सोमवार, 31 जुलाई 2023

साहित्य को जीवन की व्याख्या मानते थे प्रेमचंद / बलराम अग्रवाल

 

बलराम अग्रवाल

हिन्दी कहानी और उपन्यास को राजपरिवारों के मध्य चलने वाली ऐय्यारी, तिलिस्म और जासूसी घटनाओं से बाहर निकालने वाले पहले कथाकार थे प्रेमचंद। साहित्य को उन्होंने जीवन की व्याख्या माना और जनजीवन को सम्पूर्णता में देखा। उपन्यास को उन्होंने सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति का माध्यम बनाकर प्रस्तुत किया, आने वाली पीढ़ियों के लेखन का मार्ग प्रशस्त किया और आशातीत सफलता प्राप्त की। जीवन के स्वस्थ विकास में बाधक बने अंधविश्वासों, कदाचरणों और कुरीतियों को खत्म करने हेतु उन्होंने बहुत बड़ा पाठक वर्ग तैयार किया। प्रेमचंद की कथाओं का अन्त यद्यपि आदर्शपरक होता है तथापि उनमें यथार्थपरकता और विश्वसनीयता के दर्शन होते हैं।

चित्र सौजन्य : आशा खत्री 'लता', रोहतक (हरियाणा), अशोक जैन, गुरुग्राम (हरियाणा)
लखनऊ में 10 अप्रैल, 1936 को सम्पन्न ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के प्रथम अधिवेशन में सभापति-पद से दिये गये अपने भाषण में उन्होंने कहा था—‘जब तक साहित्य का काम केवल मन-बहलाव का सामान जुटाना, केवल लोरियाँ गा-गाकर सुलाना, केवल आँसू बहाकर जी हलका करना था, तब तक उसके लिए कर्म की आवश्यकता न थी। वह एक दीवाना था, जिसका गम दूसरे खाते थे। मगर हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो, जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं; क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’

अप्रैल 1932 के ‘हंस’ में ‘जीवन में साहित्य का स्थान’ शीर्षक से लिखते हुए उन्होंने कहा—‘घटनाओं की तालिका इतिहास नहीं है और न राजाओं की लड़ाइयाँ ही इतिहास हैं। इतिहास जीवन में विभिन्न अंगों की प्रगति का नाम है और जीवन पर साहित्य से अधिक प्रकाश और कौन वस्तु डाल सकती है; क्योंकि साहित्य अपने देशकाल का प्रतिबिंब होता है। जीवन में साहित्य की उपयोगिता के विषय में कभी-कभी संदेह किया जाता है। कहा जाता है, जो स्वभाव से अच्छे हैं, वह अच्छे ही रहेंगे, चाहे कुछ भी पढ़ें; जो स्वभाव के बुरे हैं, वह बुरे ही रहेंगे, चाहे कुछ भी पढ़ें। इस कथन में सत्य की मात्रा बहुत कम है। इसे सत्य मान लेना मानव-चरित्र को बदल लेना होगा। जो सुन्दर है, उसकी ओर मनुष्य का स्वाभाविक आकर्षण होता है। हम कितने ही पतित हो जायें, पर असुन्दर की ओर हमारा आकर्षण नहीं हो सकता। हम कर्म चाहे कितने ही बुरे करें, पर यह असम्भव है कि करुणा और दया और प्रेम और भक्ति का हमारे दिलों पर असर न हो।’

प्रेमचंद की कलम से निकला यह अकाट्य है जो मानव मात्र का यथार्थ है। यथार्थ को मैं मृदु और कटु के अतिरिक्त सकारात्मक और नकारात्मक भी कहना चाहूँगा। कई बार कोई लेखक, कोई विचारक, कोई कलाकार एकदम देखे और भोगे हुए यथार्थ का वर्णन कर रहा होता है और हम पाते हैं कि क्या ही अच्छा होता कि इस यथार्थ को मरने के लिए ही छोड़ दिया जाता। नकारात्मक यथार्थ की प्रस्तुति अपने आप में एक विकृति है और यथासम्भव त्याज्य ही समझी जानी चाहिए। प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ के पात्रों के चरित्र पर अनेक विचारकों व आलोचकों द्वारा आपत्तियाँ व्यक्त की जाती हैं। जहाँ तक ऐसे पात्रों के हो सकने और न हो सकने की बहस है, यह नितान्त व्यक्तिगत तथा अपनी सीमा के अन्तर्गत प्राप्त अनुभवों के कारण पूरी तरह निरर्थक है। मैं अगर घीसू और माधव के हालात में रहा हूँ तो कहूँगा कि ये पात्र यथार्थ हैं और यदि नहीं रहा हूँ तो निश्चित ही मेरे लिए वे पात्र कपोल कल्पित हैं और उनकी रचना महापाप। बहुत-सी कहानियों के बारे में बहस दरअसल अपने मूल बिंदु से बहुत हटकर किन्हीं और-और बिंदुओं पर होने लगती है। अगर आज के विकसित समय पर नजर डालें तो क्या निर्द्वंद्व कह सकते हैं कि ‘कफन’ की बुधिया जैसी जर्जर और असहाय स्थिति में भारत की कोई महिला नहीं है। यदि नहीं कह सकते तो स्पष्ट है कि तब से लेकर आज तक ‘बुधिया’ त्रासद स्थिति से गुजर रही है, मरी नहीं है।

पुस्तक ‘प्रेमचंद जीवन कला और कृतित्व’ के पृष्ठ 210 पर हंसराज रहबर लिखते हैं—‘गोदान की भाँति कफन कहानी में उन्होंने हमारे इस समाज का बहुत ही यथार्थपरक चित्रण किया है।’   

प्रेमचंद का कथा-साहित्य ही नहीं उनका सम्पूर्ण कथेतर साहित्य, यहाँ तक कि मित्रों आदि को लिखे पत्र भी उनके आत्मानुभवों से उपजे हैं। स्वयं उनके द्वारा लिखित ‘जीवनसार’, उनकी धर्मपत्नी शिवरानी देवी द्वारा लिखित ‘प्रेमचंद घर में’, उनके सुपुत्र अमृत राय द्वारा लिखित ‘कलम का सिपाही’, हंसराज रहबर द्वारा लिखित ‘प्रेमचंद जीवन कला और कृतित्व’, रामविलास शर्मा द्वारा लिखित ‘प्रेमचंद मेरी नजर में’ आदि अनेक पुस्तकें हैं जो उनके जीवन और सत्य के बीच साम्य सिद्ध करती हैं।

प्रेमचंद की बहुत-सी कहानियों की प्रस्तुति उनके बेटों के माध्यम से भी हुई। परिवेशगत वे सम्भवत: गाँव-गवार से उतना नहीं जुड़े थे, जितना प्रेमचंद। भाषा-प्रयोग और कथ्य-प्रस्तुति, दोनों के स्तर पर प्रेमचंद को हम गद्य का कबीर कह सकते हैं। उनकी भाषा ठेठ कहावतों और मुहावरों से युक्त सहज, सधुक्कड़ी भाषा है जो हिन्दी का सामान्य ज्ञान रखने वाले व्यक्ति द्वारा भी पढ़ी-समझी, सराही और बोल ली जाती है। कहीं-कहीं वह परिमार्जित-सी भी नजर आती है। उसका कारण यह है कि उनकी रचनाएँ अनगिनत कम्पोजीटरों, प्रूफ रीडरों, सम्पादकों और भाषाविदों के हाथों से गुजरती रही हैं। उन सब ने अपने ‘सुधारक’ चरित्र के अनुरूप यदि ‘कोमा’ और ‘हाइफन’ भी अपनी ओर से इधर-उधर किया होगा तो रचना का स्वरूप कितना बदल गया होगा, समझना मुश्किल नहीं है। अत: प्रेमचंद की बहुत-सी कहानियों में पाठान्तर मिलता है जो शोध की नीयत अथवा मूल रूप से प्रेमचंद को पढ़ने की नीयत रखने वाले पाठकों के समक्ष भरपूर तनाव उपस्थित करता है। तथापि संतोष का विषय यह है कि प्रेमचंद साहित्य के मूल पाठ को संरक्षित करते हुए डॉ. कमल किशोर गोयनका (दिल्ली) और डॉ. प्रदीप जैन (मुजफ्फरनगर, उ. प्र.) आदि खोजी प्रवृत्ति के विद्वानों ने अनेक ग्रंथ प्रकाशित किये हैं।   

अन्त में, कहना यह है कि प्रेमचंद ने वह सब ब्रिटिश भारत में झेला जिसे हम आज स्वाधीन भारत में झेलते हैं। उन्होंने अपनी त्रासद स्थिति को व्यक्त करने का साहस दिखाया; लेकिन इस उन्नत युग में भी हम उस साहस और अभिव्यक्ति कला से कोसों दूर हैं। दूसरे, प्रेमचंद आमूल इस धरती से जुड़े व्यक्ति थे। उनके चरित्र को अतिशयपूर्ण दिखाने, उन्हें देवता सिद्ध करने के अनेक नकारात्मक प्रभाव आने वाली पीढ़ी की सोच पर पड़ सकते हैं। उनमें सर्वाधिक भयावह यह होगा कि वे आम जन की सोच और कृत्यों से बहुत ऊपर नजर आने लगेंगे, उससे कट जायेंगे। कोई अन्यथा न ले, गांधी जी के साथ हमने यही किया है। कुल मिलाकर देवता बनाने और पूजने की हम भारतीयों में खतरनाक प्रवृत्ति है। कम से कम प्रेमचंद के साथ हमें यह नहीं करना चाहिए। वह निहायत आम आदमी हैं, उनको आम ही रहने दें, अवतार न बनाएँ।

(प्रकाशित : 'हरिभूमि' रोहतक संस्करण, 31 जुलाई, 2023)

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