सोमवार, 13 मई 2024

लघुकथा में मूल्य-बोध, भाग-4/बलराम अग्रवाल

 गतांक से आगे…

4 कड़ियों में समाप्य लम्बे लेख की चौथी व अन्तिम कड़ी 
मूल्य-बोध का उदय सचेतन मानसिक स्तर की वस्तु है, अनिश्चित होने के बावजूद, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। यदि मनोविश्लेषकों की मानें तो मूल्य-विध्वंस और मूल्य-निर्माण की प्रक्रिया चेतन और अचेतन के परस्पर संघात के कारण ही जारी रहती है। इसी सन्दर्भ में विकासवाद की चर्चा करना भी अन्यथा नहीं है। मनुष्य को बौद्धिक रूप से विकसित पशु मानते हुए भी, विकासवाद का सिद्धान्त पशु की प्रवृत्तियों की तुलना में मानव-प्रकृति को समझने का अभ्यस्त है। इसलिए विकासवाद के सिद्धान्त में मनुष्य की उच्चतर आकांक्षाओं को भारतीय चिंतन जितनी दृढ़ता के साथ नहीं पकड़ा गया है। कह सकते हैं कि भारतीय चिन्तन मानव मूल्यों को अधिक उदात्त और गरिमामय धरातल देता है ।

मूल्य-बोध का आधार महामानवको माना जाय यालघु-मानवको? उत्तर है कि मूल्य-बोध का आधार न तो महामानव है और न ही लघु मानव; बल्कि उसका आधार सहज मानवहै । यहाँ, यह सवाल भी किया जा सकता है कि क्या मानव के साथ कोई विशेषण लगाना अनिवार्य है? मानव को मानव के रुप में ही नहीं देखा जा सकता? और यह कि क्या मूल्य-बोध का आधार मानव ही नहीं होना चाहिए?

पश्चिमी समाज की संरचना मानव-नियति की निर्धारण गति के रूप में की गयी है। इस अवधारणा से भारतीय समाजशास्त्री भी प्रभावित हैं। मूल्यों के सामाजिक पक्ष पर विचार करते हुए यह तथ्य ध्यान में रखना होगा कि समाज की ही शक्ति सर्वाधिक प्रबल है; और यह बात भी तय है कि यदि प्रत्येक व्यक्ति काम करना बंद कर दे तो मूल्यों के सामाजिक प्रभाव लुप्त हो जाएँगे। उनके लुप्त होते ही मनुष्य का नैतिकता-रूपी सर्वाधिक शक्तिशाली रक्षाकवच भी टूट जाएगा और नैतिकता के भंग होने के साथ ही मानव-मंगल की भावना भी समाज से समाप्त हो जाएगी । अत: व्यक्ति द्वारा सामाजिक नैतिकता के प्रति प्रतिबद्धता ही वह आधार है जिस पर शेष सब खड़ा होता है।

मूल्यों के परिवर्तन में सबसे शक्तिशाली हाथ समाज का ही होता है। भारत में किसी समय कर्मकांड से जीवन की चर्या निर्धारित होती थी, किन्तु आज समाज में कर्मकांड को इतनी स्वीकृति नहीं है कि उससे दिनचर्या का निर्धारण हो।

मूल्यों को जीवित रखती है उनकी सामाजिकता । जो मूल्य असामाजिक हो जाते हैं अथवा सामान्य जीवन से कट जाते हैं, उनमें परिवर्तन स्वमेव ही आवश्यक हो जाता है। व्यक्ति सामाजिक संस्कारो में पलता है, उन संस्कारों को स्वीकार करता है और जब सामाजिक संस्कार व्यक्ति के विकास के मार्ग को अवरुद्ध करने लगते हैं तो वह अकेला अथवा सामूहिक रूप से उनसे टक्कर लेता है। नये मूल्यों का उदय इसी तरह होता है।

अर्थ आज मानव जीवन का केन्द्र है। आज के व्यक्ति-जीवन को अर्थ-तन्त्र ही निर्धारित करता है। इसलिए जीवन-मूल्यों के बदलाव में अर्थ की भूमिका प्रमुख हो गयी है। सेवा, त्याग, निष्ठा और ईमानदारी जैसे मूल्यों में विघटन होने का मुख्य कारण भी अर्थ ही है। विश्व में पनपे हुए पूँजीवाद या साम्यवाद जैसी प्रणालियों के पार्श्व में भी अर्थ काम कर रहा है। जीवन क्योंकि बहुत-कुछ अर्थ-तन्त्र पर निर्भर करता है इसलिए जैसा अर्थ-तन्त्र होगा, मूल्यों की उद्भावना भी वैसी ही होगी। उदात्त और व्यापक मूल्यों की व्याख्या भी विभिन्न अर्थ-तन्त्रों के अनुरूप समय-समय पर बदल जाती है। मूल्यों के औचित्य-अनौचित्य पर जब केवल अर्थ की दृष्टि से विचार किया जाता है, तब मानव मूल्यों के साथ न्याय नहीं हो पाता। क्यों? इसलिए कि भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तो वे मूल्य काम दे जाते है, लेकिन भौतिकता से ऊपर उठकर कुछ सोचने पर, वे मूल्य उसका साथ नहीं दे पाते। मूल्यों का आर्थिक पक्ष इस दृष्टि से कमजोर हो जाता है।

समाज में किसी भी क्रिया का सबसे पहला केंद्र व्यक्ति स्वयं होता है। सामने आने वाली हर वस्तु को वह अपने ही  दृष्टिकोण से देखता-परखता है। इस सब्जेक्टिव एप्रोच यानी आत्मनिष्ठ दृष्टि के कारण व्यक्ति किन्हीं मूल्यों को नकार देता है तो किन्हीं को स्वीकार भी करता है। इधर के वर्षों में, मूल्यों के सम्बन्ध में वैयक्तिक पक्ष खासा प्रबल हो उठा है। पाश्चात्य विचारकों द्वारा प्रतिपादित ईगो और सुपर ईगो के सिद्धांतों से प्रभावित व्यक्ति अपनेस्वमें ही केन्द्रित हो गया है। मूल्यों का चयन या उनकी व्याख्या वह अपनी सुविधा के अनुरुप करने लगा है। यही कारण है कि आज एक ही सामाजिक मूल्य के अनेक व्यक्तिगत प्रारूप दिखाई देते हैं। कोई भी व्यक्ति अपनी सुविधा को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य मेंसुविधाही जैसे अपने आप में एक मूल्य हो गया है। अन्य सभी मूल्यों का संचालन व निर्धारण उसी के अनुरूप होता है।

राजनीति के आयाम और मूल्य

राजनीति और समाजनीति दोनों में शास्त्रत: भले ही कुछ अन्तर हो, तत्वत:  कोई विशेष भेद नहीं है।

नीतिशास्त्र मानव मूल्यों का तो अध्ययन करता ही है; अच्छे और बुरे मूल्यों में भेद करने का प्रयास भी करता है। सिद्धान्तत: राजनीति का उद्देश्य भी मानव की भलाई ही है। राजनीति सैद्धान्तिक स्तर पर तो मानवीय मूल्यों को ही लेकर चलती है, लेकिन व्यावहारिक स्तर पर अनेक बार मानव मूल्यों का हनन भी करती है। व्यवहारिक राजनीति में सत्ता हथियाने का कार्य प्रमुख और मानव कल्याण की भावना गौण हो जाती है ।

विश्व में होने वाली राजनीतिक उथल-पुथल मानव मूल्यों को बहुत दूर तक वहन करती है। राजनीतिक स्तर पर छिड़ा हुआ शीत युद्ध कब भयानक शस्त्र-युद्ध में बदल जायेगा, कहा नहीं जा सकता। इस स्थिति के परिणाम स्वरूप मानव समाज निरीहता के साथ मूल्यों का नग्न ध्वंस देखता है। ऐसी हालत में मानव-गौरव, स्वातंत्र्य, समानता आदि उदात्त मूल्यों के स्थान पर अनास्था और अविश्वास आदि मूल्यहीनता के स्वर फूटने लगते हैं।

वर्तमान समय में विश्व में भय, आतंक, भूख, महामारी, अविश्वास, अनास्था और अस्थिरता सब के लिए अगर कोई उत्तरदायी है तो वह राजनीति है। सचाई यह है कि राजनीति का नियन्ता क्योंकि मनुष्य ही है इसलिए सारा दोष मानव का ही ठहरता है; लेकिन जिस घरातल से राजनीति जन्म लेती है और उसके बारे में जो धारणाएँ या विचार बन चुके है और उन्हें बदल पाना भी सम्भव नहीं लगता है। कारण यह कि विश्व में शक्ति-संतुलन की बात तो होती है, वादों की चर्चा भी अधिक होती है और उन्हीं को आधार बनाकर मनुष्य मूल्यों की हत्या कर देता है। मानव-मूल्यों को लेकर भी राजनीति के दांव-पेंच चलाये जाते है, जिससे उनकी भी गरिमा नष्ट होती है। उनकी व्यापकता और उदात्तता लुप्तप्राय हो जाती है।

क्या कोई वास्तविक मूल्य भी हैं? जी हाँ, अवश्य हैं। आज का इंसान आत्मविश्वास के साथआत्मोपलब्धिके लिए आगे बढ़ रहा है। अपने आप में यही वास्तविक मूल्य है। 

समाप्त

(मेधा बुक्स, दिल्ली-32 से प्रकाशित पुस्तक 'लघुकथा का साहित्य दर्शन' में संकलित)

 

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