सातवीं किस्त
दिनांक 20-11-2016
से आगे…
आवरण : के॰ रवीन्द्र |
हिन्दी साहित्य
की गद्य और पद्य दोनों विधाओं में यह उद्बोधन का काल ठहरता है। गद्य में प्रेमचंद
‘यही मेरा वतन है’ लिख रहे थे और प्रसाद ‘बीती विभावरी, जाग री!’।
लघुकथा में यह उद्बोधन परम्परा-निर्वाह के रूप में विराजमान नजर आता है यानी नैतिक
उद्बोधन के रूप में। तथापि इन्हीं रचनाओं के बीच बहुत-सी ऐसी रचनाएँ भी सामने आती
रहीं जो पारम्परिक ज़मीन को तोड़ने का प्रयास करती प्रतीत होती हैं। प्रेमचंद और
प्रसाद के बाद इनमें कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, विष्णु प्रभाकर,
जगदीश
चन्द्र मिश्र, सुदर्शन, अयोध्या प्रसाद
गोयलीय, रावी आदि के नाम सामने आते हैं; लेकिन इन सभी का लघुकथा-चिंतन
पारम्परिक ही ठहरता है। जमीन तोड़ने की कोई खास कोशिश इनमें नजर नहीं आती। रावी
लघुकथाओं को अपनी उन्मुक्त काम-सम्बन्धी विशिष्ट सैद्धान्तिकी के प्रसार का माध्यम
बनाते प्रतीत होते हैं। परसाई इस काल में
अग्रगण्य सिद्ध होते हैं जिनकी लघुकथाएँ सन् 1950 के आसपास से
नजर आनी शुरू होती हैं। समाज के विभिन्न समुदायों में आयी चारित्रिक गिरावट को
परसाई ने अपनी बातचीत के दौरान अनेक बार स्पष्ट किया। कार्ल मार्क्स के हवाले से
उन्होंने कहा—‘धर्म भ्रमात्मक सुख देता है, जबकि
मनुष्य को वास्तविक सुख चाहिए जो सामाजिक परिवर्तन से प्राप्त होता है। शोषक वर्ग
आम आदमी को भ्रमात्मक सुख में उलझाकर उसे वास्तविक सुख के लिए संघर्ष करने से
रोकता है।’ परसाई के शुरू से आखिर तक लगभग समूचे लेखन में यह बेचैनी दिखाई देती
है। लघुकथा को वे परम्परा की कन्दरा से बाहर लाने को व्यग्र नजर आते हैं, लेकिन अकेले पड़ जाते हैं। काश!
उनके जैसी मेधा का दूसरा लेखक हिन्दी लघुकथा को उनके काल में मिल गया होता।
हिन्दी की पहली
लघुकथा के निर्धारण पर विद्वानों के बीच खासा मतभेद है। ‘अब तक जिन गद्य
कथा-रचनाओं को पहली लघुकथा होने की दौड़ में गिना जाना चाहिए, वे
प्रमुखतः निम्न प्रकार हो सकती हैं :
1. अंगहीन
धनी (परिहासिनी, 1876) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
2. अद्भुत
संवाद (परिहासिनी, 1976) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
3. बिल्ली
और बुखार (प्रामाणिकता अप्राप्य) माखनलाल चतुर्वेदी
4. एक
टोकरीभर मिट्टी (छत्तीसगढ़ मित्र, 1901) माधवराव सप्रे
5. विमाता
(सरस्वती, 1915) छबीलेलाल गोस्वामी
6. झलमला
(सरस्वती, 1916) पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
7. बूढ़ा
व्यापारी (1919) आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र
8. प्रसाद
(प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
9. गूदड़
साईं (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
10. गुदड़ी
में लाल (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
11. पत्थर
की पुकार (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
12. उस
पार का योगी (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
13. करुणा
की विजय (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
14. खण्डहर
की लिपि (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
15. कलावती
की शिक्षा (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
16. चक्रवर्ती
का स्तम्भ (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
17. बाबाजी
का भोग (प्रेम प्रतिमा, 1926) प्रेमचंद
अगर इनमें
प्रेमचंद की उन लघ्वाकारीय कहानियों को भी स्वीकार करना चाहें जो मूलतः उर्दू में
काफी पहले प्रकाशित हो चुकी थीं, परन्तु उनका रूपान्तर/लिप्यांतर काफी
बाद में, यहाँ तक कि उनकी मृत्यु के भी वर्षों बाद प्रकाश में आया, तो
वे निम्न प्रकार हैं :
1. बाँसुरी
(उर्दू कहकशां, जनवरी 1920; हिन्दी
लिप्यान्तर गुप्तधन—1, 1962)
2. राष्ट्र
का सेवक (उर्दू पत्रिका ‘अलनाज़िर’ के जनवरी, 1917 अंक में तथा
उर्दू शीर्षक ‘कौम का खादिम’ से ही उर्दू कहानी संग्रह प्रेम चालीसी, 1930 में; हिन्दी
रूपान्तर गुप्तधन—2, 1962 में)
3. बंद
दरवाज़ा (उर्दू प्रेम चालीसी, 1930)
4. दरवाज़ा
(उर्दू पत्रिका ‘अलनाज़िर’ के जनवरी 1930 अंक में हिन्दी लिप्यान्तर ‘प्रेमचंद
का अप्राप्य साहित्य’, 1988 में)’
जैसाकि प्रस्तुत
सूची से स्पष्ट है, क्रमांक 8 से क्रमांक 16 तक
की नौ लघुकथाएँ जयशंकर प्रसाद के कहानी-संग्रह ‘प्रतिध्वनि’ में संग्रहीत हैं।
सम्भवतः इसी आधार पर सन्तोष सरस ने ‘प्रतिध्वनि’ को हिन्दी का पहला लघुकथा-संग्रह
माना है। उन्होंने लिखा है कि—‘जहाँ तक इस (लघुकथा) की ऐतिहासिकता का
प्रश्न है, प्रथम लघुकथा-संग्रह स्वर्गीय प्रसाद कृत
‘प्रतिध्वनि’ है जो सन् 1926 ई. में प्रकाशित हुआ।’
इस सूची में
क्रमांक 4 पर अंकित स्व. माधवराव सप्रे की रचना ‘एक टोकरीभर मिट्टी’ के बारे
में रमेश श्रीवास्तव का यह कथन दृष्टव्य है जिसमें वे यह स्पष्ट करते हैं कि
‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में प्रकाशित कहानी ‘एक टोकरीभर मिट्टी’ को तत्कालीन पाठकवर्ग
द्वारा किस रूप में ग्रहण किया गया था—‘लघुकथा का नये तथ्य से शुभारम्भ इसी
शताब्दी में स्व. माधवराव सप्रे द्वारा हुआ। परन्तु उन दिनों पाठकों ने लघुकथा को
विधा के रूप में ग्रहण न कर साप्ताहिक अखबार की रिपोर्ताज के रूप में ग्रहण किया।’
वह आगे लिखते हैं कि—‘पुनः 1945 में माहेश्वर
की लघुकथा ‘सदियाँ बीतीं’ तथा 1950 में धर्मवीर भारती की लघुकथा ‘धुआँ’
प्रकाशित हुई। तब लघुकथा रचनाकारों तथा पाठकों की आँखों पर चढ़ गई। इसके बाद सैकड़ों
पत्र-पत्रिकाओं और संकलनों ने लघुकथा को सँवारने का प्रयास किया, जिनमें
से अधिकांश रचनाएँ तेवर की क्षमता को भूलकर गप्प-सपाट किस्से से जुड़ गईं...।’
‘बीसवीं सदी की
हिन्दी कथा यात्रा’ के भाग 1 (प्र. सं. 2016) की भूमिका में
कथाकार कमलेश्वर ने स्पष्ट लिखा है—‘यह अब निर्विवाद रूप से स्वीकृत हो गया
है कि 'छत्तीसगढ़ मित्र' में सन् 1900 में प्रकाशित माधवराव सप्रे की कहानी
‘टोकरीभर मिट्टी’ (सही शीर्षक ‘एक टोकरीभर मिट्टी’—बलराम अग्रवाल)
हिन्दी की पहली आधुनिक कहानी है और यहीं से आधुनिक हिन्दी कहानी की यात्रा शुरू
होती है।’
क्या कहेंगे?
यही
कि कमलेश्वर को ‘कहानी’ और ‘लघुकथा’ के बीच अन्तर का ज्ञान नहीं था! क्या कोई रचना
एक ही साथ कहानी और लघुकथा दोनों हो सकती है? यह एकदम नया
सवाल है और इसका उत्तर पाने के लिए हमें आने वाले समय में लघुकथा के पगचिह्नों को
बारीकी से देखते रहना पड़ सकता है।
‘सन् 1915
में ‘सरस्वती’ में ‘विमाता’ नामक लघुकथा छपी। यह 700 शब्दों के
आसपास है तथा इसमें अन्त तक कौतूहल रहता है। इसका रूप शिक्षात्मक है।
सन् 1916
में ‘सरस्वती’ में ही श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की लघुकथा ‘झलमला’ छपी,
यह 650
शब्दों में है। इस लघुकथा में मोमबत्ती के प्रकाश (झलमला) के माध्यम से नायक की
मनःस्थिति को मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।... सन् 1919-20 के
आसपास श्री जगदीश चन्द्र मिश्र ने अपनी पहली लघुकथा ‘बूढ़ा व्यापारी’ लिखी। सन् 1924
में श्री शिवपूजन सहाय की लघुकथा ‘एक अद्भुत कवि’ मारवाड़ी मासिक (कलकत्ता) में छपी,
इसकी
शब्द संख्या 400 शब्दों के आसपास है। यह लघुकथा साम्प्रदायिक
समस्या पर आधारित है। सन् 1929 में श्री कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’
ने ‘सेठजी’, ‘सलाम’ आदि लघुकथाएँ लिखीं। प्रभाकर जी ने काफी
लघुकथाएँ लिखीं जो उनके संग्रह ‘आकाश के तारे धरती के फूल’ में संकलित हैं।’
सन् 1938
में श्रीपतराय के संपादन में सरस्वती प्रेस, बनारस से
प्रकाशित होने वाली ‘गल्प-संसार-माला’ के भाग-3 के ‘बँगला का
गल्प साहित्य’ शीर्षक लेख में नंदगोपाल सेनगुप्त लिखते हैं—‘हमारे देश में
प्राचीन काल में रूप-कथाएँ और पशु-पक्षियों की उपकथाएँ ही हुआ करती थीं। रूप-कथाएँ
तो रहती थीं अन्तःपुर की महिलाओं की जवानी पर और उपकथाएँ होती थीं साहित्य के
पृष्ठों में। जातक कथाएँ, कथा-सरित्सागर, पंचतंत्र और
हितोपदेश इत्यादि में इस प्रकार की उपकथाएँ यथेष्ट थीं। पृथ्वी के अन्यान्य देशों
की भाँति इस देश में भी इनके इतिहास की समाप्ति हो चुकी है। अब उनका स्थान ग्रहण
किया है, मानवीय वेदनाओं से सम्पन्न छोटी कहानियों या गल्पों ने...’
इन्दौर से
प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘वीणा’ के नवम्बर 1944 अंक के पृष्ठ 21 पर
रामनारायण उपाध्याय की ‘दो लघुकथाएँ’ मिलती हैं—‘आटा और सीमेंट’
तथा ‘मजदूर और मकान’। ‘वीणा’ के ही अगस्त, 1945 के अंक में
श्याम सुन्दर व्यास की लघुकथा ‘ध्वनि-प्रतिध्वनि’ प्रकाशित हुई। ‘वीणा’ में
प्रकाशित ये रचनाएँ ‘लघुकथा’ शीर्षक के अन्तर्गत ही दी गई हैं।
सन् 1947 के
आसपास रामप्रसाद विद्यार्थी ‘रावी’ की पहली लघुकथा ‘शीशम का खूँटा’ सामने आई। रावी
के अनुसार—‘पंचतंत्र, हितोपदेश,
ईसप
की कहानियाँ, खलील जिब्रान की लघु-कहानियाँ, बाइबिल
की पैरेबिल्स, बुद्ध की जातक कथाएँ इस विधा की आदर्श कथाएँ हैं।
मैंने भी अपनी लघुकथाओं को, अपनी लम्बी कहानियों से पृथक्, इस
शैली में सीमित रखा है।...‘शीशम का खूँटा’ को मेरी पहली लघुकथा माना जा सकता है।
यह कथा सन् 1947 के आसपास लिखी गई होगी। विविध पत्र-पत्रिकाओं
में छपने के बाद ये कथाएँ संग्रहों में आई हैं।’
सन् 1947-48
में प्रकाशित सुदर्शन के कथा-संग्रह ‘झरोखे’ में 48 के लगभग
लघुकथाएँ हैं, किन्तु ये सभी किसी-न-किसी नीति-बोध को लेकर ही
चली हैं। सन् 1950 में रामवृक्ष बेनीपुरी का कथा-संग्रह ‘गेहूँ
और गुलाब’ छपा तथा सन् 1950 में ही जबलपुर से आनन्द मोहन अवस्थी
का लघुकथा संग्रह—‘बन्धनों की रक्षा’ प्रकाशित हुआ जिसमें लगभग 28
लघुकथाएँ हैं। इसमें ‘आदमी’, ‘इन्सान?’, ‘दो आदमी’,
‘बन्धनों
की रक्षा’, ‘चोर-चोर-चोर’, ‘भाग्य’,
‘श्राप’
आदि कुछ लघुकथाएँ तीखी एवं व्यवस्था पर चोट करने वाली हैं। इस संग्रह की भूमिका
रामवृक्ष बेनीपुरी ने लिखी है तथा सम्मतियों में श्री पदुमलाल पुन्नलाल बख्शी,
पं. नरेन्द्र शर्मा, भवानी प्रसाद
तिवारी तथा जगदीश चन्द्र जैन आदि के नाम हैं। सन् 1951 में अयोध्या
प्रसाद गोयलीय का संग्रह ‘गहरे पानी पैठ’ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से छपकर
आया। इसमें ‘117 कहानियाँ, किंवदंतियाँ,
चुटकुले,
लघुकथाएँ
और संस्मरण हैं। यह कृति तीन खंडों में विभक्त है— (1) गुरुजनों के
चरणों में बैठकर जो सुना (55 रचनाएँ), (2) इतिहास और
धर्मग्रन्थों में जो पढ़ा (47 रचनाएँ) तथा (3) हिये
की आँखों से जो देखा (15 रचनाएँ)। इन रचनाओं का उद्देश्य नीति एवं
मनोरंजन प्रदान करना है। लघुकथा की वर्तमान विधान-विधि से ये रचनाएँ भिन्न हैं।
कृति के खंड-खंड में धार्मिक और ऐतिहासिक चरित्रों से संबद्ध शिक्षात्मक लघुकथाएँ
हैं।’
सन् 1952
में कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की लघुकथाओं का संग्रह ‘आकाश के तारे धरती के फूल’
भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ। ‘इन्हें पढ़कर अज्ञेय ने कहा था कि ‘यह हिन्दी की
छोटी कहानी है और कहानी के इतिहास में इसे श्री प्रभाकर की नयी देन माना जायेगा।’
श्री रघु तिलक ने इन्हें कहानी मानने से इंकार करते हुए कहा—‘यह
स्कैच लिखने की कला में एक नया प्रयोग है।’ 1935 में प्रेमचंद
ने कहा कि—‘यह एक नई कलम है, गद्यकाव्य और
कहानी के बीच एक नयी पौध, जिसमें गद्यकाव्य का चित्र और कहानी
का चरित्र है।’ लेखकीय वक्तव्य स्वरूप लिखित ‘कहानियों की कहानी’ में इन मतों का
उल्लेख स्वयं प्रभाकर जी ने किया है। इसके अतिरिक्त कोई अन्य लिखित प्रमाण इन
कथनों का नहीं है। इस सम्बन्ध में मनोज श्रीवास्तव लिखते हैं—‘यह मानना ही
होगा कि सन् 1952 में प्रकाशित इस पुस्तक में संग्रहीत लघुकथाएँ
अनुभवों के साक्ष्य की सतही बाध्य विश्वसनीयता की कोई पूर्व सावधानी न रखते हुए भी
अनुभवों की प्रगाढ़ता के कारण ही पाठक को आंदोलित करने में समर्थ हुई
हैं।... निश्चित ही ये लघुकथाएँ गद्यकाव्य की-सी भंगिमा के साथ मन को छूती और
बाँधती हैं।... प्रभाकर का भावुक कवि-हृदय सारी कहानियों में छाया हुआ है इसलिए
लघुकथा का मौलिक व्यक्तित्व इनमें पूरी तरह खिल नहीं सका। मध्यस्थ, टहनियाँ,
पहचान
तो संवाद/विवाद मात्र हैं। प्रभाकर की भावुकता आरोपित नहीं है। वह निष्कपट और
संवेदनशील व्यक्तित्व का अपरिहार्य प्रतिफलन है इसलिए अधिक नहीं अखरती और ये
लघुकथाएँ एक अविस्मरणीय स्थान बना पाने में सक्षम होती हैं।’ डॉ॰ शकुन्तला किरण
सन् 1953 में
रामनारायण उपाध्याय का कथा-संग्रह ‘अनजाने-जाने-पहचाने’ प्रकाशित हुआ। इसमें
रेखाचित्र, संस्मरण, बोलती रेखाएँ
आदि के अन्तर्गत शराबी, वाद-विवाद, कुशल-क्षेम,
मानव
धर्म या पशुता को कुछ सशक्त लघुकथाएँ कहा जा सकता है।
‘सन् 1954 के
आसपास रांची के प्रो. भवभूति मिश्र ने अपनी ‘बची-खुची सम्पत्ति’ का प्रकाशन किया
था। यह सोलह कहानियों का संकलन था।... भवभूति जी ने स्वयं इन कहानियों को ‘अपने दिल
का काँटा’ कहा और इनके लिए ‘लघुकथा’ शब्द का प्रयोग किया। इनके शब्दों में—एक
लघुकथा ‘एक खींची हुई साँस’ होती है। इस संग्रह में बची-खुची सम्पत्ति, मूर्ति
और प्रतिमूर्ति, भेद की बात, दरद न जाने कोय,
कला
की कीमत, विज्ञान के प्रयोग सचमुच लघुकथाएँ हैं—दो-तीन मिनटों
में साँस रोककर पढ़वा लेने की अनिवार्य विवशता उत्पन्न करने की शक्ति से सम्पन्न।’
सन् 1954
में रावी का कहानी संग्रह ‘पहला कहानीकार’ प्रकाशित हुआ। ‘मेरी इस नव उपार्जित
लघुकथा की शैली और रूप का आभास अधिक स्पष्ट मात्रा में झलक आया है’—इसकी
भूमिका में यह लिखकर रावी इसे लघुकथा-संग्रह घोषित करते हैं, किन्तु
यह लम्बी कहानियों का संग्रह ही है। सन् 1955 में शिवनारायण
उपाध्याय की 40 लघुकथाओं का संग्रह ‘रोज की कहानी’ प्रकाशित
हुआ। इसमें ‘भीतरी सत्य’, ‘प्रतिक्रिया’ आदि को छोड़कर शेष के कथ्य
बहुत सामान्य हैं। इसी वर्ष अयोध्या प्रसाद गोयलीय का संग्रह ‘जिन खोजा तिन
पाइयाँ’ भी आया। इस संग्रह को लघुकथा के इतिहास का अंग स्वीकारते हुए भी मनोज
श्रीवास्तव लिखते हैं—‘...प्रस्तुत रचना संस्मरणात्मक लघुकथा के
रूप में ही देखी जानी चाहिए... अनेक वाक्य इसके विभिन्न घटनात्मक संस्मरणों में
मिलेंगे जो वर्तमान लघुकथा के स्वरूप को देखते हुए इसे एक प्रारम्भिक और विकासशील
कृति ही सिद्ध करते हैं। ये लघुकथाएँ उद्वेलित और व्यग्र नहीं करतीं अपितु हमारे
सामने आदर्श-जीवन का पथ प्रशस्त करती हैं। इनमें मानवीयता की सहज-संवेद कारुणिक
अनुभूतियाँ हैं, लेकिन आर्थिक और सामाजिक विद्रूपों का विशिष्ट
परिवेशगत वैराट्य न मिलने के कारण ऐसा लगता है कि गोयलीय जी और आज के पाठक की
संवेदना तथा माँगों में एक गहरी फाँक पड़ गई है। हमें विचलित और उग्र बनाने की
चेष्टा इनमें नहीं है।’
सन् 1956
में भृंग तुपकरी की कथाओं का संग्रह ‘पंखुड़ियाँ’ प्रकाशित हुआ, जिसकी
भूमिका उदयशंकर भट्ट ने लिखी। इसमें 28 लघुकथाएँ व एक लेख हैं। सन् 1956
में ही अयोध्याप्रसाद गोयलीय का कथा-संग्रह ‘कुछ मोती कुछ सीप’ प्रकाशित हुआ,
इसमें
बड़ी-छोटी दोनों प्रकार की रचनाएँ हैं। छोटी कथाओं में हास्य भी है, संस्मरण
भी है तथा कुछ रचनाएँ प्रतीकात्मक हैं। सन् 1956 में ही रामधारी
सिंह ‘दिनकर’ की लघुकथाओं का संग्रह ‘उजली आग’ आया। इसकी भूमिका स्वरूप दिनकर जी
ने एक लघुकथा को ही प्रस्तुत किया है जो एक मकड़ी और एक मधुमक्खी के संवाद के रूप
में है।
आगामी
अंक में जारी………
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लघुकथा से जुड़े विस्तृत शोध के लिए बधाई!
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