गुरुवार, 18 जून 2009

बहस से ही टूटता है सन्नाटा/बलराम अग्रवाल

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संदर्भ:अवध पुष्पांजलि(लघुकथाअंक), अप्रैल 1991, संपादक: प्रताप नारायण वर्मा, माधवप्रकाशन, सआदतगंज, लखनऊ(उ0प्र0)
पत्रिका में लगाए संपादकीय नोट के अनुसार यह लेख उनको अगस्त 1990 में मिल गया था। सम्प्रति न तो अब प्रस्तुत लेख में उठाए गए मुद्दे उतनी तीव्रता में बचे हैं और न ही संदर्भित लोगों में से श्रीयुत रमेश बतरा व जगदीश कश्यप हमारे बीच रहे हैं कि अपने जवाब प्रेषित कर सकें। भाई रमेश बतरा ने तो खैर अपने जीवनकाल में भी ऐसी अनाप-शनाप बहसों को कभी गम्भीरता से नहीं लिया था, लेकिन श्रीयुत कश्यप! उनके जवाब साहित्यिक पृष्ठभूमि से हटकर चरित्र-हनन के प्रयत्नों के रूप में सामने आए। लेखकविहीनता का मुद्दा भी डॉगोयनका की ओर से लगभगस्पष्ट हो ही चुका है। फिर भी, उक्त काल के एक रिकॉर्ड के तौरपर इस लेख को यहाँ दिया जारहा है।

घुकथा, सृजन के अपने पहले ही दौर में परस्पर कुत्ता-घसीटी के जंजाल में फँस जाने वाली साहित्य की सम्भवत: अकेली ही विधा है। इसकी एक वजह हैविधा से जुड़े साहित्य की गम्भीर समझ और चिन्तन से जुड़े लोग यहाँ रिस्क लेने से कतराते हैं। इस कतराने का परिणाम यह हो रहा है कि कच्ची समझ वाले व्यवसायी-बुद्धि के लोग खुद जैसी ही एक पीढ़ी तैयार करने में मशगूल हैं और जैसा कि एक नासमझ सोचता है, इसको वे अपनी विद्वता समझने की भूल कर बैठे हैं। इस तथ्य को कि गम्भीर लोगों की चुप्पी उनकी कमजोरी नहीं, उनकी ताकत हुआ करती है; और जिस दिन भी यह चुप्पी टूटती हैअवांछित कामयाबी की दीवारें भरभराकर गिरने लगती हैं और रेत के ढेरों में तब्दील हो जाती हैं, फिलहाल वे भूल रहे हैं।
लघुकथा-साहित्य पर इन दिनों अहंवादियों की छाया है। यही वजह है कि इसमें मुद्दे बहस के लिए नहीं बल्कि अहं तुष्टि के लिए उछाले जाते हैं। ये अहं आपस में अक्सर टकराने भी लगे हैं। साहित्य में जब अहं टकराते हैं तो हल्की-सी सिर्फ आवाज होती हैविस्फोट नहीं होता, सन्नाटा नहीं टूटता। सन्नाटा टूटता है बहस से। बहस से बचकर चलने वाली पीढ़ी सृजन को नए आयाम दे पाने में अक्सर अक्षम ही रहती है। लघुकथा की वर्तमान पीढ़ी के अधिकांश लोग सम्प्रति या तो बहस से कतराते नजर आते हैं या बहस का मुद्दा नजर आत ही कछुए की तरह खुद में सिमटकर बहस को बाढ़ के पानी तरह खुद के ऊपर से गुजर जाने देते हैं। यहाँ मैं फिर अपनी बात को दोहराना चाहूँगा कि यह कच्छप-वृत्ति लघुकथा के विकास के लिए किसी भी दृष्टि से हितकर नहीं है।
बहस का एक सार्थक पासा रमेश बतरा ने दिल्ली दूरदर्शन पर आयोजित एक लघुकथा-चर्चा में 1988 में फेंका था; यह कि लघुकथा का कोई (रचना) विधान नहीं है।
रमेश बतरा आठवें दशक के पहली पीढ़ी के लघुकथा-लेखक के रूप में जाने जाते हैं, हालाँकि अपने संघर्ष के दौर से बाहर निकल आने के बाद वे खुद को लघुकथाकार नहीं, कहानीकार ही कहलाना ज्यादा पसन्द करते होंगे; फिर भी, लघुकथा के प्रति उनके मन में एक खास लगाव है जो साफ नजर आता है। लघुकथा के बारे में उनकी समझ स्पष्ट है और इसीलिए लघुकथा-संबंधी उनके वक्तव्य पर गम्भीरतापूर्वक मनन की जरूरत थी। एक ऐसे रचना-प्रकार पर, जिसका कोई विधान स्वयं गोष्ठी में भाग लेने वाला वक्ता ही नहीं मान रहा हो, गोष्ठी आयोजित करने की जरूरत दिल्ली दूरदर्शन ने क्यों समझी? और एक विधानहीन रचना-प्रकार पर कोई किस हैसियत से विद्वतापूर्वक बोलने का दम्भ भर सकता है? दूरदर्शन पर वक्तव्यों के प्रसारण की (समय आदि संबंधी) अपनी सीमाएँ हो सकती हैं, लेकिन खुले मंचों पर बहस की कोई सीमा नहीं होती। लघुकथा को अपने लेखन की मूल-विधा मानकर चलने वाले लोग उसे अवैधानिक सुनकर भी चुप रहेयही हमारा चरित्र है। इसी को रिस्क लेने से बचना कहते हैं।
बहस का दूसरा पासा जगदीश यानी जगदीश कश्यप ने फेंका है। हालाँकि वे पहले भी कई बार इस पासे को फेंकते रहे हैं लेकिन इस बार इसे जरा कसकर फेंका गया है। पासा है कि लघुकथाकारों ने बाहर के किसी आदमी का हस्तक्षेप नहीं सहा।
साहित्य की किसी भी विधा में क्या वाकई बाहर और भीतर होता है? या सिर्फ लघुकथा में ही ऐसा है? या कि सिर्फ उलझाए रखने के लिए यह उपविधा जैसा चवन्निया शिगूफा है जिसे थक-हारकर कालान्तर में विद्ड्रा कर लिया जाएगा? लघुकथा के आँगन में प्रवेश और निकासी के ये लौहद्वार आखिर क्यों लगाए गए है? इस आँगन में आखिर ऐसा कौन-सा बूथ है जिसे कश्यप बाहर के लोगों के हाथों कैप्चर कर लिए जाने के प्रति चिन्तित हैं? कहीं वे किसी के खुद द्वारा कैप्चर्ड बूथ के कैप्चर हो जाने के डर से तो चीख-पुकार नहीं मचा रहे है?ये कुछ आम सवाल हैं जो उनसे पूछे जाएँगे। कश्यप ने बेहद परिश्रम से एक जमीन तामीर की है। बेशक, वह उन्होंने सिर्फ अपने लिए तामीर नहीं की, लेकिन वे यह जरूर चाहते हैं कि इस जमीन पर उनके तौर-तरीकों से ताल्लुक रखने वाले लोग ही आकर टिकें। बहुत-से लोग इसे उनका दुराग्रह मान सकते हैं, लेकिन स्वयं द्वारा प्रस्तुत लघुकथा-तकनीक में उनका अतिविश्वास मान लेने में बुराई क्या है? कश्यप कभी भी न तो सुविधा-सम्पन्न रहे हैं और न ही सविधाजीवी। वह एक आम मजदूर जैसे हैं, लोक में भी और लेखन में भी। ऐसे में अपनी कमाई समझी जाने वाली चीज के प्रति उनका लगाव अगर अपने अस्तित्व के प्रति लगाव जितना गहरा है तो इसमें जटिल क्या है? यह स्वाभाविक ही है। फिर भी, लघुकथा में बाहर और भीतर के लोगों की उनकी अवधारणा पर, मैं चाहूँगा कि, बहस हो क्योंकि साहित्य में मैंने सबै भूमि गोपाल की सुना, पढ़ा और स्वीकारा है।
बहस का तीसरा पासा सोमवार 30 जुलाई, 1990 की सुबह मेरे साथ टेलीफोन पर बातचीत के दौरान डॉ कमल किशोर गोयनका ने फेंका। प्रेमचंद साहित्य पर अपने शोधों के जरिए डॉ गोयनका अक्सर चर्चा में रहे हैं। प्रेमचंद-भक्तों ने उनके प्रयासों को प्रेमचंद की मूर्ति पर अनाधिकार हमलों के तौर पर भी लिया। प्रेमचंद संबंधी अनेक मान्यताओं को उन्होंने चुनौती दी, बहस का मुद्दा बनाकर पेश किया। उन्होंने कहीं पर जाहिर अपनी यह राय बातचीत के दौरान मेरे सामने दोहराई कि लघुकथा लेखकविहीन विधा है। लघुकथा-लेखकों की आम प्रवृत्ति को महसूस करते हुए इस बारे में मुझे दो तरह की प्रतिक्रियाओं की आशा हैपहली यह कि लेखकविहीन ही सही डॉ गोयनका ने लघुकथा को विधा तो कहा है, और दूसरी (जो कि एक अंधा-आक्रोश हो सकता है), लेखकविहीन विधा?
डॉ गोयनका की बात का मर्म जानने के लिए अंधे आक्रोश को त्यागकर हमें शान्त हृदय से सोचना होगा। वर्तमान दौर करीब-करीब संवेदनहीनता का दौर है। संवेदनाएँ अब स्वत:स्फूर्त नहीं होतीं, उन्हें उकेरना पड़ता है। यह ऐसा त्रासद युग है कि व्यंग्य खुद अपने बारे में कुछ नहीं बोल पाता, उसके ऊपर व्यंग्य उपशीर्ष देना होता है ताकि पाठक उसे किसी और मानसिकता के साथ पढ़ने को न बैठ जाए। चर्चित लघुकथा-लेखकों के निजी लघुकथा-संग्रह प्रकाशित न हो पाना भी, मैं समझता हूँ कि इस विधा को लेखकविहीन मान लेने का एक कारण हो सकता है; क्योंकि बहुत सम्भव है कि आलोचक अब क्वान्टिटी में क्वालिटी के प्रतिशत के आधार पर लेखक को लेखक मानने लगे हों। दूसरी और खास वजह यह हो सकती है कि डॉ गोयनका ने लघुकथा में लेखकों के तौर पर जिन्हें चिह्नित किया या माना है, उनमें लेखकीय मर्यादा को सिरे से नदारद पाया हो और क्रौंच-वध से आहत वाल्मीकि के मन की बात की तरह उनके मुख से उपरोक्त वाक्य कहीं फूट पड़ा हो। जो भी हो, लघुकथा-लेखकों को अपना अस्तित्व जस्टीफाई करने की इस बहस में उतरना चाहिए। यह उनके (लेखकीय) पुंसत्व पर चोट है और इससे भी अगर वे नहीं तिलमिलाते हैं तो…तो खुदा ही खैरख्वाह है।

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