शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2024

आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र की लघुकथाएँ, भाग-1 / बलराम अग्रवाल

‘कवि-हृदय कथाकार आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र’ शीर्षक से डॉ॰ ॠचा शर्मा द्वारा सम्पादित ‘आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र रचनावली, भाग-1 (लघुकथाएँ-बोधकथाएँ / प्रथम संस्करण 2024) में भूमिका स्वरूप संकलित आलेख की पहली किस्त…

साहित्य की कोई भी धारा एकाएक नहीं प्रारम्भ होती, वह अपने अतीत से, पूर्ववर्ती स्रोत से शक्ति और सामर्थ्य लेती है। नवीनतम होते हुए भी उससे जुड़ाव रखती है। लघुकथा के संदर्भ में यह बात विशेष रूप से ध्यान रखने वाली है। गुरु-गंभीर होते हुए भी ‘यशी वकील’ आज चुटकुले के समकक्ष समझी जा सकती है। ‘अंगहीन धनी’ और ‘अद्भुत संवाद’ शीर्षक गुरु गम्भीर लघुकथाएँ ‘परिहासिनी’ नामक जिस पुस्तिका में संकलित हैं, उसे स्वयं भारतेंदु जी ने कुछेक जनों के ‘हास-परिहास और विनोदार्थ संकलित किया’ कहा था। ‘एक टोकरीभर मिट्टी’ अपनी प्रकृति में बोधकथा-जैसी ठहरती है। बावजूद इस सबके ये हमारी थाती हैं। ये, वो टहनी हैं, जिनकी किसी न किसी गाँठ से हम फूट निकले हैं। पूर्ववर्ती लघु आकारीय कथाओं को हमें इसी दृष्टि पढ़ना-परखना चाहिए।

‘खाली भरे हाथ’ की भूमिका ‘बोध कथाएँ’ में डॉ. रामकुमार वर्मा ने लिखा है—‘साहित्य में सत्यं शिव सुन्दरम् की त्रिवेणी प्रवाहित करना ही आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र का ध्येय रहा है।’

आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र की लघुकथाओं पर विचार रखने से पूर्व उनकी प्रकृति के बारे में जान लेना आवश्यक और महत्वपूर्ण दोनों है। उनके कहानी संग्रह धूप-दीप की ‘यह धूप-दीप’ शीर्षक भूमिका (पृष्ठ 3) में श्रीयुत् कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ ने स्पष्ट लिखा है—‘वे राजनीति में आये, पर बढ़ न सके। वे साहित्य में आये और ठहर गये। पर उनके जीवन की पृष्ठभूमि राजनैतिक है या साहित्यिक ? असल में उनका मानसिक धरातल सांस्कृतिक है और राजनीति एवं साहित्य उनके लिये संस्कृति के पोषक तत्व होकर जीवन में आये है। संक्षेप में वे सांस्कृतिक होकर भी युगदर्शी है, युग के साथ हैं और अपनी कहानियों में जैसे पुकारकर कह रहे हैं—‘ठहरो, यह कलाविहीन राजनीति हमारे जीवन को एक मशीन के रूप में परिणत कर देगी, यह भयंकर है और ठहरो, राजनीतिविहीन यह कला हमारे जीवन को अकर्मण्य स्वप्नों से भर देगी, यह भी भयंकर है। इस प्रकार वे कला में राजनीति और राजनीति में कला का साहचर्य देखते हैं यानी कला और उपयोगिता के समन्वय में ही जीवन का सुख पाते हैं।’ बाबा तुलसीदास के शब्दों में—‘सन्त हृदय नवनीत समाना’। आचार्य मिश्र का जीवन उनके समकालीन कथाकार कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की दृष्टि में ऐसा ही रहा।

आचार्य मिश्र के ज्येष्ठ सुपुत्र वैद्य शरद कुमार मिश्र ‘शरद’ के लघुकथा संग्रह ‘धूप और धुआँ’ में ‘हिन्दी साहित्य में लघुकथाएँ’ शीर्षक से भूमिका स्वरूप लिखे अपने लेख में लक्ष्मण त्रिपाठी जी ने लिखा है—‘आचार्य मिश्र जी की लघुकथाओं में यथार्थ के कठोर धरातल पर कल्पना और आदर्श की नींव डाली गई रहती है। उनकी लघुकथाओं में कथा के तत्व पूर्णरूपेण सन्निहित रहते हैं। जो कुछ उन्हें कह‌ना है, उसे बिना किसी भूमिका के कह देते हैं, सीधे-सादे शब्दों में बहुत ही सरलता के साथ और इसीलिए उनकी लघुकथाएं पाठक के अन्तर्मन को कुछ इस तरह स्पर्श कर लेती हैं कि वह उन्हें भुलाये नहीं भूल पाता। ‘पंचतत्व’ आचार्य मिश्र जी की चुनी हुई लघुकथाओं का संग्रह है, जिसमें भावात्मक सामाजिक ऐतिहासिक लघुकथाएं, लोक-कथाएं और बोध-कथाएं संग्रहीत हैं।’

शरद कुमार मिश्र ‘शरद’ के ही अन्य लघुकथा संग्रह ‘निर्माण के अंकुर’ में ‘हिन्दी लघुकथा : उपलब्धि और सम्भावना’ शीर्षक लेख में डॉ॰ राजकुमार शर्मा ने हिन्दी लघुकथा के प्रकार, प्रवृत्ति और प्रकृति पर बहुत-सी महत्वपूर्ण बातें कही हैं। लघुकथा पर बात करने वाले प्रत्येक आलोचक और शोधार्थी के लिए यह एक आवश्यक लेख है। आचार्य मिश्र की लेखन-यात्रा के बारे में उन्होंने लिखा है—‘जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि सर्वप्रथम 1920-1921 ई में आचार्य जी की लघुकथाएँ प्रकाशित हुई थीं। साहित्यिक, राजनैतिक अथवा राजनीति-साहित्येतर कारणों से बीच में तीस वर्ष का अन्तराल पड़ गया। किन्तु पुनः सन् 1951 से आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र की सबल लेखनी का मौन-काल समाप्त हुआ, वह फिर मुखर हो उठी। परिणामतः 'मौत की खोज' कहानी संकलन में कुछ पुरानी और कुछ नई कहानियों के साथ उनकी तीन लघुकथाएँ (1) मौत की खोज (2) धन का विभाजन, तथा (3) अव्यर्थ स्तुति भी प्रकाशित हुईं, जिन्हें विद्वान आलोचकों तथा सुरुचि-सम्पन्न पाठकों ने हिन्दी में अपने प्रकार की अकेली बेजोड़ और अभूतपूर्व स्वीकार किया।’

आचार्य मिश्र ने विजयादशमी सन् 1957 में प्रकाशित ‘पंचतत्व’  को अपनी लघुकथाओं का पहला संग्रह माना है। इसमें उनकी 52 लघुकथाएँ संग्रहीत हैं। इस पुस्तक की ‘आचार्य मिश्र की कहानी कला’ शीर्षक अपनी भूमिका में श्रीयुत् प्रकाश चन्द्र गुप्त ने लिखा है—‘ ‘जय-पराजय’ माला की कुछ रचनाएँ और भी पुरानी हैं। उन (रचनाओं) का रचनाकाल सन् 1921 से शुरू होता है।’ (इस पुस्तक का पृष्ठ 13) डॉ. राजकुमार शर्मा ने भी अपने आलेख ‘हिन्दी लघुकथा : उपलब्धि और सम्भावना’ (वैद्य शरद कुमार मिश्र ‘शरद’ का लघुकथा संग्रह ‘निर्माण के अंकुर’, पृष्ठ ‘ड’) में लिखा है—‘1920-21 ई. के लगभग प्रकाशित आचार्य जी की लघुकथाओं के शीर्षक हैं—बूढ़ा ब्यापारीतथा अग्नि मित्र की प्रेम परीक्षा। प्रथम रचना महात्मा गाँधी पर आधारित प्रतीकात्मक शैली में भावात्मक लघुकथा है। दूसरी लघुकथा व्यंग्यात्मक शैली में सामाजिक रचना है। और, 1951 के बाद की प्रकाशित आचार्य जी की रचनाओं में मौत की खोज’, ‘पंचतत्व’, ‘खाली भरे हाथ’, ‘उड़ने के पंख’, ‘जय-पराजय’, ‘मिट्टी के आदमीशीर्षक संग्रह प्रमुख हैं।तो क्या यह माना जाए कि आचार्य मिश्र का कथा-रचनाकाल 1920-21 से शुरू होता है। अपनी ­इसी भूमिका में प्रकाश चन्द्र गुप्त जी आगे लिखते हैं—‘आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र भावना और कल्पना से परिपूर्ण कहानियाँ लिखते हैं। यथार्थ और विचार की अपेक्षा उनकी कला प्रतीकात्मक और आदर्शोन्मुखी अधिक है। स्वर्गीय जयशंकर प्रसाद और चण्डी प्रसाद ‘हृदयेश’ की परम्परा का अनुसरण लेखक ने इन कहानियों में किया है। उसकी भाषा काव्यमयी और आलंकारिक है। स्वस्थ भावना और अनुभूति से लेखक की सभी रचनाएँ ओत-प्रोत हैं।’ गुप्त जी का आकलन इन सभी रचनाओं के बारे में शत-प्रतिशत सही है। इस भूमिका के आरम्भ में गुप्त जी ने लिखा है—‘इस संकलन में आपकी सामाजिक और ऐतिहासिक कथाएँ हैं, और कुछ लघु-कथाएँ भी।’ यह भूमिका भी निश्चित रूप से इस पुस्तक के प्रकाशन-वर्ष समय में ही लिखी गयी होगी। इस भूमिका के अन्त में गुप्त जी ने कहा है—‘आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र की कहानियों में हमें स्वस्थ प्रेरणा प्रचुर मात्रा में मिलती है। इन रचनाओं में कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि उनकी आत्मा कहानी की अपेक्षा काव्य के अधिक निकट है। हिन्दी कहानी के इतिहास में विशेष रूप से दो प्रवृत्तियाँ परिलक्षित होती हैं—‘प्रसाद’ की काव्यमय शैली और प्रेमचन्द की यथार्थवादी, आदर्शोन्मुखी शैली। इन दोनों धाराओं ने हिन्दी कहानी को समृद्ध किया है। आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र  ‘प्रसाद’ के ‘रोमैन्टिक स्कूल’ के अनुयायी हैं। उनकी कला रसदायिनी तो है ही, पाठक की भावनाओं को उन्नत और उदार बनाती है।’ गुप्ता जी का यह कथन कि ‘आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र  ‘प्रसाद’ के ‘रोमैन्टिक स्कूल’ के अनुयायी हैं’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह न केवल आचार्य मिश्र की प्रस्तुत लघुकथाओं के सन्दर्भ में बल्कि उक्त काल के शेष लघुकथा-लेखन के सन्दर्भ में भी युक्तियुक्त ठहर सकता है।

आचार्य मिश्र के ‘पंचतत्व’ नामक संग्रह की 52 कथाओं को 5 खंडों में विभक्त किया गया है—भावात्मक लघुकथाएँ (10), सामाजिक लघुकथाएँ (15), ऐतिहासिक लघुकथाएँ (8), लोक-कथाएँ (9) तथा बोध-कथाएँ (10)। समकालीन दृष्टि से आकलन करें तो ‘सामाजिक लघुकथाएँ’ के अलावा शेष सभी खंड अतीत की ऐसी घटना बनकर रह गये हैं जिनका महत्व लघुकथा विधा के क्रमिक विकास की दृष्टि से, लघुकथा का ऐतिहासिक विकास-क्रम जानने की दृष्टि से ही बना रह गया है, अन्यथा नहीं। उदाहरणार्थ, ‘भावात्मक लघुकथाएँ’ में ‘पंचतत्व’ शीर्षक की लघुकथा वस्तुत: केन-उपनिषद के एक आख्यान का पुनर्लेखन है। पुनर्लेखन के ऐसे उदाहरण कुछेक अन्य कथाएँ भी हैं। इससे प्रतीत होता है कि वह काल पूर्व आख्यानों के पुनर्लेखन का भी रहा होगा। यों तो इन दिनों भी ‘चाणक्य के दाँत’ जैसी लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं। ‘सामाजिक लघुकथाएँ’ में अपेक्षाकृत लम्बे आकार की कथाएँ हैं। ये सब की सब शब्द संख्या और आकार की रूढ़ता को तोड़ती ऐसी कथाएँ हैं जिन्हें आज की परिस्थिति में ‘लघुकथा’ कहते स्वयं मुझे भी संकोच होता है। इनमें ‘एक राजनैतिक इंटरव्यू’ (रचनातिथि:12-8-57) आज की दृष्टि से भी अत्यन्त स्तरीय लघुकथा है। ‘स्टेशन मास्टर’ शीर्षक रचना लघुकथा के रूढ़ कलेवर को तोड़ती सशक्त और सुन्दर रचना है। इस खंड की ‘अग्निमित्र की प्रेम परीक्षा’ तथा ‘मौत की खोज’ अपने समय में खासी चर्चित रह चुकी हैं। ‘बोध-कथाएँ’ खंड की रचनाओं में आचार्य मिश्र ने अपनी अनुपम मौलिकता का परिचय दिया है। उक्त खंड से ‘पुरुष की पहचान’ शीर्षक यह रचना उदाहरणार्थ प्रस्तुत है—

एक दिन एक मनुष्य ने अपनी स्त्री से, जो उसकी नित्य की नई-नई माँगों से विक्षुब्ध हो गया था, झुंझलाकर कहा—भई! अब मैं बहुत थक गया हूँ। मैं अब तुम्हारी कोई भी माँग पूरी नहीं कर सकता। 

उसकी स्त्री ने अविचलित भाव से उत्तर दिया—प्रियतम! क्या तुम पुरुष नहीं हो? मैंने बचपन में सुना था पुरुष कभी थका नहीं करते! 

                                                        शेष आगामी अंक में………

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