गुरुवार, 23 मई 2024

लघुकथा में मूल्य-बोध, भाग-3/बलराम अग्रवाल

 गतांक से आगे…

4 कड़ियों में समाप्य लम्बे लेख की तीसरी कड़ी 

मूल्य-परिवर्तन के कारण

मूल्यों में परिवर्तन होता क्यों है, इसके कारण क्या हैं, यह एक युक्तिसंगत प्रश्न है। इस प्रश्न पर विचार करने से पहले यह जानना आवश्यक है कि मूल्यों का विकास अथवा उनमें परिवर्तन होता है। विश्व एक विकसनशील अवयव है। उसमें मानव-संस्कृति के अनुरूप ही मानव-मूल्यों का भी विकास होता है। इस विकास को ही हम परिवर्तन की संज्ञा देते हैं।

‘मूल्य’ उपजता है, विवशता के भीतर सम्बन्धों के संतुलन में । इसमें विवशता का क्या अर्थ होता है। मनुष्य जब उपलब्ध मूल्यों के साथ स्वयं को जीवन जीने में विवश पाता है, तब वह परिवर्तन की आवश्यकता को अनुभव करता है। इसी को ‘विवशता’ कहते हैं यानी मन की विवशता।

कहा जाता है कि मूल्यान्वेषण की मानवीय प्रवृत्ति के कारण मूल्य बदलते हैं। मनुष्य में मूल्यान्वेषण की प्रवृत्ति क्यों है? इसीलिए कि वह बदलते हुए परिवेश के साथ कुछ न कुछ सृजन करते रहना चाहता है। सृजन करने की इच्छा यानी सृजन का सपना भी देखना वस्तुतः मूल्यों में बदलाव की आधारभूमि है। सृजन का कोई क्षण, कोई स्थान, कोई व्यक्ति निश्चित नहीं होता; लेकिन मानव-इतिहास इस बात का साक्षी है कि मूल्यों में सदा परिवर्तन होता रहा है और उस परिवर्तन का प्रभाव साहित्य पर पड़ता रहा है।

समाज सदैव नैतिक व्यवस्था से परिचालित होता है। दूसरी ओर, मनुष्य में स्वाभाविक रूप से कुछ वर्जनाएँ भी मौजूद रहती हैं। ये वर्जनाएँ प्रचलित नैतिक व्यवस्था को तोड़ना चाहती है, जबकि समाज में प्रचलित नैतिक व्यवस्था उन वर्जनाओं का विरोध करती है। वर्जना और व्यवस्था के इस संघर्षण के परिणामस्वरूप नये मूल्यों का उदय होता है। साहित्य में सातवें-आठवें दशक में विकसित लघुकथा-लेखन की प्रवृत्ति इसका सशक्त उदाहरण है ।

प्रचलित नैतिक व्यवस्था और उसकी वर्जना के संक्रमण की तरह ही आदर्श और यथार्थ का संघर्ष भी निरन्तर चलता है। यह संघर्ष भी नये मूल्यों को जन्म देता है। आदर्शवाद एक काल्पनिक लेकिन यथासम्भव सकारात्मक संसार की रचना करता है, जबकि यथार्थवाद का धरातल ठोस होता है और भावना की बजाय तर्क की जमीन पर खड़ा होता है। वैचारिक धरातल पर ये दोनों छोर जीवन-भर परस्पर टकराते रहते हैं और इस टकराव के परिणामस्वरूप भी नये मूल्य विकसित होते रहते हैं। वैचारिक जगत में नित नयी अन्वेषणप्रियता की मानवीय प्रवृत्ति भी नये मूल्यों के उदय में सहायक का कार्य करती है।

मूल्यों को बदलाव की दिशा में प्रेरित करने वाले इनके अतिरिक्त भी अनेक कारण हैं । मनुष्य का कभी-कभार अथवा अक्सर अनिर्णय और अनिश्चय की स्थिति का होना, दूसरी संस्कृति अथवा दूसरी सभ्यता के अनुकरण की ओर झुकना, कतिपत ऐतिहासिक घटनाओं का दबाव होना, अपनी इच्छा और सुविधा पर अधिक बल देना, अपने मत से भिन्न व्यक्ति, दल वा सरकार द्वारा चुनाव जीत जाना, दो संस्कृतियों का परस्पर मिल जाना, यथास्थिति से ऊब जाना अथवा मोहभंग होना, सामाजिक- आर्थिक-सांस्कृतिक परिवर्तन होना आदिमूल्य-तन्त्र में परिवर्तन का कारण बनते हैं। लेकिन मार्क्सवादी विचारधारा के अनुसार, मूल्य-परिवर्तन का प्रमुख कारण सिर्फ और सिर्फ पूँजीवाद है।

दरअसल, वस्तु का स्थान व संदर्भ बदल जाने के साथ ही उसके मूल्य भी बदल जाने सम्भावित होते हैं। नये मूल्यों का उदय कभी भी एकाएक अथवा एक-दो दिन में नहीं, बल्कि समय की एक लम्बी दूरी तय करके, एक प्रक्रिया के तहत होता है। नए मूल्य हमेशा परिवर्तन की लम्बी प्रक्रिया से छनकर अस्तित्व में आते हैं । प्रत्येक परिवर्तन मूल्यों के संक्रमण से ही होता है और मूल्यगत संक्रमण का कारण मानवीय दृष्टिकोण के चुनाव की प्रक्रिया अथवा समस्या होती है।

मूल्य केवल बनते-बिगड़ते नहीं हैं। कभी-कभी वे जड़ भी हो जाते है। जड़ हो गये मूल्य भी अक्सर मानव-मूल्य कहे जाते रहते हैं। इसलिए कह सकते हैं कि पुराना, नया और जड़, हर मूल्य किसी न किसी मनुष्य के लिएमूल्यकहलाने का अधिकार रखता है। ऐसी स्थिति में सवाल पैदा होता है कि मानव मूल्यकी विशेषताएँ या उसका वास्तविक दर्शन क्या होता है?

सीधे-सीधे कहें तोवे मूल्य जो मनुष्य की अंत:प्रकृति के, उसके सहज स्वरूप के जितना अधिक निकट प्रतीत होते है, उतने की श्रेष्ठ मानव-मूल्य बनते अथवा कहलाते हैं। मानवीय सम्वेदनाओं की उनमें मुक्त और उदार स्वीकृति मिलती है। मानवीयता की प्रतिष्ठा ही उन मूल्यों की प्रतिष्ठा का उद्देश्य है । इन मूल्यों को सर्वश्रेष्ठ कहे जाने का कारण भी यही है। उनमें मनुष्य की सम्पूर्णता को जगह मिलती है। व्यक्ति अपने अस्तित्व से ही मूल्य को स्वीकारता अथवा नकारता है।

मानसिक व शारीरिक प्रत्येक बन्धन से मुक्ति के प्रयास व्यक्ति का सहज स्वभाव हैं। उस मुक्ति के लिए वह पूरी उम्र संघर्ष करता है। वस्तुत: संघर्ष ही चेतनशील जीवन का लक्षण है। मानव को जीवन में जो अत्यधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई, वह उसकी संघर्षशील प्रकृति के कारण स्वतन्त्रता और मुक्ति जैसे मूल्यों को  अपनाने से हुई। लेकिन भारतीय दार्शनिक चिन्तन ने आध्यात्मिकता की ओर विशेष झुकाव होने के कारण मुक्ति को सामाजिक अर्थ में कम, आध्यात्मिक अर्थ में अधिक ग्रहण किया। इसी कारण भारतीय जन आध्यात्मिक चेतना के स्तर पर तो मुक्त रहा लेकिन सामाजिक अर्थ में वह कम मुक्त हो पाया। धीरे-धीरे मुक्ति की यह कामना अत्यन्त एकांगी हो गयी; और जब सामाजिक सम्बन्धों का भी उसमें निषेध होने लगा तो पुनः उसके विरोध में स्वर उठने लगे। इसी कारण भौतिकवादी मूल्यों को प्रतिष्ठा मिली ।

मूल्य-परिवर्तन किसी निश्चित दिशा या क्रम में नहीं होता है क्योंकि प्रकृति के व्यक्त स्तर पर दिखाई देने वाली व्यवस्था का अव्यक्त मूलाधार पूर्ण अव्यवस्थित है तथा अप्रकट में प्रकट होने वाली घटनाओं का क्रम भी पूरी तरह अनिश्चित है। मन के अव्यक्त अचेतन आधार चेतन स्तर में प्रादुर्भूत होने वाली घटनाओं का कोई भी सुनिश्चित क्रम नहीं है। मूल्य-संक्रमण भी इसी तरह से अनिश्चित है और उसका पता कोई रूपरेखा उभरने पर ही चलता है।

शेष आगामी अंक में…

(मेधा बुक्स, दिल्ली-32 से प्रकाशित पुस्तक 'लघुकथा का साहित्य दर्शन' में संकलित)

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