मंगलवार, 13 फ़रवरी 2024

विष्णु प्रभाकर की लघुकथाएँ, भाग-1 / बलराम अग्रवाल

  'इन्द्रप्रस्थ भारती' के 'विष्णु प्रभाकर विशेषांक' में प्रकाशित लम्बे लेख की पहली कड़ी

मानवीय संवेदना की आदर्श अभिव्यक्ति

कोई लेखक जब कुछ लिखता है, तब जरूरी नहीं कि उसके पीछे केवल साहित्य लेखन की भावना ही प्रबल हो; उसके अलावा अनेक दार्शनिक सिद्धांत, आर्थिक व राजनीतिक कारण तथा सामाजिक व धार्मिक प्रेरणाएँ भी अनायास काम कर सकती हैं। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में, भारत में अनेक साहित्य-प्रवृत्तियाँ विदेश से आयीं। चेतन-अचेतन दोनों प्रकार से देश के साहित्यकारों ने उन नवीन प्रवृत्तियों से लगातार प्रेरणा ली। विचार-स्वातन्त्र्य की दृष्टि से उक्त प्रेरणा को अनेक विद्वान किंचित अनुपयुक्त भी कह सकते हैं, लेकिन समेकित रूप में उनका प्रभाव नकारात्मक नहीं रहा। व्यक्ति-मन में झाँकने और उसको यथावत प्रस्तुत करने के भारतीय प्रयत्नों का उन प्रवृत्तियों से परिष्कार हुआ।

कोई लेखक सिर्फ लिखता नहीं है, वह अपने समय के कथ्यों, शिल्पों, शैलियों, मुहावरों, लोकोक्तियों आदि को आगामी पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखकर जाता है। पूर्ववर्ती और समकालीन साहित्य का अध्ययन इस अर्थ में भी अति महत्वपूर्ण होता है कि उसके अध्ययन-मनन से सुधी पाठक के मस्तिष्क में विचार के नये अंकुर फूटने की संभावना सदा विद्यमान रहती है। लघुकथा-लेखन की दृष्टि से विष्णु प्रभाकर का उदय बीसवीं सदी के चौथे दशक में उस समय से माना जा सकता है जब ‘हंस’ के जनवरी 1939 अंक में उनकी लघु आकारीय कथा रचना ‘सार्थकता’ प्रकाशित हुई थी।

विष्णु प्रभाकर जी की लघुकथाओं के कुल तीन संग्रह प्रकाशित हुए—‘जीवन पराग’ (अनुमानत: 1954-55 में), ‘आपकी कृपा है’ (1982 में) तथा ‘कौन जीता कौन हारा’ (1989 में)। ‘जीवन पराग’ के 1957 में प्रकाशित तीसरे संस्करण की भूमिका में विष्णु जी के लिखा है—‘कुछ ही वर्षों में इस पुस्तक के दो संस्करण बिक चुके हैं।’ इसमें ‘कुछ ही वर्षों’ से कथन का आशय कम से कम दो वर्ष से लेकर अधिकतम कितने भी वर्ष हो सकता है। इससे स्पष्ट है कि ‘जीवन पराग’ का प्रथम संस्करण कम से कम 1954-55 के आसपास छपा होगा। ‘जीवन पराग’ में कुल 33 लघु-आकारीय रचनाएँ हैं, जिन्हें लघुकथा कहने से स्वयं विष्णु जी ने भी संकोच किया है। ‘जीवन पराग’ में अनेक को किस्सा-शैली में वर्णित घटनाएँ, शब्दचित्र, संस्मरण, प्रेरक जीवन प्रसंग आदि कहा जा सकता है। कुछेक रचनाओं में एकांकी शैली भी दर्शनीय है जिससे आभास मिलता है कि उन्हें एकांकी के उद्भव काल में लिखा गया होगा। विष्णु जी की लेखकीय प्रवृत्ति के अनुरूप सभी रचनाएँ संदेशपरक एवं बोधप्रद हैं। इसी कारण इन्हें बालसाहित्य में भी खपाने की बात कही जा सकती है। यद्यपि आज का समय बालकों को निरा आदर्श परोसने का रहा नहीं है तथापि नैतिक-सामाजिक मूल्यों में आयी गिरावट के मद्देनजर इनसे परहेज बरतना भी भावी पीढ़ी के नैतिक उन्नयन की दृष्टि से श्रेयस्कर नहीं होगा।

फिर भी, ‘जीवन पराग’ में संग्रहीत ‘इतनी-सी बात’, ‘चोर की ममता’, ‘मूक शिक्षण’, ‘सौ रुपए का नोट’, ‘पत्थर’ को संग्रह की प्रतिनिधि रचनाएँ माना जा सकता है।  संग्रह में ‘प्रेम की भेंट’ तथा ‘सौ रुपए का नोट’ का ट्रीटमेंट लगभग समान है। एक में, भेंट में मिली सोने की अँगूठी को सेवानिवृत्त इंजीनियर साहब बीच मंझधार में गिरा देते हैं और दूसरी में, भेंट (अथवा रिश्वत) स्वरूप मिले सौ रुपए के नोट को अफसर जलाकर फेंक देता है। दोनों ही कथाओं में हादसे के बाद, लेने वाला और देने वाला, दोनों ही तनावरहित, सामान्य रहते हैं। इसमें ‘क्षमा’ जैसी अनेक रचनाएँ हैं जिन्हें प्रेरक प्रसंग की श्रेणी में रखा जा सकता है। ‘दो मित्र’ को पढ़ते हुए प्रेमचंद की ‘शतरंज’ का आभास होता रहता है तथापि ट्रीटमेंट एकदम उलट है और यह उलट ट्रीटमेंट ही उन्हें विष्णु प्रभाकर बनाता है।

1982 में प्रकाशित ‘आपकी कृपा है’ में कुल 46 लघुकथाएँ संग्रहीत हैं जिनमें 3 लघुकथाएँ ‘जीवन पराग’ से ली गयी हैं। लघुकथा लेखन में विष्णु जी अनेक बार संस्मरण शैली अपनाते हैं या फिर प्रेरक प्रसंग अथवा किस्सा शैली को। किस्सा भी वे संस्मरण शैली में ही कहते हैं और संस्मरण को भी आदर्शोन्मुख रखते हैं। बेशक, सब-कुछ यथावत न लिखकर कल्पना का प्रयोग भी वे करते ही होंगे; फिर भी विकसित कथा-चेतना के आधुनिक पाठक पर रचना का प्रभाव कथा-जैसा न पड़कर आदर्श स्थापना के लिए लिखे गये संस्मरण-जैसा ही पड़ता है और वह उसे पूरे अंक नहीं दे पाता। पुरातन दृष्टान्तों से लेकर अज्ञेय तक और उनके बाद भी अनेक कथाकारों ने ‘पानी’ और ‘जाति’ के समीकरण पर कथाएँ लिखी हैं। विष्णु जी के पास इस विषय पर दो लघुकथाएँ हैं—‘जाति या जान’ तथा ‘पानी की जाति’।

लघुकथा संग्रह ‘आपकी कृपा है’ (1982) की भूमिका में विष्णु जी ने लिखा है—‘मेरी पहली लघुकथा, जो आज उपलब्ध नहीं है, ‘हंस’ के जनवरी 1939 के अंक में प्रकाशित हुई थी। नाम था ‘सार्थकता’।’ उसके बाद, ‘कौन जीता कौन हारा’ (1989) की भूमिका में उन्होंने लिखा—‘मेरी पहली लघुकथा ‘सार्थकता’ ‘हंस’ के जनवरी 1939 अंक में प्रकाशित हुई थी। इस संग्रह में वह पहली बार प्रकाशित की गयी है।’  अपने इस संग्रह की पांडुलिपि तैयार करने तक उन्होंने उक्त रचना को खोज निकाला होगा; लेकिन, ‘सार्थकता’ शीर्षक से ‘कौन जीता कौन हारा’ में कोई रचना नहीं है। तब? पांडुलिपि तैयार करते समय विष्णु जी ने उस रचना को परिवर्द्धित किया और शीर्षक दिया—‘ममता’। ‘ममता’ शीर्षक से ‘कौन जीता कौन हारा’ में दो रचनाएँ हैं। इनमें ‘सार्थकता’ का परिवर्द्धन कौन-सी ‘ममता’ है? इसे जाँचने के लिए एक बार फिर, ‘आपकी कृपा है’ की भूमिका की ओर जाते हैं। वहाँ ‘सार्थकता’ के बारे में उन्होंने लिखा है—‘वह एक फूल की व्यथा है। वह राजाओं, पंडे-पुजारियों, देशभक्तों और सुन्दरियों, सभी से अपने को बचाता है और अन्त में, जब मुरझाने लगता है तो जीवन की व्यर्थता पर रोता है—हाय! मैं किसी के काम नहीं आया!!’ बस, इसी सूत्र के सहारे पता चला कि ‘कौन जीता कौन हारा’ के पृष्ठ 87 पर प्रकाशित ‘ममता’ ही ‘सार्थकता’ का परिवर्द्धित रूप है। इस रचना को विष्णु जी ने चार चरणों में पूरा किया है जिनमें से दूसरे चरण का एक अंश निम्नवत् है—

एक दिन फिर बगीचे में चहल-पहल मच आई । राजकीय वर्दी में आकर कुछ सैनिक बोले, “इस देश के राजराजेश्वर अनेक देशों पर विजयी होकर इस रास्ते से लौट रहे हैं। फूलों द्वारा हम उनका स्वागत करेंगे।”

तब अनेक फूल आगे बढ़ आए—“हमारे प्राणों से राजा का अभिषेक हो। हम धन्य हैं।”

सचमुच उसी रास्ते से राजराजेश्वर लौटे । जनता के जयजयकार से वायुमंडल गूँज उठा । छज्जों से पौर युवतियों ने पुष्प बरसाए । पंखुड़ियाँ हो-हो कर अनेक मुस्कराते हुए फूल धूल में लोटने लगे। हाथी-घोड़े उन्हें रौंदते हुए चले गए । उनका शरीर चूर-चूर होकर मिट्टी में अपना अस्तित्व खो बैठा।

ऊपर ‘पौर युवतियों’ से आशय ‘पुर में रहने वाली युवतियाँ’ है।

पं माखनलाल चतुर्वेदी रचित ‘पुष्प की अभिलाषा’—‘मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर तुम देना फेंक; मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएँ वीर अनेक’ से सभी परिचित हैं।  यह कविता उनके द्वारा बिलासपुर की केन्द्रीय जेल की बैरक संख्या 9 में सजा के दौरान 1921 या 1922 में लिखी बताई जाती है। यह कविता सन् 1932 में प्रकाशित उनके काव्य संग्रह ‘हिम तरंगिणी’ में संकलित थी। सन् 1955 में इसी पुस्तक पर चतुर्वेदी जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। लघुकथा ‘ममता’ के ऊपर उद्धृत अंश में ‘पुष्प की अभिलाषा’ को नया अर्थ देते हुए विष्णु जी ने अपने मौलिक विचार की प्रस्तुति दी है; देखिए—

आम्रवृक्ष की आड़ में झूलने वाले पुष्प ने यह दृश्य देखा । उसका रोम-रोम घृणा से भर आया। साथी से वह बोला—“कितनी अन्धी है यह शक्ति । खून में स्नान करके भी वह हँस देती है ।”  

पुष्प के कथन में ‘अन्धी शक्ति’ और ‘खून में स्नान’ का प्रयोग करके विष्णु जी ने संकेत कर दिया है कि विजयी होकर जो राजराजेश्वर लौटे हैं, वे राजशाही का प्रतीक हैं। उनके ‘अनेक देशों से विजयी होकर लौटने’ की घोषणा का आशय ‘अनेक देशों का दमन’ करना भी हो सकता है। सम्भत; इसीलिए कथाकार ने लिखा—‘पंखुड़ियाँ हो-हो कर अनेक मुस्कराते हुए फूल धूल में लोटने लगे। हाथी-घोड़े उन्हें रौंदते हुए चले गए । उनका शरीर चूर-चूर होकर मिट्टी में अपना अस्तित्व खो बैठा।’ इस अभिव्यक्ति में पुष्पों का रुदन, उनकी चीख सुनाई दे रही है, आत्मोत्सर्ग का उल्लास नहीं। यहाँ फूल ठगे गये हैं, उत्सर्जित नहीं हुए।

 आम्रवृक्ष की आड़ में झूलने वाला पुष्प वह है जो किसी कारण भी तोड़े जाने को अभिशाप मानता है। अपने साथी से वह कहता भी है—“सौन्दर्य भी कितना मोहक काँटा है!”  इत्तेफाक से यह फूल बगिया में अकेला ही बचा रह जाता है और अन्त समय में इसे अफसोस होता है कि वह समय रहते क्यों न किसी के उपयोग में आ सका? कथा के इस परिवर्द्धित संस्करण को विष्णु जी ने पुष्प द्वारा अपने सौन्दर्य पर मुग्ध होना मानते हुए इसे ‘ममता’ शीर्षक दिया होगा; परन्तु मुझे लगता है कि इसका शीर्षक ‘सार्थकता’ ही अधिक उपयुक्त था; क्योंकि जीवन किसी के उपयोग में आने पर ही सार्थक होता है, मात्र अपने लिए जीने वाला जीवन निरर्थक है।

                                                                                    शेष आगामी अंक में…………

            'इन्द्रप्रस्थ भारती' (जून-जुलाई 2023, विष्णु प्रभाकर विशेषाक) में प्रकाशित लम्बे लेख की पहली कड़ी

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