पाँचवीं किस्त
दिनांक 06-11-2016 से आगे…
आवरण : के॰ रवीन्द्र |
संस्कृत साहित्य में सुदूर पूर्वकाल से ही बोधगम्य कथाओं के माध्यम से
कठिन विषयों के उपदेश की परम्परा देखने को मिलती है। कथाओं के माध्यम से उपदेश की
परम्परा उपनिषदों व ब्राह्मण ग्रन्थों में भी पायी जाती है। इस हेतु पशु-पक्षियों
आदि मानवेतर कथा-पात्रों का आश्रय भी लिया
गया है। बोधगम्य कथाओं के माध्यम से गंभीर
विषयों का प्रतिपादन तथा नीतिशास्त्र के दुरूह तत्त्वों को सर्वसाधारण करने के
उदाहरण छान्दोग्योपनिषद, वृहदारण्यकोपनिषद तथा ब्राह्मण
ग्रन्थों में भरे पड़े हैं, जिनके निदर्शन रामायण तथा महाभारत
में भी मिलते हैं।
सन् 1000 से पहले की समूची लघ्वाकारीय कथाओं में
नैतिकता, बोध, उपदेश, शिक्षा ही देखने को मिलती है। सन् 1000 के बाद आगामी
कुछ वर्षाें तक पालि और प्राकृत भाषाओं की बहुत-सी रचनाओं का संस्कृत व अन्य
भाषाओं में अनुवाद कराने के प्रमाण सामने आते हैं; तथापि
लघुकथा लेखन होते रहने का कोई प्रमाण सामने नहीं आता।
भारतीय चिन्तन की तीन प्रमुख परम्पराएँ हैं—वैदिक,
जैन और बौद्ध। एक अध्ययन के
अनुसार—जैन धर्म का उदय वैदिक काल में ही हो गया था। इनके
धर्मगुरुओं को तीर्थंकर कहा गया है। ऋषभदेव जी पहले तीर्थंकर थे। इनका उल्लेख
ऋग्वेद में भी है। पार्श्वनाथ 23वें तीर्थंकर थे। इन्होंने
वैदिक कर्मकांड और देववाद का विरोध किया था। सम्भवतः इसीलिए इनके अनुयायियों को
निर्ग्रन्थ कहा जाता है। महावीर 24वें तीर्थंकर थे। लेकिन
जैन कथाओं का काल विद्वानों ने ई.पू. 500-450 वर्ष के आसपास
माना है।
‘जैन लघुकथाएँ’ आम तौर पर, उनके 24 तीर्थंकरों के त्याग तपस्या और जीव-मात्र के प्रति प्रेम की कथाएँ मानी
जाती हैं; लेकिन इनमें व्यापक जीवन अनुभव समोए हुए हैं।
इनमें डाकू, व्यापारी, राजा आदि का
वर्णन भी है। ‘जैन लघुकथाएँ’ ‘ब्राह्मण-साहित्य’ व ‘आख्यानों’ में आए चमत्कार आदि
का खण्डन करती हैं, लेकिन ये लघुकथाएँ जैन दर्शन का पूर्ण
प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ‘देश-वैकालिक टीका’ में लगभग 70
प्राकृत कथाएँ आई हैं। इस ग्रन्थ के टीकाकार मुनिचन्द्र हैं। ‘वृत्ति टिप्पण’ में
हरिभद्र सूरि कृत प्राकृत लघुकथाओं में सौन्दर्य वर्णन है।
पुरातन धर्मगुरुओं ने इस मनोविज्ञान को जान लिया था कि विशुद्ध धार्मिक
सिद्धांतों का उपदेश लोगों को रुचिकर नहीं लगेगा। इसलिए वे किसी मनोरंजक वार्ता,
आख्यान या दृष्टांत के माध्यम से उसे प्रभावशाली और रोचक बनाकर
प्रस्तुत करने लगे। जैन विद्वानों ने इस युक्ति का भरपूर उपयोग किया। यही कारण है
कि जैनों के लगभग प्रत्येक धार्मिक ग्रन्थ में कोई न कोई कथा अवश्य मिलेगी—दान की, पूजा की, भक्ति की,
परोपकार की, सत्य की, अहिंसा
या सांसारिक विषय-भोगों में तृष्णा कम करने की।
‘णायाधम्मकहाओ’ (ज्ञातृधर्मकथा) को जैन कथा-साहित्य का सबसे पहला ग्रन्थ
कहा जाता है जिसमें 19 अध्ययनों में ज्ञातृपुत्र महावीर की
धर्मकथाओं का संग्रह है। इसमें साढ़े तीन करोड़ कथाएँ और उतनी ही उपथाएँ होने का उल्लेख मिलता है। यह संख्या अगर
अत्युक्ति हो, तो भी यह तो पता लगता ही है कि इस ग्रन्थ में
महावीर की कही हुई बहुत-सी प्राचीन कथाएँ विद्यमान थीं, जिनमें
से बहुत-सी आज उपलब्ध नहीं हैं। फिर भी, ‘वृद्धसंप्रदाय’,
‘पूर्वप्रबंध’, ‘संप्रदायगम्य’, ‘अनुश्रुतिगम्य’ आदि रूप से अनेक कथाएँ पूर्व परम्परा से चली आ रही हैं।
संघदासगणि वाचक ने अपनी रचना ‘वसुदेवहिंडी’ को गुरुपरम्परागत ही स्वीकार किया
है। जैन कथासाहित्य दो धाराओं में मिलता
है—आगमगत्य कथासाहित्य और आगमबाह्य कथासाहित्य। आगम ग्रन्थों
की कथावस्तु का बिना किसी साहित्यिक सौष्ठव के, एक-जैसी
संक्षिप्त शैली में वर्णन किया गया है। आल्सफोर्ड ने इसे ‘तार की शैली’ (टेलीग्राफ
स्टाइल) कहा है। कभी-कभी तो बिना टीका के इन कथाओं को समझ पाना कठिन ही हो जाता
है। अनेक यूरोपीय विद्वानों द्वारा इसीलिए इन्हें ‘शुष्क और नीरस’ की संज्ञा भी दी
है। आगमगत्य या आगमबाह्य कथाग्रन्थों में नगर, राजा, राजकन्या, गणिका आदि नायिकाओं श्रृंगारप्रधान वर्णन
मिलते हैं। इनमें ‘वसुदेवहिंडी’ का नाम अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ के मध्य
खंड के रचयिता धर्मसेन हैं। ‘बृहत्कथाश्लोकसंग्रह’ के रचयिता बुद्धस्वामी हैं।
जैनधर्म में कथाओं के दो प्रकार बताए गये हैं—
1.
चरित (जिसमें महान पुरुषों के यथार्थ चरितों का वर्णन हो) और,
2.
कल्पित (जिसमें कल्पना-प्रधान कथाएँ हों)।
स्त्री और पुरुष के भेद से दोनों के दो-दो भेद हैं। धर्म, अर्थ और काम सम्बन्धी कार्यों से सम्बद्ध दृष्ट, श्रुत
और अनुश्रुत वस्तु का कथन चरित-कथा है। इसके विपरीत, कुशल
पुरुषों द्वारा जिसका पूर्वकाल में उपदेश किया गया हो, उसकी
अपनी बुद्धि से योजना कर कथन करना कल्पित-कथा है। चरित और कल्पित आख्यान अद्भुत, शृंगार और हास्यरस-प्रधान होते हैं। ‘दशवैकालिक निर्युक्ति’
(निर्युक्तिगाथा, हरिभद्रीयवृत्ति, पृष्ठ
106) में अर्थ, काम, धर्म और मिश्रित कथाओं से कथा के चार भेद बताए हैं। इसमें स्त्री,
भक्त, राज, चोर, जनपद, नट, नर्तक, जल्ल (रस्सी पर खेल दिखाने वाले बाजीगर) और मुष्टिक (मल्ल) विकथाओं का
उल्लेख है।
यहाँ विकथा क्या है?
जैन आचार्यों ने कथाओं के तीन भेद बताए
हैं—
1.
सत्कथा, 2. कथा और 3. विकथा।
जैन मतानुसार—जिसे तप और संयम के धारक सद्भावपूर्वक
कहते हैं, संसार के समस्त जीवों का हित करने वाली वह कथा
‘सत्कथा’ है। रूप-सौंदर्य, अवस्था, वेशभूषा,
दाक्षिण्य, कलाओं की शिक्षा तथा देखे हुए,
सुने हुए और अनुभव किए हुए का परिचय प्रकट करने के कर्म को ‘कथा’
कहा गया है। इसी क्रम में हरिभद्रसूरि का कहना है कि जिसमें काम उपादान रूप में हो
तथा बीच-बीच में दूती व्यापार, रमणभाव, अनंगलेख, ललितकला और अनुरागपुलकित आदि वर्णन किया
गया हो, उसे ‘कामकथा’ अथवा ‘विकथा’ कहते हैं। (समराइच्चकहा,
पृष्ठ 3) प्राचीन जैन ग्रन्थों में कितने ही
प्रेमाख्यान मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि जैन ग्रन्थकारों ने धर्म-कथाओं में
शृंगारयुक्त प्रेमाख्यानों का समावेश करके उन्हें पाठकों और श्रोताओं के लिए
रुचिकर बनाने की कोशिश की है। जैन साधुओं को आदेश है कि उन्हें शृंगार रस से
उद्दीप्त, मोह से फूत्कृत, जाज्वल्यमान
मोहोत्पादक कथा नहीं कहनी चाहिए। 'कुवलयमाला' के रचयिता उद्योतनसूरि ने अर्थकथा और
कामकथा से पूर्व धर्मकथा को प्रमुखता दी है; लेकिन अपनी
धर्मकथा को कामशास्त्र से सम्बद्ध बताते हुए कहा है कि पाठक इसे अर्थहीन न समझें
क्योंकि धर्म की प्राप्ति में यह कारण है। कथा के इन्होंने पाँच प्रकार बताए हैं—सकलकथा, खण्डकथा, उल्लापकथा,
परिहासकथा और वरकथा। कुवलयमाला
7, पृष्ठ 4 पर कहा गया है—कहीं कुतूहल से, कहीं परवचन से प्रेरित होने के कारण,
कहीं संस्कृत में, कहीं अपभ्रंश में, कहीं द्रविड़ और पैशाची भाषा में रचित, कथा के
सर्वगुणों से सम्पन्न, शृंगार रस से मनोहर, सुरचित अंग से युक्त, सर्व कलागम से सुगम कथा
‘संकीर्णकथा’ है। (यहाँ ‘संकीर्ण’ से तात्पर्य कथा का संस्कृत-प्राकृत में लिखे
होने से भी हो सकता है)। जैन आचार्यों ने शब्दशास्त्र को महत्व न देते हुए उसी
कथा को श्रेष्ठ कहा है जिससे सरलतापूर्वक स्पष्ट अर्थ का ज्ञान हो सके।
जैन ग्रन्थ ‘निशीथविशेषचूर्णी’ में आई यह
लघुकथा देखिए :
साधु : तुम आज भिक्षा के लिए नहीं गयी?”
साध्वी : “आर्य! मेरा आज उपवास है।”
साधु : “क्यों?”
साध्वी : “मोह का इलाज कर रही हूँ।
तुम्हारा क्या हाल है?”
साधु : “मैं भी उसी का इलाज कर रहा हूँ।
तुमने क्यों
प्रव्रज्या (संन्यास-दीक्षा) ग्रहण की?”
साध्वी : "पति के मर जाने से। तुमने?”
साधु : "मैंने पत्नी के मर जाने से।”
साधु उसे स्नेहभरी नजर से देखता है।
साध्वी : "क्या देख रहे हो?”
साधु : “दोनों की तुलना कर रहा हूँ।
हँसने, बोलने और सौंदर्य में तुम पत्नी से बिल्कुल मिलती-जुलती हो। तुम्हारा दर्शन मेरे मन में मोह पैदा करता
है।”
साध्वी : “मेरा भी यही हाल है।”
साधु : “वह मेरी गोद में सिर रखकर मर
गयी। यदि वह मेरी अनुपस्थिति में मरती तो शायद देवताओं को भी उसके मरने का विश्वास
न होता। तुम वह कैसे हो सकती हो?”
लेकिन,
बौद्ध धारा ने जितना प्रचार-प्रसार और गौरव भारत से बाहर
प्राप्त किया, उतना शेष दो यानी वैदिक और जैन धारा ने
सम्भवतः नहीं। बौद्ध चिन्तन पुरातन मूल रूप से पालि भाषा में प्राप्त है। इसका रूप
ईसापूर्व तीसरी शती में सुनिश्चित हो गया था। कोई सौ साल बाद बौद्ध धर्मग्रन्थ
संस्कृत में प्रणीत हुए। 'जातकमाला' संस्कृत का ग्रन्थ है। बुद्ध से पहले अनेक
सम्प्रदायों के लोग वनों, पर्वतों में रहते थे। इनमें
‘कुटीरच’, ‘परमहंस’, ‘केस’, ‘जिन’ आदि साधु-संन्यासी हैं। चूँकि जीवन के प्रति वे विरक्त थे, अतः उनकी कही हुई लघुकथाएँ भी पदार्थ के प्रति विरक्ति का भाव उत्पन्न
करने वाली ही होती थीं। ब्राह्मण, जैन तथा बौद्ध साहित्य ने
यहीं से लघुकथाएँ लीं और उन्हें अपने-अपने रंग में रंगकर प्रस्तुत किया।
बौद्धकालीन लघुकथाओं में ‘इति बुद्धक’ में एक ओर बुद्ध के कथन हैं तो दूसरी ओर
तत्कालीन समाज के चित्र हैं। इनमें राजा, भिक्षु, योद्धा आदि की लघुकथाएँ हैं।
कुछ आलोचक मानते हैं कि ‘जातक लघुकथाएँ’
बुद्ध के बाद के काल की हैं। भदन्त आनन्द कौशल्यायन के अनुसार—‘जातक कथाओं में भगवान
बुद्ध के 547 जन्मों का उल्लेख है।’ इनके अतिरिक्त ‘जातक
अट्टकथा’ यानी—अर्थ सहित जातक—का भी
उल्लेख है। जातक कथाएँ आमतौर पर ‘पूर्वकाल में वाराणसी में राजा ब्रह्मदत्त राज्य
करता था’ वाक्य से आरम्भ होती हैं। ये उपदेशपरक तथा संकेतात्मक लघुकथाएँ हैं।
अधिकांश खोजियों का मानना है कि ‘उक्त
संग्रहों की लघुकथाएँ उपदेशात्मक ही हैं।’ लेकिन इस उपदेश मुद्रा के कुछ निहित
अर्थ भी हैं जिनका खुलासा अक्सर नहीं किया जाता। ‘जातक कथाएँ ई. पू. पाँचवीं शती
के पूर्व से लेकर ईसवी की पहली या दूसरी शती तक रची गईं। कुछ विद्वानों का मानना
है कि इनकी अनेक कथाएँ महाभारत और रामायण में विकसित रूप में पायी जाती हैं। इन
कथाओं में से यदि बोधिसत्व का नाम हटा दिया जाय तो ये शुद्ध लौकिक कथा के रूप में
रह जाती हैं।
डॉ॰ शकुन्तला किरण कहती हैं—महाभारत तथा रामायण,
इन दोनों ही ग्रन्थों में अतीत की गाथाओं को जीवित रखने के प्रयास
से अलग जीवन के विभिन्न अनुभवों की व्याख्या करती लघुकथाओं की भरमार है। इनमें से
महाभारत में तो अगणित लघुकथाएँ परस्पर गुम्फित होते हुए भी स्वतन्त्र हैं।
महाभारत और रामायण—इन दोनों ही ग्रन्थों की कथाओं में
आदर्शोन्मुखी प्रवृत्ति अधिक मिलती है। इस काल के व्यक्ति के लिए ऐसे उपदेश शायद
आवश्यक रहे होंगे।
‘सरल पंचतंत्र’ की भूमिका
के लेखक विष्णु प्रभाकर के अनुसार—‘पंचतंत्र की मूल कथा
गुणाढ्य रचित ‘बृहत्-कथा’ नामक ग्रन्थ पर आधारित है। उक्त ग्रन्थ के कुछ प्रसंग
लेकर विष्णु शर्मा ने ‘पंचतंत्र’ की रचना की। गुणाढ्य का समय ईसवी सन् प्रथम
शताब्दी माना जाता है।’ हंसराज अग्रवाल के अनुसार भी—‘असली
‘पंचतंत्र’ दूसरी या तीसरी शताब्दी में रचा गया।’
हितोपदेश में ‘पंचतंत्र’ के अंश भी
संगृहीत हैं। फ्रासिंस जाॅन्सन के अनुसार—ईसवी छठी शती में ही हितोपदेश का अनुवाद ईरान के
सम्राट नौशेरखाँ की आज्ञा से फारसी में किया गया। नवीं शती में फारसी से अरबी भाषा
में और बाद में हिब्रु व ग्रीक भाषा में हुआ। सामाजिक चित्रण के अन्तर्गत इसमें
उपदेशात्मक प्रवृत्ति की प्रधानता है।
मूल ‘कथा-सरित्सागर’ ग्रन्थ की रचना
ग्यारहवीं शताब्दी में हुई। इसके रचनाकार सोमदेव भट्ट हैं। इस ग्रन्थ में 18 लंबक (खण्ड), 124 तरंग (मुख्य कथाएँ) एवं 22000 श्लोक हैं। इसका
भावानुवाद हिन्दी में विष्णु प्रभाकर ने किया है। इस ग्रन्थ में लोककथाएँ, ऐतिहासिक गाथाएँ, पौराणिक वार्ताएँ हैं तथा शिक्षा,
नीति, बुद्धिमत्ता, मूर्खता,
प्रेम, विरह, त्रिया-चरित्र,
भाग्यचक्र आदि से सम्बन्धित रोचक एवं प्रेरक कथाएँ तथा कथाओं के
अन्तर्गत उपकथाएँ हैं। इस काल की अधिकतर लघुकथाएँ अन्तर्गुम्फित हैं।
‘प्राचीन कथाएँ-उपकथाएँ
मात्र उदाहरणों, तथ्य-निरूपणों, गूढ़-सूत्रों
की व्याख्याओं, किन्हीं विचारों की पुष्टियों हेतु रची गई
लगती हैं। फिर वे चाहे महाराज शिवि की कठोर परीक्षा ली जाने से सम्बन्धित हों,
या हंस-हंसिनी व उल्लू का न्याय कराने वाली कथा हो। इनमें अलौकिक
तत्त्वों का आधिक्य है। यहाँ जीवन को भी एक दर्शन माना गया है। व्यक्ति की
आयु-सीमा 100 वर्ष निश्चित कर, सम्पूर्ण
जीवन को चार आश्रमों में विभक्त कर उसके चारों आश्रमों के व्यवहारिक पक्षों के
क्रिया-कलापों तथा कर्तव्यों आदि को सुनिश्चित दिशा दी गई है। देव-चर्चाओं,
धार्मिक-अनुष्ठानों, कर्म-काण्डों, अन्धविश्वासों, आदर्शों आदि के महत्त्व को
प्रतिपादित किया गया है। वैदिक गूढ़-सूत्रों को सरल ढंग से समझाने के लिए उपनिषदों
की रचना की गई जिससे जनसामान्य में समाजगत आदर्शों का ह्रास न
हो और ऋषि-मुनियों तथा साधु-महात्माओं की जो भूमिका समाज में थी, उसकी तस्वीर भी धुँधली न पड़ सके। ये लघुकथाएँ पौराणिक साहित्य को ही
समृद्ध करती हैं। आज की लघुकथाओं पर इनका प्रभाव नगण्य-सा है।’शकुन्तला किरण:
हिन्दी लघुकथा
इस बारे में किंचित् स्पष्टीकरण जरूरी है।
वीरगाथा काल की गाथाओं के बारे में ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में विजयेन्द्र
स्नातक ने लिखा है—‘इस युग केे आख्यानों में लोकतत्व की प्रधानता अनेक स्तरों पर लक्षित की जा
सकती है। ...कथा की शैली में रूपक अर्थात् एलेगरी का विन्यास भी ध्यातव्य
है।...क्या कारण है कि ये कहानियाँ देश के सुदूरवर्ती कोनों तक समान रूप से फैल गई
थीं और सर्वत्र थोड़े-बहुत फेर-बदल के साथ सभी भाषाओं के आख्यानों में पाई जाती
हैं।
कथानक रूढ़ियों के सम्बन्ध में भी इन
आख्यानों का विशेष महत्व है। कथानक रूढ़ि या अभिप्राय जिसे अंगेजी में मोटिफ़ कहते
हैं, लोक-साहित्य के अध्ययन
में अनिवार्य तत्व बन चुके हैं। ये कथानक रूढ़ियाँ विविध प्रकार की हैं। पशु,
पक्षी, देव, दानव,
सरीसृप, वृक्ष, शाप,
वरदान, स्वप्न, संकेत या
अभिज्ञान, प्राण प्रक्षेपण, सत्य
क्रिया, दोहद कामना, अप्सराओं का
साक्षात्कार, राजा आदि का निम्न जाति से प्रेम, मनुष्य का गगनचारी होना, मृत व्यक्ति का जीवित होना,
जल की खोज में प्रिय वियोग, वन में
यक्ष-गन्धार आदि से मिलन, आदि-आदि विविध प्रकार की कथानाक
रूढ़ियों के सांकेतिक अर्थ और उनके प्रचलन की परम्परा का सन्धान इस सन्दर्भ में
आवश्यक है।...केवल चमत्कार या विस्मय उत्पन्न करना ही इनका ध्येय नहीं है।’
आगामी अंक में जारी………
1 टिप्पणी:
जैन लघुकथाओं और बौद्ध कथाओं पर लेकर पिछले दिनों से ही विविध पहलुओं पर चिंतन कर रही थी। लेकिन कुछ भी स्पष्ट तरीके से लघुकथा संदर्भ में जोड़ नहीं पा रही थी कि उन कथाओं को हम हमारे वर्तमान के लेखन से कैसे तालमेल बैठाएँ! लेकिन आज यहाँ आलेख पढ़कर चिंतन को एक सही दिशा-निर्देश मिला है। हमारे वेदों में व रामायन, महाभारत में लघुकथा तत्वों का निहित होना पढ़ना अच्छा लगा। अलग-अलग पैरा में कई सार-तत्व हैं। इस शोध विषय सामग्री-सा
इस आलेख को अभी कई बार पढ़ना होगा,तभी आत्मसात कर पाऊँगी।
आभारी हैं हम आपकी इस देयता के।
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