छठी किस्त
दिनांक 14-6-2016 से आगे………
आवरण : के॰ रवीन्द्र |
अपवादों को छोड़कर दोनों में कथ्य, शिल्प, उद्देश्य एवं प्रभाव के स्तर पर पर्याप्त अन्तर है। इसलिए लघुकथा के
वर्तमान परिदृश्य में आदिकालीन कथाओं की उनके ऐतिहासिक महत्व से इतर भूमिका को
निष्क्रिय माना जा सकता है।’डॉ॰ शकुन्तला किरण
सुप्त काल (सन् 1000 से 1875 तक) की लघुकथाएँ
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हिन्दी
साहित्य का इतिहास’ में हिन्दी साहित्य के 900
वर्षों के इतिहास को चार कालों में निम्नानुरूप विभक्त करके प्रस्तुत किया है—
1. आदिकाल
(वीरगाथाकाल, संवत् 1050-1375 यानी सन् 993-1318 ई.)
2. पूर्व
मध्यकाल(भक्तिकाल, संवत्1375-1700 यानी सन् 1318-1643 ई.)
3. उत्तर
मध्यकाल(रीतिकाल, संवत्1700-1900 यानी सन् 1643-1843 ई.)
4. आधुनिक
काल(गद्यकाल, संवत् 1900-1984 यानी सन् 1843-1927 ई.)
यह काल विभाजन विक्रम संवत् में है।
ईसवी सन् में यह विभाजन निम्न प्रकार है—
1. आदिकाल (वीरगाथाकाल, सन्
993-1318 ई.)
2. पूर्व
मध्यकाल(भक्तिकाल, सन् 1318-1643 ई.)
3. उत्तर
मध्यकाल(रीतिकाल, सन् 1643-1843 ई.)
4. आधुनिक
काल(गद्यकाल, सन् 1843-1927 ई.)
सुविधा के लिए इसे हम क्रमशः निम्नवत्
मानकर आगे बढ़ सकते हैं—
1. आदिकाल
(सन् 1000-1325 ई.)
2. पूर्व
मध्यकाल (सन् 1325-1650 ई.)
3. उत्तर मध्यकाल (सन् 1650-1850 ई.)
4. आधुनिक काल (गद्यकाल, सन्
1850 से अद्यतन)
लघुकथा लेखन की दृष्टि से देखें तो सन्
1000 से सन् 1875 तक के काल को हम ‘लघुकथा का सुप्तकाल’
मान सकते हैं। स्वयं शुक्ल जी ने लिखा है—‘संवत्
1860 (सन् 1803 ई.) के लगभग हिन्दी गद्य का प्रवर्तन तो हुआ पर उसके साहित्य की
अखण्ड परम्परा उस समय से नहीं चली। इधर-उधर दो-चार पुस्तकें अनगढ़ भाषा में लिखी गई
हों तो लिखी गई हों पर साहित्य के योग्य स्वच्छ सुव्यवस्थित भाषा में लिखी कोई
पुस्तक संवत् 1915 (सन् 1858 ई.) के पूर्व की नहीं मिलती।...
संवत् 1860 और 1915 के बीच का काल गद्य-रचना की दृष्टि से
प्रायः शून्य ही मिलता है। संवत् 1914 (सन् 1857 ई.) के बलवे के पीछे ही हिन्दी गद्य
साहित्य की परम्परा अच्छी तरह चली।...
पं. जुगुलकिशोर ने, जो कानपुर के रहनेवाले थे, संवत् 1883 (सन् 1826 ई.) में ‘उदंत मार्तंड’ नाम का एक
संवाद पत्र निकाला जिसे हिन्दी का पहला समाचार पत्र समझना चाहिए।...
यह पत्र एक ही वर्ष चलकर सहायता के
अभाव में बंद हो गया। इसमें खड़ी बोली का मध्यदेशीय भाषा के नाम से उल्लेख किया गया
है।’
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘उदन्त
मार्तण्ड’ में प्रकाशित निम्न रचना को यद्यपि भाषा का स्वरूप दिखाने के उद्देश्य
से उद्धृत किया है तथापि यह उस काल के शिक्षित वर्ग की एक प्रवृत्ति-विशेष को भी
हमारे सामने रखती है— एक यशी वकील वकालत का काम करते करते
बुङ्ढा होकर अपने दामाद को यह काम सौंप के आप सुचित हुआ। दामाद कई दिन काम करके एक दिन आया ओ प्रसन्न होकर बोला, हे
महाराज! आपने जो फलाने का पुराना वो संगीन मोकद्दमा हमें सौंपा था सो आज फैसला
हुआ।
यह सुनकर वकील पछता करके बोला, ‘‘तुमने सत्यानाश किया। उस मोकद्दमे से
हमारे बाप बड़े थे तिस पीछे हमारे बाप मरती समय हमें हाथ उठाकर के दे गए ओ हमने भी
उसको बना रखा ओ अब तक भलीभाँति अपना दिन कटा ओ वही मोकद्दमा तुमको सौंपकर समझा था
कि तुम भी अपने बेटे पोते परोतों तक पलोगे पर तुम थोड़े से दिनों में उसे खो बैठे।
‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ के परिशिष्ट
में शुक्ल जी ने लिखा है—पं. वंशीधर ने, जो आगरा नार्मल स्कूल के मुदर्रिस थे, ‘पुष्पवाटिका’ नाम से गुलिस्ताँ के एक
अंग का अनुवाद, संवत् 1909 (सन् 1852) में तथा बिहारीलाल ने गुलिस्ताँ के
आठवें अध्याय का हिन्दी अनुवाद संवत् 1919 (सन् 1862) में किया। डाॅ. बैलंटाइन के परामर्श के
अनुसार इसी सन् में पं. बद्रीलाल ने ‘हितोपदेश’ का अनुवाद किया जिसमें बहुत-सी
कथाएँ छाँट दी गई थीं।
लेकिन इसे उस काल के लेखन की धारा
मानकर आगे बढ़ने का कोई अन्य सूत्र हमें सन् 1875 से 1880 के बीच कभी प्रकाशित भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ‘परिहासिनी’ से पहले नहीं मिलता है। इसीलिए
सन् 1875 तक के काल को हम ‘लघुकथा का सुप्त
काल’ मान सकते हैं।
संधि काल (सन् 1875 से 1970 तक) की लघुकथाएँ
कुछ विद्वानों ने इस काल को ‘लघुकथा का
नवजागरण काल’ भी माना है जो प्रथमदृष्ट्या उचित-सा प्रतीत होता है; लेकिन जब तक यह स्पष्ट न हो कि नवजागरण
किस दृष्टि से? स्वाधीनता प्राप्ति हेतु जनता में चेतना
उत्पन्न करने के लिए, गद्य की या कथा में कथ्य की चेतना
उत्पन्न करने के लिए; या किसी अन्य उद्देश्य से? तब तक इसे नवजागरण काल कैसे माना जा
सकता है! इसे लघुकथा का संधि काल मानने के पीछे दृष्टि यह है कि इस काल में हम
लघुकथा को पहले तो पुराने कथ्यों को नयी भाव भंगिमा में प्रस्तुत होते देखते है, तत्पश्चात् उनसे पूरी तरह मुक्त होकर
आधुनिक जनजीवन के कथ्यों और तेवरों को अपना लेती पाते हैं। सन् 1876 में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की पुस्तक
‘परिहासिनी’ प्रकाशित हुई। ‘भारतेन्दु ने ‘परिहासिनी’ को ‘कथा-कहानी’ की पुस्तक न
कहकर ‘हँसी, दिल्लगी, पंच, चीज की बातें और चुटकिले’ का संग्रह
कहा है; और निःसन्देह यह ‘पहली लघुकथा पुस्तक’
है भी नहीं। परन्तु क्या यह सम्भव नहीं है कि अंग्रेज हुक्मरानों और उनके पिट्ठुओं
को धोखा देने के लिए ऐसा उन्होंने जानबूझकर किया हो? इसके प्रथम उपशीर्ष ‘चीज की बातें’ में ‘चीज’ क्या है?—यह विचारणीय है। दूसरे, ‘पंच’ क्या है?—यह भी विचारणीय है। ‘चीज’ यानी
‘वस्तु’ अर्थात् वह, जिसे उपयोग हेतु ग्रहण किया जा सके।
‘चीज की बातें’ अपने आप में एक अनोखा शब्द-प्रयोग है। रचना के, वह भी कथात्मक रचना के सन्दर्भ में
‘वस्तु’ का क्या महत्व है,
इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है।
मुक्के के एक ही वार में दीवार फोड़ देने के लिए अंग्रेजी में ‘पंच’ शब्द का प्रयोग
किया जाता है। इसीलिए मुक्केबाजी का यह तकनीकी शब्द है। साहित्य में इसका
निहित-अर्थ व्यक्ति को तिलमिलाकर रख देने वाला प्रहारपूर्ण वक्र वाक्य-प्रयोग है।
निश्चय ही यह ‘आइरनी’ से भिन्न प्रकृति रखता है। यही कारण है कि ‘परिहासिनी’ में
‘चीज की बातें’ उपशीर्ष के अन्तर्गत संकलित गद्य रचनाएँ मात्र चुटकुला नहीं हैं।
वे ‘चीज’ और ‘पंच’ दोनों प्रकार की रचनाएँ हैं। ‘मुँहतोड़ जवाब’ व ‘लाला साहब का
रामचेरा’ हाजिर-जवाबी (Wit) का तथा ‘अद्भुत संवाद’ प्रहारपूर्ण वक्र-वाक्य (Punch)
का अनुपम उदाहरण है। परन्तु ‘अंगहीन धनी’ एक असाधारण गद्य-कथा है। वस्तुतः ‘अद्भुत
संवाद’ और ‘अंगहीन धनी’—ये दोनों ही रचनाएँ भारतेन्दु की प्रतिभा और देश-काल
सापेक्ष जीवन-दृष्टि को गहराई के साथ प्रस्तुत करती हैं। इनमें ‘अंगहीन धनी’ में
परिस्थितियों को गंभीरता के साथ और ‘अद्भुत संवाद’ में मसखरेपन के साथ पाठकों के
समक्ष रखा गया है। गहन-गंभीर प्रकृति के कारण ‘अंगहीन धनी’ का प्रभाव स्थाई बना
रहता है, जबकि मसखरेपन के कारण वही बात ‘अद्भुत
संवाद’ मात्र बनकर रह जाती है, भुला
दी जाती है। तथापि सन्देश दोनों रचनाओं में लगभग एक ही है। पाठकों के
चिंतन-मनन-विश्लेषण हेतु यहाँ प्रस्तुत हैं दोनों रचनाएँ :—
।। अंगहीन धनी ।। एक धनिक के घर उसके बहुत-से प्रतिष्ठित
मित्र बैठे थे। नौकर बुलाने को घंटी बजी। मोहना भीतर दौड़ा, पर हँसता हुआ लौटा।
और नौकरों ने पूछा, “क्यों बे, हँसता क्यों है?”
तो उसने जवाब दिया, “भाई, सोलह हट्टे-कट्टे जवान थे। उन सभों से एक बत्ती न बुझे। जब हम गए, तब बुझे।”
।। अद्भुत संवाद ।।
“ए, जरा
हमारा घोड़ा तो पकड़े रहो।”
“यह कूदेगा तो नहीं?”
“कूदेगा! भला कूदेगा क्यों? लो सँभालो।”
“यह काटता है?”
“नहीं काटेगा, लगाम पकड़े रहो।”
“क्या इसे दो आदमी पकड़ते हैं, तब सम्हलता है?”
“नहीं।”
“फिर हमें क्यों तकलीफ देते हैं? आप तो हई हैं।”
यहाँ इस भ्रम का कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
इनके लेखक नहीं हैं और ‘इनके लेखक नई शोध होने तक अज्ञात हैं’ निवारण आवश्यक है।
शोध एक तथ्यपरक विधा है। आधे-अधूरे तथ्यों की प्रस्तुति और पूर्वाग्रहग्रस्तता इसे
भ्रष्ट करते हैं।
पहली बात तो यह कि ‘भारतेन्दु समग्र’
में पृष्ठ 1066 पर ‘परिहासिनी’ को प्रस्तुत करने के
क्रम में इसके सम्पादक हेमन्त शर्मा ने अपनी ओर से एक टिप्पणी लिखी है—‘अपने मित्रों के लिए ‘हँसी’,
‘दिल्लगी’, ‘चीज की बातें’ और ‘चुटकुले’ भारतेन्दु
ने लिखे थे, बाद में जिसका संग्रह ‘परिहासिनी’
उन्होंने स्वयं प्रकाशित कराया था। इसका रचना काल 1875 से सन् 1880 के बीच है।’
दूसरी, उक्त पुस्तक (परिहासिनी) पर टिप्पणी—‘निज मित्रगण ठाकुर कविराज श्यामल दास जी, राजा गिरि प्रसाद सिंह, बाबू बदरी नारायण चौधरी, बाबू बालेश्वर प्रसाद और बाबू दुर्गा प्रसाद के चित्त विनोद
के अर्थ हरिश्चन्द्र ने संग्रहीत किया।’
ऊपर हेमन्त शर्मा ने लिखा है—‘भारतेन्दु ने लिखे’ और नीचे मुद्रक की
ओर से अथवा स्वयं भारतेन्दु जी की ओर से घोषणा है—‘हरिश्चन्द्र ने संग्रहीत किया।’ तो क्या आप यह कहना चाहते हैं कि
भारतेन्दु ‘संग्रह’ और ‘संकलन’ के बीच अन्तर को नहीं जानते थे; या फिर यह कि भारतेन्दु ने दूसरों के
लिखे चुटकुले यहाँ-वहाँ से संकलित कर जानबूझकर अपने नाम से प्रकाशित करा लिये! अगर
आप ऐसा मानते हैं तो निःसन्देह, भारतेन्दु को जानते ही नहीं हैं। वह कितनी हँसोड़ तबियत के व्यक्ति थे और उनमें
कितना साहसपूर्ण ‘विट’ भरा था, उसके
अनेक उदाहरण हेमन्त शर्मा ने भी ‘भारतेन्दु समग्र’ में दिये हैं।
तीसरी और अन्तिम बात—प्रचलित कथाएँ जब किसी समर्थ कथाकार
द्वारा विशिष्ट उद्देश्य से विशिष्ट शिल्प और शैली में रच दी जाती हैं तो उनकी
जन-स्वीकृति उसी के अनुरूप बनती है। उदाहरण के लिए, तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ के प्रारम्भ में ही स्वीकार किया—नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।...यानी विभिन्न पुराणों में, शास्त्रों
में, वाल्मीकि रामायण में तथा कुछ अन्य
स्थानों से भी यह सामग्री मैंने जुटाई है।
पूर्वकालीन लघुकथाओं के विस्तृत अध्ययन
से यह तो सिद्ध होता है कि ‘समकालीन लघुकथा’ का स्वरूप ‘लघुकथा’ चिह्नित
पूर्वकालीन कथाओं से सर्वथा भिन्न है तथापि पूर्वकालीन कथाओं की भूमिका को
निष्क्रिय अथवा निष्फल नहीं माना जा सकता।
अप्रैल 1990 में कमलेश भट्ट ‘कमल’ से लघुकथा के
मुद्दे पर बातचीत करते हुए डाॅ. कमल किशोर गोयनका ने कहा—‘समय के बदलने से साहित्य बदलता है और
उसकी अभिव्यक्ति का स्वरूप भी। इसीलिए प्राचीन कथाओं और आज की लघुकथाओं में अन्तर
होना स्वाभाविक है और यह अन्तर भविष्य में भी आने वाला है। क्या आप ये मानेंगे कि
इक्कीसवीं शताब्दी की लघुकथा आज की लघुकथा के समान ही होगी?’ पूर्वकाल की लघुकथाओं के बाद की
लघुकथाओं के बारे में डाॅ. शकुन्तला किरण का मानना है कि—‘सन् 1900 में ‘सरस्वती’ के प्रकाशन से हिन्दी-जगत को एक नई दिशा मिली। सन् 1900 से 1930 तक ‘चाँद’,
‘मतवाला’, ‘मौजी’, ‘साप्ताहिक जागरण’, ‘आज’, ‘भूत’, ‘बंगवासी’, ‘श्री वेंकटेश्वर समाचार’, ‘भारत-मित्र’, ‘प्रताप’ इत्यादि पत्रों एवं ‘माधुरी’, ‘प्रभा’, ‘सत्यभामा’,
‘हंस’, ‘इन्दु’ आदि पत्रिकाओं की धूम थी।
इन पत्र-पत्रिकाओं ने लघुकथा को कोई
महत्त्व नहीं दिया। इन पत्रकारों के सामने दो बड़े उद्देश्य थे—पहला, देश की आजादी तथा दूसरा, हिन्दी
साहित्य की विधाओं को समृद्ध करने की प्रतिस्पर्धा।’
आगामी अंक में जारी………
1 टिप्पणी:
लघुकथा का इतिहास पढ़ने जैसा लगा। लघुकथा काल का सुप्त अवस्था का चिंतन और संधि काल की विवेचना पढ़ना अच्छा लगा। 'परिहासिनी' को लेकर मन में कई बार प्रश्न उठा है पहले भी,पूरी तरह से तो नहीं,लेकिन कुछ हद तक शंकाओं का निवारण मिला है।
मुझे इस श्रृंखला का हमेशा इंतजार रहता है। सोचती रहती हूँ कि अगले हफ्ते हम अब लघुकथा के कौन से पहलुओं को जानेंगे।
लघुकथा वाकई में चीज तो छोटी ही है लेकिन इसकी कथा वाकई में अनंता है।
अभिनंदन आपका।
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