शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

क्या लघुकथा अपना सर्वोत्तम समय देख चुकी--उमेश महादोषी



 'अविराम साहित्यिकी' के संपादक डॉ॰ उमेश महादोषी और बलराम अग्रवाल के बीच हुई इस लम्बी बातचीत की पहली किस्त 'लघुकथा-वार्ता' के 21 जून 2014 अंक में तथा दूसरी किस्त 21 अगस्त 2014 अंक में पोस्ट की गई थी। आज प्रस्तुत है उक्त बातचीत की तीसरी किस्त…
चित्र:बलराम अग्रवाल
उमेश महादोषी: नयी पीढ़ी के लघुकथाकार अलग-अलग कुछ अच्छी लघुकथाएं
देते रहे हैं। परन्तु अपने समग्र लघुकथा लेखन से उस तरह प्रभावित कर पाने
में सफल नहीं दिखते, जैसा उन्हें होना चाहिए या फिर जैसा आठवें दशक में
उभरे लघुकथाकार सफल हुए। प्रमुख कारण आप क्या मानते हैं?
बलराम अग्रवाल : यह कमी पुरानी पीढ़ी के भी एक-दो लघुकथाकारों में दिखाई देती है। उनके समग्र लघुकथा लेखन में विषय वैविध्य नदारद है। कोई साम्प्रदायिक दंगो के, कोई राजनेताओं की कथनी-करनी के तो कोई घर-परिवार के दुखांत कथानकों में ही उलझकर रह गया है। इस सब का प्रमुख कारण तो मात्र एक ही है—जीवनानुभवों की सीमा।

उमेश महादोषी: नयी पीढ़ी के अधिकांश लघुकथाकार लघुकथा-लेखन से तो
जुड़े हैं, किन्तु विमर्श और अच्छी लघुकथाओं को रेखांकित करने के अन्य
प्रयासों में कोई सार्थक भूमिका निभाते दिखाई नहीं देते। आप क्या कहेंगे?
बलराम अग्रवाल : लेखन अलग कर्म है और समीक्षण अलग। विमर्श में उतरने के लिए प्रत्येक कथाकार को जिस अध्ययन, गाम्भीर्य और शब्द-कौशल की आवश्यकता होती है, वह धीरे-धीरे ही आता है; एकदम से नहीं।

उमेश महादोषी: क्या आपको नहीं लगता कि आज भी लघुकथा प्रमुखतः
आठवें-नौवें दशक के स्थापित लघुकथाकारों के इर्द-गिर्द ही घूम रही है?
यदि ऐसा है तो इस स्थिति से लघुकथा को निकालने के लिए किस तरह के प्रयास
होने चाहिए? पुरानी और नयी पीढ़ी के लघुकथाकारों की अपनी-अपनी भूमिकाएं
क्या हो सकती हैं?
बलराम अग्रवाल : आठवें-नौंवें दशक के लघुकथाकार उस काल में स्थापित कथाकार नहीं थे; नवोदित थे सब के सब। उन्हें अगर आज स्थापित माना जा रहा है तो उनका लेखकीय श्रम और मेधा ही उसके पीछे हैं। लघुकथा लघुकथाकारों के इर्द-गिर्द घूम रही है, यह कथन ऐसा ही है जैसे कोई यह कहे कि लेखन की बागडोर लेखक के हाथ से खिसककर रचना के हाथ में चली गई है। और अगर आपका तात्पर्य यह है कि स्थापित लघुकथाकार नये कथाकारों को आगे नहीं आने दे रहे तो यह भी सच नहीं है। चैतन्य त्रिवेदी, शोभा रस्तोगी, दीपक मशाल आदि अनेक लोग लघुकथा को नई सदी के पहले दशक की देन माने जा सकते हैं। भूमिका इसमें रचनाशीलता ही निभाती है, गोड-फादरशिप नहीं।
उमेश महादोषी: आपकी बात नि:सन्देह ठीक है। पर मैं किसी अवरोध या गॉड फादरशिप की बात नहीं कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि लघुकथा में आप लोगों के बाद की पीढ़ी को जिस तरह और जिस स्तर पर लघुकथा को आगे ले जाने के लिए, विशेषतः समीक्षा-समालोचना की प्रक्रिया में, आगे आना चाहिए था, वह अपेक्षा से बहुत कम है। इस प्रश्न को मैं उठा रहा हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि आज हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थितियाँ और हालात जैसे हैं, उन्हें कथा क्षेत्र में लघुकथा (और काव्य क्षेत्र में क्षणिका) जैसी विधाओं में नई पीढ़ी के कथाकार कहीं अधिक प्रभावपूर्ण और सार्थक ढंग से अभिव्यक्ति दे सकते हैं, नया चिन्तन और विचार ला सकते हैं। दूसरे कई अन्य विधाओं में देखें तो वहाँ बाद की पीढ़ियों के रचनाकार भी समस्तर पर सक्रिय रहे हैं। क्या कहेंगे?
            बलराम अग्रवाल : लघुकथा लेखकों में सामयिक चिंतन से जुड़ी अभिव्यक्ति देने का संकट तो अक्सर नजर आता है, नि:संदेह; लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। मुझे लगता है कि …लगता ही नहीं है बल्कि कभी-कभी उसका सामना भी करना पड़ जाता है;  वो यह कि हम आज भी लघुकथा के पारम्परिक रूप-आकार पर ही रूढ़ रवैया अपनाए हुए हैं। इस ‘हम’ में लेखक, पाठक, संपादक, आलोचक सब शामिल हैं। रचना ने ‘हमारे’ पैमाने वाले आकार का अतिक्रमण किया नहीं कि उसे लघुकथा कहने में हमें संकोच होने लगता है। उसने बिम्ब का, प्रतीक का सहारा लिया नहीं कि हम उसे आम पाठक की समझ से बाहर की रचना मानने लगते हैं। ‘आम आदमी के लिए साहित्य’ के नाम पर बड़े से बड़ा आलोचक ऐसा साहित्यिक भोजन चाहने लगा है जो उसके मुँह में जाते ही घुल जाये, जिसे चबाने को लेशमात्र मशक्कत उसे न करनी पड़े। शब्द से जो अर्थ स्वत: फूटता है, उसे रिसीव करने वाले इनके ट्रांसमीटर्स आउट-डेटेड हो चुके हैं। इन्हें अब बस शब्द ही दीखता है, उसका नेपथ्य नहीं। मैं सब की नहीं, अधिकतर की बात कह रहा हूँ। इन अधिकतर के कारण नये कलेवर और सोच की रचनाएँ चर्चा पाने से वंचित रह जाती हैं।

उमेश महादोषी: क्या लघुकथा अपना सर्वोत्तम समय देख चुकी? यदि नहीं,
तो उसके लक्षित समयकी कल्पना आप किस तरह करते हैं? क्या उस समयके
आने की आशा है आपको? वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए क्या आपको लगता है कि
अगले पचास वर्ष के बाद लघुकथा साहित्य में अपनी सार्थक भूमिका के साथ
खड़ी होगी?
बलराम अग्रवाल : उमेश जी, कला व साहित्य के रचनात्मक क्षेत्रों में ‘सर्वोत्तम समय’ वह नहीं होता जिसे सामान्य लोग सर्वोत्तम समय कहते या मानते हैं। इनमें सर्वोत्तम समय वह होता है जब उससे जुड़े लोग पूरी निष्ठा के साथ निष्पक्ष रूप से सृजनात्मक व परिवीक्ष्णात्मक दायित्वों को निभाते हैं। मैं समझता हूँ कि कुछेक अपवादों को छोड़कर अधिकतर समकालीन लघुकथाकारों ने अपने इस दायित्व का निर्वाह किया है और उनमें से कुछ अभी तक भी कर रहे हैं। दूसरी बात यह है कि पूर्व प्रचलित विधाओं के चलते नवीन विधाओं का अपनी जगह बना लेना बहुत आसान कभी भी नहीं रहा। समय लगता है; लेकिन इसके लिए आप कोई निश्चित समय-रेखा नहीं खींच सकते। कारण यह है कि यह मात्र आपकी यानी लेखक और आलोचक की इच्छा पर निर्भर नहीं है। इस बारे में, जिसके बीच जगह बनानी है, उस ‘जन’ को आप दोयम पायदान पर नहीं रख सकते। तीसरी बात यह है कि लघुकथा यदि आज साहित्य में अपनी सार्थक भूमिका के साथ नहीं खड़ी है तो यह निश्चित मानिए कि पचास क्या दस साल बाद भी वह अपनी सार्थक भूमिका में खड़ी दिखाई नहीं देगी। हमें सबसे पहले अपने ‘आज’ को देखना है, भावी समय को नहीं। अगर हम आज समय के साथ नहीं खड़े हैं तो आने वाला समय हमारे साथ क्यों खड़ा होगा?
उमेश महादोषी: आपकी बात बिल्कुल ठीक है। लेकिन यहाँ मेरी जिज्ञासासमयके यथार्थ को दिशा देने में साहित्य (लघुकथा) की भूमिका के सन्दर्भ में है। आपका भी मानना रहा है कि समय कभी अचानक नहीं बदलता, धीरे-धीरे बदलता है। इस बदलाव को पहचानकर भविष्य के लिए साहित्य से मार्गदर्शन की अपेक्षा गलत तो नहीं होगी? यदि आज के कुछ हालात बिना किसी अवरोध के (नकारात्मक बदलावों की प्रकृति की पहचान और अभिव्यक्ति के माध्यम से साहित्य ऐसा अवरोध बन सकता है) चलते हुए पचास वर्ष बाद किसी विस्फोटक स्थिति में बदल जाते हैं, तो क्या हमारा दायित्व यह नहीं होना चाहिए कि हम उसकी कल्पना करें और उसे रोकने के लिए अपनी भूमिका निभायें या निभाने के लिए तैयार रहें? चूंकि अब लघुकथा अपने रूप-स्वरूप और दिशा आदि की स्थापना के प्रयासों से आगे आ रही है, अतः उसकी पिछली सामाजिक भूमिका से अलग एक अनुकूल विधा के रूप में भावी भूमिका को लेकर अधिक अपेक्षा करना क्या उचित नहीं होगा? पिछली पीढ़ी ने हमें जो प्रभावशाली अस्त्र तैयार करके दिया है, अगली पीढ़ी अपने और भावी पीढ़ियों के हित में उसका प्रभावी उपयोग करे, उसकी धार को और तेज करे, क्या ऐसी अपेक्षा नहीं होनी चाहिए?

            बलराम अग्रवाल : उमेशजी, मैं पुन: दोहराऊँगा कि यदि हम ‘आज’ को साध लेते हैं, ‘आज’ के साथ ईमानदार बर्ताव करते हैं तो ‘भावी’ को साधने की चिंता में हमें अधिक घुलना नहीं पड़ेगा। हमें पचास साल बाद वाली विस्फोटक स्थिति की कल्पना में जाने की जरूरत नहीं है; क्योंकि पचास साल बाद वाली समूची स्थिति का पूर्वाभास आज की स्थिति दे रही होती है। उस पूर्वाभास को भी कथाकार लघुकथा की ‘वस्तु’ बना सकता है, बनाना चाहिए; क्योंकि उस रचना में भी कहीं न कहीं ‘आज’ ही अभिव्यक्त हो रहा होगा। हाँ, वर्तमान पीढ़ी के लघुकथाकारों से अपने ‘आज’ को अपनी रचना का सच बनाने की आपकी अपेक्षा का मैं सम्मान करता हूँ क्योंकि इस अपेक्षा के दायरे में कहीं न कहीं स्वयं मैं भी अपने आप को खड़ा देखता हूँ।   
('अविराम साहित्यिकी' अप्रैल-जून 2014 से साभार)

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

दरअसल लघुकथा पर निरंतर संवाद की ज़रुरत है.उसमें ईमानदारी और स्वीकृति का भाव भी रहे.एक किश्त और देखकर फिर कुछ कहूँगा.(अशोक भाटिया_