बुधवार, 9 सितंबर 2020

लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु-8 / बलराम अग्रवाल

 (सातवीं कड़ी से आगे...)

 

भारतीय एवं भारतेतर आचार्यों द्वारा प्रणीत समीक्षा बिन्दु और समकालीन लघुकथा 

 

(आठवीं कड़ी) 


आश्चर्य होता है, जब कोई संपादक लेखक से ‘छोटी लघुकथा’ माँगता है अथवा मंच पर पढ़ने से पहले लेखक बताता है—एक ‘छोटी लघुकथा’ पेश कर रहा हूँ। अनौपचारिक रूप से ‘लघुकथा’ की ऊपरी सीमा तो कथाकार और आलोचक, सभी मानते हैं कि उसे इतने शब्दों तक अथवा इतने आकार तक अनुशासित रहना चाहिए; लेकिन कम का तो शायद कोई अनुशासन तय नहीं है और न ही किसी ने अभी तक बताया है। रमेश बतरा की ‘कहूँ कहानी’, श्याम सुन्दर अग्रवाल की ‘भिखारिन’, श्याम सुन्दर दीप्ति की ‘हद’, कमल चोपड़ा की ‘छोनू’ आदि भी ‘लघुकथा’ हैं और इन्हीं कथाकारों की क्रमश; ‘नागरिक’, ‘कैद बामशक्कत’, ‘माँ का कमरा’  और ‘स्वागत’ भी। हम बार-बार कथा-धैर्य की बात करते हैं। यह धैर्य लेखक और पाठक दोनों में होना जरूरी है।

पाठक के रूप में समीक्षक और आलोचक का यह जान लेना जरूरी है कि ‘लघुकथा’ कायिक रूप से छोटी होकर भी ‘कथा’ ही है, चुटकुला अथवा व्यंग्य नहीं; जबकि कथा-तत्व की सांद्रता सिद्ध हो तो ‘चुटकुला’ अथवा ‘व्यंग्य’ को एकबारगी ‘लघुकथा’ कहा जा सकता है… कहा जाता रहा है। डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक के अनुसार, ‘कहानीकार राधाकृष्ण ने लघुकथा का उत्स चुटकुले से माना है’।   

 यह देखना जरूरी है कि लघुकथा में प्रतिरोध का स्वर कितना है। अगर समग्र अध्ययन की दिशा में चिंतन है तो कौन-कौन लघुकथाकार प्रतिरोध को स्वर दे रहे हैं और कितना?

उपन्यास में कोई भी कथा अथवा पात्र नेपथ्य में नहीं भेज दिया जाता। वहाँ पात्र/पात्रों/घटनाओं अतीत तो होता है, नेपथ्य नहीं।  यों भी कह सकते हैं कि उपन्यास में नेपथ्य नहीं होता, जो कुछ भी कथानक से संबंधित है, पाठक के सामने आ जाता है। इसमें मूल कथानक के इर्द-गिर्द ही कहानी चलती है और कुछेक सहायक कथानकों का जाल भी बिछा हो सकता है। उपन्यास को कथाकार जितना विस्तार देना चाहें, दे सकते हैं—कहानी में कहानी; हर पात्र की अपनी कहानी, उस कहानी के पीछे के कारण और परिस्थितियाँ वगैरा-वगैरा। कुल मिलाकर उपन्यास बड़े कैनवस की रचना है। इस सबके मद्देनजर लघुकथा की तुलना उपन्यास से करना बेमानी है। इन दोनों के बीच एक अन्य कथा-विधा ‘कहानी’ खड़ी है। अगर की ही जानी है तो ‘लघुकथा’ की तुलना केवल कहानी से की जानी चाहिए, उसमें भी आकारगत छोटी कहानी से।

अधिकतर समीक्षक लघुकथा का पूरा कथानक ही बता डालते हैं और इसी काम में अक्सर तीन-चौथाई जगह भी भर लेते हैं। समीक्षा में कथानक की बजाय कथा-उद्देश्य बताया जाना चाहिए, ताकि पाठक की रुचि लघुकथा को पढ़ने के प्रति जागे। समीक्षक को लघुकथा के मुख्यत: कथावस्तु पर, पात्रों और परिस्थितियों पर बात करनी चाहिए। उसी के मद्देनजर वह बताए कि कथा में क्या कमज़ोर है और क्या सशक्त है। हाँ, कथानक की नवीनता, सार्थकता अथवा उपादेयता पर वह बात कर सकता है।

समीक्षक को जिन बातों का ध्यान रखना चाहिए, वे हैं—देश, काल और परिस्थिति। प्राथमिक स्तर पर देश से तात्पर्य स्थान ले सकते हैं; काल यानी समय। यहाँ समय को उसके व्यापक अर्थ में ग्रहण किया जाना आवश्यक है। और तीसरी बात है—परिस्थिति। लघुकथा में पात्र की मानसिक, धार्मिक, सामाजिक, वैयक्तिक, राजनैतिक… किस स्थिति-परिस्थिति का चित्रण हुआ है और क्यों? आज के समय में उसकी प्रासंगिकता क्या है, है भी या नही? समकालीन जीवन की जटिलता और समय न कथाकार को कितना बेचैन किया है, इसका उल्लेख रचना के माध्यम से समीक्षक को स्पष्ट करना चाहिए।

अब बात पात्रों की। लघुकथा में कभी-कभी पात्र का चरित्र एकाएक बदल जाता है। ऐसी स्थिति में वह अविश्वसनीय हो उठता है क्योंकि पात्र अन्तत: जीवित प्राणी ही होता है और किसी भी जीवित प्राणी के चारित्रिक बदलाव की एक प्रक्रिया होती है और वह परिस्थितियों के अनुरूप ही आगे बढ़ती है। उसके विकास में एक तारतम्यता नजर आना चाहिए। वह अपने काल का प्रतिनिधित्व कर रहा होना चाहिए। अगर वो समय से आगे चल रहा है तो किसी न किसी प्रकार उसका संकेत अवश्य लघुकथा में आना चाहिए।

 पात्र के मनोभाव, उसका अन्तर्द्वंद्व उसके लगातार चल रहे संवादों के अनुकूल हो, न कि बेमेल। ऐसा नहीं चाहिए कि वह बोल कुछ रहा है, और सोच कुछ रहा है। दोनों में सम्बन्ध होना चाहिए। पात्रों का गठन कैसा है? क्या कथानक में पात्र धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा या पीछे हट रहा है? इन बातों पर पात्रों को कसना ज़रूरी है। क्या पात्र विशेष किसी अन्य लेखक की रचना में, फ़िल्म में, पहले आ चुका है? अगर हाँ, तो उसका उल्लेख अवश्य करें, दोनों के बीच एक तुलना भी प्र्स्तुत की जा सकती है।

पात्रों की महत्ता पर भी आपका ध्यान होना चाहिए कि क्या इसको यहाँ होना चाहिए, ये बोलना चाहिए? ज़ाहिर है कि कहानी तो लेखक की है, लेकिन क्या उसमें विरोधाभास है? क्या किसी पात्र को जितना मुखर या शांत होना चाहिए, उससे इतर तो नहीं जा रहा? क्या किसी पात्र की कई बातें बस कथानक को लम्बा खींचने के लिए तो नहीं कही गईं? इन सब बातों पर पात्रों की समीक्षा ज़रूरी है। साथ ही आपको कौन-सा पात्र बेहतर या बुरा लगा, और क्यों, ये लिखना भी ज़रूरी है।

 रचनाकार अपने विचार अनेक तरह से लघुकथा में पिरोता है।   

1-   संवादों के माध्यम से

2-   बीच-बीच में नैरेशन के माध्यम से

3-   उसके अनुरूप कोई परिस्थिति उत्पन्न करके।

उसे पहचानकर, उस पर बात अवश्य करनी चाहिए। लेखकीय टिप्पणियाँ कथानक में अनर्गल तो नहीं घुस रही हैं? लेखक अपनी वे बातें कथानक के माध्यम से कहनी चाहिए थीं या नहीं और उन बातों को कथानक के माध्यम से कहने में वह सफल है या असफल? या उसने उन बातों को लेखक होने की अपनी अभिलाषा की तुष्टि मात्र के लिए लिख डाला है?  

 (शेष आगामी अंक में....)

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