बुधवार, 2 सितंबर 2020

लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु-2/ बलराम अग्रवाल

 (दिनांक 01 सितंबर 2020 से आगे...)

भारतीय एवं भारतेतर आचार्यों द्वारा प्रणीत समीक्षा बिन्दु और समकालीन लघुकथा 

(दूसरी कड़ी)  


‘लघुकथा संकेतों में बात कहने की विधा है।’ एक पाठिका के इस कथन पर भी यह आलोचक बुरी तरह भड़क गये। कहा, कि—‘यह भी अच्छी बात कही। दरअसल यह समय आया है, जब खंडन-मंडन को अन्यथा न लेकर विमर्श को गंभीर बनाने की कोशिश हो। पहले सुनता था—लघुकथा में संवेदना केंद्रीय है। अब बताइए कौन-सी विधा बगैर संवेदना के रची जाती है। नीरज जी से भी असहमति। सांकेतिकता तो कविता में घनीभूत है; बल्कि लक्षणा का नया रूप सांकेतिकता है। आजकल अखबार की सुर्खियों के लिए जो कह दिया जाता है, वह विधा का शास्त्रीय राग नहीं है।’

आलोचक महोदय, अगर पूर्ववर्ती हर विधा संवेदना-केन्द्रित है, संकेत-बहुल है और अपने भीतर के मौन को वाणी देने की  क्षमता से परिपूर्ण है, तो इस कारण परवर्ती विधाओं में इन गुणों की चर्चा आपको चिढ़ा क्यों रही है? विद्वता के आवरण में लिपटी यह कैसी कुंठा है? बात यदि लघुकथा की चल रही है, तो उसके तत्सम्बन्धी गुण/अवगुण को स्वीकारना/अस्वीकारना, उस पर अपनी बात रखना ही स्वस्थ परम्परा है। यह नहीं कि ‘कौन-सी विधा बगैर संवेदना के रची जाती है।’ या फिर, ‘सांकेतिकता तो कविता में घनीभूत है…’ 

सभी जानते हैं कि कविता एक प्रकार से आदि-विधा है। सांकेतिकता, संवेदना आदि की पहचान स्पष्ट है कि उसमें आदिकालीन आचार्यों द्वारा ही कर ली गयी थी। तो क्या इसलिए बाद वाली किसी विधा में इनकी केन्द्रीयता का जिक्र न किया जाए? आप कविता के अभिजात को ही क्यों ढोए रखना चाहते हैं? लघुकथा में भी अगर काव्यगुण हैं तो विरोध कैसा? 

वस्तुत: विद्वता प्रदर्शन हमारे यहाँ जिस मात्रा में उपलब्ध है, सृजनात्मक चिन्तनशीलता का उतना ही अभाव है। 

भारतीय समीक्षा के अन्तर्गत जिन सिद्धान्तों को हम देखते हैं, वे सब के सब संस्कृत समीक्षा से आये हैं। संस्कृत में रस, अलंकार, छंद, रीति, वक्रोक्ति तथा ध्वनि आदि सिद्धांतों का जो विश्लेषण मिलता है, उसकी पृष्ठभूमि में इसके प्रवर्तकों की व्यापक और गहन दृष्टि का दर्शन होता है; लेकिन वे सब के सब मुख्यत: काव्य की आत्मा की खोज के सन्दर्भ में ही हैं। गद्य के उद्भव के उपरांत उन्हीं को लगभग ज्यों का त्यों गद्य विधाओं की समीक्षा के लिए भी अपना लिया गया। इसीलिए भारतीय समीक्षा के सन्दर्भ में जब ‘काव्य’ शब्द आता है, तब उससे तात्पर्य समूचा ‘साहित्य’ ही ग्रहण किया जाता है, कविता मात्र नहीं। रसादि नि:सन्देह गद्य के भी लक्षण हो सकते हैं। लघुकथा के गद्य का काव्यपरक होना, भाषा का रसयुक्त होना और प्रस्तुति का नाट्यपरक होना, ये सब अतिरिक्त गुण हैं; भले ही उस अनुपात में नहीं कि उनकी विषद व्याख्या लघुकथा के सन्दर्भ में यहाँ की जाये। 

यह मानते हुए कि हम समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर के स्वामी हैं, प्रस्तुत हैं पूर्व भारतीय आचार्यों द्वारा निर्धारित कुछ काव्य-गुण, जिनके आधार पर साहित्यिक रचनाओं की समीक्षा की जाती रही है। संकुचित मानसिकता वाले अनेक लोग सोच सकते हैं कि ‘लघुकथा’ सरीखी गद्य कथा-विधा के समीक्षा बिन्दुओं की प्रस्तुति के क्रम में काव्य-समीक्षा के अनुशासनों को क्यों पढ़वाया जा रहा है? वस्तुत: लघुकथा ही नहीं, समूचे साहित्य को उसकी व्यापकता में समझने के लिए इन काव्यानुशासनों को समझ लेना परम आवश्यक है।

भारतीय आचार्यों द्वारा प्रणीत समीक्षा सिद्धान्त

अलंकार

ये भाषा या भावों को अलंकृत करते हैं। लघुकथा के गद्य में प्रमुखत: दो अलंकारों पर ध्यान दिया जा सकता है—पहला वहाँ, जहाँ शब्द प्रमुख हों और दूसरा वहाँ, जहाँ अर्थ प्रमुख हो। विभिन्न शब्दों के प्रयोग द्वारा जब गद्य में चमत्कार का प्रयत्न किया जाता है तब ‘शब्दालंकार’ कहलाता है। शब्दानुप्रास, यमक, श्लेष, वक्रोक्ति और रूपक का अनेक लघुकथाओं में प्रयोग हुआ ही है। इसी तरह जहाँ अर्थ के स्तर पर चमत्कार का प्रयत्न किया जाता है, तब ‘अर्थालंकार’ कहलाता है। आचार्यों ने इन्हें ‘शब्द सौंदर्य’ और ‘अर्थ सौंदर्य’ की संज्ञा दी है।

वक्रोक्ति

कहा आता है कि साहित्य में जो कुछ भी चमत्कार है, वह वक्रोक्ति के कारण है। बहुत-से मित्र लघुकथा में ‘पंच-लाइन’ की बात करते ही हैं। यह वस्तुत: वक्रोक्ति का ही एक रूप है। वक्र से तात्पर्य हमेशा टेड़ा या तिरछा ही नहीं समझना चाहिए। कभी-कभी सीधी-सादी बात जितनी वक्र यानी मारक होती है, वक्र बात भी उतनी मारक नहीं होती। मजरूह सुल्तानपुरी की एक गजल का यह शेर सुनिए—

जफ़ा के ज़िक्र पे तुम क्यों संभल के बैठ गये! 

तुम्हारी  बात  नहीं,  बात  है  ज़माने  की।

सीधे संवाद किया जा रहा है, लेकिन यह भी वक्रोक्ति ही है। धार्मिक रूप से देखें तो हिन्दु-मुसलमान दोनों में दूज का चाँद वंदनीय है। ‘दूज के चाँद’ में आकृति की ‘वक्रता’ तो सर्वज्ञात है। इस वक्रता का साहित्यिक उपयोग करते हुए तुलसीदास ने गुरु की तुलना शंकर से करते हुए लिखा है—

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्।

यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्र; सर्वत्र वन्द्यते॥

ध्यान दें। गुरु वह नहीं जो वक्रता पर आश्रित है; बल्कि गुरु वह है, जिसपर आश्रित होकर वक्रता भी वंदनीय और प्रशंसनीय हो जाती है। इसलिए कम से कम लघुकथाकार को तो वक्रोक्ति का ज्ञान अवश्य ही होना चाहिए, उसे अपनी शक्तिभर आश्रय देने का यत्न करना चाहिए।

‘वक्रोक्ति’ सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक आचार्य कुन्तक रहे हैं। वक्रता या वैचित्र्य से युक्त उक्ति ही ‘वक्रोक्ति’ कही जाती है। इसका उल्लेख ‘काव्य-सौन्दर्य’ के पर्याय के रूप में किया जाता है। आचार्य कुन्तक ने जगह-जगह पर वक्रता, वैचित्र्य, चारुत्व और सौन्दर्य का उल्लेख एक-दूसरे के पर्याय के रूप में किया है। वक्रोक्ति के भेद-उपभेद में भी वक्रता के ही प्रकारों के लक्ष्य-सौन्दर्य का प्रस्फुटन माना जाता है। यदि वक्रोक्ति की जगह कोई सहजोक्ति या स्वभावोक्ति भी सौन्दर्य से युक्त हो तो उसे  काव्यत्व से युक्त मानने में संकोच नहीं करना चाहिए। इस प्रकार काव्य की आत्मा के रूप में सौन्दर्य को स्वीकृति देते हुए वकोक्ति को उसका एक अंग ही माना गया है, सर्वस्व नहीं।

औचित्य

‘औचित्य’ अपने आप में साध्य नहीं है, बल्कि काव्य-सौन्दर्य का साधन ही है—इस कथन के साथ आचार्य क्षेमेन्द्र ने विभिन्न तत्त्वों में सामन्जस्य का प्रयास करते हुए औचित्य सिद्धान्त की स्थापना की। उन्होंने अलंकार, रीति, गुण आदि अलग-अलग तत्त्वों के उचित प्रयोग को काव्य की आत्मा सिद्ध किया। औचित्य के बारे में क्षेमेन्द्र की निम्न उक्तियाँ ध्यान देने योग्य हैं—

1- औचित्य के बिना न अलंकार रुचिरता देते हैं, न गुण।

2- अलंकार तभी शोभा बढ़ाने में समर्थ होते हैं जब उनका विन्यास उचित स्थान पर हो।

तात्पर्य यह कि औचित्य स्वयं तत्त्व न होकर सौन्दर्य का सहायक तत्त्व ही है। अलंकार, गुण (यानी रीति), ध्वनि, वक्रोक्ति, औचित्य आदि काव्य में सौन्दर्योत्पत्ति के विभिन्न साधन और उपादान हैं, काव्य की आत्मा नहीं हैं। रस इसी काव्य-सौन्दर्य की अनुभूति है जिसे ‘Aesthetic Experience’ यानी सौन्दर्यानुभूति कहा जाता है। 

यहाँ सवाल पैदा होता है, कि ‘सौन्दर्य क्या है?’

ऊपर लिखित विवेचन से यह तो स्पष्ट ही है कि लगभग सभी भारतीय आचार्यों ने सौन्दर्य को ही काव्य की आत्मा स्वीकर किया है। भारतेतर मनीषियों ने भी न केवल काव्य बल्कि सभी ललित कलाओं के प्रमुख तत्त्व के रूप में सौन्दर्य को मान्यता दी है। लेकिन सौन्दर्य के स्वरूप के सम्बन्ध में वे भी किसी एक स्पष्ट बिन्दु पर नहीं पहुँचे हैं। फिर भी, समेकित रूप से एक बात स्पष्ट है कि सौन्दर्य किसी वस्तु का वह गुण है, जो हमें आकर्षित करता है। व्यावहारिक और सैद्धान्तिक जीवन में विभिन्न वस्तुओं के आकर्षण और विकर्षण की क्षमता को ही सौन्दर्य और असौन्दर्य कहा जाता है। ‘सौन्दर्य’ शब्द का प्रयोग अभिधा, लक्षणा और व्यंजना, सभी अर्थों में किया जाता है। अभिधात्मक अर्थ में सौन्दर्य व्स्तु के उस गुण का नाम है, जो हमारे नेत्रों को आकर्षित करता है। इस आकर्षण को अनेक विचारकों के ‘सौन्दर्य-लोलुपता’ कहा है। लक्षणात्मक और व्यंजनात्मक अर्थ में सौन्दर्य का सम्बन्ध व्स्तुओं के केवल बाह्य रूप-रंग से नहीं है, बल्कि उसकी उन सूक्ष्म विशेषताओं में भी है, जिनका अनुभव स्थूल नेत्र नहीं कर पाते हैं। अगर हम कहें कि ‘मैंने बहुत सुन्दर गीत सुना’ तो इस सौन्दर्य की अनुभूति सुनने के द्वारा हुई है। इस तरह के प्रयोग लाक्षणिक कहलाते हैं। किसी भी वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति का बाह्य रूप-रंग, स्थूल चेष्टाएँ उनकी कोई आन्तरिक विशेषता जो हमारे मन, बुद्धि या अन्य इन्द्रियों को आकर्षित कर ले, सौन्दर्य है। कम शब्दों में कहें तो—आकर्षण-शक्ति ही सौन्दर्य है।

                                                                               (शेष आगामी अंक में....)

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