गुरुवार, 14 जनवरी 2021

रचना और शास्त्र का अन्तर्संबंध/ बलराम अग्रवाल

अच्छी और उत्साहवर्धक बात है कि गत कुछ दिनों से हिंदी लघुकथा में शैलियों की विशेष पड़ताल की जाने लगी है। इस पड़ताल के दो लाभ होंगे। एक तो यह, कि अब तक अपनाई जा चुकी विभिन्न शैलियों को रेखांकित किया जा सकेगा। दूसरी यह, कि पूर्व कथाकारों द्वारा अपनाई जा चुकी कथा शैलियों के मध्य छूट रही शैलियों में भी लघुकथा लेखन को बढ़ावा दिया जा सकेगा।  वर्तमान पड़ताल के अंतर्गत मृणाल आशुतोष की एक पोस्ट में 'विज्ञापन शैली' का जिक्र भी हुआ है। यह टिप्पणी मुख्य रूप से उसी पर केंद्रित है। 

2008 में कमल चोपड़ा द्वारा संपादित 'संरचना' के लिए लिखे अपने आलेख में मैंने भारतेतर संसार की कुछ संस्थाओं द्वारा निश्चित शब्द-संख्या में लघुकथा लेखन को बढ़ावा देने के प्रयासों का उल्लेख किया था। उनमें 59 लाइनर्स, 69 लाइनर्स, 100 लाइनर्स के साथ-साथ अर्नेस्ट हेमिंग्वे की 6 शब्दों वाली रचना 'फाॅर सेल बेबी शूज नेवर वोर्न' को भी उद्धृत किया था। इस रचना के दो पाठ मिलते हैं। एक में अंतिम शब्द 'वोर्न' है और दूसरी में 'बोर्न' है। दोनों ही शब्दों के साथ रचना व्यापक अर्थ ध्वनित करती है। पहले शब्द के साथ रचना का अर्थ, 'बिकाऊ हैं शिशु जूते अन-पहने' बनता है और दूसरे शब्द के साथ इसका अर्थ, 'बिकाऊ हैं अनजन्मे शिशु के जूते' बनता है।

गहराई से देखें, तो रचना के दोनों ही पाठ अर्थ और संवेदना की व्याप्ति से भरे हैं। हेमिंग्वे ने  प्रथम विश्वयुद्ध में सक्रिय भाग लिया था और दूसरे विश्वयुद्ध तक भी उनका रचनाकाल फैला है। उस अवधि में अनेक युद्धों के वह प्रत्यक्षदर्शी रहे। नि:संदेह किसी युद्ध के दौरान उन्होंने  'अन-पहने शिशु जूते' मलबे में तब्दील हो चुके किसी आवास पर अवश्य देखे होंगे। किसी अन्य जगह किसी अन्य ने किसी गर्भवती युवती के शव को 'शिशु जूते' मुट्ठी में दबाए पड़ा देखा होगा। और यहीं से हेमिंग्वे की रचना के दूसरे पाठ का जन्म हुआ होगा। यद्यपि यह रचना मुख्यतः युद्धकाल में और विदेश में रची गई है इसलिए इसके संदर्भ भारत में 'कन्या भ्रूण हत्या' से जोड़ना तथ्यपरक सच्चाई नहीं है तथापि, कथापरक और संवेदनापरक सच्चाई अवश्य है। भारत में, गर्भस्थ शिशु के लिए माताओं द्वारा जूते और स्वेटर आदि बुनने का चलन पुरातन समय से रहा है। कामायनी में श्रद्धा गर्भस्थ शिशु के लिए स्वयं कपड़े बुनती दिखाई देती है। मातृत्व और वात्सल्य शाश्वत संस्कार बनकर धरती की उत्पत्ति के समय से ही महिलाओं के रक्त में दौड़ रहे हैं। क्या बीतती होगी उस माँ पर, जिसकी गर्भस्थ कन्या की जबरन हत्या कर दी गई हो और जिसके नन्हें पाँवों के लिए रात-रात भर जागकर बुने-अधबुने जूते उसके हाथ की सलाइयों में ही अटके रह गए हों।

गत कुछ दिनों से, अंतरजाल पर 6 शब्दों की उक्त रचना को संसार का सबसे छोटा उपन्यास तक बताया जाने लगा है। उससे पहले इसे संसार की सबसे छोटी कहानी कहा जाता था। इससे सिद्ध होता है कि संवेदना यदि अपनी संपूर्णता और गहनता में व्यक्त हो तो उसे किसी एक विधा में बाँधकर रख पाना शास्त्रकारों के लिए सर्वथा असंभव रहता है। मात्र 3 शब्दों की अज्ञेय की रचना 'मेंढक/पानी/छप्' भी अनंत तक जाने वाली कथा और कविता दोनों है। अशोक भाटिया की अनेक लघुकथाओं में कविता जीवित हो उठती है। सातवें दशक (1966) में आई 'स्वाति बूँद' (सुगनचंद 'मुक्तेश') की अनेक कथाएँ कविता को छूती हैं।  ऐसी रचनाएं शास्त्रीय नियमों से 'बगावत' करने वाली सिद्ध होती हैं। हास-परिहास और चुटकुले के पान में लपेटकर आत्माभिमान को जगाने की जो गोली भारतेंदु अपने समय के नव धनाढ्यों को खिलाते हैं, वह अभूतपूर्व है। तब के नव धनाढ्य कमरे की बत्ती बुझाने के लिए 'मोहना' को बुलाते थे, अब के नव धनाढ्य 'रिमोट' ढूँढ़ते हैं।  (आगे जारी रह सकता है)

6 टिप्‍पणियां:

VEER DOT COM ने कहा…

इस आलेख में दोनों शब्दों 'वोर्न और 'बोर्न'के साथ जिस तरह वाक्य की व्याख्या की गई है, वह गौरतलब है। इसे उपन्यास के रूप में देखना सही नहीं लगता, अलबत्ता एक शार्ट स्टोरी कहना ही सही होगा। भारतीय सन्दर्भ में इसको जोड़ना भले ही कुछ तर्क-संगत लगता हो लेकिन इसके वास्तविक रचित संदर्भ युद्ध के साथ यह अधिक संवेदनशील और सटीक नजर आता है, क्योंकि भारतीय संदर्भ में अबॉर्शन या भ्रूण हत्या अप्रत्याशित तो कभी नहीं होती।
बहरहाल मंथन योग्य एक उल्लेखनिय लेख है सर। सादर।

neo makariya ने कहा…

सर आपकी इस समीक्षा को सलाम 🙏🏻

Writerdivya Sharma ने कहा…

लघुकथा में एक कविता होती है यह बात मैं मानती हूँ।एक कवि एक लघुकथाकार हो सकता है क्योंकि वह बिम्ब, भाव और कल्पना से एक ऐसा संसार रचता है जो विसंगतियों का चित्रण कुशलता से करता है।
अब बात लघुकथा में प्रयोग की।मेरा मानना है कि कथानक अपनी शैली खुद विकसित कर लेता है और नवीन शैली की खोज प्रयोग को जन्म देती है।
महत्वपूर्ण आलेख के लिए धन्यवाद सर।

खेमकरण 'सोमन' ने कहा…

बहुत सुंदर सर।

poonam chandralekha ने कहा…

महत्वपूर्ण जानकारी। कहानियां और कविताएं लिखती हूं।लघुकथा अभी ही लिखनी शुरू की हैं, करीब १३-१५ लिखीं है अब तक।। आपसे प्रेरित हूं और आपके लेखों को ध्यान से पढ़ कर सीख रही हूं। एक जिज्ञासा है कि यदि विज्ञापन शैली में लिखी रचना को लघुकथा मान लिया जाए तो संपूर्णता और गहनता में संवेदनशील व दिल को छू लेने विज्ञापन भी क्या इस श्रेणी में आ जाएंगे? दूसरी जिज्ञासा कविता रूप को लेकर भी है। शास्त्रीय नियमों से बगावत करने वाली रचनाओं की कोई एक विधा तय कैसे की जा सकती है ...या तो कविता हो या फिर लघु कथा? आभार सहित

रामप्रसाद राजभर ने कहा…

आदरणीय बहुत सही लिखा है आपने।शेणाय साहब ने मुझे बतलिया था लघुकथा के लिए कि,'कम से कम शब्दों में अपनी बात कहनी चाहिए।शब्दो का व्यर्थ इस्तेमाल नही करना चाहिए।'