शनिवार, 11 मई 2024

लघुकथा में मूल्य-बोध भाग-1/बलराम अग्रवाल

4 कड़ियों में समाप्य लम्बे लेख की पहली कड़ी
 
जिन आलोचकों ने अभी तक लघुकथा को समझने की कोशिश नहीं की है, इसे मिसइंटरप्रेट करने में सबसे अधिक हाथ उन स्वनाम धन्य आलोचकों 
का रहा है। दूसरा महत्वपूर्ण हाथ, प्रतिष्ठा प्राप्त कुछ लघुकथाकारों का भी रहा है। उन्होंने लघुकथा में शब्द संख्या का बखेड़ा खड़ा किया। स्थानीय संस्करण वाले कुछेक अखबारों को सामान्य पाठक वर्ग के लिए चुटकुलेनुमा अथवा भावुकता की चाशनी में लिपटे कथात्मक फिलर चाहिए होते हैं। ऐसे ही फिलर कुछेक पत्रिकाओं की भी विवशता बन जाते हैं। लेकिन कुछ पत्रिकाएँ हैं जो चुटकुलों अथवा भावना-प्रधान कथाओं की तुलना में कुछ बेहतर चयन को प्रस्तुत करती हैं और लघुकथा की विधापरक यात्रा को किंचित सुगम बना पाती हैं तथापि ऐसी पत्रिकाओं की संख्या इन दिनों लगभग नगण्य है। महत्वपूर्ण समझे जाने वाले आलोचकों का मिसइंटरप्रिटेशन ही वह कारण रहा कि लघुकथा के महत्वपूर्ण मुद्दों को साफ करने के लिए लघुकथाकारों को स्वयं सामने आना पड़ा। ऐसे ही दबावों के चलते, पूर्व में नयी कविता और नयी कहानी के रचनाकारों को अपनी विधा की पैरवी के लिए आलोचना के क्षेत्र में उतरना पड़ा था। इसलिए आलोचना के इतिहास में यह पहला अवसर नहीं है, जब लघुकथा को समझने की शक्ति प्रदान करने के लिए लघुकथाकार को सृजक के साथ-साथ आलोचक और व्याख्याकार बनना पड़ा। लघुकथा की ताकत की सही पहचान कराने के लिए यदि भगीरथ, अशोक भाटिया, कमल चोपड़ा, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, सत्यवीर ‘मानव’, सुकेश साहनी, रामकुमार घोटड़ आदि रचनाकार ऐसा न करते तो बहुत सम्भव था कि लघुकथा की सही ताकत भी पहचान में न आती।

लघुकथा बहुआयामी है, यह तो सभी स्वीकार करते हैं और यह कहना आसान भी है। फिर मुश्किल क्या है? मुश्किल है उसके सभी आयामों पर खुली चर्चा करना। ऐसा क्यों? इसलिए कि आज तक लघुकथा के एक-एक रचनाकार को लेकर बात करना अभी शेप है। ‘पड़ाव और पड़ताल’ के माध्यम से मधुदीप ने एक शुरुआत की थी। उनके बाद भगीरथ और अशोक भाटिया ने लघुकथाकार केन्द्रित पुस्तकों की रचना की। ऐसे एक-दो छिटपुट कार्य और लेखकों ने किए, लेकिन वे ऊँट के मुँह में जीरा ही साबित हुए हैं। लघुकथा की प्रथम पंक्ति की एक परम्परा स्थापित हो चुकी है और इस परम्परा-बोध के लिए स्वतन्त्र आलोचकों का आगे आना नितान्त आवश्यक है। अनेक सक्षम लघुकथाकारों के सृजन का मूल्यांकन होना अभी शेष है। ‘अभी समय नहीं आया है’ कहकर लघुकथा और इसके सर्जकों की प्रथम पंक्ति के मूल्यांकन को टालना अब किसी भी दृष्टि से श्रेयस्कर नहीं कहा जा सकता।

लघुकथा में मूल्यबोध क्या है? इसका विस्तृत विश्लेपण अभी तक नहीं हुआ है। सम्पूर्ण मूल्य-प्रेक्षण एक जोखिम भरा काम है। फिर भी, कभी न कभी, किसी न किसी के द्वारा तो यह किया ही जाना है। लघुकथा में मूल्य की बात को मैंने अपने ढंग से सोचा और कहा है। बहुत सम्भव है कि कुछ मित्रों को यह पसन्द न आये लेकिन उस ना-पसन्दगी का कारण उन मित्रों को जरूर खोजना होगा । हुआ यों कि अब से कुछ वर्ष पहले, अपने एक लेख में एक लेखिका की किसी लघुकथा को मैंने निम्नतर आँका था। उसे पढ़कर हमारे एक मित्र जो उन महिला लेखिका की सहानुभूति लूटना चाहते होंगे, बोले—‘आपने इनकी लघुकथा की कटु आलोचना लिखी है क्योंकि अवश्य ही इन्होंने अपनी पत्रिका में आपकी किसी रचना को स्थान नहीं दिया होगा।’ उनका यह आकलन अत्यन्त निम्न स्तर का था। इसलिए नहीं कि उन्होंने इसे मेरे सन्दर्भ में कहा बल्कि इसलिए कि उन्होंने उक्त रचना को देखे-पढ़े बिना मेरे आकलन पर टिप्पणी करने की धृष्टता की। आलोचना कटु है या मृदु है, इसका आकलन रचना को पढ़े बिना कैसे किया जा सकता है?

लघुकथा के सदर्भ में बदलते हुए मूल्यों और प्रतिमानों की चर्चा उनके वांछित सन्दर्भों तक नहीं हुई है। वस्तुत: अपने कलागत संदर्भों में मूल्य जिस जागरूकता को उत्तेजित करते हैं, परिवर्तित मूल्यों की चेतना उस जागरूकता के परिणामस्वरूप रचनात्मक आधारों पर प्रतिष्ठित होती है ।

समकालीन लघुकथा की ‘रचनाभूमि’ प्रचलित और स्थापित मूल्यों के अस्वीकार और निषेध की ओर अग्रसर मानी जा सकती है। इस समग्र मूल्य-प्रसंग में 'मूल्यों' के पारिभाषिक स्रोत का परीक्षण अनिवार्य हो जाता है।

'मूल्य' क्या है? इस प्रश्न के साथ हम सहज ही नीतिशास्त्र की सीमाओं में प्रविष्ट हो जाते हैं। 'मूल्य' शब्द अर्थशास्त्र से आया है और वहाँ इसका प्रयोग (1) किसी वस्तु की मानवीय आवश्यकता अथवा इच्छा-पूति की क्षमता और (2) अन्य वस्तुओं से विनिमय से प्राप्त किसी वस्तु के माप के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए, आधुनिक समय में वस्तु के मूल्य के रूप में मुद्रा को माना और सम्बोधित किया जाता है।

क्योंकि 'मूल्य' की स्थिति मनुष्य में है, किसी वस्तु में नहीं इसलिए 'मूल्य' की कल्पना मनुष्य को उसके पूर्ण अस्तित्व में स्वीकार करके ही संभव है । मूल्यों का निर्धारण अथवा संचालन मनुष्य ही करता है और मूल्य भी मनुष्य की आवश्यकता के अनुरूप ही बनते या बिगड़ते है। 'मूल्य' का तात्विक विश्लेषण करने के क्रम में विद्वानों द्वारा स्पष्ट कहा गया है कि आन्तरिक मूल्य मानव की इच्छा, आकांक्षा या परितोष पर आश्रित रहता है न कि वस्तु-आश्रित। इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य है कि—'मूल्य-मान को वस्तु में नहीं, बल्कि वस्तु से उद्भुत इच्छाओं और इच्छाओं की पूर्ति के रुप में देखना होगा ।’

हमें याद रखना चाहिए कि ‘कोई भी वस्तु अपने-आप में मूल्यवान नहीं होती, बल्कि उस वस्तु से मिलने वाला सुख या आनन्द ही अपने-आप में एक मूल्य होता है। 'मूल्य' कोई मूर्त्त वस्तु नहीं, बल्कि एक अवधारणा, एक अनुभव है।

कोई भी वस्तु मूल्यवान तो हो सकती है, लेकिन वह अपने आप में मूल्य नहीं हो सकती । मूल्य अमूर्त्त है। व्यक्ति उसे भोगता है और अनुभव के स्तर पर उसे जीता है । यह अनुभव इन्द्रिय-गम्य न होकर कल्पना के स्तर का अनुभव होता है। यह अनुभव ही किसी वस्तु को मूल्यवान बनाता है। 'मूल्य' का अस्तित्व वस्तु पर नहीं, व्यक्ति की इच्छा पर आधारित होता है। हर मान्यता की अस्वीकृति के बाद मनुष्य के पास अपने अनुभव को स्वीकार करने के सिवा कोई अन्य चारा नहीं होता । मूल्य-बोध से सम्बद्ध किसी भी सवाल पर विचार करते हुए हमें इस तथ्य को दृष्टिगत रखना होगा कि—'मानव-अस्तित्व की व्याख्या के अतिरिक्त मूल्यों का कोई सदर्भ नहीं है।’

साहित्य के सन्दर्भ में अक्सर ही नैतिक मूल्य, सामाजिक मूल्य या सौदर्य-मूल्य जैसे शब्द सुनने को मिलते हैं। वास्तविकता यह है कि मनुष्य के बिना इन मूल्यों की कल्पना नहीं की जा सकती है।

मूल्य नैतिक हों, सामाजिक हों, सौंदर्यगत हों या दार्शनिक, उनका सीधा और गहन सम्बन्ध सम्वेदनात्मक व्यक्तित्व से ही होता है। इसलिए  सभी 'मूल्य', 'मानव-मूल्य' ही होते हैं। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि, मानव-मूल्य अनिवार्यत: मानव-अस्तित्व से ही सम्बद्ध हैं। मानव जीवन में प्रयुक्त विभिन्न संस्कारों, घटना-प्रवाहों, सामाजिक दायित्वों के वैचारिक ग्रहण के अलावा किसी भी मानव मूल्य का कोई मतलब नहीं है।

शेष आगामी अंक में

(मेधा बुक्स, दिल्ली-32 से प्रकाशित पुस्तक 'लघुकथा का साहित्य दर्शन' में संकलित)

कोई टिप्पणी नहीं: