सोमवार, 10 जून 2024

हिन्दी लघुकथा : वर्तमान स्वरूप और सम्भावनाएँ, भाग-1 / बलराम अग्रवाल

          [मित्रो, प्रस्तुत लेख आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र लघुकथा सम्मान समिति, अहमदनगर द्वारा 29 मई 2024 को अहमदनगर (महाराष्ट्र) में आयोजित सम्मान समारोह एवं राष्ट्रीय संगोष्ठी में बीज वक्तव्य के तौर पर बोलने के लिए तैयार किया गया था; लेकिन दुर्भाग्यवश मेरे वहाँ न पहुँच पाने के कारण इसे प्रस्तुत नहीं किया जा सका। लघुकथा के अध्येताओं तक पहुँचाने की दृष्टि से इसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है—बलराम अग्रवाल]

मित्रो, साहित्य और कला के ऐसे विशेष प्रकार, ऐसे रूप को जिसकी पहचान के विशिष्ट लक्षण होते हैं; हिन्दी मेंविधाकहा जाता है। विधागद्यपरक भी हो सकती है और पद्यपरक भी। ध्यान रहे काव्यपरकता केवल पद्य का गुण नहीं है, गद्य का गुण भी हैगद्यं कवीनां निकषं वदन्ति। कथा साहित्य में, कतिपय चुने हुए लोकधर्मी शब्दों में विशिष्ट समसामयिक विषय-वस्तु की गद्यपरक कथात्मक प्रस्तुति का नामलघुकथाहै।

मित्रो, अपने सहज सार्वभौमिक गुण के कारण लघुकथा एक लोकधर्मी कथा-विधा है इसलिए इसके विषय असीम हैं। विशालकाय बरगद से लेकर तृणमूल तक, सब इसके घेरे में हैं। 1970 के बाद इस विधा को लोकप्रिय बनाने में हिन्दी के जिन अनगिनत नियतकालीन और अनियतकालीन पत्र-पत्रिकाओं का योगदान रहा है उनमें अन्य अनेक पत्र-पत्रिकाओं के साथ कहानी लेखन महाविद्यालय, अम्बाला कैंट की पत्रिका तारिकाजो रजिस्ट्रेशन के बादशुभ तारिकाहो गयी, विक्रम सोनी के सम्पादन में निकलने वाली आघातजो रजिस्ट्रेशन के बादलघु आघातहो गयी, कृष्ण कमलेश के सम्पादन में निकलने वालीअन्तर्यात्रा’, भगीरथ के सम्पादन में निकलने वालीअतिरिक्तऔर कमलेश्वर के सम्पादन काल की  सारिकाका विशेष योगदान है।

‘हिन्दी लघुकथा : वर्तमान स्वरूप और संभावनाएँ’। इस विषय में अच्छी बात यह है कि ‘भूत’ और ‘भविष्य’ जैसे, बार-बार दोहराए जा चुके शब्द इसमें नहीं हैं। ‘भूत’ बीता हुआ कल है, जिसे मैं ‘अतीत’ कहना पसन्द करता हूँ। संस्कार रूपी जड़ों के द्वारा हम अपने अतीत से जुड़े होते हैं। जड़ों की विशेषता यह है कि जमीन में कितनी भी गहराई तक जाना पड़े, वे जाती हैं और पेड़ के लिए जरूरी खाद-पानी मुहैया कराती हैं। पीछे छूट गया सही-गलत हमारा हर कदम, अतीत बनता है; लेकिन आगे बढ़ चुका हर कदम ‘वर्तमान’ ही रहता है। वर्तमान यूकिलिप्टिस के तने जैसा लम्बी ऊँचाई तक सीधा-सपाट और चिकना भी हो सकता है, नीम के तने जैसा, आसानी से ग्रिप में न आने जितना मोटा व खुरदुरा भी हो सकता है, और बबूल के पेड़ जैसा घना, उलझा हुआ और काँटेदार भी। ‘अतीत’ एक यथार्थ है जबकि ‘भविष्य’ जिजीविषा पूर्ण कल्पना है। ‘अतीत’ की स्थिति हमेशा—‘जब जरा गरदन झुकायी, देख ली’ जैसी रहती है; जबकि ‘भविष्य’ में झाँकने को हमें पंजों पर खड़े होना पड़ता है। बावजूद इसके, उसमें झाँक पाने में हम अक्सर अक्षम अथवा असफल ही रहते हैं। ‘वर्तमान’ क्योंकि अतीत से जुड़ा यथार्थ है, इसलिए दो पल अतीत में झाँक लेना अप्रासंगिक नहीं होगा। भारतेंदु से शुरू करें तो माधवराव सप्रे, प्रेमचंद, प्रसाद, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, विष्णु प्रभाकर, आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र, सुदर्शन, रावी, हरिशंकर परसाई, रामवृक्ष बेनीपुरी, रामधारी सिंह दिनकर, आनन्द मोहन अवस्थी, रामनारायण उपाध्याय, सुरेन्द्र मंथन, पूरन मुद्गल, सुगन चन्द्र मुक्तेश, सतीश दुबे, रमेश बतरा, सुरेन्द्र मंथन आदि अनेक कथाकारों का सम्बल हिन्दी लघुकथा को मिला है। इनमें से माधवराव सप्रे, प्रेमचंद, प्रसाद आदि अनेक कथाकारों ने ‘लघुकथा’ नहीं लिखी। उन्होंने लघु-आकारीय कहानी लिखी तो आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र सरीखे अनेक कथाकारों का कथा-लेखन बोधकथा के अधिक निकट रहा। फिर भी, जैसाकि मैंने ऊपर कहा और जो एक शाश्वत साहित्यिक सच है—‘साहित्य में ऐसी रूप विधाएँ, जिनकी पहचान के विशिष्ट लक्षण होते हैं, ‘नयी विधामान ली जाती हैं।इसी के मद्देनजर भारतेंदु हरिश्चन्द्र, माधवराव सप्रे, प्रेमचंद, प्रसाद आदि की कुछेक विशिष्ट कथाओं को, यह जानते हुए भी कि लघुकथा-लेखन इनमें से किसी की कल्पना में नहीं था, ‘लघुकथा’ मान लेना तर्कयुक्त ठहरता है। 

अब, लघुकथा के वर्तमान स्वरूप पर आते हैं। वर्तमान मेंलघुकथासे अपेक्षा की जाती है कि उसे कथापन से युक्त सुरुचि सम्पन्न गद्य रचना होना चाहिए। ऐसा कथापन जिसमें नैरेटर की कम, पात्रों की भागीदारी अधिक हो; जिसमें कथाकार नहीं, पात्र स्वयं अपनी भूमिका का निर्वाह करें। पाठक को उसमें अपने आप की, अपने समय की, अपने परिवेश की धड़कन सुनाई दे।  काल की दृष्टि से, लघुकथा के वर्तमानको कब से मानें? हम जैसे कुछ उम्रदराज लोगों का वर्तमान 1970 के बाद शुरू होता है, कुछ का 1980 के बाद, कुछ का 1990 या 2000 के बाद शुरू होता है और कुछ का वर्तमान, वर्तमान केन्द्र सरकार की तरह 2014 से शुरू होता है। इस समय लघुकथा लेखन-सम्पादन और आलोचना में तीन पीढ़ियाँ सक्रिय हैं और नि:सन्देह तीनों के ही अपने-अपने वर्तमान हैं। लेकिन, तीनों पीढ़ियों के समेकित अध्ययन के उपरान्त हम मान सकते हैं कि 2024 तक, लघुकथा का वर्तमानसम्प्रति 54 वर्ष लम्बा कालखण्ड है। काल एक प्रवहमान इकाई है। काल केघाट पर ठहराव कहाँ’? प्रारम्भ से ही, लघुकथा-पीढ़ी के कुछ कथाकारों ने मुख्यत: रचनात्मक, कुछ ने मुख्यत: सम्पादनात्मक और कुछ ने रचनात्मक, आलोचनात्मक और सम्पादनात्मक तीनों रूपों में नैरन्तर्य बनाए रखा जिससे इस विधा को लगातार खाद-पानी मिलता रहा।

‘वर्तमान’ की सार्थकता तब है जब कथाकार चुप न बैठे। हर पल जो भी, जैसा भी वह जीए, उस पर रिएक्ट करने का माद्दा खुद में पैदा करे, बनाए रखे। बेजुबानों की जुबान बने। व्यक्त होने में अक्षम अथवा कमजोर लोगों की अभिव्यक्ति बने। याद रखें, यथार्थ को सिर्फ देह से नहीं, चेतन से भी भोगा जाता है, उसे सिर्फ आँखों से नहीं दृष्टि से भी देखा जाता है। त्वचा के रोम जैसे वायु के हल्के-से स्पर्श को और घ्राण तंतु जैसे गंध के प्रकार को पहचानने में सक्षम होते हैं वैसे ही लघुकथाकार को अपनी समस्त ज्ञानेन्द्रियों और स्पर्शेन्द्रियों की सचेतनता के साथ जीना आना चाहिए। यह चौकन्नापन ही उसके वर्तमान को सुदृढ़ और सार्थक आधार देता है। भारतीय समाज में आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक बदहाली का लम्बे समय से बोलबाला है। राजसत्ता का बदलाव भी इस बदहाली को बदल नहीं पा रहा है। आम जनता की छोड़िए, अच्छा-खासा शिक्षित वर्ग भी राजनीतिक रूप से इम्मेच्योर है। लघुकथाकारों ने आर्थिक और सामाजिक बदहाली पर तो खासी कलम चलाई है लेकिन राजनीतिक बदहाली पर वे खुलकर नहीं बोल रहे; लगभग चुप ही हैं। क्यों? इसलिए कि इस इम्मेच्योरिटी, इन बदहालियों से उपजे सवालों से टकराने का माद्दा उन्होंने खुद में पैदा नहीं किया है। आज के लघुकथाकार को अपने वर्तमान से आर-पार मुठभेड़ में उतरना होगा। राजनीतिक दृष्टि सम्पन्नता को, वैचारिक खुलेपन को अपने भीतर हमने पनपने ही नहीं दिया है। परिणामत: हम सही कहने से ही नहीं, सही सुनने से भी डरने लगे हैं। डरने लगे हैं कि हमें ‘दक्षिणपंथी’ अथवा ‘आदर्शवादी’ न घोषित कर दिया जाएँ। ऐसा हुआ तो हमारी ‘बुद्धिवादी’ छवि को धक्का लगेगा। इसलिए सच को उजागर करने का अथवा उजागर हुए सच का सामना करने का साहस दिखाने की बजाय हम अपनी छवि बचाने की मुहिम में शामिल हो जाते हैं और उम्रभर छद्म को जीते रहते हैं। दलगत जड़ता हमारे विचार की धार को कुंद करती है,  सही बोलने से रोकती है, उसको सुनने से वंचित और देखने में अक्षम बनाती है; दलगत जड़ता हमें गूँगा, बहरा और अंधा बनाती है।

शेष आगामी अंक में…

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

सार्थक आलेख

बेनामी ने कहा…

बहुत सही विचार

अनिल जनविजय ने कहा…

जगदीश कश्यप और महेश दर्पण को भूल गए, मियाँ ! वैसे लेख ठीक - ठाक है।