शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

समकालीन हिन्दी लघुकथा—भाग 2/ बलराम अग्रवाल

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घुकथा यद्यपि अति प्राचीन कथा-विधा है, तथापि समकालीन रचना-विधा के रूप में उसका अस्तित्व 1970-71 से ही माना जाता है। समकालीन लघुकथा ने अपने प्रारम्भिक स्वरूप में ऊर्ध्व परिवर्तन को स्थान देते हुए विचार-वैभिन्य, कथ्य, भाषा, शिल्प, शैली आदि का कालानुरूप सम्मिश्रण किया। यह अपने युग के रस्मो-रिवाजों को साहित्यिक अभिरुचियों के अनुरूप चित्रित करने तक ही सीमित नहीं रही है। आम जीवन के सुपरिचित रोषों का, वेदनाओं और व्यथाओं का, जीवन को नरक बना डालने वाली रीतियों और रिवाजों का इसमें ईमानदार चित्रण हुआ है। समकालीन लघुकथा में चरित्रों की बुनावट कहानी या उपन्यास में चरित्रों की बुनावट से काफी भिन्न है। कुल मिलाकर इसे यों समझा जा सकता है कि समकालीन लघुकथा में चरित्रों के प्रभावशाली चित्रण की दृष्टि से किया जाने वाला कोई भी विस्तार वांछित नहीं है। यही बात वातावरण के बाह्य रूप के चित्रण, उनके प्रति रुझान, शोक अथवा करुणा के व्यापक प्रदर्शन आदि के संबंध में भी रेखांकनीय है। ये सब बातें इसमें बिम्बों, प्रतीकों, संकेतों और व्यंजनाओं के माध्यम से चित्रित की जाती हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि समकालीन लघुकथा कथा-कथन की अप्रतिम विधा है, इसके प्रत्येक चरण में मौलिकता है। इसमें उगते सूरज की रक्ताभा है तो डूबते सूरज की पीताभा भी है। इसमें भावनाएँ हैं तो संवेदनाएँ भी हैं। वास्तविक जीवन के सार्थक समझे जाने वाले चित्र हैं तो मन के उद्वेलन व प्रकंपन भी हैं। नीतियाँ और चालबाजियाँ हैं तो आदर्श भी हैं। कहीं पर यह दैनन्दिन-जीवन की ऊबड़-खाबड़ धरती पर खड़ी है तो कहीं पर सीधी-सपाट-समतल जमीन के अनचीन्हे संघर्षों के चित्रण में मशगूल है। बस यों समझ लीजिए कि समकालीन लघुकथा निराशा, संकट, चुनौती और संघर्षभरे जीवन में आशा, सद्भाव और सफलता की भावना के साथ आमजन के हाथों में हाथ डाले विद्यमान है। इसमें संकट का यथार्थ-चित्रण है, लेकिन यथार्थ-चित्रण को साहित्य का संकट बनाकर प्रस्तुत करने की कोई जिद नहीं है।
नए विषयों की चौतरफा पकड़ का जैसा गुण समकालीन लघुकथा में है, वह इसे सहज ही समकालीन कथा-साहित्य की कहानी-जैसी सर्व-स्वीकृत विधा जैसी ग्रहणीय विधा बनाता है। इसमें यथार्थ के वे आयाम हैं जो अब तक लगभग अनछुए थे। इसमें ग्रामीण, कस्बाई, नगरीय, महानगरीय हर स्तर के जीवन-रंग हैं। जहाँ एक ओर घर की बेटी परिवार के पोषण के लिए तन बेच रही है, वहीं तन और मन की अतृप्ति को तृप्ति में बदलने का खेल खेलते नव-धनाढ्य भी हैं। फौजी पति के शहीद हो जाने की सूचना पाकर सुहाग-सेज पर उसकी बंदूक के साथ लेट जाने वाली पत्नी है तो अन्तिम इच्छा के तौर पर फाँसी पर चढ़ाए जाते युवक द्वारा नेत्रदान की घोषणा भी है ताकि अन्धी व्यवस्था कुछ देख पाने में सक्षम हो सके।
यह कहना कि समकालीन लघुकथा ने आम-आदमी की उसके सही अर्थों में खोज की है, कोई अतिशयोक्ति न होगी। यह सामाजिक व मनोवैज्ञानिक सच्चाई है कि व्यक्ति-जीवन से परंपरा की रंगत कभी भी धुल नहीं पाती है, उसका कुछ न कुछ अंश सदैव बना रहता है और वही व्यक्ति को उसके अतीत गौरव से जोड़े रखने व नए को अपनाने के प्रति सचेत रहने की समझ प्रदान करता है। यानी कि व्यक्ति-जीवन में परंपरा और आधुनिकता दोनों का समाविष्ट रहना उसी तरह आवश्यक है जिस तरह ऑक्सीजन लेना और कार्बनडाइऑक्साइड को फेफड़ों से बाहर फेंकना। समकालीन लघुकथा में एक ओर हमें परम्परा के दर्शन होते हैं तो दूसरी ओर आधुनिकता के भी दर्शन होते हैं। विषयों और कथ्यों से तौर पर इसने गाँव-गँवार से लेकर इंटरनेट चैट-रूम तक पर अपनी पकड़ बनाई है। इसमें आधुनिकता की ओर दौड़ लगाता मध्य और निम्न-मध्य वर्ग भी है और उससे घबराकर परंपरा की ओर लौटता या वैसा प्रयास करता तथाकथित आधुनिक वर्ग भी है। परंपरा को संस्कृति से जोड़कर देखा जाता है, जबकि संस्कृति एक भिन्न अवयव है। परंपराएँ रूढ़, जड़, व्यर्थ हो सकती हैं, संस्कृति नहीं। परंपरा को बदला भी जा सकता है और नहीं भी; लेकिन संस्कृति के साथ यह सब करना उतना सरल नही।
समकालीन लघुकथा ने परंपराजन्य एवं व्यस्थाजन्य अमानवीय नीतियों-व्यवहारों के प्रति आक्रोश व्यक्त करने के अपने दायित्व का निर्वाह बखूबी किया है और आज भी कर रही है। यह इसलिए भी संभव बना रहा है कि अधिकांश लघुकथाकारों ने आम व्यक्ति का जीवन जिया है। वे बेरोजगारी के त्रास से लेकर जीवन की हर मानसिक व शारीरिक कष्टप्रद स्थिति से गुजरे हैं और आज भी गुजर रहे हैं। उन्होंने हर प्रकार का त्रास झेला है और आज भी झेल रहे हैं। उनकी लेखनी से इसीलिए किसी हद तक भोगा हुआ यथार्थ ही चित्रित होकर सामने आ रहा है। समकालीन लघुकथा में सत्य का विद्रूप चेहरा भी प्रस्तुत करने के सफल प्रयास हुए हैं।
अन्त में, किसी भी ऐसी लघुकथा को समकालीन नहीं कहा जा सकता जो अपने समय के मुहावरे से न सिर्फ टकराने का माद्दा न रखती हो, बल्कि उससे अलग-थलग भी पड़ती हो। वस्तुत: तो समकालीनलघुकथा अपने समय का मुहावरा आप है।
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संदर्भ: आलेख संवाद(दिल्ली-32) फरवरी, 2010

2 टिप्‍पणियां:

PRAN SHARMA ने कहा…

CHUNKI AAP KHUD BHEE EK SHEERSH
LAGHU KATHAKAAR HAIN ISLIYE AAPNE
SAMKAALEEN HINDI LAGHU KATHA KAA
VISHLISHAN BAKHOOBEE KIYAA HAI.
SAHITYA SMAAJ KAA DARPAN HOTA HAI.
AAPKAA YAH KAHNAA BILKUL SAHEE
HAI--SAMKAALEEN LAGHU KATHA NE
PARAMPARAA AEVAM VYAVASTHA JANYA
AMAANVIY NEETIYON -VYAVHAARON KE
PRATI AAKROSH VYAKT KARNE KE APNE
DAAYITV KAA NIRVAAH BAKHOOBEE KIYA
HAI AUR AAJ BHEE KAR RAHEE HAI.
AAPKE IS VICHAARPRADHAAN LEKH
KE LIYE AAPKO BADHAAEE AUR SHUBH
KAAMNAA.

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

एक सार्थक आलेख.

चन्देल