गुरुवार, 23 मई 2024

सतीश दुबे और लघुकथा-विधा-3 / बलराम अग्रवाल

 (गतांक से जारी..../ समापन किस्त)

किसी भी शासन-व्यवस्था के दौरान न्याय और मूलभूत सुविधाएँ मिलने के प्रति सामान्य-जन की आस्था का डिग जाना यानी शासन का दायित्वहीन और पतनशील हो जाना। बिजली-पानी और रोजगार-जैसी मूलभूत सुविधाओं की इच्छा रखने वाले आदमी को समाज में आज ‘ये तो साला सचमुच पागल है!’ का रिमार्क मिलता है। यह ‘भीड़ में खोया आदमी’ है। अनास्था और अविश्वास की भीड़ में किसने धकेला इसे और क्यों? कभी-कभी धकेला नहीं जाता, व्यक्ति स्वयं ही उस जंगल में कूद पड़ता है; इसलिए कि लगातार अवहेलना से वह हताश हो चुका होता है। उसने मान लिया होता है कि मूलभूत सुविधाओं और वांछित न्याय की कल्पना भी करना इस देश में पागलपन है।

जन-सुविधा देने के लिए नियुक्त अधिकारी ही अगर बहू-बेटियों से अनाचार करने लगें तो सामान्य व्यक्ति का पागल हो जाना और अधिकारियों को ‘भूत’ जैसा आततायी समझ लेना आश्चर्यजनक नहीं रह जाता है। लघुकथा ‘ड्रेस का महत्व’। इस

के शीर्षक में प्रयुक्त ‘महत्व’ में ‘आतंक’ की व्यंजना है। भारत में आपात्काल के दौर का परिदृश्य घुटनों से नीचे तक लम्बे कुर्ते और कम मोहरी वाले सफेद बुर्राक पाजामे का रहा है। यह ड्रेस ही अपने-आप में राजनीतिक आतंक का पर्याय बन गयी थी।

बड़़े बाबू को बुलाने के लिए उन्होंने इस बार घण्टी किरकिराई तथा आदेश दिया, ‘‘नेता टाइप ड्रेस पहननेवाले जितने भी बाबू हों, सबके ट्रान्सफर प्रपोजल ले आओ।’’

स्पष्ट है कि आपात्काल का आतंक उतर जाने के बाद ही किसी अधिकारी ने ऐसे आदेश पारित करने का साहस किया होगा।

लघुकथा में कहानी-सी रोचकता कोई नई बात नहीं है। आठवें-नौवें दशक में लिखित अनेक लघुकथाओं में यह गुण मिल जाता है। सतीश दुबे की ‘स्टेच्यू’ इसका अनुपम उदाहरण है। ‘सल्तनत कायम है’ जैसी सरदारों/शासकों के आतंक से परिपूर्ण लघुकथाएँ वस्तुत: आपात्काल में सत्तादल के आतंक के अन्योक्तिपरक चित्रण की कोशिशों का ही परिणाम रही हैं।

‘विनियोग’ मानव-हृदय की स्वाभाविक आर्द्रता की अत्यन्त प्रभावपूर्ण लघुकथा है। इस लघुकथा में कमाल का अंकन यह भी है कि जब बच्चा अपनी गाँठ के पचास पैसे खर्च नहीं कर रहा था, तब पिता उसकी समस्त कृपणता के लिए सोचता है कि ‘यह शिक्षा उसे अपनी पाठशाला में मिल रही है। उसकी मम्मी भी जोड़-तोड़ के साथ पैसा खर्च करती है।’ लेकिन जब वह एक गरीब बच्चे को अपनी समूची पूँजी सौंप आने की बात उसे बताता है तब ‘पाठशाला’ और ‘मम्मी’ की शिक्षा का विचार उसके मस्तिष्क में एक बार भी नहीं आता है। ‘फैसला’ के केन्द्र में भूख है; भूख, जो दिखाई नहीं देती और गरीबों को पीढ़ी दर पीढ़ी पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त होती रहती है। भूख बस भूख होती है। वह किसी संस्कार या नैतिकता को नहीं जानती-पहचानती। न ही उसकी कोई उपयुक्त उपमा हो सकती है। ‘अहसास’ का आठ वर्षीय बच्चा इस सत्य का प्रमाण है। ‘पासा’ दुबे जी की बहुचर्चित, बहु-उद्धृत लघुकथा है। आठवें दशक के पूर्वार्द्ध में रचित यह लघुकथा मनोविश्लेषात्मक अध्ययन की अच्छी सामग्री सिद्ध होती रही है। ‘पाँव का जूता’ बेबसी, पुत्र-प्रेम और पिता की सुश्रूषा के बीच खड़े निर्धन व्यक्ति का यथार्थ चित्रण है जो एकबारगी तो दवा-विक्रेता को भी डरा देता है।

अपनी बात को सम्प्रेषित करने के लिए कवि और कथाकार कभी-कभी प्रचलित लोक-मान्यताओं से इतर ऐसी छूट भी ले लिया करते हैं जो तथ्यपरक भी न लगें। मुझे लगता है कि ऐसी ही एक छूट दुबे जी ने ‘मोक्ष’ में ली है, लड्डू गोपाल को गिरवी रखवाकर। हर अन्यायी के हृदय में कुछ नैतिक भय भी होते हैं। सूदखोर भी इस भय से मुक्त नहीं रहते हैं। मेरा अनुमान है कि पूजा की मूर्तियों को मुनाफे का सौदा मानकर चोर चुरा लेते हैं और पुरातात्विक वस्तुओं के व्यापारी उन्हें खरीदते भी हैं, लेकिन कोई सूदखोर उन्हें गिरवी नहीं रखता है।

‘वादा’, ‘अतिथि’ और ‘अन्तिम सत्य’ साम्प्रदायिक मेल-मिलाप, हिन्दू-मुस्लिमों के मध्य आशंकाओं के घटाटोप और सद्भाव की अच्छी लघुकथाएँ है। ‘चाण्डाल’ उन लोगों का चरित्र खोलती है जिनके बारे में कहावत है—बूढ़ा मरे या जवान, हमें हत्या से काम। ‘प्रायश्चित’ को पढ़ते हुए पाठक बहुत जल्द समझ जाता है कि युवक और वृद्धा द्वारा नर्मदा में उतरने को बाध्य की जा रही युवती से उनका क्या सम्बन्ध होगा; फिर भी संवादों के माध्यम से इसे रहस्य की तरह अनावश्यक खींचा गया है। बहू को उक्त समूचे परिवार का स्नेह मिलना निश्चित ही गर्व और संतोष का विषय है जो पाठक को सुखानुभूति कराता है। इसमें प्रायश्चित के बिन्दु तलाशना मुमकिन नहीं है। ‘पागल’ लगभग अर्थहीन रचना है। इन कथानकों से कहीं बेहतर और संवेदनशील रचनाएँ उर्दू कथाकार मंटो के पास हैं और वे सब की सब लम्बे समय से हिन्दी में भी उपलब्ध हैं। ‘आस का बिरवा’ अबूझ पहेली-सी लघुकथा है। मजदूरी के लिए घर से निकले मजदूर के सामने अगर यह सवाल खड़ा हो कि ‘प्राथमिकता’ किसे दी जाए, टक्कर मारकर गिरा देने वाले टैम्पो ड्राइवर से मिलने वाले मुआवजे को या इंतजार कर रही मजदूरी को? तब, ईमानदार मजदूर निश्चित रूप से मजदूरी को ही प्राथमिकता देगा।  

‘बौड़म’ की व्यंजना अद्भुत है। इस बदले हुए समय में ईमानदारी, नैतिकता  और संवेदनशीलता कितनी बड़ी गालियाँ है, इस बात को वह भुक्तभोगी ही बेहतर जानता-समझता है जिसने ईमानदार और नैतिक रहने का अपराध किया हो। इस कथा के पात्र ‘वह’ पर कथाकार टिप्पणी करता है—

वह तेज चाल से अपने रास्ते पर बढ़ा, पर उस तेजी में भी महसूस कर रहा था कि अन्य लोगों की अपेक्षा उसकी चाल बहुत धीमी है।

         वर्तमान दैनन्दिन समय में हम देखते ही हैं कि वाकई, व्यावहारिक जीवन में सफलता की दृष्टि से ईमानदार और नैतिक लोगों की चाल बहुत धीमी सिद्ध होती है और दूसरों की तुलना में वे पिछड़ ही जाते हैं। कोई असहाय वृद्धा झोपड़ी को स्वाहा कर डालने वालों की क्या ‘शिनाख्त’ करे, जब स्वयं वे ही उसके मददगार होने का स्वांग भरते हुए सामने आ खड़े हों! कार्य के प्रति समर्पित और संकोचशील व्यक्ति का इस्तेमाल मालिक तो करता ही है, साथी-गण भी करते हैं। ऐसे व्यक्ति को हमेशा प्रशंसा की कटार से हलाल किया जाता है। लेकिन उसी व्यक्ति को अगर भोजन करने तक की छूट न मिले तो वह मालिक और संगी-साथी सबसे ‘मुक्ति’ पा लेने जैसे आवेग से युक्त भी हो उठता है। उल्लेखनीय संकेत और स्थापना यह है कि व्यक्ति के व्यवहार में समर्पण और संकोच के साथ ही कार्य-विवेक भी आवश्यक है। ‘मुक्ति’ का कामता यदि समय पर काम और समय पर भोजन के नियम पर चलता तो एकदम उग्र होकर उसे काम छोड़कर न भागना पड़ता। ‘मटमैले आकाश के बीच’ मानवीय संवेदनशीलता और नैतिकता की एक किरण हमेशा मौजूद रहती है। ‘मर्द’ सकारात्मक सोच की साहसपूर्ण कथा है। नयी पीढ़ी का महेन्द्र सिंह राणा जिन ‘नीच’ लोगों को गाँव से निकाल बाहर करने की मंशा रखता है, उनके बारे में अनुभवी ‘बाबा’ का लम्बा उपदेश इसमें है। ‘गरीब और गरीबी गाँव की रीढ़ हैं’ लघुकथा ‘रीढ़’ में बाबा का यह सूत्र-वाक्य है। कस्बा, नगर, महानगर, प्रांत, देश और विश्व के सभी शासक इस सूत्र-वाक्य का अनुसरण करते आये हैं। अब, महेन्द्र राणा के रूप में नये कर्णधारों ने भी इसी सूत्र पर चलने का मन बना लिया है।

‘बिना नोटिस के फैक्ट्री में तालाबन्दी हुए महीनों-दर-महीनों बीतते जा रहे थे।’ लघुकथा ‘शैतान की भाषा’ के इस प्रारम्भिक वाक्य में गलत शब्द-प्रयोग है। ‘महीनों-दर-महीनों बीतते जा रहे थे’ के स्थान पर ‘महीना-दर-महीना बीतता जा रहा था’ होना चाहिए। ‘दर’ दो इकाईयों की अनवरतता को ध्वनित करता है। जैसे, कदम-दर-कदम, सीढ़ी-दर-सीढ़ी, साँस-दर-साँस आदि।

‘‘प्रेसिडेण्ट! तुमने कहा था ना, शैतान सज्जनता की भाषा नहीं समझता! उसे उसी की भाषा में जवाब देना पड़ता है। तुम्हारी मूठ तुम पर ही उतारता हूँ। तुम जैसी गालियाँ नहीं दूँगा, तुम्हारी करतूतों और चेहरे को सबके सामने नंगा करूँगा।’’

यह जनवाद ही लघुकथा ‘शैतान की भाषा’ का स्थापत्य है। ‘राजा की टाँग’ में प्रतीकात्मकता है। इस प्रतीकात्मकता को स्वयं दुबे जी ने दो सूत्रों के सहारे खोला है। पहला सूत्र यह कि—‘राजा कभी-न-कभी लंगड़ा होता ही है और यदि नहीं होता है तो मानिए वह निरंकुश है’ तथा दूसरा यह कि—‘राजा के सिर पर या तो तलवार गिरती है या उसकी टाँग टूटती है। मगर अवसर मिलने पर वह राजगद्दी पर जरूर बैठे, यह न सोचे कि भविष्य में क्या होगा’।

‘बर्थ-डे गिफ्ट’ बाल-मन के स्नेहसिक्त भावों को अभिव्यक्ति देती अति उत्तम लघुकथा है। लघुकथा ‘गन्ध’ में मात्र गन्ध ही नहीं, कई-कई जीवन-रस भी समाहित हैं। स्त्री और पुरुष, दोनों में ‘काम’ अक्सर एक विकार के रूप में भी होता है। दोनों सोचते हैं कि ‘रतिक्रिया’ सम्पन्न नहीं हुई तो ‘वह’ कुछ गलत अनुमान न लगा बैठे। सम्भवत: इसी सोच और मन:स्थिति के बीच सुबोध शादी के तुरन्त बाद गाँव के घर से शहर चले जाना चाहता है। वह पत्नी से कहता है—‘…यहाँ हमारी सुहागरात मनेगी क्या, तुम्हीं सोचो!’ लेकिन स्मिता ‘काम’ के दबाव से अलग पारिवारिक मूल्यों को महत्व देती है और इस तरह पति-पत्नी दोनों का शहर जाना टल जाता है। मूल्यों की रक्षा को केन्द्र में रखकर कम लघुकथा लेखन नहीं हुआ है। वस्तुत: मूल्य ही हैं जो किसी रचनाकार की लेखनी और मस्तिष्क को जगाए रखते हैं, उसे उसे सक्रिय बनाए रखते हैं। ऐसी कथाओं का अन्त आदर्शवादी ढंग से करने का चलन पुराना है, उसी का अनुसरण इसमें भी हुआ।

लघुकथा ‘भीड़’ के सरदारजी ने बहुत कोशिश की कि भीड़ में से कोई एक व्यक्ति भी मजदूर के ठेले को टक्कर मार देने वाले ट्रक के खिलाफ गवाही देने को तैयार हो जाए; लेकिन असफल रहे। अन्तत: मजदूर, उसकी पत्नी और टूटे ठेले को वहीं पड़ा छोड़, अपना सामान दूसरे ठेले पर लादकर वह चले गये। है। सिद्ध यह हुआ कि ‘भीड़’ का चरित्र नहीं हुआ करता और न व्यापारी का ही, भले वो सरदार ही क्यों न हो।

मजदूर और धनहीन जीवन की विभिन्न त्रासदियों पर डॉ॰ दुबे ने अनेक लघुकथाएँ रची हैं जिनमें से कई का जिक्र प्रकारान्तर से हो भी चुका है। ‘फूल’ और ‘बौना आदमी’ भी ऐसी लघुकथाएँ है, जिनमें शीर्षक से ही व्यंजना प्रारम्भ हो जाती है। स्वतन्त्र भारत में नेताओं और प्रवचनकारों की कौन-सी पीढ़ी विकसित हुई है, इस सत्य का ब्यौरा लघुकथा ‘उद्धारक’ में मिलता है। दुबे जी के अनेक ऑब्जर्वेशन्स उल्लेखनीय हैं और सभी को उस गहन दृष्टि और अभिव्यक्ति की ओर प्रेरित करते हैं। प्रत्येक कथा-लेखक को तो अवश्य ही इन ऑब्जर्वेशन्स पर ध्यान देना चाहिए। कुछेक ये हैं—

इसी बीच एक व्यक्ति आया और उसने मदन-दा के कान में मच्छरों जैसा कुछ गुनगुन किया।    (उद्धारक)

बैंच आत्माहीन देह की तरह लम्बी पड़ी थी। (बौना आदमी)

मानसून समुद्र की गहराई या पहाड़ की किसी खोह में लुप्त हो गया था।                                                 (पेड़ों की हँसी)

दुबे जी की लघुकथाओं में लोक-विश्वासों को भी स्थान मिला है। ‘पेड़ों की हँसी’ के केन्द्र में यह लोक-विश्वास है कि पेड़ अगर हँसेगे नहीं, खुशी से झूमेंगे नहीं तो बारिश नहीं होगी। दुबे जी ने एक शब्द रिश्ताई (लघुकथा ‘रिश्ताई नेहबन्ध’) भी लिखा है। निश्चित रूप से इसका उद्गम रिश्ता शब्द रहा होगा; लेकिन रिश्ताई शब्द सही है, इस पर मैं शंकित हूँ। दूसरी बात, नेहबन्ध ही अपने-आप में अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति है। एक और विशेषण जोड़ने की शायद आवश्यकता नहीं थी। उम्मीद है कि कोई आलोचक इस शंका पर प्रकाश डाल सकेंगे। लघुकथा ‘कत्ल’ को अगर गहराई से देखें तो यह फिर से एक साहसिक कलम है। इसमें कुरान और उसकी शिक्षाओं पर बात करने न करने के अधिकार तक पर चर्चा है। लघुकथा का समापन यद्यपि विषय से हटकर कहीं और किया गया है तथापि इस लघुकथा का मध्यभाग अत्यन्त सुलगा हुआ है। ‘प्रेम-ब्लॉग’ आत्मालाप शैली की लघुकथा है। लास्ट लेसन प्रेरक। ‘नन्ही समझ’ में बाल-सुलभ मासूम सोच काँटे की नोंक-सी हृदय में गुभती चली जाती है।

लघुकथा में संकेतात्मकता कितनी मारक और असरकारक होती है, यह जानना हो तो ‘राज’ पढ़िए। इस लघुकथा में मास्टर जी के प्रश्न के उत्तर स्वरूप एक संवाद है और उस संवाद में भी एक ऐसा शब्द है जो ‘राज’ को एकाएक बहुत बड़ी फेंटेसी में बदल देता है। लघुकथा में इस फेंटेसी को रचना आसान काम नहीं है और इसके लिए मैं व्यक्तिगत रूप से डॉ॰ सतीश दुबे की लेखन-कला को नमन करते हुए सम्बन्धित संवाद यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ—

‘‘मैं किसी के बाबा, काका, दादा ने क्या कहा, यह नहीं पूछ रहा। मैं पूछ रहा हूँ कि किताब में लिखे अनुसार हमारे देश में किसका राज है...?’’

‘‘मैं बताऊँ सर, जनता का!’’ महिषासुर ने सीना तानकर खड़े होते हुए जवाब दिया।

इसमें फेंटेसी, उसकी गहराई व भयावहता की तलाश का दायित्व सुधी पाठक होने के नाते अब आपका है। ‘थके पाँवों का सफर’ में दुबे जी उस समय बिना कहे बहुत-कुछ कह जाते हैं जब वह लिखते हैं—

उनकी सूनी आँखें और निस्तेज चेहरे की ओर गौर से देखते हुए सत्येन्द्र कुछ और प्रश्न करे उसके पूर्व चाचाजी अस्फुट शब्दों में बोले, ‘‘अब और कुछ पूछना मत, ज्यादा बोलने से मुझे तकलीफ होती है...।’’

सत्येन्द्र ने देखा, यह कहते हुए चाचाजी ने पैर लम्बे कर तथा सिर सीट के सहारे लगाकर बूँदें टपकाने का प्रयास कर रही छोटी-छोटी आँखों को जोरों से भींच लिया है।

इस लघुकथा में चाचाजी की गहन पीड़ा को अधिक कुछ कहे बिना व्यक्त करने का कौशल अनुभूति, अध्ययन और अभ्यास के योग के बिना सम्भव नहीं था। डॉ॰ सतीश दुबे इस दृष्टि से समकालीन हिन्दी लघुकथा के आवश्यक हस्ताक्षर सिद्ध होते हैं। उनकी लघुकथाओं का पूर्ण मनोयोग से अध्ययन वांछित है।

सम्पर्क :  8826499115

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