सोमवार, 16 जनवरी 2012

अपने समय और समाज को रेखांकित करती कथा-रचनाएँ/ सुभाष नीरव


दोस्तो, चन्ना चरनदास की एक समीक्षा प्रखर कथाकार, कवि, अनुवादक और ब्लॉगर सुभाष नीरव ने भी लिखकर मुझे सौंपी थी। यह समीक्षा कहीं प्रकाशित हो पायी थी या नहीं, नहीं मालूम। बहरहाल, यह समीक्षा अब लघुकथा-वार्ता के माध्यम से आप तक पहुँच रही है।बलराम अग्रवाल
बलराम अग्रवाल कहानी और लघुकथा के बीच बहुत बड़ा फर्क नहीं मानते; और जो किंचित फर्क वह मानते हैं वो उनकी नई कथाकृति चन्ना चरनदास की कहानियों और लघुकथाओं के मध्य स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। लघुकथा को पूर्णत: समर्पित लेखकों के साथ-साथ अनेक विद्वानों/आलोचकों ने भले ही लघुकथा को खाँचों/साँचों में बाँधकर देखने और इसके लिए सीमा रेखाएँ खींचने की कोशिशें की हों, परन्तु बलराम अग्रवाल इन खाँचों/साँचों और सीमा रेखाओं से बाहर जाकर अपने ढंग की सफल और सार्थक लघुकथाएँ लिखते रहे हैं। वह अपनी लघुकथाओं पर किसी भी प्रकार का जबरन शिकंजा कसने के आदी नहीं हैं बल्कि उन्हें खुली हवा में उन्मुक्त साँस लेने के लिए खुला छोड़ते हैं। यही कारण है कि उनकी लघुकथाएँ न केवल विषय को लेकर बल्कि अपनी भाषा, अपनी बुनावट और शैली में आम लघुकथा से हटकर होती है और पाठकों का ध्यान खीचती हैं। कहानी और लघुकथा को विलगाने वाली जो मध्य-रेखा होती है, उनकी अधिकांश कहानियाँ उस मध्य-रेखा के बहुत करीब खड़ी प्रतीत होती हैं। यही कारण है कि अनेक लोगों को यह भ्रम सताने लगता है कि इन्हें कहानी मानें या लघुकथा? उदाहरण के तौर पर हवा, सनातन, कूड़ा, धुआँ, मंजुला को तुम्हारी जरूरत है सुनंदा, दु:ख के दिन, यह कौन-सा मुल्क है, और जब बन्दर भौंका, सुदामा चरित आदि कथा-रचनाएँ देखी जा सकती हैं।
जिस सृजनात्मकता का अहसास उनकी सटीक और चुस्त-दुरुस्त लघुकथाओं में परिलक्षित होता है, वैसा ही अहसास उनकी कहानियों में पाया जाता सकता है। लेखक समाज में व्याप्त सभी असंगतियों, विसंगतियों, टूटते-बिखरते मूल्यों के समानान्तर एक ऐसी दुनिया रचना चाहता है जहाँ सम्भावनाएँ अभी मौजूद हैं। लेखक अपनी बात के मन्तव्य को पाठक तक सम्प्रेषित करने के लिए किसी प्रकार के विद्वतापूर्ण दिखावे का सहारा नहीं लेता और उलझाव के हर समीकरण से अपनी कहानियों को बचाए रखता है। यही कारण है कि साहित्य की पहली माँग पठनीयता को उनकी कहानियाँ पूरा करती हैं। दूसरी तरफ, कहानियों में ही नहीं, लघुकथाओं तक में किसी तरह का भाषिक खिलवाड़ हमें दिखाई नहीं देता। सभी कहानियाँ बेहद सहज ढंग से अपनी बात रखती हैं। कहानियों में आई यह सहजता रचना को हल्का नहीं बनाती, वरन इस सहजता में ही कई कहानियाँ बेजोड़ बनकर उभरती हैं। यही कारण रहा कि चन्ना चरनदास, वह हथेली औरत की नहीं थी, सहस्रधारा जैसी कहानियाँ इस संग्रह की उल्लेखनीय कहानियाँ बन पड़ी हैं। दूसरी तरफ, सामाजिक यथार्थ और मानवीय संवेदनाओं का सम्प्रेषण करती चन्ना चरनदास की कथा-रचनाएँ अपने समय और समाज को भी रेखांकित करने की कोशिश में संलग्न दीखती हैं। पुरुष वर्चस्व वाले समाज में स्त्री की स्थिति आज भी कोई बहुत बेहतर नहीं है। वह सामाजिक, पारिवारिक मोर्चे पर एक दबंग, सचेत स्त्री के रूप में अपने अस्तित्व को बचाए रखने की भरसक कोशिश करती दीखती है। उसका यह रूप वह हथेली औरत की नहीं थी और सहस्रधारा कहानियों में स्पष्ट देखा जा सकता है। कोख कहानी संतानहीन दम्पति के दु:ख को रेखांकित करती एक अलग ही तरह की कहानी है, जो हमारे संवेदन-तंतुओं को बहुत करीब से छूती है। कूड़ा और सहारा मार्मिक कहानियाँ हैं। इस संग्रह की कहानियों में आए पात्र गढ़े हुए नहीं लगते, वे हमारी आसपास की दुनिया से ही उठाए गए जीते-जागते पात्र हैं। चाहे ग्लोइंग प्वाइंट में सीधा-सादा खुद्दार बहादुर हो या वह हथेली औरत की नहीं थी की दबंग औरत; बकरियाँ का फौजी हो या काला समय का पुलिसमैन राणा, सहस्रधारा की शोख-चंचल और वाचाल लड़की हो या फिर चन्ना चरनदास का अनोखा पात्र घंसा चाचा। ऐसे ही अनेक पात्र उनकी कहानियों/लघुकथाओं में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करते हैं और पाठक के भीतर भी अपनी जगह बनाने में कामयाब होते हैं। लेखक ने इन पात्रों की संवेदना एवं चेतना के आड़े-तिरछे बिम्बों को प्रकट करने में जिस ईमानदारी का परिचय दिया है, उससे समस्याओं के सामाजिक पक्ष तथा उसके भीतर के उलझावों को समझने में पाठक को बहुत मदद मिलती है।
इसके अतिरिक्त जीवन की आस्थाओं और गरिमा के लिए जूझते लोगों का भोलापन कई कहानियों में पूरी जीवंतता के साथ अभिव्यक्त हुआ है। इसके चलते अधिकांश कहानियों की परिणति सुखद अंत के रूप में होती है, चाहे वह चन्ना चरनदास हो, वह हथेली औरत की नहीं थी हो, सहस्रधारा हो, बकरियाँ हो या फिर सहारा। मानवीय मूल्यों को बचाए/बनाए रखने की जद्दोजहद, पारस्परिक रिश्तों में आए ठंडेपन में पुन: गरमाहट भरने की ललक तथा सम्बन्धों को खोखला होने से बचाने की कोशिश, इन कहानियों में यत्र-तत्र दिखाई देती है जो कि संवेदन-शून्य होते जा रहे वर्तमान समाज के लिए एक सकारात्मक बात है। परन्तु, वर्तमान संक्रमण काल में फैलती स्वार्थपरता और धनलिप्सा की गिरफ्त में पिसते सनातनी संस्कारों की वकालत करती ये कहानियाँ अपने सुखद अंत के चलते आदर्शवाद के लपेटे में भी आ जाती हैं जो कि कहानी की वर्तमान धारा में अब कमजोर गुण माना जाता है। लेखक यदि इस आदर्शवाद से अपनी कहानियों को थोड़ा बचा लेता तो नि:संदेह ये कहानियाँ अधिक दमदार और धारदार साबित हो सकती थीं।
चन्ना चरनदास में संग्रहीत लघुकथाएँ सधी हुई रचनाएँ हैं और जिस रचनात्मक कसाव की अपेक्षा प्राय: लघुकथा से की जाती है, उसे इनमें सहज ही पाया जा सकता है। झिलंगा, लेकिन सोचो, कूड़ा, सुन्दरता, अंधे लोग, बहरे लोग, हवा, यह कौन-सा मुल्क है आदि रचनाएँ उन बेहतरीन लघुकथाओं में आती हैं जिनके लिए बलराम अग्रवाल जाने जाते हैं। फेंटेसी का न केवल खूबसूरत बल्कि जबर्दस्त प्रयोग उनकी अनेक लघुकथाओं में प्राय: देखने को मिलता रहा है। इस संग्रह में भी हवा, अंधे लोग, बहरे लोग, यह कौन-सा मुल्क है इसी तरह की लघुकथाएँ हैं जो अपना प्रभाव पाठक पर छोड़ने में पूरी तरह सफल हैं।
इस संग्रह की कथा-रचनाओं से गुजरते हुए लेखक की जिस रचनाशीलता और क्षमता से पाठक का परिचय होता है, उसको देखते हुए नि:संदेह कहानी और लघुकथा के क्षेत्र में इस लेखक से और-भी बहुत-सी उम्मीदें की जा सकती हैं।
समीक्षक का पता:372, टाइप 4, लक्ष्मीबाई नगर, नई दिल्ली-110023
ई-मेल:subhashneerav@gmail.com

1 टिप्पणी:

सुभाष नीरव ने कहा…

भाई बलराम, तुमने मेरी इस लुप्तप्राय: समीक्षा को 'लघुकथा वार्ता' ब्लॉग पर देकर इसे सुरक्षित कर दिया, अब यह इधर -उधर बिखरे/रखे कागजों में ढूंढ़ने की मेहनत से बच गई। मुझे भी याद नहीं, यह समीक्षा प्रिंट मीडिया में कहाँ छपी थी।

पाठक इस समीक्षा में गलती से टाइप हो गए एक शब्द 'कामाजिक' को सामाजिक पढ़ें।