मंगलवार, 11 जून 2024

हिन्दी लघुकथा : वर्तमान स्वरूप और सम्भावनाएँ, भाग-2 / बलराम अग्रवाल

 गतांक से आगे…

ग़ौर से देखें तो हिंदी लघुकथा का वर्तमान उत्तरोत्तर शानदार और समृद्ध होता रहा है। आठवें दशक के उत्तरार्द्ध की लघुकथा आठवें दशक के पूर्वार्द्ध की लघुकथा तुलना में समृद्ध थी, नौवें दशक की उससे अधिक और अन्तिम दशक के अन्तिम वर्ष में चैतन्य त्रिवेदी सामने आते हैं जिनके पास एकदम नयी कथा-भाषा थी। लघुकथा सृजन के आकलन और मूल्यांकन के लिए यदि बीस वर्षों का एक दौर मान लिया जाए यानी 1971 से 1990, 1991 से 2010 और 2011 से अब तक;  तो यह तीसरा दौर चल रहा है। यह मैं काल विभाजन नहीं कर रहा हूँ बल्कि आकलन और मूल्यांकन का सही परिणाम पाने हेतु समय को बाँट भर रहा हूँ।  प्रत्येक नये दौर में पिछली पीढ़ी सक्रिय रहती है और एक नयी पीढ़ी जुड़ती है। इस दृष्टि से दूसरे दौर में दो और तीसरे यानी वर्तमान दौर में लघुकथा की तीन पीढ़ियाँ एक साथ सक्रिय हैं। इनमें से कुछ सृजन की प्रौढ़ता और निरंतरता के चलते स्थापित हो चुके हैं; कुछ युवा हैं और कुछ युवतर। नवोदितों के लिए मैंयुवतरशब्द का प्रयोग कर रहा हूँ। युवतर वे हैं जो अपनी पहचान अभी बना ही रहे हैं। लेखकीय सक्रियता और रचनात्मक नवीनता की बदौलत ये युवतर ही वर्तमान दौर की सही पहचान बनते हैं।

हिन्दी लघुकथा को प्रारम्भ में आठवें दशक के कथाकारों ने कथा-संक्षेप, कथा-सार, चलते-चलते, आसपास बिखरी कहानियाँ, चुटकुलों और पौराणिक पैरोडियों से उसी तरह बाहर निकाला जिस तरह प्रेमचंद ने कहानी को चन्द्रकान्ता और उसकी सन्तति के तिलिस्म से बाहर निकालकर सामान्य जन से जोड़ा था। तत्पश्चात् नौवें-दसवें दशक के कथाकारों ने उसको वास्तविक जीवंतता प्रदान की और अब के यानी इस सदी  में उभरे युवतर कथाकार कथ्यों में नवीनता भर रहे हैं। एक अद्भुत सत्य यह है कि वर्तमान में लघुकथा का समय स्त्री रचनाशीलता का समय है। संध्या तिवारी, सीमा व्यास, चेतना भाटी, अंतरा करवड़े, सविता इन्द्र गुप्ता, अनिता रश्मि, ॠचा शर्मा, कांता राय, उपमा शर्मा, कनक हरलालका, कमल कपूर, मधु जैन, प्रेरणा गुप्ता, मिन्नी मिश्रा, वन्दना गुप्ता, शील कौशिक, आशा शर्मा, आशा खत्रीलता’, सुधा भार्गव, पवित्रा अग्रवाल, अनिता सैनी, अनघा जोगलेकर, नीरज सुधांशु, उषा लाल, नीना छिब्बर, दिव्या शर्मा, अंजु खरबंदा, यशोधरा भटनागर, वसुधा गाडगिल आदि कितने ही नाम हैं जो नयी सदी के मुख्यत: दूसरे दशक में उभरे हैं और लघुकथा की अनेक कथ्यगत वर्जनाओं को और भाषागत सीमाओं को तोड़ रहे हैं। यह वर्तमानता लघुकथा की दमदार सम्भावना है।

सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक बदहालियों और जीवन-यथार्थ को ये युवतर नई मजबूती और भाषा-शैली में प्रस्तुत कर रहे हैं। नि:सन्देह कह सकते हैं कि वर्तमान दौर की धड़कन आज की लघुकथाओं में है। जो तेवर कमलेश भारतीय की ‘सात ताले और चाबी’, चित्रा मुद्गल की ‘दूध’, अशोक भाटिया की ‘कपों की कहानी’ और महेन्द्र ठाकुर की ‘अफसर’, में हैं वैसे ही तेवर रानू मुखर्जी की ‘अस्मिता’,  रश्मि बजाज की ‘गुड़िया की शादी’, उमेश महादोषी की ‘वो दहलीज’, कान्ता राय की ‘सावन की झड़ी’, ॠचा शर्मा की ‘उजली किरण’ में भी हैं। वर्तमान में उपजे कुछ सवालों से मुठभेड़ में ये लघुकथाएँ खरी उतरती हैं। अनघा जोगलेकर की ‘अलमारी’ और सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ की ‘यात्रा’ स्त्री के जीवन में नयी खिड़कियाँ खोलने की पैरवी करती हैं। ऐसे साहसिक प्रयासों की हिन्दी लघुकथा को अतीव आवश्यकता है। सुरेश सौरभ की लघुकथा है—‘हिजाब’ जो बताती है कि शोहदे सिर्फ तभी तक लड़कियों को छेड़ते-तंग करते हैं जब तक वे हिजाब की कैद में रहती हैं। उससे मुक्त होकर जैसे ही वे आक्रामक होती हैं, शोहदे फुर्र हो जाते हैं। तात्पर्य यह कि आज का लघुकथाकार औरत की देह और आत्मा से हर उस आवरण को उतार फेंकने की पैरवी करता है जो उसे दब्बू और पंगु बनाता है। लड़कियों को शारीरिक और मानसिक रूप से सक्षम बनाने की दिशा में जो रास्ता मधुदीप अपनी लघुकथा ‘नमिता सिंह’ में दिखाते हैं, वही रास्ता शोभना श्याम की लघुकथा ‘ताजीब’ और लता अग्रवाल की ‘मैं ही कृष्ण हूँ’ भी दिखाती हैं। वर्तमान हिन्दी लघुकथा के विशाल सागर से उदाहरण स्वरूप ये मात्र कुछ बूँदें हैं। इनमें अपने समय का खारापन है, तिक्तता है क्योंकि इनका जन्म तिक्त और खारे समाज से ही हुआ है। यही खारापन और तिक्तता मजदूर के पसीने में होती है, यही छले-ठगे व दबाये गये दुखियारों के आँसू में भी होती है। इस तीखेपन, इस खारेपन, इस दमन को आने वाली सन्तति के लिए आज का लघुकथाकार मीठे झरने में, जूझने की ताकत में तब्दील करने की ओर प्रयत्नशील है।

मित्रो, सफलता परिणाम में नहीं, समूची सामर्थ्य और शक्ति के साथ उद्देश्य की ओर बढ़ते रहने में निहित होती है। गंगा को पृथ्वी पर लाने का अभियान राजा सगर के पौत्र अंशुमान ने शुरू किया था। अंशुमान के बाद उनका पुत्र दिलीप उक्त अभियान से जुड़ा; लेकिन गंगा को पृथ्वी पर लाने का श्रेय दिलीप के पुत्र भगीरथ को मिला। सवाल यह नहीं है कि शुरुआत किसने की और कार्य समाप्ति का श्रेय किसे मिला। सवाल यह है कि चार पीढ़ियों तक कार्य की निरन्तरता को बनाए रखने का विश्व में ऐसा क्या कोई दूसरा उदाहरण है। निरन्तरता न रही होती तो गंगा को धरती पर लाना सम्भव नहीं था। हम सब, जितने भी लघुकथा लेखक, विचारक और शोधार्थी यहाँ उपस्थित हैं, जान लें कि लघुकथा लेखन, आलोचन, सम्पादन, अनुवाद और शोध…यानी विधा से जुड़ी हर सम्भावना पर निरन्तर कार्यरत रहना है। सम्भावना का सीधा सम्बन्ध चौकसपने से है। अगर हम आज चौकस नहीं हैं तो याद रखिए कि सम्भावनावान भी नहीं होंगे। लघुकथा का वर्तमान निश्चित रूप से सुदृढ़ है और इसीलिए इसकी असीम सम्भावनाओं के प्रति हम सन्तुष्ट हैं।

सम्पर्क : 8826499115     

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