‘अक्षर साथी’ पत्रिका के ‘समकालीन हिन्दी कहानी’ पर केन्द्रित एक अंक में ‘आज की कहानी: दशा और दिशा’ विषय पर केन्द्रित एक परिचर्चा प्रकाशित हुई है। इस परिचर्चा का चौथा प्रश्न इस प्रकार है—‘आज मनुष्य की प्रकृति धीरे-धीरे सुविधाजीवी(विशेषकर महानगरों में) हो रही है और वह तरह-तरह के शॉर्ट-कट अपना रहा है। ऐसे में, कहानी-लेखन क्या इससे प्रभावित नहीं हो रहा है?’ इस प्रश्न का उत्तर हिन्दी साहित्य के एक विद्वान-आलोचक ने यों दिया है—‘प्रयत्नलाघव(शॉर्ट-कट) मनुष्य का स्वभाव है। सम्पूर्ण मानव सभ्यता का मूलाधार ही यह है। अत: मनुष्य का सुविधाजीवी होना नया नहीं है। आज मानवजाति ने अपने लिए इतनी सुविधाएँ जुटा ली हैं कि वह पहले से अधिक सुविधाजीवी होने लगा है। ‘किस्सों’ का ‘कहानी’ बन जाना और ‘कहानी’ का ‘लघुकथा’ बन जाना सुविधाजीवता का ही तो प्रमाण है।’
सबसे पहले तो उपर्युक्त प्रश्न पर ही विचार करना जरूरी है। कोई देश विकसित हो, विकासशील हो या गरीब; महानगर हो, नगर हो, गाँव हो, कस्बा हो या गली-मुहल्ला—आदमी आज जितना सुविधाजीवी है, उससे कहीं ज्यादा सुविधापूर्ण जीवन जीने के लिए वह प्रयत्नरत है, संघर्षरत है। पाषाण-युग से चलकर हम परमाणु-युग में विचर रहे हैं। इतना सब क्या हाथ-पर-हाथ रखकर बैठे-बैठे पा लिया गया है? विश्व का कोई भी वैज्ञानिक, कोई भी विचारक, कोई भी वक्ता तात्पर्य यह कि कोई भी रचनाशील व्यक्ति मानसिक और शारीरिक कवायद के जिस दौर से गुजरता है, उसे किसी भी तरह कोई सुविधाजीवता की श्रेणी में कैसे रख सकता है? स्पष्ट है कि जीवन को कुछ सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए जो यत्न पूर्व-पीढ़ियों के द्वारा किए जा चुके हैं वे सुविधाजनक कभी नहीं रहे। श्रेष्ठ व्यक्तियों का कोई भी कार्य मात्र अपने लिए सुविधाएँ जुटाने के लिए कभी नहीं होता। वे सम्पूर्ण मनुष्य जाति के सुख के लिए कार्य करते हैं—परोपकाराय सतामविभूतय। दूसरे, जिन्हें अपने एयरकन्डीशंड कमरे में मसनद पर कन्धे और टाँग पर टाँग टिकाकर ऊँघते हुए जिन्दगी गुजार देनी है, वे निश्चय ही इस प्रश्न के दायरे में नहीं आते क्योंकि प्रश्न समकालीन कहानी की दशा और दिशा अर्थात् रचनाशीलता पर केन्द्रित है। इसी कारण इस प्रश्न में सुविधाजीवता को विशेषकर महानगरों तक सीमित रखने का औचित्य समझ से बाहर है क्योंकि अगर मात्र महानगर ही अपसंस्कृत होना प्रारम्भ हुआ है तो उससे समूचा कहानी-परिदृश्य क्यों प्रभावित होगा? छोटे नगर, गाँव और कस्बे में अगर मनुष्य कम सुविधाजीवी है तो ऐसा रहना उसकी आन्तरिक इच्छा है अथवा विवशता? और अगर गाँव-कस्बे का आदमी कम सुविधाजीवी अपनी अन्त:प्रेरणा से है तो वहाँ से ही हमें अनुपम साहित्य भी प्राप्त होते रहना चाहिए। भारत को गाँवों का देश कहा जाता है। प्रस्तुत प्रश्न के हिसाब से तो समूचे कहानी-सहित्य में श्रेष्ठ कहानियाँ भी वहीं से आनी चाहिएँ, लेकिन ऐसा है नहीं। वस्तुत: कहानी का स्तर जिन कारणों से प्रभावित हुआ है, उनमें से एक बहुत बड़ा कारण, जो मेरी समझ में आता है, यह है कि समाज का तेजी से मशीनीकरण हुआ है और सोच का व्यावसायीकरण। आदमी—वह लेखक हो या आलोचक—सम्बन्धों को बनाने और भुनाने में विश्वास करने लगा है। इस प्रवृत्ति ने दृष्टिहीनों के लिए आलोचक और लेखक के रूप में प्रचारित होने के अवसर बढ़ा दिए हैं। आज न तो लेखक अपने खिलाफ सही सुनना चाहता है और न ही आलोचक तटस्थरूप से कुछ कहने का साहस जुटा पाता है। प्रायोजित-आलोचना का दौर भी दशकों से चल ही रहा है। रचना छपी नहीं कि सम्पादक के पास उसकी प्रसंशा और कटु-आलोचना—दोनों तरह के पत्रों का ढेर लगना प्रारम्भ हो जाता है। आम पाठक को यह सब इतना अधिक भ्रमित और असमंजित कर डालता है कि रचना के बारे में अपनी कोई स्वतंत्र राय वह व्यक्त ही नहीं कर पाता। इस सबसे वह कितना क्षुब्ध और विचलित है, इसे धीरेन्द्र शर्मा ने कहीं पर यों कहा है—‘जिन्हें आज प्रबुद्ध आलोचक समझा जाता है, वे सब महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों के या तो प्रवक्तागण हैं या सरकारी, अर्द्ध-सरकारी क्षेत्र के उच्चाधिकारी। सब के सब सुविधाभोगी महानुभाव’ हैं।’
जब लेखन और आलोचना—दोनों के ही योजनाबद्ध ढंग से प्रायोजित होने का चलन बढ़ गया हो, जब लेखकों और आलोचकों ने अपने-अपने गुट तैयार कर लिए हों…स्तरहीन रचनाओं की अनुशंसात्मक समीक्षाएँ पढ़-पढ़कर जब पाठक क्षुब्ध, हताश और विचलित रहने लगा हो और उसकी इस स्थिति को लगातार नजरअंदाज किया जा रहा हो, तब स्तरीय लेखन के आकलन की आशा कल्पना ही प्रतीत होती है। यह सब इसलिए नहीं कि स्तरीय रचनाएँ लिखी न जा रही हों, बल्कि इसलिए है कि स्तरीय रचनाओं और आलोचकीय टिप्पणियों को समुचित स्थान और सम्मान नहीं मिल पा रहा है। इस अर्थ में कि व्यावसायिक या स्तरीय समझी जाने वाली अर्द्ध-व्यावसायिक किस्म की पत्रिकाएँ क्योंकि अधिकांशत: महानगरों से ही प्रकाशित हो रही हैं, साहित्य मे सुविधाजीवता को पनपाने और पनपने देने का आरोप महानगरों पर आसानी से थोपा जा सकता है।
अब उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर पर विचार करते हैं। कहा जाता है कि नए लड़के-लड़कियाँ रंगमंच को टीवी सीरियल्स में और टीवी सीरियल्स को फीचर फिल्मों में प्रवेश का शॉर्ट-कट मानकर इन्हें मात्र माध्यम के रूप में अपनाते हैं, प्रतिबद्धता के साथ नहीं। इससे भी आगे कहा जाता है कि आजकल की मॉडर्न लड़कियाँ फिल्मों में प्रवेश का शॉर्ट-कट अपनाती हैं। लड़कियों पर आरोपित ‘शॉर्ट-कट’ से तात्पर्य लड़कों पर आरोपित ‘शॉर्ट-कट’ के तात्पर्य से भिन्न होता है, इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता सम्भवत: नहीं है। सिर्फ इतना कहना ही यथेष्ट है कि सभी ‘शॉर्ट-कट’ समानार्थी नहीं हैं तथा सभी शॉर्ट-कट्स का उद्देश्य भी स्वार्थलिप्सा ही नहीं है। फिर भी, कार्य के प्रति अगम्भीर और नाम के प्रति अंधाकांक्षी प्रवृत्ति के तहत किए जाने वाले रचनात्मकता से इतर-इतर प्रयास आम तौर पर शॉर्ट-कट की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। ये प्रयास व्यवसायपूर्ण से लेकर व्यसनपूर्ण तक हो सकते हैं।
सम्पूर्ण मानव-सभ्यता का मूलाधार ही यह (शॉर्ट-कट) है—इस विचार से कोई आसानी से सहमत हो पाएगा, मुझे नहीं लगता। कम-से-कम भारतीय दर्शन तो इस विचार की पुष्टि नहीं करता। उसमें मनुष्य के दीर्घजीवी होने की कामना की गई है। लघुता में भी वह वैराट्य के दर्शन करता है, संकुचन के नहीं। ऐसी कामनाओं को किसी शॉर्ट-कट के द्वारा साकार नहीं किया जा सकता। दीर्घ-जीवन के लिए आवश्यक है कि कार्य भी दीर्घजीवी ही किये जायँ। शॉर्ट-कट अपनाकर कोई व्यक्ति अपने कार्यकाल या अधिक-से-अधिक अपने जीवनकाल तक तो अपने ख्यात होने का भ्रम पाले रह सकता है, उसके बाद शायद नहीं। शॉर्ट-कट स्थायित्व नहीं दे सकते, ऐसा विद्वानों का मानना है। शॉर्ट-कट को सर्वथा त्याज्य ही माना गया हो ऐसा भी नहीं है। समयानुरूप बुद्धिमानीपूर्ण शॉर्ट-कट के उपयोग की अनुशंसा भी भारतीय शास्त्र ने की है। शॉर्ट-कट की सबसे अनूठी घटना ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाने की देव-स्पर्द्धा में गणेशजी द्वारा अपने माता-पिता की प्रदक्षिणा करके आ उपस्थित होना तथा विजयी भी घोषित कर दिया जाना है। शॉर्ट-कट को मानव-समाज से बहुत पहले देव-समाज द्वारा स्वीकृति दिये जाने का यह सम्भवत: पहला और अकेला उदाहरण है जिसके अनुसरण की प्रेरणा कम-से-कम हिन्दू-समाज में तो हर व्यक्ति को बचपन से ही दी जाती है। तथापि भारतीय शास्त्र में ही गंगा को धरती पर लाने के प्रयास की भी अनुशंसा की गयी है; ऐसे प्रयास की, जो अंशुमान के द्वारा प्रारम्भ किया जाकर उनके पौत्र भगीरथ द्वारा सम्पन्न किया जा सका यानी कि तीसरी पीढ़ी के व्यक्ति द्वारा।
सही बात तो यह है कि प्रश्न को परिचर्चा के विषयानुरूप ग्रहण नहीं किया गया; अन्यथा यह अवश्य सोचा जाता कि प्रश्न कहानी की समकालीन दशा और दिशा के मद्देनजर पूछा गया था और शॉर्ट-कर्ट से प्रश्नकर्ता का तात्पर्य कहानी-लेखन में समकालीन कथाकारों द्वारा गम्भीर, गहन और धैर्यपूर्ण रवैया न अपनाया जाकर अगम्भीर, उथला और धैर्यहीन रवैया अपनाना था। प्रश्न का मर्म यह था कि महानगरीय(संस्कृति से प्रभावित) रचनाकार रचना की स्तरीयता पर अपना ध्यान केन्द्रित करने की बजाय परस्पर सम्बन्धों के बल पर चर्चित होने की राह पर अग्रसर हो चुका है और इस आपाधापी में, पहुँच बना पाने में असमर्थ नगरीय, उपनगरीय और ग्रामीण अंचल का कथाकार क्षोभ और हताशा महसूस कर रहा है। वस्तुत: तो इस आपाधापी से केवल कहानी ही नहीं कला, रंगमंच, यहाँ तक कि राजनीति भी कलुषित हो चुकी है। प्रगतिशील सोच को भी इस आपाधापी ने प्रभावित किया है। संजय की कहानी ‘कामरेड का कोट’ इस आपाधापी से त्रस्त समाज की ही पीड़ा को व्यक्त करती है।
लघुकथा-लेखन से जुड़े लोग प्रबुद्ध कथा-समाज के समक्ष प्रारम्भ से ही यह सिद्ध करने और समझाने का प्रयास करते रहे हैं कि लघुकथा कहानी का ‘शॉर्ट-कट’ नहीं है। यह कथा-साहित्य की वैसी ही विधा है जैसी कि उपन्यास और कहानी विधाएँ हैं। जीव विज्ञान की भाषा में बोलें तो बिल्ली सिंह परिवार की सदस्य है, लेकिन वह सिंह का ‘शॉर्ट-कट’ नहीं है। दोनों की अलग-अलग स्वतन्त्र विशेषताएँ, चपलताएँ, छलनाएँ और अस्तित्व हैं। इस तथ्य को कोई न समझना चाहे तो न सही, लेकिन सत्य तो यही है। लम्बे समय तक कहानी अगर निस्तेज रही तो स्वयं अपने कारण और आज वह पुन: चमक पर है तो भी अपने ही कारण। लघुकथा अगर कहानी का शॉर्ट-कट होती तो न तो स्तरीय कहानियों का पुन: प्रकाश में आ पाना सम्भव होता और न ही स्तरीय लघुकथा-लेखन का जारी रह पाना।
संदर्भ:अवध-पुष्पांजलि, लघुकथांक, अप्रैल 1994