बुधवार, 23 नवंबर 2011

जीवन से रस लेती है लघुकथा/ डॉ॰ कमल किशोर गोयनका


[दोस्तो,
1990 में लघुकथाकार कुलदीप जैन ने लघुकथा संकलन ‘अलाव फूँकते हुए’ का संपादन किया था। इसमें उन्होंने जगदीश कश्यप की 26, मेरी यानी बलराम अग्रवाल की, सुकेश साहनी तथा स्वयं अपनी 25-25 लघुकथाएँ संकलित की थी यानी कुल 101 लघुकथाएँ। इसकी भूमिका डॉ॰ किरन चन्द्र शर्मा ने लिखी थी। इसमें संकलित मेरी लघुकथाओं पर डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक का समीक्षात्मक लेख तथा डॉ॰ कमल किशोर गोयनका का समीक्षात्मक पत्र प्राप्त हुआ था। इनमें से डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक के लेख को मैंने अपने पहले लघुकथा संग्रह ‘सरसों के फूल’ में साभार स्थान दिया था। ‘लघुकथा-वार्ता’ के इस अंक में प्रस्तुत है डॉ॰ कमल किशोर गोयनका का पत्र उपयुक्त शीर्षक के साथ।–बलराम अग्रवाल]


29-9-91
जबलपुर
प्रिय भाई,
मैं दो दिन के लिए जबलपुर आया हूँ। कल यहाँ से दिल्ली के लिए चलूँगा। रास्ते में पढ.ने के लिए ‘अलाव फूँकते हुए’ लेता आया था। इस पुस्तक के बारे में मैंने तुम्हें पोस्टकार्ड डाला था और मुझे याद है कि मैंने लिखा था कि तुम्हारी लघुकथाओं के बारे में बाद में लिखूँगा।
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि तुम बुलन्दशहर के हो। मेरी जन्मभूमि भी बुलन्दशहर है। वैसे तो सारा भारत ही अपना देश है, पर इसमें भी अपनी जन्मभूमि, मातृभूमि सबको प्यारी होती है। हमारे शहर में लेखकों की कोई ऐसी परम्परा नहीं है, जिसके कारण तुम लेखक बने हो। यह तुम्हारे अन्दर की बेचैनी, जीवनानुभव तथा उन्हें शब्दों में अभिव्यक्त कर पाने की कुशलता है, जिसने तुम्हें लेखक बनाया है, इस कारण भी मैं, तुम्हें बधाई देता हूँ कि तुमने इस कठिन साधना एवं तपस्या के मार्ग को चुना है। साहित्य साधना का मार्ग है तथा संसार में अन्य सृष्टियों के समान यह भी पीड़ाजनक है। यह एक प्रकार से पीड़ा की साधना है और जिस लेखक की यह साधना जितनी अधिक पीड़ाजनक होगी, उसकी लेखनी से उतने ही प्रभावशाली साहित्य की रचना होगी। मुझे विश्वास है, तुम इस साधना के मार्ग पर चलने का व्रत लेकर आये हो।
लघुकथा पर विगत दो तीन वर्षों में मैंने कुछ लेख आदि लिखे हैं। यद्यपि मेरा कोई लक्ष्य लघुकथा की ओर जाना नहीं था, परन्तु तुम्हारे जैसे कुछ युवा लघुकथाकारों की प्रेरणा से मैंने लघुकथा पर कुछ कहने का दुस्साहस किया है। मैं नहीं जानता कि वह कितना सही है या गलत, पर जैसा मैं सोचता हूँ, उसे मैंने कहने का प्रयत्न किया है। साहित्य में सहमति-असहमति होती है, और वह होनी भी चाहिए, क्योंकि दूसरे के मत के प्रति यदि हम लेखक सहिष्णु नहीं होंगे तो हम फिर समाज से क्या अपेक्षा रख सकते हैं?
लघुकथा एक जीवंत विधा है, क्योंकि वह साक्षात्‌ जीवन से जुड़ी है, जीवन से रस लेती है। लघुकथा और जीवन मुझे कई बार पर्याय लगते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि जिस लघुकथा में मानव-जीवन न हो, उसकी धड़कन न हो, उसकी पीड़ा और आनन्द न हो, उसका पतन और उत्थान न हो, उसका संकल्प और विकल्प न हो, वह लघुकथा नहीं है। लघुकथा को उसकी शब्दसीमा से पहचानने की चेष्टा मुझे अनुचित लगती है, क्योंकि शब्दसीमा, शब्दसंख्या या शब्दों का समूह रचना को रचना नहीं बनाते, बल्कि उन शब्दों में छिपी संजीवनी-शक्ति ही उनमें प्राणों की प्रतिष्ठा करती है। लघुकथा वह ही रचना बन सकती है, जो जीवन की इस प्राणशक्ति को अपने अणु-अणु में समाये हो। लघुकथा एक बहुत ही छोटी विधा है, अतः इसमें संवेदनाओं की सघनता का होना अत्यावश्यक है, क्योंकि लघु तभी प्रभावशाली होगा जब वह घनीभूत होगा, ठोस होगा, सघन होगा। तुलसीदास ने लिखा है कि सूर्य देखने में छोटा है, पर वह ब्रह्मांड का अंधकार दूर करता है। इसी प्रकार छोटा-सा अंकुश हाथी को वश में कर लेता है। मैं लघुकथा को इसी रूप में देखता हूँ और चाहता हूँ कि आधुनिक लघुकथा इस शक्ति को ग्रहण करे और लघु होकर भी गहरा और स्थायी प्रभाव अंकित करे।इस संग्रह में मैंने तुम्हारी लघुकथाएँ पढ़ी हैं और उनसे प्रभावित हुआ हूँ। पहले ‘अलाव के इर्द-गिर्द’ को ही लूँ। यह एक महत्वपूर्ण रचना है। किसान का अपनी जमीन से जो प्रेम है, वह माँ का अपनी संतान के प्रेम से कतई कम नहीं है। जमीन उसका प्राण है और उसका जीवन भी। इस जमीन के सवाल को प्रेमचंद ने ‘रंगभूमि’ में उठाया और ‘गोदान’ में भी। होरी अपनी तीन-चार बीघा जमीन की किले की तरह रक्षा करता है और अन्त में संसार से चला जाता है। प्रेमचंद ने कहा था कि यह जमीन उसकी है जो इसे जोतता है या उसकी, जिसने इसे बनया है, अर्थात्‌ ईश्वर की। आज भी, प्रजातंत्र में, होरी की जमीन को हड़पने वाले चौधरी हैं और हमारा प्रजातंत्र मूक बैठा है। ‘अलाव के इर्दगिर्द’ इसी बड़े यथार्थ को अपनी छोटी काया से अभिव्यक्त करती है। मैं समझता हूँ, इस संग्रह का नाम इस लघुकथा पर रखकर, सम्पादक ने बड़ी समझदारी का काम किया है, पर मेरा यह भी कहना है कि यदि शीर्षक को इसी कहानी नाम दिया जाता तो ज्यादा अच्छा था। यह शीर्षक और यह लघुकथा जीवन का ऐसा सत्य है जो स्वतंत्राता से पूर्व भी सत्य था और आज भी है। मुझे प्रेमचंद की कहानी ‘पूस की रात’ भी याद आती है, जिसमें अलाव के पास ही पूरी कहानी घटित हो जाती है। स्थान-संकोच की यह स्थिति कहानी को घनीभूत संवेदना से परिपूर्ण बनाती है और लघुकथा के लिए तो यह अनिवार्य स्थिति है। लघुकथा का रंगमंच जितना केन्द्रीभूत होता है, जितना सीमित और अपरिवर्तनीय होता है, उतनी ही रचना प्रभावान्विति से समृद्घ होती है। ‘अलाव के इर्द-गिर्द’ अर्थात्‌ अलाव के इर्द-गिर्द जो जीवन है, जो सुख-दुःख है, जो अस्तित्व का संकट है, वह अलाव फूँकने से बहुत ज्यादा बड़ा है। देश का छोटा किसान उसी प्रकार अस्तित्व के संकट से घिरा है, जैसे होरी घिरा था। परतंत्रता में होरी मरते दम तक अपनी जमीन को छाती से लगाकर चिपकाये रहा, परन्तु स्वतंत्रता के बाद के होरी, मिसरी, बदरू, श्यामा आदि सभी हाथ से फिसलती जमीन को बचा नहीं सकेंगे। अब प्रजातंत्र ही उनका शत्रुु है और वे पहले की तरह असंगठित भी हैं। बदरू आखिर में अलाव के इर्द-गिर्द पड़ी बिखरी डंडियों, तीलियों को उसमें झोंकता है, अर्थात्‌ वह सभी कुछ को, अपने शत्रुओं को अग्नि में झोंकने का प्रतीकात्मक अर्थ देता है, परन्तु यह लेखक का मन्तव्य है, बदरू का नहीं, क्योंकि वह जो करता है, वह साधारण कर्म है, किसान आसपास की डंडियों को इसी प्रकार अलाव में डालकर उसमें आग को बनाये रखते हैं, परन्तु लेखक बदरू नहीं है, वह लेखक है और उसका अभिप्रेत है कि अलाव की आग को जिन्दा रखना है, इसकी ज्वाला को प्रज्ज्वलित रखना है, सम्भवतः इस व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए अलाव की इस आग की आवश्यकता पड.े।
तुम्हारी कुछ लघुकथाएँ राजनेता, राजनीतिक भ्रष्टाचार तथा प्रजातंत्र की अप्रजातांत्रिक प्रवृत्तियों पर हैं। उनमें से कुछ में मौलिकता है और वे प्रभावित करती हैं। कुछ लघुकथाओं में अमानवीयता का उद्‌घाटन है, परन्तु कहीं-कहीं मानवीयता का उभरता चित्र भी है। कहीं हताशा भी है, जैसे, ‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु’; पर, कहीं हताशा के बीच से जन्म लेती जीवटता है, दृढ़ता है, और अन्याय का सामना करने का साहस है। ‘जुबैदा’ की कहानी यही है। इसका नेरेटर कहता है, “...दुविधा और विषाद मौत के ही दूसरे नाम हैं। संघर्ष ही सच है जुबैदा।” जुबैदा शाहबानू की प्रतीक है, जिसने वृद्घावस्था में सर्वोच्च न्यायालय तक पति के विरुद्घ मुकदमा लड़ा। वह जीती, परन्तु हमारी सरकार ने उसे हरा दिया; वैसे ही, जैसे यहाँ नेरेटर संघर्ष की कामना के बावजूद जुबैदा के मिलने पर उसका साथ देने को तैयार नहीं होता। दुर्भाग्य यही है कि शाहबानू हो या जुबैदा, वह अन्याय के संघर्ष में अकेली है। बातों में लोग उसके साथ हैं, पर मैदान में वह अकेली है। वह अभिमन्यु की तरह अकेली है और अन्यायी शक्तियों से घिरी है। जब अभिमन्यु जैसा योद्घा न बचा तो जुबैदा क्या कर पायेगी?
मैं एक लघुकथा ‘गोभोजन कथा’ पर भी कुछ कहना चाहता हूँ। इस लघुकथा में मानवीयता का स्पर्श है। इसका संदेश मानवता का संदेश है और साथ ही तुमने गाय और मनुष्य में से मनुष्य को चुनने का विचार रखा है, जो इससे पूर्व भी कई लेखकों तथा विचारकों के द्वारा रखा जाता रहा है। पशुहत्या और मनुष्यहत्या में से पहले मनुष्य की रक्षा की बात तो मैं समझ सकता हूँ, लेकिन गर्भिर्णी गाय और स्त्रीी के गर्भ में पलने वाले बच्चे का सवाल है तो क्या दोनों की रक्षा नहीं होनी चाहिए? नये ज्ञान-विज्ञान ने हमें समझा दिया है कि मनुष्य और प्रकृति एक-दूसरे के पूरक हैं। मनुष्य को यदि जीवित रहना है तो प्रकृति का सम्पूर्ण परिवेश बनाये रखना होगा और यहाँ तो गाय के बच्चे की रक्षा का प्रश्न है, जिसे जीवित रखकर ही हम स्त्री के गर्भ में पलने वाले बच्चे को जीवनदान दे सकते हैं। तुमने लघुकथा में यदि एक चुटकी आटा ही गाय के सम्मुख डलवा दिया होता तो लघुकथा की ऊँचाई और बढ. गयी होती। मानवीयता की किरण जितनी दिशाओं में जा सके तथा जितने व्यापक जीवन को प्रकाशित कर सके, उतना ही अच्छा है; क्योंकि लेखक, चाहे वह लघुकथाकार हो, मानवता का साधक और गायक होता है। मानवता की सिद्घि ही उसके लेखकीय कर्म की सिद्घि है।
पत्र लम्बा हो गया है और मुझे स्टेशन की ओर भागना है। 2॰35 पर ‘महाकौशल एक्सप्रेस’ पकड़नी है। मैं तुम्हारी कुछ-और लघुकथाओं पर भी चर्चा करना चाहता था तथा कुलदीप जैन एवं सुकेश साहनी की रचनात्मकता पर भी लिखना चाहता था, परन्तु मैंने कलम न रोकी तो रेल छूट जायेगी। अतः यह काम भविष्य के लिए छोड़ता हूँ।
पत्र की प्राप्ति की सूचना देना।
आशा है, सानंद होंगे।
तुम्हारा
कमल किशोर गोयनका

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