयोग में भी वियोग रहता है और वियोग में कहीं न कहीं संयोग छिपा रहता है।”     

कथाकार की यह वह अवस्था है, जब समस्त प्रकृति उसको अपने ही हृदय में स्पन्दित दिखाई देती है। अपनी दिव्य दृष्टि से वह सूर्य-चन्द्र-तारों का नाच देखता है। उषा और संध्या की आभा और अरुणिमा देखता है। मेघों की आँख-मिचौली, कमल और कुसुम, हरसिंगार और मौलश्री, जवाकुसुम और पाटन के फूलों तथा जुही की कलियों की लास-लीला देखता है। उसने छाया और ज्योत्स्ना, इन्द्रधनुष और विद्युत् की रंगरेलियाँ देखीं, रात को तारों की जाली और फूलों के गजरे पहनाये; सरिताओं, तारिकाओं जुगनुओं, किरणों, लहरियों में, मधुबयार के झोंकों में और तितलियों, कोकिलों, भौरों, पपीहों, झींगुरों, मेघों के स्पन्दन, गुंजन, कूजन, क्रन्दन, नर्तन, निस्वन और गर्जन में प्रेम और प्रणय के हजारों-हजार सन्देश सुने। अपनी सीमित पुतलियों पर त्रिलोकी के चित्र अंकित किये, पर इस पृथ्वी पर हो रहे एक विराट जीवन-स्पन्दन, विश्वव्यापी धड़कन, विराट हलचल और कोलाहल को न तो उनकी आँख देख पायी और न उनके कान ही सुन पाये। रहस्यवादी कवि/कथाकार स्वप्नजीवी मानव अथवा आकाशचारी पक्षी की तरह क्षितिज के पार ‘अनन्त’ की झाँकी देख आते हैं, जहाँ सागर-लहरी और अम्बर प्रेमालाप करते हैं, जहाँ वसुधा विराट् पुरुष का चरण-चिह्न सी दिखाई देती है, जहाँ से जीवन काल के कपोलों पर ढुलका अश्रुकण-सा रह जाता है, जहाँ पहुँचने पर मनुष्य का प्राण बाँसुरी की एक फूंक और वीणा की एक झंकार की भाँति, उठ उठकर विलीन होता दिखाई देता है। भारतीय दार्शनिक की दृष्टि इस सापेक्ष जगत् को असत्य और मृषा मानती है तथा इससे परे किसी निरपेक्ष सत्य को देखती है जो मन, वाणी और बुद्धि से अगम्य है। वह दृश्य-जगत् और ऐहिक-जीवन को ‘माया’, ‘छाया’ मानकर उसके प्रति विराग का अंकुर उपजाता है, जो अनेक दिशाओं में हुए पलायनों में पल्लवित होता है। जहाँ यह दार्शनिक दृष्टि से अनुपम है, वहीं यह भी सत्य है कि शताब्दियों की भारतीय दासता का बीज भी इसी मानसिक अवस्था में छिपा हुआ है। जीवन सघर्ष का हमारे लिए कोई मूल्य नहीं रह गया था। कवि/कथाकार ने जीवन की नश्वरता ही देखी, अमृतत्व नहीं।

रहस्यवादी कवि/कथाकार ने महा-शून्य में घूमते ज्योतिष्क पिण्डों को पुतलियों में बाँधा, शून्य को हृदय में समेटा, प्रलय को पालना बनाया, मृत्यु-जीवन को जागृति का तट बनाया। देखिए, ‘अथः इति’ शीर्षक यह बोध-कथा—

एक दिन अथः ने इति से कहा—“यदि मेरे जीवन में तून आती तो में अन्तहीन होकर संसार में अमर हो जाता!”

इति ने स्नेह से हँसकर उत्तर दिया—“सखे! यदि मैं तेरे जीवन में कभी न आती, तो तू नारी के पावन चरण स्पर्श के अनन्त सुख से वंचित न रह जाता; जिससे तेरी सारी कृतियाँ ही निष्फल होकर रह जातीं।”

अपने इस विराट् रूप के भावन में वह धरती पर कीट-मकोड़ों सरीखे रेंगने वाले मनुष्यों को भूल गया। क्यों? इसलिए कि उसने कुछ विशेष विषयों के स्पर्श से स्वयं को विलग नहीं किया। देखिए, बोध-कथा ‘संसार’—

भक्त ने एक दिन अत्यन्त तल्लीनता से भगवान् की आराधना कर भारी दुःख से कहा—“प्रभो! यह संसार तो बड़ा पापमय है। चारों ओर राग-द्वेष, घृणा-अहंकार, छल-प्रपंच ही इसमें दिखाई देता है।”

भक्तवत्सल भगवान् ने उत्तर दिया—“यह तेरी दृष्टि का दोष है भक्त!  अपनी दृष्टि से कह, वह संसार के राग-द्वेष, घृणा-अहंकार, छल-प्रपंच का स्पर्श करना ही छोड़ दे। स्पर्श ही तो किसी वस्तु से मोह या घृणा उत्पन्न किया करता है!”

सियाराम मय सब जग जानीके विश्वासी बाबा तुलसीदास संन्यासी होकर भी भव की पीड़ा से पीड़ित थे—‘भव बंधन काटिहिं नर ज्ञानी’। परन्तु अपने गुप्त अन्तर-लोक में अपने प्रियतम से प्रेमालाप करनेवाले रहस्यवादियों ने पृथ्वी के गर्भ में सिसक रहे नंगों-भूखों का रुदन-क्रंदन नहीं सुना। समाधि तोड़कर जग-जीवन के सृजन-सिंचन-संहार का भावना उसने नहीं किया था। अभी तक धर्म-दर्शन में डूबी लघुकथा ने अन्तर्जीवन की भावना का अनुसंधान तो किया था,  किन्तु बहिर्जीवन की समस्याओं का विश्लेषण नहीं किया था। आत्मा के रहस्य खोजने में शरीर की भूख-प्यास, व्यथा-वेदना की आह-कराह विश्व-वातावरण में भरती रही, परन्तु दर्शन-कुंठित हमारा कथाकार हिमालय की भाँति जड़ीभूत, निश्चल, निस्पन्द, ध्यान-मग्न ही रहा। परन्तु अन्त में उसे अपनी आँख खोलनी पड़ी और उसे आसपास, पैरों के तले देखना पड़ा। ‘धरती के प्राणी आकाश की उड़ान’ शीर्षक बोध-कथा में आचार्य मिश्र ने वायुयान में उड़ने वाले मनुष्यों के बारे में एक बालक के मुख से अपनी माता से यह प्रश्न कराया—“तो क्या अम्मा! वे यह नहीं जानते, धरती के प्राणी धरती पर रहकर ही फल-फूल सकते हैं?” तात्पर्य यह कि आचार्य मिश्र धरती से जुड़े कथा-यथार्थ को जानते हैं।

स्वप्नजीवी कविता/कथा को भी युग-जीवन की ओर से आह्वान आता था। युग-धर्म का आग्रह था कि हमारा कवि/कथाकार अपने चारों ओर के समाज-जीवन, राष्ट्र-जीवन और विश्व-जीवन को देखता, उसके हास-अश्रु, आशा-आकांक्षा, व्यथा-वेदना-प्यास को कविता/कथा में सजीवता देता और काव्य अथवा कथा जीवन का मर्म हैइसको चरितार्थ करता। राष्ट्र-जीवन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दासता से हमारे जीवन में एक जघन्य जड़ता आ गई थी। अंगों पर मूर्च्छा का अभिशाप था, मरण के धक्के से जीवन हतप्रभ और म्लान था, आत्मा विमूढ़ और स्तंभित हो गई थी, चेतना निष्प्राण; कानों में रोदन-क्रंदन गूंज रहे थे, पीड़ितों का चीत्कार हमारे रक्त की रही-सही चेतना को कुंठित कर रहा था, सर्वनाश की गाज लकवे की भाँति शरीर पर गिर गई थी। कण-कण में संघर्षण की शक्तियाँ सजग हो रही थीं, विप्लव भूचाल बनता हुआ आगमन की सूचना दे रहा था और हमारी कविता/कथा जीवन से विच्छिन्न थी ! हमारा कवि/कथाकार तंद्रिल-स्वप्निल मादकता की मधुछाया में सो रहा था!!

जीवन की पुकार निरन्तर कवि/कथाकार के कानों को नहीं, प्राणों को छू रही थी। ‘वस्तु-जीवन की ओर’ उन्मुख होकर वह अपने लीला-विलास से कुछ क्षण चुराकर मुहूर्त भर दृष्टि डाल लेता था और ‘भिक्षुक’ और ‘विधवा’ की मूतियाँ अपने काव्य-मंदिर में प्रतिष्ठित कर देता था। जीवन-जागृति, बल-बलिदान के पथ पर जानेवाली राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की साधना आशा-निराशा, जय-पराजय के उत्थान-पतन के साथ चल ही रही थी।

अर्थनीति में शोषण-पीड़न और राजनीति में दमन-दलन किसी भी कवि/कथाकार का ध्यान खींचने के लिए पर्याप्त थे। यह नहीं कि हिन्दी के कवि/कथाकार, जीवन के हाहाकार के प्रति उदासीन थे; अन्तर इतना ही रहा कि उसके प्रति एक जीवित सम्वेदना और उसे मिटाने का उत्कट आवेग उनमें अभी मुखरित नहीं हुआ था। परन्तु अब कवि/कथाकार की अन्तर्मुखता बाहर फैले हुए जन-जीवन में डूबने के लिए छटपटाने लगी। स्वप्नलोक को छोड़कर वह वस्तु-जगत में ही अब साहित्य का सत्य साकार देखने लगा ।

भारत की समस्या वस्तुतः विश्व-समस्या का ही एक अभिन्न अंग है। रुग्ण भारतीय समाज की चिकित्सा यदि भारत-राष्ट्र की स्वतन्त्रता में निहित है। वो भारत राष्ट्र की स्वतन्त्रता किसी नवीन विश्व-रचना में। नई संस्कृति का अभ्युदय हुए बिना विश्वकल्याण स्वप्न था। अतः आज की समस्या निरी सामाजिक और राजनीतिक न होकर सांस्कृतिक भी है।

युग की ज्वलन्त समस्याओं का आग्रह था कि साहित्य, कविता, कला नव-संस्कृति की प्राण-प्रतिष्ठा में अपना जीवन्त सहयोग दें। पूँजीवादी प्रतिस्पर्द्धा में संसार की सम्पत्ति एक छोटे से वर्ग के अधिकार में है और पूँजीवादी शोषण धनी और निर्धन के बीच में खाई बना रहा है। समाज में सर्वहारी और सर्वहारा में भीषण संघर्ष है। व्याधिग्रस्त, संघर्ष-ध्वस्त खंडित-पीड़ित मानवता की ओर अब कवि/कथाकार ने दृष्टिपात किया। चिरकाल से कविता/कथा का प्रेय-श्रेय वर्ग-विशेष और व्यक्ति-विशेष रहा। अब उसने सामान्य मानवता का वरण किया। अब कविता/कथा ने अपना आराध्य सर्वहारा को बनाया।

मैं कवि/कथाकार और कविता/कथा का उल्लेख कर रहा हूँ क्योंकि ये कथाएँ अपनी प्रकृति में अपने समय के काव्य के ही अधिक निकट ठहरती हैं।

आलेख भाग—दो…आगामी पोस्ट में>>>

कोई टिप्पणी नहीं: