बुधवार, 9 अगस्त 2023

रमेश बत्तरा : मनःस्थितियों को तीर-सी घोंपता कथाकार, भाग-2 / बलराम अग्रवाल

 दिनांक 02-8-2023 के बाद समापन कड़ी

अपने इस आलेख में मैं रमेश बत्तरा की आसानी से उपलब्ध मात्र 19 लघुकथाओं पर ही अपने विचार प्रस्तुत कर पा रहा हूँ। इन लघुकथाओं में उन्होंने मुख्यतः मानवीय संवेदनाओं, सामाजिक असंगतियों, विवशताओं, भूख और गरीबी से ग्रस्त समाज की मान्यताओं में आ रहे बदलाव तथा हिन्दू-मुस्लिम दंगों के अलावा कुछ मनोवैज्ञानिक विषयों को भी अपने कथ्य का आधार बनाया है। अपनी भाषा में रमेश बत्तरा ने कहीं प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया तो कहीं पर अपनी बात कहने के लिए अपनी ओर से उसे गढ़ा भी हैं। लेकिन भाषा का यह गढ़ाव उबाऊ, अग्राह्य या अनावश्यक नहीं है। बल्कि वह अंतर्निहित अर्थों का स्फोट करती है। ‘कहूँ कहानी’ इसका प्रखर उदाहरण है। ‘उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी’ की जितनी विस्तृत व्याख्या की जाए कम है, यद्यपि यह किसी मजूदर की भाषा नहीं हो सकती। वस्तुतः वस्तु को पाठक तक पहुँचाने के लिए लघुकथा-लेखक को एक कवि जैसा करिश्मा भी अक्सर करना ही पड़ जाता है। वह उसे करना भी चाहिए। रमेश बत्तरा ने ऐसा करके दिखाया है। उनकी लघुकथा 'खोज' का कथ्य एक आम लोककथा जैसा लगता है परंतु रमेश बत्तरा की ऊर्जास्विता ने इसे एक प्रभावपूर्ण घुमाव दिया है। इस प्रकार विषय प्रवर्तक की जो क्षमता और कथा गढ़ने की जो ऊर्जा उनमें है, वह निःसंदेह उन्हें एक अगुवा कथाकार सिद्ध करती है। उनकी भाषा का एक और नमूना लघुकथा ‘अनुभवी’ से प्रस्तुत है—‘सुबह-सुबह उसने बड़े प्रयास के बाद किसी भले घर की-सी दिखाई दे रही औरत से भीख मांगी थी तो उसने बुरी तरह उसे फटकार दिया था, “साँड़-सी देह है, मेहनत करके क्यों नहीं कमाता भड़वे ?

यहाँ सुसंस्कारवान् पाठक को औरत के मुख से कहलाए गये इस संवाद को पढ़कर कुछ झटका महसूस हो सकता है। कुछ दोस्त इसे असामान्य भाषा भी कह सकते हैं और उसके मुख से ‘भड़वा’ शब्द के उच्चारण को तो अश्लील भी बता सकते हैं। परंतु यहाँ हमें रमेश बत्तरा के इन शब्दों पर विशेष ध्यान देना होगा—‘किसी भले घर की-सी दिखायी दे रही औरत।’ कविवर अब्दुर्रहीम खानखाना अपने एक दोहे में कहते हैं कि याचक को हर मनुष्य दाता दिखाई देता है। यहाँ भी याचक को औरत ‘भले घर की-सी’ यानी दाता-सी दिखाई देती है, वस्तुतः वैसी वह है नहीं। और इसीलिए उसकी भाषा में भी भलापन नहीं, ओछापन है।

‘लड़ाई’ में रमेश बत्तरा ने एक ऐसे कथ्य को उठाया है, जो उनके पंजाबीपन को दर्शाता है। देश के प्रति प्रेम, स्वयं आहत होकर भी किसी अन्य को आघात से बचाना और सहनशीलता ‘उसने कहा था’ से लेकर ‘धरती नीचे का बैल’ तक बहुत-सी कहानियों में पंजाब के कथाकारों ने साहित्य को दी हैं। लघुकथा में ‘लड़ाई’ उस कड़ी की संभवत: पहली, बेहद मजबूत और आकर्षक कड़ी है। यह नारी-मन के तथा परिवार, पति व देश के प्रति उसके समर्पण की भी कथा है नौकरी के नौ काम और दसवाँ काम ‘हाँ हुजूर’। उत्तर भारत की यह एक बहुप्रचलित कहावत है। यह ‘हाँ हुजूर’ मनुष्य की विवशता है। ‘नौकरी’ का बाबू रामसहाय विवशतावश नहीं, बल्कि स्वभाववश ‘हाँ हुजूर’ है। ऐसे दोगले चरित्र वाले लोग किसी भी आंदोलन को सिरे से नष्ट कर सकते हैं। बाबू रामसहाय बॉस के कमरे में जाकर अपने साथियों की चुगली उससे करता और कमरे से बाहर अपने साथियों के बीच आकर ‘हरामी सठिया गया है, मरेगा।’ कहता है।

‘बीच बाजार’ एक ओर जहाँ हमारे चरित्र के दोगलेपन पर से परदा उठाती है, वहीं समाज के बदलते स्वरूप को भी रेखांकित करती है। यहाँ मैं पुनः भारत भूषण अग्रवाल को ही उद्धृत करना चाहूँगा—‘वैसे कोई नहीं चाहता लेकिन क्षुधा करा लेती है।’ ‘बीच बाजार’ की विद्या विधवा है, गरीब है, चार-चार आवारा लड़कों की और ‘जी का जंजाल’ यानी बेटी की माँ है। पास पड़ोस के लोगों के कपड़े सीकर वह अपना जीवन-यापन करती आयी है। परंतु पिछले कुछ समय से उसकी जवान बेटी लक्ष्मी ने होटल में कैबरे-डांसर की नौकरी कर ली है। जिसके कारण विद्या की आर्थिक स्थिति में काफी सुधार आ गया है। मुहल्ले की औरतें माँ-बेटी को उनके इस कुकृत्य (?) पर भरपूर कोसती हैं। परंतु विद्या से सामना होने पर वही औरतें उसको ससम्मान अपने पास बैठाती हैं। उससे जानकारी प्राप्त करने लगती हैं कि लक्ष्मी ने यह सब कहाँ से सीखा, कैसे पाया? आर्थिक बोझ तले दबी समाज की इकाईयाँ किस तरह प्रचलित मान्यताओं और रिवाजों को त्यागकर नये रिवाजों से जुड़ती हैं। ‘बीच बाजार’ इस सत्य को गहरी शिद्दत के साथ प्रस्तुत करती है।

‘हीरा और मोती दो भाई हैं। वे देस में तो थोड़ी-बहुत खेती-बाड़ी करते थे मगर आजादी के बाद वे हाड़-तोड़ मेहनत के बावजूद लगातार गरीब होते गये। इसलिए अब एक जमाने से परदेस में रहकर रिक्शा खींचते हैं।’ यह दृश्य प्रस्तुत किया है रमेश बत्तरा ने अपनी लघुकथा ‘स्वाद’ में। यहाँ देश के लिए ‘देस’ और परदेश के लिए ‘परदेस’ का प्रयोग भी ध्यान देने योग्य है। यह एक यथार्थवादी आदर्श की लघुकथा है। इसका अंत दोनों भाईयों के बीच अत्यंत भावपूर्ण कथोपकथन के साथ होता है। देस से दूर परदेस में थोड़ा भी समय जिन्होंने बिताया है, वे पाठक इस लघुकथा के ‘स्वाद’ को झुठला नहीं सकते।

‘हालात’, ‘माँएँ और बच्चे’ तथा ‘वजह’ संवाद शैली की लघुकथाएँ हैं। ‘हालात’ में तो रमेश बत्तरा जैसे अपनी पीढ़ी के हर नौजवान का कष्ट व्यक्त कर रहे हैं :

“समझ में नहीं आता क्या किया जाये, सुबह के लिए मुट्ठीभर अनाज भी नहीं है।”

“खुशनसीब हो यार, मैंने तो आज भी नहीं खाया।”

कमल चोपड़ा ने 1981 में रमेश बत्तरा सहित बीस कथाकारों की लघुकथाओं के संकलन का नाम उनकी ‘हालात’ शीर्षक लघुकथा पर रखा था, इस बात का उल्लेख अथवा आभार व्यक्त किये बिना।

‘माँएँ और बच्चे’ भूख और विवशता की कहानी प्रस्तुत करती है। बच्चा है कि भूखा है और उसे भोजन चाहिए। वह मां से भोजन की जिद करता है। मां है कि विवश है। घर में खाने के लिए कुछ नहीं है। कोई साधन भी ऐसा नहीं है कि बच्चे के लिए खाने को कहीं से कुछ ला दे। बच्चा ज़िद पर है और माँ हताश। अंततः वह चीखती है—“तो मुझे खा ले राक्षस!”

“मगर कैसे?बच्चा हतप्रभ है।

रमेश बतरा ने इस रचना को ‘माँ और बच्चा’ नहीं ‘माँएँ और बच्चे’ शीर्षक देकर  व्यापक बना दिया है। आज इसी रूप में रमेश बत्तरा का नाम हमारे बीच मौजूद है और हमेशा रहेगा भी।

फ्रायड ने मनुष्य के व्यवहार में दो मूल प्रवृत्तियों का निर्धारण किया, जिनमें पहली है—जिजीविषा। इसका संबंध प्रेम और आत्म-संरक्षण से है। इस सिद्धांत के अनुसार, व्यक्ति की मानसिक शक्ति काम यानी इच्छा से उत्पन्न होती है। व्यक्तित्व की गत्यात्मकता इस काम की संतुष्टि की आवश्यकता से ही चालित होती है। लगभग समूचा स्वप्न विश्लेषण सिद्धांत भी इसी सिद्धांत पर आधारित है। फ्रायड द्वारा प्रणीत मनोविश्लेषण के सिद्धांत नये नहीं हैं; परन्तु लघुकथा में उनका प्रयोग अपेक्षाकृत नहीं के बराबर हुआ है। इसे आश्चर्य मानें या इस पर गर्व करें कि रमेश बत्तरा ने मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर अनेक रचनाएँ आठवें और नवें दशक में ही दे दी थीं। उनकी लघुकथा ‘शीशा’ व्यक्तित्व विश्लेषण की उत्कृष्ट लघुकथा है जिसमें एक स्त्री की जिजीविषा का चित्रण ‘पर्स’ के माध्यम से किया गया है। बाजार में निर्वस्त्र घूमने की बजाय उसे गंदे और फटे-पुराने पर्स के साथ घूमना लज्जाजनक लगता है। इस लघुकथा में मुख्य पात्र भले ही स्त्री है; लेकिन वस्तुत: यह मानुषिक वृत्ति के उद्घाटन की कथा है। धरती पर ऐसा कोई मनुष्य नहीं जो जिजीविषा-विहीन हो और जिसे जीवन में ऐसा स्वप्न कभी न कभी आया न हो।

मोबाइल : 8826499115

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

उत्तम लघुकथाओं की सुंदर समीक्षा है।
'लड़ाई ' लघुकथा के प्रथम भाग में पंजाबियों की पंजाबियत की चर्चा पढ़ते हुए किसी कवि की पंक्तियां याद आगयीं-
पढ़ते-पढ़ते

बेनामी ने कहा…

गोबिंद सिंह का खड़ग
प्रलय का अर्थ क्रांति की भाषा है।
पंजाब समूचे भारत की
संक्षिप्त एक परिभाषा है।
अआगे जो बात कही गई है तो राजस्थान में अफसरों को हुकुम कहकर सम्बोधित कलने और नमस्कार के लिए खमा घणी हुकम या अन्नदाता कहने का रिवाज है। मगर मैं इसका अनुगमन नहीं कर सका, इसका खामियाजा भी भुगतना पडड़ा।

बेनामी ने कहा…

बहुत कायदे से रामेज़ह बत्तरा मि रचनाओं पर चर्चा की है आप के बलराम जी।