शुक्रवार, 21 जुलाई 2023

लघुकथाकार बलराम अग्रवाल से कवि-कथाकार नेतराम भारती की बातचीत-भाग 2

कवि-कथाकार नेतराम भारती ने गत दिनों साहित्य, विशेषत: लघुकथा साहित्य की वर्तमान दशा और दिशा पर केन्द्रित एक लम्बी बातचीत लघुकथाकार बलराम अग्रवाल से की। उक्त बातचीत को उन्होंने जनवरी 2024 में प्रकाशित स्वयं द्वारा संपादित पुस्तक 'लघुकथा:चिंतन और चुनौतियाँ' में संकलित किया है।  प्रस्तुत है उक्त बातचीत का दूसरा अंश :

 
बलराम अग्रवाल
सर ! कई बार लघुकथा पर सतही और घटना-प्रधान होने के आरोप लगते रहे हैं, इससे कैसे बचा जाए ?

लघुकथा में अभिव्यक्ति के सतही होने का अर्थ मैं यह समझ रहा हूँ कि भाषाभिव्यक्ति के स्तर पर कथाकार कथ्य की सतह पर ही घूम रहा है, गहरे में नहीं उतर पा रहा। दूसरी ओर, लघुकथा पर घटना-प्रधान होने का आरोप लगने का भी यही अर्थ मैं ग्रहण कर रहा हूँ कि कथाकार घटना को ऊपर-ऊपर से देख और लिख रहा है, उसके कारणों, उससे उत्पन्न सांवेदनिक क्षण को नहीं पकड़ पा रहा है। मंचीय कविता की तरह लघुकथा न तो शब्द-विलास है और न टीवी समाचारों की तरह घटना का उल्लेख मात्र। लघुकथा घटनाओं और परस्पर वार्तालापों के मध्य सहज सम्पन्न सांवेदनिक क्षणों को पहचानने, पकड़ने और कुशलतापूर्वक प्रस्तुत करने वाली कथा-विधा है।

     सर ! लघुकथा में लेखकों की संख्या लगातार बढ़ रही है परंतु उस अनुपात में समीक्षक-आलोचक दिखाई नहीं देते । आज लघुकथाकार ही समीक्षक का दायित्व भी निभा रहा है । ऐसे में, क्या किसी भी विधा के विस्तार के लिए, स्वस्थ विमर्श और कुशल विमर्शकारों का आगे न आना चिंता की बात नहीं है ?

लघुकथा में अभी तक जितने भी विमर्शकार हैं, अधिकतर लघुकथा को समर्पित व्यक्तित्व ही हैं। विश्वविद्यालयों में हिन्दी शिक्षण से जुड़े अधिकतर अध्यापक हिन्दी लघुकथा की वर्तमान स्थिति से अभी भी अपरिचित हैं। जिस दिन वे परिचित हो जायेंगे, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग सरीखी संस्थाओं से आर्थिक सहायता के एवज उनके शोध भी प्रस्तुत होने का सिलसिला चल निकलेगा। लघुकथा की विचार गोष्ठियाँ, सम्मेलन, समीक्षा, आलोचना आदि कार्य में सम्प्रति जो लोग सक्रिय हैं उन्होंने लघुकथा को दिया ही दिया है; जब तक शक्ति रहेगी, जीवनभर देते ही रहने का उन्होंने ठान लिया है। मैं समझता हूँ कि इनके द्वारा अस्वस्थ और अकुशल विमर्श प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है।

    सर ! यह भी बताइए कि लघुकथा में पौराणिक पात्रों या ऐतिहासिक पात्रों को विषय बनाते समय कौन - कौन सी सावधानियाँ बरतनी चाहिए ?

पौराणिक पात्रों का आप कैरीकैचर बना सकते थे। आठवें दशक में ‘सारिका’ ने उन्हें खूब बढ़ावा दिया। सांस्कारिक मूल्यों के पतन को उनके माध्यम से बखूबी प्रस्तुत किया गया। उदाहरण के लिए, ‘श्रवण’ नाम आज माता-पिता के शोषण का परिचायक बन गया है। आदि-आदि। लेकिन ऐतिहासिक चरित्रों को लघुकथा-पात्र के रूप में अंकित करना बहुत-से अथवा कुछेक ऐतिहासिक तथ्यों की अनदेखी करना या जानबूझकर तोड़ना-मरोड़ना माना जा सकता है जो श्रेयस्कर नहीं माना जाएगा। ऐतिहासिक पात्रों पर केन्द्रित जो लघुकथाएँ होंगी, मौलिक चिंतन अथवा नवीन कल्पना प्रस्तुति के बावजूद वे ऐतिहासिक प्रसंगों की श्रेणी में जा घुसेंगी।

    

बातचीत करते हुए डॉ॰ बलराम अग्रवाल व नेतराम भारती

सर ! गुटबंदी, खेमेबंदी की बातें आजकल कोई दबे स्वर में तो कोई मुखर होकर कर रहा है । क्या वास्तव में लघुकथा में खेमे तन गए हैं ?  निश्चित रूप से आप जैसे लघुकथा के संरक्षकों के लिए यह बहुत पीड़ाजनक है । आप इस पर क्या कहना चाहेंगे ?

सबसे पहले तो यह कि मैं लघुकथा का संरक्षक नहीं हूँ। अपनी शक्तिभर अध्येता भर हूँ।

अब बात गुटबाजी या खेमेबंदी की। हरेक को गुटबाज और खेमेबाज कहकर कोसते हुए गुटबंदी और खेमेबाजी करने वाले शातिर कदम-कदम पर मौजूद हैं। चोरी करकेचोर, चोरचिल्लाने वाले न पहले कम थे, न आज कम हैं और न आगे कम होंगे। खेमेबाजी या गुटबाजी किस तरह सिरे चढ़ती है, अपने अनुमान से आपको बताता हूँ। मान लीजिए, लघुकथा के सिद्धांत पक्ष को लेकर मेरी ओर से कही गयी एक या दो या तीन बातें आपको मान लेने योग्य लगीं और आपने लिखित टिप्पणी करके उनका मान बढ़ा दिया; तो बस, उसी पल से वे लोग, मैं जिनकी गुड बुक्स में नहीं हूँ, आपको मेरे गुट में शामिल मान लेंगे। वहीं, अगर आप मेरे किसी संग्रह, किसी पुस्तक की दो-चार रचनाओं, दो-चार सिद्धांतों से असहमति जता देंगे तो मेरी ओर से आपको दुश्मन खेमे में गिन लिया जाएगा और दुश्मनों की ओर से मित्र-खेमे में। मित्र-खेमे और शत्रु-खेमे का यहाँ एक ही सूत्र हैतुम अगर मुझसे न निबाहो तो कोई बात नहीं, किसी दुश्मन से निबाहोगे तो मुश्किल होगी।    

     सर ! लघुकथा आज एक विधा के तौर पर स्थापित हो चुकी है । बावजूद इसके अभी भी इसकी पहुँच, पाठकों में इसके प्रति अभिरुचि, उतनी नहीं है जितनी इस दौरान हो जानी चाहिए थी । पाठकों तक लघुकथा की अधिकाधिक पहुँच और उनमें इसके प्रति जुड़ाव और जिज्ञासा को बढ़ाने के लिए आप क्या सुझाव देना चाहेंगे?

भाई नेतराम जी, इस प्रश्न में अनायास ही विरोधाभास है। इस प्रश्न के उत्तर में मैं प्रश्न करना चाहूँगा कि किसी रचना-प्रकार को विधा के तौर पर स्थापित होने के लिए कम से कम कितना और कैसा पाठक वर्ग मिलना चाहिए/ लघुकथा अगर विधा के तौर पर स्थापित हो चुकी है तो स्पष्ट है कि यथेष्ट पाठक वर्ग उसके पास है। दूसरी बात, आप कहते हैं कि ‘पाठकों में इसके प्रति अभिरुचि, उतनी नहीं है जितनी इस दौरान हो जानी चाहिए थी ।’ साहित्य की किस विधा के प्रति पाठक में यथेष्ट रुचि है/ आप पायेंगे कि वर्तमान समय में कवि, कथाकार और अन्य स्वय ही लेखक हैं और स्वयं ही पाठक। उपन्यासकार कहानीकार और लघुकथाकार को, कहानीकार लघुकथाकार और उपन्यासकार को और लघुकथाकार कहानीकार व उपन्यासकार को उतना नहीं जानता जितना कथाकार होने के नाते जानना-समझना चाहिए। सबके अपने-अपने ऑर्बिट हैं और सब उसी में चकराते हुए प्रसन्न हैं।  तीसरी बात, ‘पाठकों तक लघुकथा की अधिकाधिक पहुँच और उनमें इसके प्रति जुड़ाव और जिज्ञासा को बढ़ाने’ वाली बात को मैं यों सोचना चाहूँगा कि ‘लघुकथा तक पाठक की अधिकाधिक पहुँच बनाने, उसके साथ जुड़ाव, उसके प्रति जिज्ञासा को बढ़ाने के लिए’ कथाकार को क्या-क्या करना चाहिए। उत्तर यह है कि पाठक तक लघुकथा लिखने के बाद नहीं, पहले भी पहुँचना होगा। पहले पहुँचने से तात्पर्य है कि सब-कुछ काल्पनिक न रखकर लघुकथाकार को अपने पात्र तक भी पहुँचना होगा।                                                                शेष आगामी अंक में…

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