शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

लघुकथा : परम्परा और विकास-8 / बलराम अग्रवाल



आठवीं किस्त
दिनांक 03-12-2016 से आगे

आवरण : के॰रवीन्द्र
सन् 1956 के आसपास हिन्दी साहित्य की सभी मुख्य विधाओं का एक वृहद् संकलन ‘संकेत’ प्रकाशित हुआ, जिसके प्रधान संपादक उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ एवं अन्य दो सम्पादक कमलेश्वर व मार्कण्डेय हैं। इसमें अन्य विधाओं के अतिरिक्त एक भाग लघुकथाओं का भी है जिसमें रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की दो, सुदर्शन की दो, गंगाप्रसाद पाण्डेय की दो, सत्य की दो, बैकुण्ठनाथ मेहरोत्रा की दो, तथा शान्ति मेहरोत्रा एम. ए. की एक लघुकथा संकलित है। कथ्य और शिल्प की दृष्टि से ये कथाएँ सन्देशों के ही अधिक निकट हैं। प्रस्तुत संकलन की भूमिका में अन्य विधाओं का उल्लेख है, किन्तु लघुकथा का नहीं। डाॅ. शकुन्तला किरण लिखती हैं—‘इस हेतु जब अश्क जी को पत्र लिखकर कारण जानना चाहा तो उन्होंने लिखा—‘संकेत’ पर बहुत लम्बी भूमिका देने और उस भूमिका में सब विधाओं का उल्लेख करने की योजना थी, लेकिन इतनी सामग्री इकट्ठी हो गई कि लम्बी भूमिका देने का मोह छोड़ देना पड़ा। जल्दी में आमुख लिखा गया था, इसलिए उस विधा का उल्लेख रह गया। वैसे लघुकथा का महत्त्व तो मैं अब भी मानता हूँ, मैंने स्वयं लगभग 25 लघुकथाएँ लिखी हैं।’ अश्क जी के ही अनुसार—‘कुछ लघुकथाएँ उनके बृहद् कहानी-संग्रह ‘सत्तर श्रेष्ठ कहानियाँ’ में संकलित हैं, कुछ अन्य संग्रहों में और कुछ उनके प्रारम्भिक जीवन की हैं, जो अभी तक हिन्दी में प्रकाशित नहीं हुईं, यद्यपि वे उनकी फाइलों में सुरक्षित पड़ी हैं।’ डॉ॰ शकुन्तला किरण को लिखे अश्कजी के ही एक अन्य पत्र के अनुसार—‘वैसे मेरी लघुकथाओं का अलग से कोई संग्रह नहीं छपा, निम्नलिखित संग्रहों में मेरी तमाम लघुकथाएँ संकलित हैं, यानी जिन्हें मैं लघुकथाएँ समझता हूँ, कुछ अप्रकाशित भी हैं, ‘छींटे’ संग्रह में एक पृष्ठ से लेकर छह-सात पृष्ठ तक के बीच 14 लघुकथाएँ हैं।’ लघुकथा का आकार ‘छह-सात पृष्ठ तक के बीच’ मानने वाले इस वक्तव्य से अश्क जी की लघुकथा सम्बन्धी अवधारणा स्पष्ट हो जाती है।
       सन् 1957 में शरद कुमार मिश्र ‘शरद’ का लघुकथा-संग्रह ‘धूप और धुआँ’ प्रकाशित हुआ जिसमें उनकी 37 लघुकथाएँ संकलित हैं। इस संग्रह की अधिकांश लघुकथाएँ नीतिपरक एवं बोधपरक हैं। सन् 1957 में ही आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र की 52 बोधपरक लघुकथाओं का संग्रह ‘पंचतत्व’ भी प्रकाशित हुआ।
       सन् 1958 के एक प्रसंग को याद करते हुए डाॅ. ब्रजकिशोर पाठक ने राधाकृष्ण जी की बातचीत का उल्लेख करते हुए लिखा है कि राधाकृष्ण जी ने उनसे कहा था कि—‘मैं अब कहानियाँ नहीं लिखूँगा, चुटकुले बनाऊँगा। इन्हीं चुटकुलों को मैं ‘लघुकथा’ कहूँगा। लघुकथाओं का मेरा संग्रह ‘गेंद और गोल’ छप चला है।’ डाॅ. पाठक ने लिखा है कि—‘जहाँ तक मेरी जानकारी है राधाकृष्ण जी ने ‘गेंद और गोल’ के बाद जीवनभर मुख्यतः लघुकथाएँ ही लिखीं।’
       लेकिन ‘इसके बाद यह भी विचारणीय है कि लघुकथा चुटकुले का पर्याय है या नहीं है। गंभीरता से विचार करने पर कहा जा सकता है कि लघुकथा चुटकुले का पर्याय नहीं है... यह सत्य है कि चुटकुले में एक कथा अवश्य होती है किन्तु इसके बाद भी वह साहित्यिक विधा नहीं है और न ही बनी सकती है।... लघुकथाकारों को इस सम्बन्ध में सावधान रहना चाहिए, इसलिए भी कि लघुकथा चुटकुला नहीं होती है। लघुकथा और चुटकुले में मुख्य भेद यह कि कि चुटकुला पाठक/श्रोता का क्षण भर या पल भर मनोरंजन कर उसे हँसा अवश्य देता है जबकि लघुकथा उन्हें सोचने-समझने के लिए विवश करती है, हँसाने का प्रयास नहीं करती। वह काँटे की चुभन के साथ पाठक-श्रोता में कसक उत्पन्न करती है।’
       लगभग इसी बात को दिनेश द्विवेदी यों कहते हैं—‘सही बात तो यह होगी कि लघुकथा कहानी आंदोलन के समांतर ही चली है।’
        सन् 1958 में रावी की लघुकथाओं का प्रथम संग्रह ‘मेरे कथा-गुरु का कहना है’ भाग-1 प्रकाशित हुआ। भाग-1 के अन्तिम मुखपृष्ठ पर परिचय के तौर पर लिखा है—‘‘मेरे कथागुरु का कहना है’ श्री रावी की अपनी विशिष्ट शैली की लघुकथाओं का पहला संकलन है। मानव-मन की पकड़ के साथ-साथ जीवन का जो दर्शन, इन लघुकथाओं में उभरा है, उसके पीछे उनका गहरा अध्ययन और क्रान्तिपरक चिन्तन स्पष्ट झलकता है।’
             ‘ये लघुकथाएँ’ शीर्षक भूमिका (पृष्ठ 3) में रावी ने लघुकथा सम्बन्धी अपने विचार प्रकट यों किए हैं—‘...लघुकथाओं का यह मेरा पहला संकलन है। निष्परिधान सरलता ही सौन्दर्य का मर्म है और जीवन का भी। इस नाते मानव-मन की चिरप्रिया कथा अपने निरावरण अंतःलघु रूप में ही उसके अधिक निकट पहुँचती है।... लघुकथा सीधे हमारे सर्वकालिक बौद्धिक हृदय तक पहुँचती है... रूपक की शृंखला का दूर तक निर्वाह किया जा सके तो लघुकथा लम्बी भी हो सकती है...संक्षिप्तता और सरलता आते हुए युग की माँगें भी हैं... मेरी ये लघुकथाएँ आकार में कहीं-कहीं लम्बी कहानियों के समीप पहुँच गई हैं, पर टेक्नीक की दृष्टि से लघुकथाएँ ही हैं। इन कथाओं का स्रोत केवल मेरा अपने ढंग का चिन्तन है।’ पहली बात तो यह कि चिन्तन अलग बात है और टेक्नीक अलग। दूसरी यह कि 1958 में लघुकथा की टेक्नीक थी ही कहाँ? फिर, टेक्नीक के बहाना लेकर किसी लम्बी कहानी को कोई भी सुधी पाठक लघुकथा कैसे स्वीकार कर लेगा?
       ‘मेरे कथागुरु कहना है’ भाग-1 में 88 लघुकथाएँ हैं जिनमें अधिकांश लघुकथाएँ नीतिपरक व उपदेशपरक हैं। उनमें किसी-न-किसी सिद्धान्त के दर्शन होते हैं। रावी की लघुकथाएँ सामान्यतः नीतिपरक होने के साथ-साथ प्रतीकात्मक भी हैं और कई जगह प्रतीकों की जटिलता के कारण सामान्य पाठक उन्हें सही रूप में पकड़ पाने में असमर्थ होता है। यद्यपि रावी ने हर लघुकथा के अन्त में टिप्पणी देकर उसे सहज व सुगम बोधगम्य बनाने का भी प्रयास किया है। इस प्रकार रावी की लघुकथाएँ रूपक या प्रतीक आदि के माध्यम से कोई न कोई सन्देश देने वाली तत्त्व-कथा ही अधिक हैं। समकालीन हिन्दी लघुकथा की तरह व्यवस्था पर चोट करना उनका ध्येय नहीं है। ये रचनाएँ समकालीन लघुकथा के अनुशासन से इसलिए भी बाहर ठहरती हैं क्योंकि नैतिकता, सैद्धान्तिकता का उपदेश आधुनिक अथवा समकालीन कही जाने वाली हिन्दी लघुकथा का उद्देश्य नहीं है और न ही आध्यात्मिक क्षेत्र के दार्शनिक बिन्दुओं का विवेचन उसका प्रतिपाद्य है।
       सन् 1958 में ही भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से रामनारायण उपाध्याय की पुस्तक ‘गरीब और अमीर पुस्तकें’ प्रकाशित हुई। वैसे यह लघु-व्यंग्य निबन्धों एवं रूपकों का संकलन है, किन्तु इसमें ‘बादल की हरकत’ जैसी एकाध लघुकथा के भी दर्शन हो जाते हैं। सन् 1958 में ही आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र का कथा-संग्रह ‘खाली-भरे हाथ’ प्रकाशित हुआ। इसमें उनकी 76 लघुकथाएँ हैं। पुस्तक के मुखपृष्ठ पर ‘मौलिक बोधकथाओं की सर्वप्रथम कृति’ प्रकाशित है तथा पुस्तक के हर पृष्ठ पर फोलियो भी ‘बोध कथाएँ’ ही प्रकाशित है।
       सन् 1959 के आसपास से ही ठाकुरदत्त शर्मा ‘पथिक’ की बोधकथाएँ भी प्रकाशित हुईं।
        सन् 1960 में भारतीय ज्ञानपीठ से लक्ष्मीचंद्र जैन का लघुकथा संग्रह ‘कागज की किश्तियाँ’ प्रकाशित हुआ। मनोज श्रीवास्तव के अनुसार—‘इस पुस्तक का दो तिहाई भाग ‘अध्ययन और मनन’ तथा ‘इतिहास और कल्पना’ के एकालापों से भरा है किंतु ‘यथागत की आख्यायिकाएँ’ शीर्षक से ग्यारह लघुकथाएँ अवश्य ही इस पुस्तक को हमारी सन्दर्भित दृष्टि के लिए महत्त्वपूर्ण करती हैं। ये सभी लघुकथाएँ अपने तापमान की ऊष्म उत्तेजना से हमें प्रभावित करने में असमर्थ रहती हैं। इनका असर शांत, स्निग्ध जलधार का है जिसमें सामयिकता की बनिस्बत शाश्वतता की सांस्कृतिक मानसिकता पर अधिक बल है। शायद इसीलिए लघुकथा की समकालीन तनावधर्मी शिल्प-संरचना से ये कुछ कटी भी नजर आती हैं। समकालीन लघुकथा दृष्टांत परम्परा की वाहक नहीं है।’
       सन् 1961 में अयोध्या प्रसाद गोयलीय की पुस्तक ‘लो कहानी सुनो’ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से प्रकाशित हुई। इसमें कई लघुकथाएँ बहुत तीखी हैं। यहीं से सन् 1961 में ही रावी के लघुकथा-संग्रह ‘मेरे कथा गुरु का कहना है’ भाग-2 का प्रकाशन हुआ। इसमें 69 लघुकथाएँ हैं। इसी सन् में डाॅ. ब्रजभूषण सिंह ‘आदर्श’ का कथा-संग्रह ‘आँखें, आँसू और कब्र’ प्रकाशित हुआ, जिसकी भूमिका विनय मोहन शर्मा द्वारा लिखित है। इसमें उनकी 30 लघुकथाएँ हैं, जो मानवीय विसंगतियों को उजागर करती हैं। लघुकथाओं में कथ्य और शिल्पगत नवीनता है।
         ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के 28 जनवरी, 1962 के अंक में ‘लघुकथाएँ’ शीर्षक के अन्तर्गत ठाकुरदत्त शर्मा ‘पथिक’ की तीन लघुकथाएँकोख, जिन्दगी के फूल, नदी-नाव प्रकाशित हुईं। सन् 1962 में ही अज्ञेय के सम्पादन में शान्ति मेहरोत्रा का कथा-संग्रह ‘खुला आकाश मेरे पंख’ प्रकाशित हुआ। इसमें सभी विधाओं की रचनाएँ हैं। ‘गिरवी रखी हुई आत्मा’ शीर्षक तले 5 लघुकथाएँ भी संकलित हैं।
       सन् 1963 में श्री आदित्य प्रताप सिंह की ‘बेटी की आवाज’ शीर्षक रचना सतना (म. प्र.) से प्रकाशित ‘जिज्ञासा’ के अंक-4 पृष्ठ 63-64 पर छपी, पर इसे लघुकथा नहीं माना जा सकता।
      जालंधर से प्रकाशित होने वाले दैनिक ‘हिन्दी मिलाप’ के 24 जून 1964 अंक में सिरसा (हरियाणा) के पूरन मुद्गल की लघुकथा ‘कुल्हाड़ा और क्लर्क’ प्रकाशित हुई। सन् 1964 में लिखी यशपाल की लघुकथा ‘संतोष का क्षण’ और सम्भवतः इसी समय की कथा-रचना ‘सीख’ को ‘सारिका’ के 2 जनवरी, 1978 के अंक में पृ. 27, एवं पृष्ठ 49 पर लघु-कहानी शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित किया गया है। कानपुर से तिलक (सिंह परमार) के दो संग्रहों—‘पत्थर और प्रतिमा’ व ‘माँ’ तथा बैकुण्ठनाथ मेहरोत्रा का ‘ऊँचे और ऊँचे’, श्यामानन्द शास्त्री का ‘पाषाण के पंछी’, ज्योति प्रकाश का ‘दिल की गहराई से’, कामता प्रसाद सिंह ‘काम’ का ‘नाविक के तीर’ आदि संग्रहों के प्रकाशन का भी उल्लेख मिलता है।
      आगरा से निकलने वाली पत्रिका ‘नोक-झोंक’ के मई 1965 के अंक में डाॅ. सतीश दुबे की कुछ लघुकथाएँ ‘शरीफाना भ्रष्टाचार’ शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित हुईं। 15 फरवरी, 1965 की ‘सरिता’ में भी ‘सतरंगी चूनर’ शीर्षक से डाॅ. सतीश दुबे की कई छोटी-छोटी लघुकथाएँ प्रकाशित हुईं, जिनमें तीखा व्यंग्य है। ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के 17 अप्रैल 1966 के अंक में भी डाॅ. सतीश दुबे की एक लघुकथा प्रकाशित हुई।
       सन् 1965-66 तक की लघुकथाओं के बारे में बलराम अपने लेख ‘लघुकहानी: गर्दिश में डूबा एक कथा सफर’ में लिखते हैं—‘1965 तक लघुकथा का कोई स्वरूप निश्चित नहीं हो सका, आनन्द (मोहन) का अपना अलग तीखा और प्रखर रंग था, (कन्हैयालाल मिश्र) प्रभाकर और जगदीश चन्द्र मिश्र जी के अपने रास्ते थे, तिलक (सिंह परमार) और जगदीश (चन्द्र मिश्र) प्राचीनता से इतना अधिक प्रभावित हैं कि उनकी रचनाएँ भी प्राचीन लगती हैं। अपनी वैचारिकता और प्रभावात्मकता के कारण, रावी और प्रभाकर अपने को टिकाए हुए हैं। आनन्द की रचनाएँ निखालिस आधुनिक हैं। काश!... वे जीवित... और सृजनरत होते।’
       सन् 1966 में आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र का संग्रह ‘मिट्टी के आदमी’ प्रकाशित हुआ, जिसमें 32 लघुकथाएँ हैं। पुस्तक के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हैं—‘संसार की विभिन्न भाषाओं के अन्दर अनूदित अभूतपूर्व व्यंग्य लघुकथाएँ’।
              ‘सारिका’ के जून 1967 अंक में प्रकाशित काशीनाथ सिंह की तीन लघुकथाएँ—‘अकाल’, ‘पानी’, ‘प्रदर्शनी’ प्रकाशित हुईं। कथ्य एवं शिल्प की दृष्टि से इन्हें प्रभावशाली कहा जा सकता है। ‘सारिका’ के ही सितम्बर 1967 के अंक (पृष्ठ 87) में रावी की लघुकथा ‘कण्टक काट’ ‘व्यंग्य-बोध’ शीर्ष के अन्तर्गत प्रकाशित हुई। यह रचना व्यंग्य का थोड़ा पुट लिए हुए नीतिपरक बोधकथा ही है। ‘सारिका’ के जनवरी 1968 अंक (पृष्ठ 90) में ‘दो लघुकथाएँ’ शीर्षक के अन्तर्गत कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की ‘चौधरी’ एवं ‘काम का आदमी’ प्रकाशित हुईं। दोनों ही तीखी एवं सशक्त लघुकथाएँ हैं।
       वाराणसी से कमल गुप्त के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘कहानीकार’ के नववर्षांक, जनवरी-फरवरी 1968 के अंक (पृष्ठ 9) में राजेन्द्र यादव की ‘अपने पार’ ‘सातवें दशक की एक संक्षिप्त कहानी’ शीर्ष-तले प्रकाशित हुई थी। इस रचना के बारे में इसी पृष्ठ पर ‘आत्मस्वीकृति’ के अन्तर्गत राजेन्द्र यादव कहते हैं—‘...इस कहानी के सम्बन्ध में, मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहूँगा कि रूप में यह छोटी है, फिर भी मुझे इससे बहुत संतोष है...शायद संग्रह का नाम भी इसी पर दूँ।’ ‘अपने पार’ 300 शब्दों के आसपास की कथा-रचना है।1
       सन् 1969 में प्रकाशित श्यामसुन्दर घोष की पुस्तक ‘साहित्य के नए रूप’ में पृष्ठ 58 पर लघुकथा के रूप का उल्लेख है तथा (पृष्ठ 130-131 पर) उदाहरणस्वरूप 5 लघुकथाएँ भी प्रकाशित की गई हैं लेकिन उनका चुनाव गलत है। कथ्य व शिल्प की दृष्टि से ये रचनाएँ समकालीन लघुकथाओं के निकट नहीं हैं। सन् 1969 की ‘सारिका’ के लगभग सभी अंकों में किसी-न-किसी रूप में लघुकथाएँ छपती रहीं, चाहे वे देश की विभिन्न भाषाओं की लघुकथाओं का हिन्दी अनुवाद हों या विदेशी लघुकथाओं का हिन्दी-रूपान्तरण अथवा लोककथा या बोधकथा का रूप हो। किसी कहानी का संक्षिप्त रूपान्तरण भी ‘लघुकथाएँ’ स्तम्भ के अन्तर्गत निरन्तर छपता रहा।
       सन् 1970 में ‘सारिका’ के लगभग सभी अंकों में प्रकाशित लघुकथाएँ अधिकतर विदेशी एवं विभिन्न प्रान्तों की भाषाओं से अनुवादित हैं।
                                                 आगामी अंक में जारी………

कोई टिप्पणी नहीं: