बुधवार, 19 जुलाई 2017

सौन्दर्य-बोध और नये लघुकथाकार / बलराम अग्रवाल


(सन्दर्भ : कुणाल शर्मा, चन्द्रेश कुमार छतलानी, मुन्नूलाल, रोहित शर्मा, सन्ध्या तिवारी और सुधीर द्विवेदी की लघुकथाएँ)

नई सदी के इन लघुकथाकारों की लघुकथाएँ पढ़ते हुए मैं अचानक बहुत आशान्वित हो उठा हूँ। कुछ लघुकथाएँ तो आह्लादित कर देने वाली हैं। तो क्या अब से पहले आशान्वित नहीं था या आह्लादित नहीं महसूस करता था? करता था; लेकिन अपनी बात की गहराई को समझाने के लिए मुझे एक कथा आपको सुनानी पड़ेगी। इस कथा का पूरा परिदृश्य लघुकथा-लेखन से जुड़ा है—
कुछ लोगों ने गाँवभर की प्यास बुझाने के लिए कुआँ खोदना शुरू किया। कुएँ तो पहले भी थे, लेकिन वे बाम्हनों के, बनियों के, राजपूतों के, राजा-रानियों-जमींदारों और साहूकारों के थे। उनमें कुत्ता-बिल्ली-ऊँट-सियार-गधा-तोता आदि पशु-पक्षियों का दखल तो सम्भव था; हाशिए के लोग उन पर नहीं जा सकते थे।
     ये नए लोग नया कुआँ खोदते रहे, खोदते रहे; लेकिन पानी तो पानी सीली हुई मिट्टी तक मिलनी उन्हें शुरू नहीं हुई।  खुदाई में जुटे अनेक लोग हताश होकर इस कर्म से हट गये, यह कहते हुए कि जमीन के इस हिस्से से पानी कभी नहीं निकलेगा। लेकिन बाकी लोग लगे रहे। उनमें से कुछ, थककर कुएँ की उस गहराई में ही एक ओर को बैठ गये तो कुछ खुदाई करते-करते काल-कवलित हो गये। बचे-खुचे लोग इस सबके बावजूद भी लगे रहे। करते रहे खुदाई। उनमें से एक को आज नीचे की मिट्टी में कुछ सीलन दिखाई पड़ी है; और वह ‘युरेका… युरेका’ चिल्ला उठा है।
इस कथा के अन्त में आया  ‘वह’ आप… आप… आप, लघुकथा पर चिंतनरत कोई भी व्यक्ति हो सकता है, मैं तो हूँ ही। लघुकथा की नई पीढ़ी पर मुझे स्वयं से भी ज्यादा यकीन हो उठा है; और इस यकीन को वह लगातार पुष्ट कर रही है।  नई पीढ़ी के चुनिन्दा 6
कुणाल शर्मा
कथाकार संकलित हैं—कुणाल शर्मा, चन्द्रेश कुमार छतलानी, मुन्नूलाल, रोहित शर्मा, सन्ध्या तिवारी और सुधीर द्विवेदी। क्योंकि एक संकलन में 6 कथाकार ही लेना इस श्रृंखला की सीमा है; और जरूरी नहीं कि सभी सक्षम लघुकथाकार समय पर अपनी रचनाधर्मिता के साथ आ उपस्थित हुए हों, इसलिए निश्चित रूप से अन्य अनेक उत्कृष्ट (इस संकलन से)बाहर मौजूद हैं, यह मानना पड़ेगा। अत: नए लघुकथाकारों में ये छ:  पांक्तेय तो हैं, अग्रणी भी हों, ज़रूरी नहीं। हाँ, उल्लेखनीय अवश्य हैं। इन सभी कथाकारों की लगभग सभी संकलित लघुकथाओं के केन्द्र में विभिन्न सामाजिक विसंगतियों से जनित विडम्बनाएँ हैं। ये विडम्बनाएँ कहीं-कहीं स्वाभाविक यौन-पूर्ति के मार्ग में ला खड़ी की जाने वाली दकियानूस मान्यताओं की देन भी हैं। मुन्नूलाल की लघुकथा ‘निर्णय’ की तो शुरुआत ही दकियानूस सोचजनित त्रास से होती है—
‘तो तुम्हारे पापा हरगिज नहीं मान रहे?’ रवि ने पूछा।
‘नहीं, हरगिज नहीं। और तुम्हारे?’ रीतू ने कहा।
‘मेरे मम्मी-पापा भी नहीं, बिल्कुल नहीं।’
सन्ध्या तिवारी की लघुकथा ‘बाबू’—
रेल की पटरी पर भीड़ इकट्ठी हो गयी थी।
पन्द्रह-सोलह साल की लड़की दो हिस्सों में कटी पड़ी थी।…
उसने सुना, मम्मी पड़ोसवाली आण्टी से कह रही थीं—‘प्यार-मोहब्बत का चक्कर लगता है।…’
सन्ध्या तिवारी की ही लघुकथा ‘ढकोसले’—
‘पापा, यह निर्णय अगर आप बाईस साल पहले ले लेते तो मैं भी अपनेवाला प्यार पा लेती।  जिन्दगी यूँ समझौते में तो न कटती।’
यह नई पीढ़ी का वह सौन्दर्य बोध है जो ध्यान आकर्षित करता है।  बोध से भी पहले, सवाल यह पैदा होता है कि जिसे हम  ‘सौन्दर्य’
चन्द्रेश कुमार छतलानी
कहते हैं, वह आखिर है क्या?  और वह आखिर है कहाँ?  दर्शक, श्रोता या पाठक के मन में या उससे अलग दैहिक रूप से सुन्‍दर किसी वस्‍तु में ?  कैरिट का कहना है कि—‘सौन्‍दर्य आँख से दिखाई देने वाली वस्‍तुओं में नहीं होता, वरन्‌ उनके महत्‍व पर निर्भर होता है और भिन्‍न-भिन्‍न व्यक्तियों के लिए उनका महत्‍व भी भिन्‍न होगा। सम्‍भवतः बहुत ही भिन्‍न प्रकार के लोगों के लिए यह महत्‍व और भी भिन्‍न प्रकार का होगा। उनके लिए सौन्‍दर्य की सत्ता वस्‍तुगत न होकर आत्‍मगत होती है।’ उसके मतानुसार, ‘मनुष्‍य उस वस्‍तु को सुन्‍दर कहता है जो उसकी उन भावनाओं को व्‍यक्‍त करती हैं, जिनके योग्‍य वह अपने स्‍वभाव और पिछले इतिहास से बना है।’  चन्द्रेश कुमार छतलानी की ‘उम्मीद’ में ‘भीषण गर्मी के कारण’ गाँव का कुआँ सूख चुका है। तीन-चार लोगों को उसकी खुदाई के लिए लगाया गया है। गाँव के मुख्य मन्दिर का मुख्य पुजारी भी कुछ मन्त्र बुदबुदाता हुआ वहाँ उपस्थित है। अचानक पानी का फव्वारा छूटा। खोदनेवालों में से एक आदमी गीला भी हो गया। (यहाँ जानबूझकर इस लेखकीय करिश्मे पर उँगली नहीं उठा रहा हूँ कि अचानक छूटे फव्वारे ने गीला करने के लिए कुएँ के भीतर खड़े तीन-चार लोगों में से मात्र एक को ही क्यों चुना!) यह देखते ही पुजारी चिल्लाया, “तुरन्त बाहर आओ, एक क्षण की भी देर मत करो।” इस कथा का अन्त चन्द्रेश ने यों किया है—‘जो आदमी कुएँ के अन्दर गीला हुआ था, वह वहीं एक पेड़ के पीछे खड़ा अपनी कमीज को आखिरी बार निचोड़कर पानी को अपने चुल्लू में भर अपनी बेटी को पिलाते हुए कह रहा था,  “पी ले, सवर्णों के कुएँ का मीठा पानी है, पता नहीं फिर कब नसीब हो!” (यहाँ भी इस तथ्य को नजरअन्दाज कर रहा हूँ कि निचोड़ने की क्रिया दोनों हाथों से सम्पन्न होती है और चुल्लू भी दोनों ही हाथों से बनती है! दूसरे, इसमें ‘सवर्णों’ शब्द बोलचाल का नहीं है।) खैर। इस लघुकथा में छतलानी पुजारी जैसे उच्च सामाजिक दायित्व वाले सवर्ण जातीय व्यक्ति के ढकोसलापूर्ण ओछेपन और कुआँ-खुदाई का सामाजिक कार्य करने वाले दलित मजदूर की हताशा के माध्यम से सहृदय पाठक के मन में अनावश्यक पूजा-पाठ और गाँवभर को मीठा पानी उपलब्ध कराने में सक्षम दलित मजदूर की उपेक्षा के खिलाफ आक्रोश उत्पन्न करने में कामयाब रहते हैं।  ‘आरती दर्शन’ भी छतलानी की सुन्दर अभिव्यक्ति है। हालाँकि आरती के समय श्रद्धालुओं का आँख बन्द करने सम्बन्धी नियम किसी भी मन्दिर में शायद न हो; लेकिन इच्छित सम्प्रेषण के मद्देनजर कथाकार ऐसी छूट कभी-कभी ले लिया करते हैं।
मुन्नूलाल
कुछ आलोचकों का मत है कि प्रकृति के, मानव-जीवन के तथा ललित कलाओं के आनन्‍ददायक गुण का नाम सौन्‍दर्य है। अब, सवाल यह पैदा होता है कि साहित्‍य में वीभत्‍स के चित्रण को सुन्‍दर कैसे कहा जा सकता है ? कलाओं में तो कुरूप और असुन्‍दर सभी की अभिव्यक्ति  होती है,  उनको सुन्‍दर कैसे कहा जा सकता है ? दुखान्त नाटक देखकर सहृदय को वास्‍तव में जिस दु:ख का अनुभव होता है, उसे सौन्दर्य की श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है?  इस सवालों का जवाब यह है कि कला में कुरूप और असुन्‍दर विवादी स्‍वरों के समान हैं जो राग के रूप को निखारते हैं । वीभत्‍स का चित्रण देखकर सहृदय उससे प्रेम नहीं करने लगता, वह उस कला से प्रेम करता है जो उसे वीभत्‍स से घृणा करना सिखाती है। हमें ध्यान इस बात पर देना है कि वीभत्‍स से घृणा करना सुन्‍दर कार्य है या असुन्‍दर ?  कुरूप, असुन्‍दर और वीभत्‍स की परिणिति ही कला और साहित्य में सौन्‍दर्य के रूप में होती है। दुखान्‍त नाटक में सम्बन्धित पात्र का दु:ख देखकर हम द्रवित होते हैं। तात्पर्य यह कि  हमारी करुणा और सहानुभूति परिवार और निकटवर्ती मित्रों तक सीमित न रहकर एक व्‍यापक रूप ले लेती है । वह नितान्त अनजान व्यक्ति अथवा प्राणी के प्रति भी जाग जाती है। करुणा के इस प्रसार को, सहानुभूति की इस व्‍यापकता को हम सुन्‍दर कहेंगे या असुन्‍दर ?  करुण रस के साहित्‍य से हमें दुख की अनुभूति होती है, किन्‍तु यह दु:ख निरपेक्ष नहीं होता। उस दु:ख में करुणा के प्रसार से प्राप्‍त आनन्‍द निहित होता है। ‘शोले’ फिल्म में अमिताभ बच्चन द्वारा अभिनीत पात्र ‘जय’ की मृत्यु पर दर्शक को दु:ख होता है, क्यों? इसलिए कि उसके मरने से ठाकुर की विधवा बहू के जीवन में पुन:  बहार आने का रास्ता बन्द हो गया, उसके सुख का स्वप्न एक बार फिर टूट गया। तो दुखान्त के माध्यम से निर्देशक यहाँ जिस करुणा का प्रसार करता है, वह सौन्दर्य की ही श्रेणी में रखी जाएगी। यहाँ महत्व दुखान्त का लेशमात्र भी नहीं, करुणा के प्रसार की भावना का है। इसी फिल्म के अन्त में, धर्मेन्द्र अथवा ठाकुर बने संजीव कुमार जब गब्बर की पिटाई कर रहे होते हैं तब दर्शक प्रसन्नता के अतिरेक में अपनी कुर्सी से उछल-उछल पड़ते हैं, क्यों? फिल्म के पर्दे पर नायक द्वारा की गई हिंसा को देखकर हम खुश क्यों होते हैं? गब्बर ने हमारा क्या बिगाड़ा था? दरअसल, हम खुश होते हैं—बुराई को पिटते, नायक द्वारा उसे नष्ट किया जाता देखकर।  यह हमारी अन्त:भावना का प्रदर्शन है, इसलिए हमें वह हिंसा भी सुन्दर और ग्राह्य लगती है। इस हिंसा को विद्रोह की दृष्टि से कम, आततायी का विरोध करने की दृष्टि से अधिक देखना चाहिए। कुणाल शर्मा की ‘त्योहार का दिन’ में यह विरोध बड़े सार्थक रूप में दर्ज़ होता है। अलग-अलग सन्दर्भों में  उनकी ‘बचपन’, ‘जन्मदिन’, ‘काले अंगूर’ और ‘संवेदना’ भी ध्यान आकर्षित करती हैं। आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍ल ने लिखा है, सौन्‍दर्य बाहर की कोई वस्‍तु नहीं है, मन के भीतर की वस्‍तु है।....'  सौन्‍दर्य-बोध  एक संश्‍लिष्‍ट इकाई है। यह मनुष्य की प्रकृति में भी है और मन में भी। संवेदनशील व्यक्ति की अनुभूति व्‍यक्‍तिगत भी होती है, समाजगत भी और व्यष्टिगत भी।
आज के लघुकथाकार का सौन्‍दर्य-बोध पारम्परिक सौन्‍दर्य-बोध से अलग है। उसकी अभिव्यक्ति में जटिलता नहीं है… न
रोहित शर्मा
प्रतीक के स्तर पर, न बिम्ब के स्तर पर और न ही सौन्दर्याभिव्यक्ति के स्तर पर।  वह प्रगतिवादी  और जनवादी पाखण्ड से दूर सहज, सजग और सरल अभिव्यक्ति का पैरोकार है। सौन्‍दर्य का अनुभव वह जीवन के हीन समझे और माने जाने वाले पक्षों में भी कर लेता है। उसका सौन्‍दर्य-बोध यथार्थ की कड़ी जमीन को फोड़कर निकलता प्रतीत होता है। छायावादी कवियों की तरह वह कल्‍पना लोक में सौन्‍दर्य का संधान नहीं करता बल्कि आस-पास के जीवन में इस सौन्‍दर्य को देखता है। उसे यह सौन्‍दर्य झूठ बोलती दाई-काकी (खुशियाँ : सुधीर द्विवेदी) में भी दिखाई देता है और माता-पिता के कष्ट की ओर से संवेदनहीन हो चुके सॉफ्टवेयर इंजीनियर द्वारा तैयार रोबोट (ऑटोमैन के आँसू : रोहित शर्मा), विसर्जित गणेश मूर्ति (प्राण प्रतिष्ठा : रोहित शर्मा)  में भी।
इन लघुकथाकारों की रचनाओं  में दमित और  शोषित पात्रों के प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन नहीं है। वे उसका चित्रण करके निर्णय पाठक पर छोड़ देते हैं। वे वही काम करते हैं, बतौर लघुकथा-लेखक जो उन्हें करना चाहिए। वे अपनी मर्यादा और दायित्व दोनों से परिचित हैं। समकालीन लघुकथा निदानात्मक विधा है, समाधानात्मक नहीं।  इस बात को मंटो के शब्दों में समझना शायद अधिक आसान हो। अदबे-लतीफ़’ (नया साहित्य) के वार्षिकांक (1944) में प्रकाशित 1 जनवरी, 1944 को लिखित अपने लेखअदबे-जदीद’(आधुनिक साहित्य) में सआदत हसन मंटो ने लिखा था—‘जिस नुक्स को मेरे नाम से मंसूब किया (जोड़ा जाता) है, दरअसल मौजूदा निज़ाम का नुक़्स है—मैं हंगामापसंद नहीं। मैं लोगों के खयालातो-जज़्बात में हैजान(उबाल) पैदा करना नहीं चाहता। मैं तहज़ीबो-तमद्दुन की और सोसाइटी की चोली क्या उतारूँगा जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इसलिए कि यह मेरा काम नहीं, दर्जियों का काम है।’ रोहित शर्मा की लघुकथा ‘बकरा’ इस परिप्रेक्ष्य को प्रस्तुत करती सुन्दर लघुकथा है।
       भारतीय समाज मुख्यत: दो वर्गों में विभाजित है। पहला, जातीय यानी वर्ण-व्यवस्था के आधार पर; और दूसरा शोषक और शोषित यानी आर्थिक आधार  पर। वर्गों में विभाजित समाज तब तक गतिशील नहीं हो सकता , जब तक उसमें वर्ग-विहीनता या समानता स्‍थापित न हो जाय।  आठवाँ-नौवाँ दशक साहित्य में प्रगतिवादी और जनवादी चिन्तनधारा का होने के कारण अनेक कवियों ने ग्रामीण प्रकृति के चित्र अपनी कविता में अधिक उतारे हैं जो खेत-खलिहानों से संबंधित हैं। पेड़-पौधे, नदियाँ, पहाड़, फसल सब कुछ उनकी कविताओं में उपलब्‍ध हो जाता है।  प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन, पशु-पक्षियों के क्रिया-कलाप और उनके रूप लघुकथा का विषय भी अक्सर बनते हैं। इनके वर्णन से हमेशा ही कतराते रहने की जरूरत तब के लघुकथाकारों ने नहीं समझी, आज भी नहीं है। ये स्थूल रूप में ही नहीं, मानसिक धरातल पर भी अहम्‌ होते हैं । आंचलिक वातावरण, प्रचलित साधारण बोलचाल के ग्रामीण शब्‍दों का उपयोग भी कथा को सौन्दर्य प्रदान करने वाला सिद्ध होता है, बशर्ते कथन-भंगिमा में स्वाभाविक  ग्रामीणता और ‘भदेसपन' हो, न कि कृत्रिमता।  ऐसी कृत्रिमता के दर्शन अनेक रचनाओं में प्रगतिशील सौन्‍दर्य के नाम पर पूर्व में कराए जाते रहे हैं।  
सन्ध्या तिवारी
सौंदर्य बोध वस्तुत: सामाजिक चेतना का अंग है। इसका सम्बन्ध मनुष्य की श्रृंगार-दृष्टि से भी है, लेकिन उतना नहीं, जितना उसकी चेतना-दृष्टि से है। मनुष्य अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति की स्वार्थ-भावना से लबालब है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के साधनों का जैसे-जैसे विकास होता है, वैसे-वैसे अनेक मनुष्यों के बीच आर्थिक बनावट आकार ग्रहण करती है और उनके पारस्परिक सम्बन्धों में विस्तार आता है। इन सम्बन्धों के अनुरूप सामाजिक और आर्थिक मनोविज्ञान बनता है और उन्हीं के अनुरूप राजनीतिक, सामाजिक, दार्शनिक, कानूनी और कलात्मक आदि विचार ढलने लगते हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उत्पादन की इस प्रक्रिया के बीच ही शासक और शासित, शोषक और शोषित वर्ग के बीच टकराव शुरू होते हैं।  यह टकराव शासित और शोषित में अधिकार प्राप्ति की चेतना उत्पन्न करता है, उन्हें संघर्ष से जोड़ता है, संघर्ष का इतिहास बनाने की ओर मोड़ता है। इतिहास दरअसल, बनाया नहीं जाता, छोटे-छोटे संघर्षों से वह बन जाता है। हमें समकालीन लघुकथा में आ रहे इन छोटे-छोटे संघर्ष-बिन्दुओं को रेखांकित करना चाहिए। और इसीलिए, इक्कीसवीं सदी के इन छ: लघुकथाकारों की चुनी हुई 66 लघुकथाओं का अकलन मैं इसी दृष्टि से करने की चेष्टा कर रहा हूँ। 
कहा जाता है कि सौन्दर्य बोध जीवमात्र का सहज गुण है। लेकिन यह बोध हमेशा ही बाहरी परिस्थितियों से अप्रभावी रहता है, यह कोई नहीं कह सकता। इस बोध को प्रभावित करने वाली परिस्थितियाँ हमेशा ही सहज रहती हों, यह भी आवश्यक नहीं है। ये परिस्थितियाँ बदलती भी रहती हैं और विकसित भी होती रहती हैं। इसलिए सहज गुण होने के बावजूद सौन्दर्य बोध की अवधारणाएँ भी नि:सन्देह बदलती रहती हैं। सौन्दर्य संवेदन एक ही तरह के नहीं होते। उनमें वीरता का भाव भी होता है और भीरुता का भी; उनमें कर्म का भाव भी होता है और कर्महीनता का भी; उनमें वैराग्य का भाव भी होता है और राग का भी; उनमें निष्काम भाव भी है और काम भाव भी; उनमें वह सब-कुछ होता है जिसकी कल्पना हम उनमें नहीं करते; और वह, जिसके होने को हम जरूरी समझते हैं, लेशमात्र भी नहीं होता है। रोहित शर्मा की लघुकथा ‘ऑटोमैन के आँसू’, कुणाल शर्मा की ‘नि:शक्त घुटने’, सुधीर द्विवेदी की ‘जीने का सलीका’ को पढ़कर इस तथ्य को आसानी से समझा जा सकता है। सौन्दर्य बोध की जिस इकाई से हम स्वयं को हीन महसूस करते हैं, उसे बाह्य रूप से अपना लेते हैं। दुनिया भर में स्त्री और पुरुषों द्वारा काया हेतु विभिन्न सौन्दर्य प्रसाधनों को चुनना मूलत: इस हीनता बोध का ही द्योतक है।  
भूख-प्यास और यौन-आवश्यकताएँ जीव मात्र की बुनियादी जरूरतें हैं।  इसलिए अनेक धर्मग्रंथों में इन आवश्यकताओं पर विजय पा गये अलौकिक स्त्री-पुरुषों की भी कल्पना की गयी है। धार्मिक रूप से महान व्यक्ति की कोशिश ही यह रहती है कि वह स्वयं को, अथवा अपने आराध्य को, बुनियादी शारीरिक जरूरतों से मुक्त सिद्ध कर दिखाए। इस यथार्थ का बोध भी सौन्दर्य के बोध की ही एक कड़ी है, ऐसा मेरा मानना है।  साथ ही यह भी, कि शरीर की इन बुनियादी जरूरतों को नकारकर महान होने का स्वांग अत्यन्त पुरातन है; जबकि इस स्वांग की आवश्यकता को ‘धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष’ को पुरुषार्थ मानकर प्रारम्भ में ही नकारा भी जा चुका है। जो भी हो, कर्मकांडी ब्राह्मणों और सवर्णों ने समाज में अस्पृश्यता के अंकुर को पालने-पोसने का स्वांग इस इक्कीसवीं सदी में भी पूर्ववर्ती सदियों की तरह जारी रखा हुआ है (उम्मीद : चन्द्रेश कुमार छतलानी)
समाजशास्त्र में मनुष्य की अनुकरण-प्रवृत्ति को समाज की आत्मा माना जाता है। अनुकरण समाजरूपी नदी के प्रवाह को एक ही दिशा में बनाए रखने वाला प्रमुख कारक है। हमारे समस्त विचार, रुचियाँ, परम्पराएँ और रीति-रिवाज इस प्रवृत्ति से चालित रहते हैं। लेकिन इसी समाज में प्रतिकरण-प्रवृत्ति भी देखने को मिलती है… अनुकरण की एकदम विलोम। और इस प्रतिकारी-प्रवृत्ति के… विरोध की प्रवृत्ति के भी अनेक अनुयायी उत्पन्न हो जाते हैं और यहीं से प्रभुत्वशाली प्रवृत्तियों और नवीन प्रवृत्तियों के बीच टकराव की भूमि तैयार होती है, यहीं से नया मनुष्य पैदा होना शुरू होता है। टकराव नहीं होगा तो नया मनुष्य भी उत्पन्न नहीं होगा, यह तय है।  रोहित शर्मा की ‘गाढ़ा खून’, ‘स्पेस’, ‘दूब के तार’, अन्तहीन तप’, ‘सच्चा झूठ’ उनके समाजशास्त्रीय सरोकारों की द्योतक हैं। हर व्यक्ति की कुछ निजी रुचियाँ होती हैं। उन रुचियों के अनुरूप ही उसकी अवधारणाएँ भी विकसित होती हैं। लेकिन इन अवधारणाओं को यथार्थ में बदलना उसके अपने हाथ में नहीं, परिस्थितियों के वश में होता है। यों भी कह सकते हैं कि ये परिस्थितियाँ ही मनुष्य में कुछ विशेष रुचियों को पनपाती हैं। मस्तिष्क पर नए प्रभावों के प्रवाह को और चरित्र को ये रुचियाँ निर्धारित करती हैं।  इस सिद्धान्त को सुधीर द्विवेदी की लघुकथा ‘वापसी’ में पल-पल बदलते चरित्र के मद्देनजर आसानी से समझा जा सकता है। उनकी लघुकथा ‘एक बार फिर’ बेटी के सुखी भविष्य के प्रति भारतीय मानस में गहरी पैठ चुकी चिन्ता को व्यक्त करती है। ‘फरियाद’ भविष्य में सम्भावित जल-संकट की ओर संकेत करती है, ‘जगह’ निरंकुश और अनुशासनहीन व्यवहार की ओर। ‘चूहे’  और ‘जमीर’ प्रतीक शैली की लघुकथाएँ हैं तथा ‘दहशत’ यौन-शोषण से ग्रस्त उस बेटी की जिसके लिए घर की तुलना में हवालात अधिक सुरक्षित जगह बन गई है।
             बाजार कितना ही क्यों न फैल गया हो, हमारा आज भी यह विश्वास है कि कुछ चीजों को लूटा या खरीदा नहीं जा सकता, लिया जा सकता है; कुछ चीजों को फेंका या बेचा नहीं जा सकता, दिया जा सकता है। वे कौन-सी चीजें हैं? सोचिए जरा। इस सवाल का जो जवाब है, वह समूचे जीवन-मूल्य से जुड़ा है। जीवन-मूल्य से जुड़ा है, इसीलिए साहित्य से भी जुड़ा है।  वे चीजें हैं—प्रेम, विश्वास, ज्ञान, सदाचार आदि।  लेकिन आपको आश्चर्य होगा कि लम्बे समय से… गत सदी के कम से कम  उस समय से तो जरूर जब से हमने अपने हिये की आँखें खोली हैं, ये चीजें भी बाजार की वस्तु बन गई हैं। इन्हें भी खरीदा और बेचा जा रहा है। आज का व्यापारी आपकी शारीरिक जरूरतों की चीजों के व्यापार से बहुत आगे बढ़ गया है। उसने आपकी भावनाओं को आपकी शारीरिक जरूरतों से जोड़ दिया है। प्रेम, विश्वास, ज्ञान और सदाचार आदि अब आपकी आत्मिक सन्तुष्टि मात्र के अवयव नहीं रहे, आपकी शारीरिक जरूरत बन गये हैं। अब से कुछ दशक पहले तक ‘योग’ आपकी आध्यात्मिक साधना का आधार था। बाबा रामदेव ने उसे शरीर से जोड़ दिया; घोषित किया कि—‘दुनियाभर में किसी को भी रोगी नहीं रहने दूँगा।’ हम सभी जानते हैं कि औद्योगीकरण ने तत्श्चात् मशीनीकरण ने मनुष्य की आंगिक क्रियाओं में ज्यादा नहीं तो 50 प्रतिशत तक तो कमी ला ही दी है। समाज का बहुत बड़ा तबका अब पैदल नहीं चलता। साइकिलें तो कम होते-होते गायब हो जाने के कगार पर ही हैं। घरों से चरखे, चक्कियाँ, सिल-बट्टे, कपड़ा धोने की थपकियाँ गायब हो चुके हैं।  शारीरिक श्रम की कमी ने ऊतकों को कमजोर कर दिया है। शरीर जल्दी थकने लगा है। किंचित रोगी भी रहने लगा है। स्पष्ट है कि रोगी कोई नहीं रहना चाहता। इसलिए बाबा रामदेव की घोषणा का चहुँमुखी प्रभाव पड़ा। सब ‘योग’ से युक्त होने की भीड़ में शामिल हो गये। बाबा ने कपालभाति और भस्त्रिका कराते-कराते रोगोपचार भी शुरू किया। कहा—‘करेले का जूस पियो, यह मधुमेह में लाभदायक है’, लौकी का,  जामुन का, नीम की पत्तियों का, ग्वारपट्ठे (एलोवीरा) का… तात्पर्य यह कि आसपास मिल जाने वाली वनस्पतियों और फल-सब्जियों का उपयोग विशिष्ट प्रकार से करते रहने की विधियाँ बताते-बताते अन्तत: स्वयं उनका उद्योग स्थापित कर दिया। कहा कि ‘यदि स्वयं नहीं बना पा रहे हैं तो चिन्ता की कोई बात नहीं, हम बनाकर देंगे, हम से लो।’ यह सिर्फ एक उदाहरण है विनिमय की वस्तु न समझी जाने वाली विभिन्न भावनाओं को शारीरिक जरूरतों से जोड़कर विनिमय की वस्तु में बदल डालने का करिश्मा कर देने की। गत दिनों प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘पातंजलि आयुर्वेद’ और उसकी अन्य सहयोगी कम्पनियों का सालाना टर्न ओवर 5000 करोड़ रुपए था जिसे बहुत शीघ्र 10000 करोड़ का आँकड़ा पार करा देने के प्रयास जारी हैं। यह आधुनिक पूँजीवाद का वह चेहरा है जिसे न तो पहचानना आसान है और न ही पहचानने के बाद वैसा स्वीकार कर पाना; क्योंकि यह भावनाओं से पनपा हुआ चेहरा है यानी हमारी भावनाएँ इस यथार्थ विद्रूप को देखने के आड़े आ जाती हैं। यहाँ आक्षेप बाबा रामदेव पर नहीं है, यह तो एक उदाहरण मात्र है। कोशिश है गत सदी के उत्तरार्द्ध से अब तक बदले उस चरित्र की जिसके बारे में पहले कहा जाता था कि उसे बेचा या खरीदा नहीं जा सकता है।
                स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और अन्य पिछड़ा वर्ग यानी कुल मिलाकर भारत की शोषित-वंचित मानवता के
सुधीर द्विवेदी
लिए सौन्दर्य की अवधारणा क्या वही होगी जो किसी सम्पन्न और हर तरह से अघाए व्यक्ति की होगी? नहीं। सौन्दर्य की उसकी अवधारणा वह होगी जो उसे इस त्रासदी से मुक्ति दिला सके। इस वर्ग के लिए इसीलिए सौन्दर्य की परिभाषाएँ बदल जाती हैं। चाँद गोल नहीं रह जाता, उसका मुँह टेड़ा नजर आने लगता है। इनके परिप्रेक्ष्य में सौन्दर्य बिहारी की नायिका में नहीं है, इनके अपने सरोकारों में है। सौन्दर्य की एक अवधारणा तो यह है—
कहति नटति रीझति खिझति मिलति खिलति लजियात।
भरे भौन में करत है, नैनन ही  सों बात
यह सौन्दर्य को देखने-लिखने के रीतिबद्ध घटना है।  लेकिन गहन अध्येताओं का मानना है कि सौंदर्य केवल वस्तु अथवा रूप में नहीं है, वह द्रष्टा की दृष्टि में, और उस काल में भी है जिसमें अपनी बुद्धि और मन के साथ वह जी रहा है।  रीतिबद्ध सौन्दर्य दृष्टि में सौंदर्य विधान का विवेचन मुख्यतः नारी व प्रकृति के सौंदर्य के माध्यम से किया जाता है। प्राचीनकाल से ही नारी व प्रकृति कवियों और कलाकारों की प्रिय विषय-वस्तु रही हैं। संस्कृत आचार्यों से लेकर नवीन कवियों तक ने नारी के सौंदर्य का निरूपण  किया है। एक ओर उन्होंने स्थूल शरीर के आकर्षण का विवेचन किया है तो दूसरी तरफ आन्तरिक सौंदर्य को भी दिखाया है। लेकिन रीति काल की कविता किसी भी सामाजिक दायित्व व निष्ठा से अछूती थी। कविता का विकास केवल कला को ध्यान में रखकर किया जा रहा था। रीतिबद्ध कवियों की सौन्दर्य सम्बन्धी धारणाओं में नायिका का नख-शिख वर्णन महत्वपूर्ण है। इनमें से अनेक ने नायिका के बाह्य सौंदर्य का चित्रण किया है, तो कुछ ने ‘नख-शिख’ वर्णन संबंधी स्वतन्त्र ग्रन्थों की भी रचना की है। विद्यापति से शुरू होकर यह परम्परा तोष, मंडन, कुलपति, चंद्रशेखर आदि कवियों तक जाती है। इन कवियों ने प्रकृति के भी रूपाकर्षक व नयनाभिराम चित्र प्रस्तुत किये हैं। इनमें षड्ऋतु वर्णन और बारहमासा वर्णन की परम्परा भी देखने को मिलती है।  रीतिबद्ध कवियों के अलावा घनानंद, आलम, बोधा, जैसे कवि भी हुए, जो रीतिमुक्त हैं। वे गहरे दायित्व बोध के कवि हैं, कविता को केवल कला समझने का विरोध करते हैं। घनानन्द कहते हैं—‘लोग हैं लागि कवित्त बनावत, मोहि तो मेरे कवित्त बनावत’।
सौन्दर्य के रूपायन की रीतिबद्ध और रीतिमुक्त धारा के बाद तीसरी अवधारणा यह है—
कारखाना-अहाते के उस पार
धूम्रमुख चिमनियों के ऊँचे-ऊँचे
उद्गार-चिह्नाकार मीनार
मीनारों के बीचों-बीच
चाँद का है टेढ़ा मुँह!!
तथा—
दाने आये घर के अन्दर कई दिनों के बाद।
धुआं उठा आंगन के ऊपर कई दिनों के बाद।
चमक उठीं घर भर की आंखें कई दिनों के बाद।
कौए ने खुजलाई पाखें कई दिनों के बाद
नई सदी के इन युवा लघुकथाकारों की रचनाओं में मैं उनकी इसी सौन्दर्य चेतना को तलाशने और चिह्नित करने की कोशिश करूँगा। उस सौन्दर्य चेतना को जो वर्तमान समय की विसंगतियों को झेल रहे  समाज की आवाज बनकर लघुकथाओं में अभिव्यक्ति पा रही है। 
‘सत्यम् शिवम्  सुन्दरम्’  भारतीय दर्शन का अत्यन्त आकर्षक सिद्धान्त है। राजकपूर द्वारा निर्मित और निर्देशित इसी नाम की हिन्दी फिल्म के शीर्षक गीत के बोल हैं—सत्य ही शिव है, शिव ही सुन्दर है…। लेकिन दलित चिंतक शरण कुमार लिंबाले ने ‘सत्यम् शिवम्  सुन्दरम्’ को मनुष्य से जोड़कर देखा है। वे कहते हैं—‘मनुष्य प्रथमत: मनुष्य है, यही सत्य है। मनुष्य की स्वतन्त्रता ही शिव है। मनुष्य की मनुष्यता ही सुन्दर है।’  स्पष्ट है कि सौन्दर्य के प्रतिमान साहित्य में मात्र पारम्परिक ही नहीं रह गये हैं। समूचे नहीं तो अधिकांशत: बदल गये हैं। उन्हें बदला मनुष्य के त्रास से उपजी चेतना ने; क्योंकि त्रस्त मनुष्य को वही वस्तुएँ और भाव सुख देते हैं जो उसे त्रास से मुक्ति का मार्ग दिखा सकें, मुक्त कर सकें। इस सौन्दर्य का बोध समकालीन हिन्दी लघुकथा में प्रारम्भ से ही रहा है, जिसे अलग से चिह्नित किया जाना आवश्यक है।  
डॉ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी ने सौन्दर्य के बारे में कहा है—‘सौन्दर्य का उद्देश्य सिर्फ सौन्दर्य होता है’।  सौन्दर्य को देखने के लिए उसे पहचानने वाली दृष्टि चाहिए। कौन-सी दृष्टि? यह जानने के लिए यह वाकया पढ़िए—
काली-कलूटी लैला से अलग करने के लिए मजनू के पिता ने अनेक खूबसूरत युवतियाँ उसके सामने खड़ी करके कहा था—“ये अपने देश की सबसे सुन्दर लड़कियाँ हैं। इनमें से जिसके साथ तू कहेगा, उसी के साथ तेरा विवाह करा दूँगा।”
मजनू ने उन सबकी ओर देखा और पिता से कहा—“इनमें से कोई भी मुझे पसन्द नहीं है।”
                    पिता ने पूछा--“एक भी नहीं! क्यों?”
“क्योंकि इनमें एक भी लैला जितनी सुन्दर नहीं है!” मजनू ने कहा।
“लैला इनके मुकाबले कहाँ से सुन्दर है?” पिता ने क्रोधित होकर पूछा।
 “लैला की सुन्दरता को देखने के लिए मजनू की आँख चाहिए अब्बा हुजूर।” मजनू ने कहा था।
कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि स्वयं पुत्र की भी सौन्दर्य दृष्टि अपने पिता से भिन्न हो सकती है। अक्सर होती ही है।  चन्द्रेश कुमार छतलानी की लघुकथा ‘धर्म-प्रदूषण’ को देखें। प्रचलित अवधारणा (जो सही भी हो सकती है गलत भी कि मदरसों में पढ़ रहे बालकों को अपने शिक्षक से तर्क करने की अनुमति नहीं होती) के विरुद्ध शागिर्द इसमें शिक्षक से तर्क करता है। उसके तर्क से घबराकर ‘शिक्षक उसके इस सवाल पर चुप रहा। उसके दिमाग में यह विचार आ रहा था कि ‘है तो नहीं, लेकिन फिर भी, कल मजहबी किताबों में यह लिखा हुआ बताना है कि—उनके लिखे पर सवाल उठानेवाला नामर्द करार दे दिया जाएगा’।’
सन्ध्या तिवारी की लघुकथा ‘कविता’ में नायिका यानी स्त्री, घर में अपनी व्याप्ति को क्रमश: बताती है; लेकिन इस रचना का अन्त यों होता है—
अचानक, सन्जू मन्जू को नेम प्लेट के आकर्षण में वहीं बँधा छोड़ अन्दर आयी और आकर उसने अपनी अन्तिम पंक्ति पूरी की—
मैं मुख्य द्वार की साँकल
सबकी सुविधा और सुरक्षा के लिए खुलती और बन्द होती हूँ।
मैं समूचा घर हूँ,
बस, घर की नेम प्लेट नहीं।
घर की नेम प्लेट बनने के अधिकार की प्रतीक्षा भारतीय स्त्री को अभी भी है, नि:सन्देह। लघुकथा का यह अन्त मनुस्मृति के श्लोक यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ के  आध्यात्मिक संस्कार को यथार्थ का आइना दिखाता हुआ गहरा कचोटता है।  मुन्नूलाल की लघुकथा ‘अस्तित्व’ में यह कचोट यों प्रकट होती है—
‘हा… हा… हा… ! कितना रोचक है यह ! दूसरों के मार्फत पहचान बनाने के चक्कर में तुम अपनी खुद की पहचान भूल गईं, यहाँ तक कि अपना नाम ही भूल गईं, अपना मूल अस्तित्व ही बिसार बैठीं!’
सन्ध्या तिवारी की ‘बाबू’ शीर्षक लघुकथा में मनोवैज्ञानिक सत्य का समावेश है।   परिवार में किसी नए सदस्य के आ जाने पर वरिष्ठ सदस्यों का ध्यान अक्सर उसी पर केन्द्रित हो जाता है। इस कारण से कुछेक पुराने सदस्य स्वयं को उपेक्षित और अवहेलित महसूस करने लगते हैं। यह उपेक्षा और अवहेलना उनमें हीनता की भावना का संचार करती है जो अगर स्थाई हो जाए तो भयावह परिणाम देने वाली हो सकती है। यह नया सदस्य नवजात शिशु भी हो सकता है और नई नवेली वधू भी। ‘बाबू’ में नया सदस्य ‘भइया’ है और उपेक्षित पात्र है—बड़ी बहन पिंकी। पिंकी का यह उलाहना देखिए—
‘आप सब भइया को प्यार करते हैं। सेरेलक दूध, शहद सब भइया को खिलाते हैं। गोदी भी सब उसे ही लेते हैं। और तो और, मेरा बाबू नाम भी भइया को दे दिया। पहले, जब यह नहीं था, तब सब हमें ही बाबू कहते थे, प्यार भी करते थे। अब कोई मुझे प्यार नहीं करता—न आप, न पापा, न ताऊजी और न दादी। और जहाँ प्यार-मोहब्बत का चक्कर होता है, वहाँ ट्रेन से कट जाना चाहिए—अभी यह बात आप पड़ोसवाली आण्टी को बता रही थीं। मैंने खुद सुना।’ कहते-कहते पिंकी का चेहरा लाल हो गया था और  आँखों के आँसू गाल पर ठहर गये थे।
उनकी लघुकथा ‘डायरी’ का यह अंश देखिए—
आज उसने मुझे बहुत मारा। वह मेरी जीभ ही काटकर फेंक देना चाह रहा था। इसके लिए उसने चिमटा तक उठा लिया था। मेरा कसूर केवल यह था कि मैंने उसे उसकी गलती याद दिला दी थी।
यह स्त्री-उत्पीड़न की कथा नहीं है, उत्पीड़न से मुक्ति के लिए छटपटाती स्त्री की चीख है। वह बता रही है कि नागरिक की हैसियत से संविधान-सम्मत ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ से वह कितनी दूर और कितनी आतंकित है।  यही आतंक मुन्नूलाल की लघुकथा ‘उलूक न्याय’ की बलात्कृता सकीना भी झेल रही है। बलात्कारी रहमान से ही विवाह करने का फरमान सुनाने वाली जमात के पंचों से वह पूछती है—
‘बोलो पंचो, क्या मैं वाकई हर किसी के लिए अछूत हो गयी? आखिर गुनाह क्या है मेरा?
स्त्री-विमर्श कथा-साहित्य में कई-कई स्तरों पर लम्बे समय से जारी है। ज्यादातर कथाओं में यह स्वाभाविक स्थितिजन्य न होकर जबरन ठूँसा गया प्रतीत होता है। कन्या-भ्रूण, दलित-विमर्श आदि सभी में नारेबाजी अधिक है, यथार्थ-अंकन कम। इसी कारण, रचनाओं की संख्यात्मक भरमार तो खूब है, गुणात्मकता नगण्य। सन्ध्या तिवारी की लघुकथाओं में स्त्री-विमर्श जैसे हृदय और चिन्तन की गहराइयों से निकलता है। वे नारा नहीं देतीं, करुणा का बयानभर करती हैं। लघुकथा ‘जहन्नुम’ के माध्यम से तो वह यह तक बताने में सफल हैं कि स्त्री का जहन्नुम कोख से ही शुरू हो जाता है। लघुकथा ‘सीलन’ में वे बिम्ब लेकर चलती हैं। देवरानी के यहाँ ‘बेटी’ के जन्मोपरान्त नामकरण संस्कार में जाने के समान्तर अपने पड़ोस में हुई एक से लौटने का मार्मिक बिम्ब। यह बिम्ब चीख-चीख पड़ता है, जब नवजात बच्ची को गोद में पकड़ाते हुए ॠतु की देवरानी  उससे कहती है—
‘… वैसे ये चाहे जिस पर गयी हो, हम तो आप पर ही गये हैं। दो बेटियों वाले हो गये आपकी तरह।’ कहते हुए मीनू के चेहरे पर पीलापन पुत गया।
बेटियों के जन्म पर माँओं के चेहरे पर पीलेपन का पुतना ! जैसाकि मैंने ऊपर भी लिखा—सन्ध्या तिवारी स्त्री विमर्श की समर्थ लघुकथाकार के रूप में अपना नाम दर्ज कर रही हैं। समाज में, स्वयं माँ की दृष्टि में बच्चियाँ कितनी हेय हैं, इस तथ्य का जितना करुण वर्णन इनकी लघुकथाओं में है, उतना किसी अन्य की लघुकथाओं में प्राय: दुर्लभ है। लघुकथा  ‘बिना सिरवाली लड़की’ के अन्त में  ‘…और मुझे लगा—तकलीफ सिर्फ उन लड़कियों को होती है, जिनके सिर उग आते हैं’ कहकर सन्ध्या तिवारी का नैरेटर उस सामाजिक अवमूल्यन की ओर संकेत कर देता है जिसमें पुरुष ही सत्तासीन रहना चाहता है और इसीलिए लड़कियाँ उसकी नजर में दोयम दर्जे की ही नागरिक हैं; या शायद नागरिक नहीं, उपभोग की वस्तुभर हैं। आज के कथाकार का सौन्दर्य-बोध यह है कि पति की सेज पर सोती हुई लड़कियाँ एकाएक चीखना शुरू कर देती हैं। उनके डर का कारण उस दुनिया में प्रविष्ट हो जाना है जिसमें आगे का जीवन पूरी तरह असुरक्षित है। देखिए—
 ‘ओह माँजी! मैं बहुत बुरा सपना देख रही थी। मैंने देखा कि मैंने देखा कि आप-सब ने केरोसीन तेल डालकर मुझे जला दिया है और मैं धू-धू कर जल रही हूँ।’
लघुकथा ‘बेटी’ के माध्यम से मुन्नूलाल भावी जीवन के प्रति आशंकित इस विवाहिता को सुरक्षित अंक में बैठाने की गारण्टीभरा समाज चाहते हैं, देते हैं। कुणाल शर्मा और सुधीर द्विवेदी की अधिकतर लघुकथाओं में सामाजिक सामंजस्य की भावना किंचित आदर्श रूप में प्रकट होती है।  
‘चप्पल के बहाने’ सन्ध्या तिवारी ने दलित-विमर्श की ओर भी पाठक का ध्यान आकर्षित किया है।
            आयु विशेष में यौनावेग व्यक्ति में स्वाभाविक रूप से सिर उठाते हैं। उल्लेखनीय उनका सिर उठाना नहीं, बल्कि सिर उठाए उन आवेगों को अनुशासित रखने, उनके शमन की मानसिकता का विकास करना है। मुन्नूलाल का सौन्दर्य-बोध इस दिशा में निश्चित रूप से प्रशंसनीय है। उनका पुरुष यौनावेग को स्त्री-शरीर में भी देखता है और सवाल करता है कि पति की तरह यदि पत्नी भी अपने यौनावेग के शमन हेतु पुरुष की तलाश में घर से निकलने लगे तो परिवार नामक इकाई का क्या होगा?
किराए का मकान खाली करने-कराने को लेकर इनमें दो लघुकथाएँ हैं—मुन्नूलाल की ‘शक’ और ‘शराफत’। विषय एक होते हुए भी दोनों का ट्रीटमेंट अलग है।  उनकी लघुकथा ‘निर्णय’ उसी भूतकाल में सम्पन्न हो रही है, जिसमें अधिकतर कथाएँ सम्पन्न होती हैं—रवि ने पूछा, रीतू ने कहा आदि। लेकिन आगे मुन्नूलाल लिखते हैं—‘दोनों चल पड़ते हैं।’ ऐसा कहते ही लेखक स्वयं आ उपस्थित होता है। ऐसा लगने लगता है जैसे वह अपनी स्क्रिप्ट सामने वाले को सुना रहा हो। जबकि लघुकथा में किस्सागोई भी स्क्रिप्ट-बयानी से कहीं ऊपर की चीज है। इसमें प्रस्तुत घटनाएँ घटित होती प्रतीत होनी चाहिएँ। यों भी, जिस लघुकथा की स्थितियों का वर्णन, यहाँ तक कि संवाद-प्रस्तुति भी भूतकाल में शुरू की जा चुकी हो, उसके बीच में वर्तमान का आ घुसना दुर्भाग्यपूर्ण असावधानी ही कहा जाएगा।
                                                        “अब चोरी करना भी सीख गई!” वह उसे घुड़क रही थी।
लघुकथा में संवाद का टोन ही वह सब-कुछ कह चुका होता है जिसे कहानी में बताना नैरेटर आवश्यक समझता है। ‘अपने-अपने’ से उद्धृत इस संवाद के बाद ‘वह उसे घुड़क रही थी’ बताना कहानीकार के लिए तो आवश्यक हो सकता है क्योंकि उसके सामने येन-केन-प्रकारेण कथा के आकार को विस्तार देने का भी अव्यक्त दबाव होता है; लेकिन लघुकथाकार इस तरह के हर दबाव से मुक्त होता है। मैं यह नहीं कहता कि यह नैरेशन यहाँ अनावश्यक है; हाँ, यह अवश्य कहूँगा कि इन 5 शब्दों के बिना भी संवाद अपने प्रभाव को सम्प्रेषित कर रहा है। इस लघुकथा में जो अन्तिम वाक्य—‘उसे लगा, उसकी नसों में दौड़ता खून सफेद होने लगा है’—को ही लघुकथा में लेखक का आ उपस्थित होना कहते हैं। इससे बचना चाहिए।
 इनमें से कुछ लघुकथाओं में सूक्ष्‍म और स्‍वस्‍थ संवेदनाओं की प्रस्तुति हुई है। नए लघुकथाकारों में कितनों की सौन्‍दर्य चेतना ग्रामीण परिवेश से जुड़ी हुई है?  यह आज अवश्य ही विचारणीय है। वह जितनी भी उससे जुड़ी होगी, उतनी ही हृदय की वास्‍तविक अनुभूति के रूप में प्रकट होगी। उसमें काल्‍पनिक भावबोध को कम जगह मिलती है।  सन्तोष का विषय है कि नए लघुकथाकार इस चेतना और दायित्व से अछूते नहीं हैं। उदाहरण के लिए, ‘समूचा मन’ के इस सौन्दर्य को देखिए—
‘आज रविवार था। सुबह की ‘गुड मार्निंग’ चाय आज उसने अपनी पत्नी को भेंट की। इसके बाद घर में महीनों से टपकती टंकी के लिए प्लम्बर बुलाकर टोंटी कसवाई। बरसों से काई-जमे सिनटेक्स की सफाई कराई। घर में रखे गमलों में से घास-फूस की निराई कर डाली। पाइप लगाकर सूख रहे पौधों को सींचा। एक लोटा जल तुलसी पर अलग से चढ़ाया। घर के बाहर पड़ा कूड़ा उठवाया। घर का काम करनेवाली बाई की त्वचा बारिश-गरमी में काम करते-करते झुलस-सी गयी थी। बरसों से काम करती बाई पर उसका कभी ध्यान ही नहीं गया, लेकिन आज उसे धूप में बर्तन माँजते देख झट अपना छाता दे आया।’
 लघुकथा-लेखन में जिसे ‘कथा-धैर्य’ कह जाता है, उसे अपनाए बिना कथाकार का इस ठहराव के साथ अभिव्यक्त होना सम्भव नहीं है। कथा-धैर्य की ओर सभी लघुकथाकारों का ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
और अन्त में, कवि केदारनाथ अग्रवाल के शब्दों में नवागतों से कहना चाहूँगा—
सूर्य हो लेकिन छुपे हो बादलों में
कान्‍ति हो लेकिन पले हो पायलों में
सिन्‍धु हो लेकिन नहीं तूफान लाते
चाँद की मुस्‍कान में हो प्रान पाते।


 सम्पर्क : एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032

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