शनिवार, 19 दिसंबर 2009

शॉर्ट-कट की कहानी/बलराम अग्रवाल

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क्षर साथी पत्रिका के समकालीन हिन्दी कहानी पर केन्द्रित एक अंक में आज की कहानी: दशा और दिशा विषय पर केन्द्रित एक परिचर्चा प्रकाशित हुई है। इस परिचर्चा का चौथा प्रश्न इस प्रकार है—‘आज मनुष्य की प्रकृति धीरे-धीरे सुविधाजीवी(विशेषकर महानगरों में) हो रही है और वह तरह-तरह के शॉर्ट-कट अपना रहा है। ऐसे में, कहानी-लेखन क्या इससे प्रभावित नहीं हो रहा है? इस प्रश्न का उत्तर हिन्दी साहित्य के एक विद्वान-आलोचक ने यों दिया है—‘प्रयत्नलाघव(शॉर्ट-कट) मनुष्य का स्वभाव है। सम्पूर्ण मानव सभ्यता का मूलाधार ही यह है। अत: मनुष्य का सुविधाजीवी होना नया नहीं है। आज मानवजाति ने अपने लिए इतनी सुविधाएँ जुटा ली हैं कि वह पहले से अधिक सुविधाजीवी होने लगा है। किस्सों का कहानी बन जाना और कहानी का लघुकथा बन जाना सुविधाजीवता का ही तो प्रमाण है।
सबसे पहले तो उपर्युक्त प्रश्न पर ही विचार करना जरूरी है। कोई देश विकसित हो, विकासशील हो या गरीब; महानगर हो, नगर हो, गाँव हो, कस्बा हो या गली-मुहल्लाआदमी आज जितना सुविधाजीवी है, उससे कहीं ज्यादा सुविधापूर्ण जीवन जीने के लिए वह प्रयत्नरत है, संघर्षरत है। पाषाण-युग से चलकर हम परमाणु-युग में विचर रहे हैं। इतना सब क्या हाथ-पर-हाथ रखकर बैठे-बैठे पा लिया गया है? विश्व का कोई भी वैज्ञानिक, कोई भी विचारक, कोई भी वक्ता तात्पर्य यह कि कोई भी रचनाशील व्यक्ति मानसिक और शारीरिक कवायद के जिस दौर से गुजरता है, उसे किसी भी तरह कोई सुविधाजीवता की श्रेणी में कैसे रख सकता है? स्पष्ट है कि जीवन को कुछ सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए जो यत्न पूर्व-पीढ़ियों के द्वारा किए जा चुके हैं वे सुविधाजनक कभी नहीं रहे। श्रेष्ठ व्यक्तियों का कोई भी कार्य मात्र अपने लिए सुविधाएँ जुटाने के लिए कभी नहीं होता। वे सम्पूर्ण मनुष्य जाति के सुख के लिए कार्य करते हैंपरोपकाराय सतामविभूतय। दूसरे, जिन्हें अपने एयरकन्डीशंड कमरे में मसनद पर कन्धे और टाँग पर टाँग टिकाकर ऊँघते हुए जिन्दगी गुजार देनी है, वे निश्चय ही इस प्रश्न के दायरे में नहीं आते क्योंकि प्रश्न समकालीन कहानी की दशा और दिशा अर्थात् रचनाशीलता पर केन्द्रित है। इसी कारण इस प्रश्न में सुविधाजीवता को विशेषकर महानगरों तक सीमित रखने का औचित्य समझ से बाहर है क्योंकि अगर मात्र महानगर ही अपसंस्कृत होना प्रारम्भ हुआ है तो उससे समूचा कहानी-परिदृश्य क्यों प्रभावित होगा? छोटे नगर, गाँव और कस्बे में अगर मनुष्य कम सुविधाजीवी है तो ऐसा रहना उसकी आन्तरिक इच्छा है अथवा विवशता? और अगर गाँव-कस्बे का आदमी कम सुविधाजीवी अपनी अन्त:प्रेरणा से है तो वहाँ से ही हमें अनुपम साहित्य भी प्राप्त होते रहना चाहिए। भारत को गाँवों का देश कहा जाता है। प्रस्तुत प्रश्न के हिसाब से तो समूचे कहानी-सहित्य में श्रेष्ठ कहानियाँ भी वहीं से आनी चाहिएँ, लेकिन ऐसा है नहीं। वस्तुत: कहानी का स्तर जिन कारणों से प्रभावित हुआ है, उनमें से एक बहुत बड़ा कारण, जो मेरी समझ में आता है, यह है कि समाज का तेजी से मशीनीकरण हुआ है और सोच का व्यावसायीकरण। आदमीवह लेखक हो या आलोचकसम्बन्धों को बनाने और भुनाने में विश्वास करने लगा है। इस प्रवृत्ति ने दृष्टिहीनों के लिए आलोचक और लेखक के रूप में प्रचारित होने के अवसर बढ़ा दिए हैं। आज न तो लेखक अपने खिलाफ सही सुनना चाहता है और न ही आलोचक तटस्थरूप से कुछ कहने का साहस जुटा पाता है। प्रायोजित-आलोचना का दौर भी दशकों से चल ही रहा है। रचना छपी नहीं कि सम्पादक के पास उसकी प्रसंशा और कटु-आलोचनादोनों तरह के पत्रों का ढेर लगना प्रारम्भ हो जाता है। आम पाठक को यह सब इतना अधिक भ्रमित और असमंजित कर डालता है कि रचना के बारे में अपनी कोई स्वतंत्र राय वह व्यक्त ही नहीं कर पाता। इस सबसे वह कितना क्षुब्ध और विचलित है, इसे धीरेन्द्र शर्मा ने कहीं पर यों कहा है—‘जिन्हें आज प्रबुद्ध आलोचक समझा जाता है, वे सब महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों के या तो प्रवक्तागण हैं या सरकारी, अर्द्ध-सरकारी क्षेत्र के उच्चाधिकारी। सब के सब सुविधाभोगी महानुभाव हैं।
जब लेखन और आलोचनादोनों के ही योजनाबद्ध ढंग से प्रायोजित होने का चलन बढ़ गया हो, जब लेखकों और आलोचकों ने अपने-अपने गुट तैयार कर लिए हों…स्तरहीन रचनाओं की अनुशंसात्मक समीक्षाएँ पढ़-पढ़कर जब पाठक क्षुब्ध, हताश और विचलित रहने लगा हो और उसकी इस स्थिति को लगातार नजरअंदाज किया जा रहा हो, तब स्तरीय लेखन के आकलन की आशा कल्पना ही प्रतीत होती है। यह सब इसलिए नहीं कि स्तरीय रचनाएँ लिखी न जा रही हों, बल्कि इसलिए है कि स्तरीय रचनाओं और आलोचकीय टिप्पणियों को समुचित स्थान और सम्मान नहीं मिल पा रहा है। इस अर्थ में कि व्यावसायिक या स्तरीय समझी जाने वाली अर्द्ध-व्यावसायिक किस्म की पत्रिकाएँ क्योंकि अधिकांशत: महानगरों से ही प्रकाशित हो रही हैं, साहित्य मे सुविधाजीवता को पनपाने और पनपने देने का आरोप महानगरों पर आसानी से थोपा जा सकता है।
अब उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर पर विचार करते हैं। कहा जाता है कि नए लड़के-लड़कियाँ रंगमंच को टीवी सीरियल्स में और टीवी सीरियल्स को फीचर फिल्मों में प्रवेश का शॉर्ट-कट मानकर इन्हें मात्र माध्यम के रूप में अपनाते हैं, प्रतिबद्धता के साथ नहीं। इससे भी आगे कहा जाता है कि आजकल की मॉडर्न लड़कियाँ फिल्मों में प्रवेश का शॉर्ट-कट अपनाती हैं। लड़कियों पर आरोपित शॉर्ट-कट से तात्पर्य लड़कों पर आरोपित शॉर्ट-कट के तात्पर्य से भिन्न होता है, इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता सम्भवत: नहीं है। सिर्फ इतना कहना ही यथेष्ट है कि सभी शॉर्ट-कट समानार्थी नहीं हैं तथा सभी शॉर्ट-कट्स का उद्देश्य भी स्वार्थलिप्सा ही नहीं है। फिर भी, कार्य के प्रति अगम्भीर और नाम के प्रति अंधाकांक्षी प्रवृत्ति के तहत किए जाने वाले रचनात्मकता से इतर-इतर प्रयास आम तौर पर शॉर्ट-कट की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। ये प्रयास व्यवसायपूर्ण से लेकर व्यसनपूर्ण तक हो सकते हैं।
सम्पूर्ण मानव-सभ्यता का मूलाधार ही यह (शॉर्ट-कट) हैइस विचार से कोई आसानी से सहमत हो पाएगा, मुझे नहीं लगता। कम-से-कम भारतीय दर्शन तो इस विचार की पुष्टि नहीं करता। उसमें मनुष्य के दीर्घजीवी होने की कामना की गई है। लघुता में भी वह वैराट्य के दर्शन करता है, संकुचन के नहीं। ऐसी कामनाओं को किसी शॉर्ट-कट के द्वारा साकार नहीं किया जा सकता। दीर्घ-जीवन के लिए आवश्यक है कि कार्य भी दीर्घजीवी ही किये जायँ। शॉर्ट-कट अपनाकर कोई व्यक्ति अपने कार्यकाल या अधिक-से-अधिक अपने जीवनकाल तक तो अपने ख्यात होने का भ्रम पाले रह सकता है, उसके बाद शायद नहीं। शॉर्ट-कट स्थायित्व नहीं दे सकते, ऐसा विद्वानों का मानना है। शॉर्ट-कट को सर्वथा त्याज्य ही माना गया हो ऐसा भी नहीं है। समयानुरूप बुद्धिमानीपूर्ण शॉर्ट-कट के उपयोग की अनुशंसा भी भारतीय शास्त्र ने की है। शॉर्ट-कट की सबसे अनूठी घटना ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाने की देव-स्पर्द्धा में गणेशजी द्वारा अपने माता-पिता की प्रदक्षिणा करके आ उपस्थित होना तथा विजयी भी घोषित कर दिया जाना है। शॉर्ट-कट को मानव-समाज से बहुत पहले देव-समाज द्वारा स्वीकृति दिये जाने का यह सम्भवत: पहला और अकेला उदाहरण है जिसके अनुसरण की प्रेरणा कम-से-कम हिन्दू-समाज में तो हर व्यक्ति को बचपन से ही दी जाती है। तथापि भारतीय शास्त्र में ही गंगा को धरती पर लाने के प्रयास की भी अनुशंसा की गयी है; ऐसे प्रयास की, जो अंशुमान के द्वारा प्रारम्भ किया जाकर उनके पौत्र भगीरथ द्वारा सम्पन्न किया जा सका यानी कि तीसरी पीढ़ी के व्यक्ति द्वारा।
सही बात तो यह है कि प्रश्न को परिचर्चा के विषयानुरूप ग्रहण नहीं किया गया; अन्यथा यह अवश्य सोचा जाता कि प्रश्न कहानी की समकालीन दशा और दिशा के मद्देनजर पूछा गया था और शॉर्ट-कर्ट से प्रश्नकर्ता का तात्पर्य कहानी-लेखन में समकालीन कथाकारों द्वारा गम्भीर, गहन और धैर्यपूर्ण रवैया न अपनाया जाकर अगम्भीर, उथला और धैर्यहीन रवैया अपनाना था। प्रश्न का मर्म यह था कि महानगरीय(संस्कृति से प्रभावित) रचनाकार रचना की स्तरीयता पर अपना ध्यान केन्द्रित करने की बजाय परस्पर सम्बन्धों के बल पर चर्चित होने की राह पर अग्रसर हो चुका है और इस आपाधापी में, पहुँच बना पाने में असमर्थ नगरीय, उपनगरीय और ग्रामीण अंचल का कथाकार क्षोभ और हताशा महसूस कर रहा है। वस्तुत: तो इस आपाधापी से केवल कहानी ही नहीं कला, रंगमंच, यहाँ तक कि राजनीति भी कलुषित हो चुकी है। प्रगतिशील सोच को भी इस आपाधापी ने प्रभावित किया है। संजय की कहानी कामरेड का कोट इस आपाधापी से त्रस्त समाज की ही पीड़ा को व्यक्त करती है।
लघुकथा-लेखन से जुड़े लोग प्रबुद्ध कथा-समाज के समक्ष प्रारम्भ से ही यह सिद्ध करने और समझाने का प्रयास करते रहे हैं कि लघुकथा कहानी का शॉर्ट-कट नहीं है। यह कथा-साहित्य की वैसी ही विधा है जैसी कि उपन्यास और कहानी विधाएँ हैं। जीव विज्ञान की भाषा में बोलें तो बिल्ली सिंह परिवार की सदस्य है, लेकिन वह सिंह का शॉर्ट-कट नहीं है। दोनों की अलग-अलग स्वतन्त्र विशेषताएँ, चपलताएँ, छलनाएँ और अस्तित्व हैं। इस तथ्य को कोई न समझना चाहे तो न सही, लेकिन सत्य तो यही है। लम्बे समय तक कहानी अगर निस्तेज रही तो स्वयं अपने कारण और आज वह पुन: चमक पर है तो भी अपने ही कारण। लघुकथा अगर कहानी का शॉर्ट-कट होती तो न तो स्तरीय कहानियों का पुन: प्रकाश में आ पाना सम्भव होता और न ही स्तरीय लघुकथा-लेखन का जारी रह पाना।
संदर्भ:अवध-पुष्पांजलि, लघुकथांक, अप्रैल 1994

सोमवार, 23 नवंबर 2009

लाघव : लघुकथा का आधारभूत गुण/बलराम अग्रवाल



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र्तमान युग वैज्ञानिक-युग कहलाता है। समाज के हर क्षेत्र को विज्ञान ने प्रभावित किया है। यहाँ तक कि मनुष्य की जीवन-दृष्टि में भी विकासात्मक परिवर्तन आया है। पूर्व की पूर्ण आदर्शपरकता, परम्पराओं व रीति-रिवाजों के अन्धानुकरण की जमीन दरक गई है। उस पर यथार्थपरकता ने अपने पाँव जमा लिए हैं। इस यथार्थपरक जीवन-दृष्टि ने व्यक्ति की परम्परागत चिंतन-शैली को बदल डाला है। बदली हुई इस चिंतन-शैली ने उसे सकारात्मक रचनात्मक तेवर प्रदान किए हैं। इन तेवरों को समकालीन लेखन में, शिल्प में, कला मेंतात्पर्य यह कि सक्रिय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आसानी से रेखांकित किया जा सकता है। लघुकथा-लेखन में तो इन्हें बड़ी आसानी से रेखांकित किया जा सकता है।
1965 के बाद से हिन्दी लघुकथा-लेखन में निरन्तरता के चिह्न परिलक्षित होते हैं, लेकिन तब के पत्र-पत्रिकाओं में इसका स्वरूप अधिकांशत: हाशिए की रचना जैसा ही दिखाई देता है। 1970 के पश्चात् इसने आंदोलन का रूप लेना प्रारम्भ किया और आठवें दशक के पूर्वार्द्ध में ही इसने अपनी स्पष्ट तस्वीर संपादकों व कथा-आलोचकों के सम्मुख प्रस्तुत कर दी। इस तथ्य के प्रमाणस्वरूप 1973 में कमलेश्वर के सम्पादन में प्रकाशित सारिका के लघुकथांक को देखा जा सकता है; यद्यपि उससे पहले ही इस पत्रिका ने लघुकथाओं को सम्मानजनक स्थान देना प्रारम्भ कर दिया था। उस समय तक लघु-पत्रिकाएँ लघुकथा के प्रति गंभीर हो चुकी थीं, परन्तु सभी व्यावसायिक पत्रिकाओं में इसका परिवर्द्धित रूप स्वीकार्य नहीं था। इस अस्वीकार का मुख्य कारणलघुकथा के किसी समर्थ प्रवक्ता का कथा-कहानी केन्द्रित किसी व्यावसायिक पत्र-पत्रिका तक न पहुँच पाना था। बाद में रमेश बतरा, बलराम, महेश दर्पण, चित्रा मुद्गल जैसे नई पीढ़ी के ऐसे कथाकार जो लघुकथा को जानते-समझते थे, बड़े प्रकाशन-प्रतिष्ठानों से जुड़े, तब गम्भीर समझी जाने वाली लघुकथाओं को व्यावसायिक स्तर पर प्रचारित-प्रसारित पत्र-पत्रिकाओं में स्थान मिलना प्रारम्भ हुआ। चारों ओर से कहानी के प्रवक्ताओं से घिरे इन जैसे लघुकथा-प्रवक्ताओं को लघुकथा को बड़े मंच पर प्रस्तुत करने हेतु कितना संघर्ष करना पड़ा होगा, इसका अनुमान लगाना आसान नहीं है। इस बारे में अपने अनुभव बताने के लिए भले ही रमेश बतरा अब हमारे बीच नहीं हैं, परन्तु अन्य अनेक कथाकार मौजूद हैं।
1971 में मानव-चरण चन्द्रमा के धरातल को नाप चुके थे। प्रगतिशील लेखन अपने चरम पर था। आम आदमी की आकांक्षाएँ हताशाजनक परिस्थितियों के बावजूद भी नए शिखरों की ओर गतिशील थीं। इनके मद्देनजर माना जाना चहिए कि हिन्दी लघुकथा आन्दोलन ने अपने जन्म से ही प्रगतिशील तेवरों को अपने भीतर पाया है। वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि उसका स्वभाव है। इन्हीं सब कारणों के चलते अति-आवश्यक है कि लघुकथा के आधारभूत गुणों का अध्ययन हम वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में करें।
वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य क्या है?इसे समझने के लिए आवश्यक है हमारा यह जानना कि विज्ञान क्या है? कहा गया है किविशिष्ट ज्ञानं विज्ञानं अर्थात् विषय-विशेष का क्रमबद्ध ज्ञान विज्ञान है। अपनी पुस्तक भाषा विज्ञान की रूपरेखा में भाषा विज्ञान की वैज्ञानिकता विषय पर विस्तृत चर्चा करते हुए डॉ हरीश शर्मा ने लिखा है--विज्ञान प्रमुखत: तीन आवश्यकताओं से अनुशासित होता है
(अ) उपचार पूर्णतासम्पूर्ण उपयुक्त सामग्री का यथोचित एवं पूर्ण उपचार होना विज्ञान का एक महत्वपूर्ण दायित्व है।
(आ) अंत:संगतिप्रयोग के उपरांत प्राप्त निष्कर्ष एवं उसके कथन में किसी प्रकार का अन्तर्विरोध न हो। तथा,
(इ) लाघवविज्ञान यथार्थमूलक होता है अत: अयथार्थ और निराधार के लिए यहाँ कोई अवकाश नहीं होता। इस दृष्टि से विज्ञान(अर्थात् प्रस्तोता) का यह दायित्व हो जाता है कि कथन में अनर्गल कुछ भी न हो। यह विज्ञान की तीसरी आवश्यकता है।
विज्ञान के विद्यार्थी इस सत्य से भली-भाँति परिचित हैं कि विषय-विशेष पर कार्य करते हुए विषय-केन्द्रित बने रहना उनके लिए अति-आवश्यक है। अन्य विषय भले ही विवरण-प्रिय होते हों, विज्ञान के विषय विवरण-प्रिय नहीं होते। किसी वैज्ञानिक-प्रयोग के दौरान आवश्यक सामग्री से इतर सामग्री को जुटाकर रखना पूर्णत: अवांछित माना जाता है। बिल्कुल इसी प्रकार, प्राप्त निष्कर्षों को भी वहाँ निष्कर्षाभिमुख क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। विज्ञान की इस कार्य-पद्धति को 1970 के आसपास की कथापीढ़ी ने अपने लेखन में अपनाया। इसमें तो कोई दो राय नहीं कि काल ही सबसे बड़ा प्रेरक होता है और वही सबसे बड़ा निर्णायक भी है। 1970 के आसपास भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ बेहद उद्वेलनकारी थीं। नक्सलवाद उस काल में लगभग चरम पर था। वे आम आदमी की हताशा और असंतोष के दिन थे। ये हताशा और असंतोष ही उस काल में शनै: शनै: हिन्दी सिनेमा के परदे पर एंग्री यंग मैन का रूप व आकार ग्रहण करते हैं यानी कि अमिताभ बच्चन का पूर्ण उदय। काव्य में सौंदर्य-बोध के मुहावरे बदल चुके थे। चाँद का मुँह कवि को टेढ़ा नजर आने लगा था। कहानी लम्बे समय तक साहित्य के केन्द्र में रही है। इस हताशा और असंतोष को स्वर देने की गहरी तड़प स्वातंत्र्योत्तर काल की कहानी में खूब नजर आती है। कहानी के विभिन्न आंदोलन उस तड़प का ही परिणाम हैं। कहानी को लगातार लगता रहा है कि वह आम पाठक से दूर होती जा रही है। उससे पुन: निकटता बनाने के प्रयास में वह नई कहानी, अकहानी, सचेतन कहानी, सहज कहानी, समांतर कहानी, जनवादी कहानी, सक्रिय कहानी आदि नित नये चोले बदलती रही, परंतु बात बनी नहीं। सही कहा जाय तो प्रेमचंद के जीवनकाल में ही इस तड़प के अंकुर दिखाई देने लगे थे। प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता करने का सम्मान उन्हीं को सौंपा गया था। यद्यपि जनवादी और सक्रिय कहानी आंदोलन का समय लगभग 1980 के आसपास तक फैला है तथापि इसी अवधि के दौरान 1971-72 में लघुकथा-लेखन भी एक अघोषित आंदोलन का रूप ले चुका था। एक के बाद एक धराशायी होते कहानी-आंदोलनों ने तत्कालीन युवा-कथाकारों को कथा-लेखन में लाघव की ओर प्रवृत्त किया। अत: समकालीन दृष्टि से लाघव को लघुकथा-लेखन का वैज्ञानिक-सूत्र कहा जा सकता है और समकालीन लघुकथा का आधारभूत गुण भी। लाघव ही है जो किसी कथा-रचना का लघुकथा होना और कहानी न होना तय करता है। लाघव के व्याकरण एवं शब्दकोश सम्मत अर्थों को रूढ़ दृष्टि से परखने की बजाय विज्ञान-सम्मत परिमार्जित दृष्टि से परखने व खुले मस्तिष्क से ग्रहण करने की आवश्यकता है। शब्द को Arbitrary अर्थात् स्वतंत्र/यदृच्छिक प्रकृति का माना जाता है। शब्दकोशों के 1950 के आसपास के संस्करणों में दी गई हार्डवेअर के अर्थों की सूची में कम्प्यूटर हार्डवेअर(Hardware) का जिक्र शायद ही हो। आज, सेनिटरी (sanitary) सामान वाले भी हार्डवेअर बेच रहे हैं और कम्प्यूटर सामान वाले भी। मेरा मानना है कि शब्दकोश कितने ही भारी क्यों न हों, उनमें प्राय: शब्द के पूर्व(एवं वर्तमान में) प्रचलित अर्थों को ही स्थान मिल पाता है, निहित अर्थों(की खोज) के लिए हमे दर्शन, विज्ञान, लोक आदि सम्बद्ध साहित्य की ओर अग्रसर होना होता है। लघुकथा में प्रयुक्त लाघव को भाषा-विज्ञान की सामान्य शब्दावली में विवरण-लाघव अर्थात् इकॉनमी ऑव ओरल डिस्क्रिप्शन(Economy of oral description) कह सकते हैं।
शब्द, वाक्य और भाषा को जानने-पहचानने के लिए हमारे पास प्रमुखत: दो शास्त्र हैंव्याकरण और भाषा-विज्ञान। इनमें व्याकरण को रूढ़शास्त्र कहा जाता है। इसके नियम निर्धारित हैं और अपरिवर्तनशील हैं। राम को सर्वनाम या क्रिया नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत भाषा-विज्ञान को विकासशील/प्रगतिशील शास्त्र कहा जाता है। इसमें नित नए शोध होते हैं। भाषा-विज्ञान शब्द और भाषा में होने वाले परिवर्तन को विकास की संज्ञा देता है तथा उसे भाषा की प्राणवत्ता और जीवन्तता का लक्षण मानता है। व्याकरण एक सीमित और संकुचित शास्त्र है। यहाँ एक तथ्य को मैं उद्धृत करना चाहूँगा जिसे डॉ हरीश शर्मा ने भाषा विज्ञान की रूपरेखा के वाक्यविज्ञान और अर्थविज्ञान उपशीर्ष तले यों व्यक्त किया है—‘भाषात्मक शब्दों के कोषगत अर्थों से अधिक महत्वपूर्ण उनके प्रयोगगत अर्थ होते हैं। व्याकरणगत शब्द-भेद एक कामचलाऊ व्यवस्था है, जिसके बारे में बहुत कुछ आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। प्रसंगभेद से उनकी कोटियाँ और उनके अर्थ बदल जाते हैं।
वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत-हिन्दी कोश में लाघव के जो दस अर्थ दिए गए हैं, उनमें क्रमांक 7,8 व 9 पर लिखे अर्थ इस प्रकार हैं
(7) क्रियाशीलता, दक्षता, तत्परताभाषा-विज्ञान इन्हें हस्तलाघव कहता है।
(8) सर्वतोमुखी प्रतिभाभाषा-विज्ञान में इसे बुद्धिलाघव कहते हैं।
(9) संक्षेपभाषा-विज्ञान इसे अभिव्यक्तिलाघव की संज्ञा देता है।
श्रीयुत चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शर्मा द्वारा संपादित संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ(संस्करण:1928ईस्वी) में लाघवका एक अर्थ सभी विषयों में पारदर्शिता भी दिया हुआ है।
अत: लघुकथा में लघु के विश्लेषण की बात चलने पर इसके रूढ़ अर्थ को त्यागकर उसे लाघव का प्रतिनिधि ही मानना पड़ेगा। इसके अर्थ की पुरातन लीक को जब तक हम नहीं त्यागेंगे, लघुकथा के समकालीन, अधिक स्पष्ट कहूँ तो यथार्थपरक और वैज्ञानिक दृष्टियुक्त तात्पर्य से दूर ही रहेंगे। न सिर्फ तात्पर्य से, बल्कि उद्देश्य से भी। एक आलोचक के रूप में कोई भी पुरातन दृष्टि से इस सशक्त कथा-विधा के साथ न्याय नहीं कर पायेगा और जीवनभर छोटा ही आँकता रहेगा।

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

‘लघुकथा’ संवेदनात्मक-क्षण को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करने वाली कथा-रचना है/बलराम अग्रवाल

                                              बलराम अग्रवाल से जितेन्द्र ‘जीतू’ की बातचीत

लघुकथा
-विधा पर शोध के दौरान बिजनौर निवासी भाई जितेन्द्र जीतू द्वारा दिनांक 2-11-2009 को ई-मेल के माध्यम से पूछे गए तीन प्रश्न और उनके उत्तर:
कहानी लघुकथा के तत्वों के बी
च क्या हम कोई विभाजन रेखा खींच सकते हैं? यदि हाँ, तो कौन-सी?
साहित्य में कुछ रचना-प्रकार समान-धर्मा होते हैं। काव्य-साहित्य में क्षणिका और कविता तथा कथा-साहित्य में लघ्वाकारीय कहानी(हिन्दी कहानी के वर्तमान मेंलम्बी कहानी, कहानी एवं छोटी कहानीआकार के अनुरूप ये तीन पद प्रचलित हैं। 1000 शब्दों से 1500 शब्दों तक की कथा-रचना को छोटी कहानी तथा उससे ऊपर 3000-4000 शब्दों तक की कथा-रचना को कहानी माना जा रहा है।) और लघुकथा ऐसे रचना-प्रकार हैं जिनके बीच किसी भी प्रकार की स्पष्ट विभाजन रेखा सामान्यत: नहीं खिंच पाती है। सामान्य पाठक के लिए छोटी कहानी और लघुकथादोनों ही कहानी हैं, लेकिन अध्ययन, शोध और विश्लेषण में रुचि रखने वालों के लिए ये दो अलग प्रकार की रचनाएँ हैं। आकार-विशेष अथवा शब्द-संख्या-विशेष तक सीमित रहने या सप्रयास रखे जाने के बावजूद कुछ कथा-रचनाओं को नि:संदेह लघुकथा नहीं कहा जा सकता, जबकि आकार-विशेष और शब्द-संख्या-विशेष की वर्जनाओं को तोड़ डालने वाली अनेक कथा-रचनाएँ स्तरीय लघुकथा की श्रेणी में आती हैं। स्पष्ट है कि इन दोनों के बीच विभाजन के बिन्दु मात्र आकार अथवा शब्द-संख्या न होकर कुछ-और भी हैं। मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना वाली कहावत का मान रखते हुए यह कहना उचित ही होगा कि विभाजन के वे बिन्दु अनेक हो सकते हैं। उनमें से एक को राजेन्द्र यादव के शब्दों में स्वयं की बात को कहने का प्रयास करूँ तो यों कहा जा सकता है कि—‘समकालीन लघुकथाकार ने अपने कथा-चिंतन को यहाँ और इसी क्षण पर केन्द्रित कर दिया है, उसका अपना यही क्षण, उसका कथ्य है, तथ्य है और उसका जीवन-मूल्य भी है। तात्पर्य यह कि लघुकथा संवेदनात्मक-क्षण को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करने वाली वह कथा-रचना है जो संदर्भित तथ्यों को निबन्धात्मक, विवरणात्मक रूप में प्रकटत: प्रस्तुत करने की बजाय सावधानीपूर्वक इस प्रकार रचना के नेपथ्य में सुरक्षित पहुँचा देती है कि आवश्यकता पड़ने पर सुधी पाठक जब चाहे तब लम्बी कहानी की तरह उसका आस्वादन ले सकता है।
क्या लघुकथा के अन्त का विस्फोटक होना या विरोधाभासी होना लघुकथा का आवश्यक गुण है?
समकालीन लघुकथा-लेखन के प्रारम्भिक दौर में, विशेषत: 1970 से 1975 तक की अवधि में, एक ही पात्र की दो विपरीत मानसिकताओं को चित्रित करने का चलन लघुकथा में रहा। समाज में सम्मान-प्राप्त एवं अनुकरणीय समझे जाने वाले व्यक्तियों के असंगत व्यवहारों अर्थात् उनकी कथनी और करनी के भेद को चित्रित करने को, नेताओं व धार्मिकों के चरित्रों को उनके द्वारा व्याख्यायित होने वाले सामाजिक मूल्यों से इतर होने को, परिवार में बड़ी उम्र के लोगों द्वारा स्वयं से छोटों अर्थात् माता-पिता द्वारा बच्चों व सास-ससुर-जेठ-जेठानी-पति आदि द्वारा बहू-पत्नी के प्रति किए जाने वाले दमनपूर्ण व्यवहार को एक झटके में बता देने की अधीर प्रवृत्ति ने उक्त प्रकार के कथा-लेखन को पैदा किया होगा। उच्च-सामाजिकों की चरित्रहीनता व दायित्वहीनता से 1965-66 के आसपास से ही सामान्य नागरिक स्वयं को वस्तुत: अत्याधिक त्रस्त महसूस करता दिखाई देता है। उक्त त्रास को सुनने वाला उसे जब कोई भी कहीं नजर नहीं आया, तब गल्प, जिसे आम बोलचाल में गप्प कहा जाता है, ने उसका हाथ पकड़ा। दमनकारी स्थितियाँ जब भी आम आदमी पर इस हद तक भारी पड़ती हैं, सबसे पहले वह यही मार्ग चुनता है और अपनी त्रासद स्थितियों को अपने गली-मुहल्ले, ऑफिस और चौपाल के संगी-साथियों के सामने सुनाना प्रारम्भ करता है। मैं समझता हूँ कि कथा-साहित्य को परोक्ष-अपरोक्ष कच्चा-माल गल्प कह पाने की क्षमता से लैस यह आम आदमी ही सप्लाई करता है। कथित काल में कथाकार कहलाने की क्षुधा से पीड़ित कुछ आकांक्षियों को ऐसा लगता रहा होगा कि यह कच्चा माल ज्यों का त्यों भी समाज की पीड़ा को स्वर देने में सक्षम है और यही लघुकथा है जिसे लिख डालना बहुत आसान काम है। सारिका जैसी तत्कालीन स्तरीय कथा-पत्रिका में ऐसे लेखक वैसी रचनाओं के साथ लगातार जगह पाते रहे। इस प्रवृत्ति ने लघुकथा को जहाँ बहु-प्रचारित करने का महत्वपूर्ण काम किया, वहीं लगातार कच्चा और एक ही तरह का माल परोसे जाने के कारण इस विधा का अहित भी बहुत किया। वास्तविकता यह है कि लघुकथा एक ही व्यक्ति अथवा व्यक्ति-समूह के दो विपरीत कार्य-व्यवहारों का चित्रण-मात्र नहीं हैइस तथ्य को समर्थ लघुकथा-लेखकों ने तभी से लगातार सिद्ध किया है।
मेरा मानना है कि लघुकथा में शीर्षक, कथ्य-प्रस्तुतिकरण की शैली, भाषा की प्रवहमण्यता आदि अनेक अवयव ऐसे हैं जो उसमें प्रभावशीलता को उत्पन्न करते हैं। कथा का प्रारम्भ, मध्य और अन्त कैसा होइसका निर्धारण अलग-अलग रचनाओं में अलग-अलग ही होता है। इस दृष्टि से लघुकथा के अन्त का अनिवार्यत: विस्फोटक होना स्वीकारणीय नहीं प्रतीत होता है। कुछ लोग लघुकथा के अन्त को चौंकाने वाला मानते व प्रचारित करते हैं और इस चौंक को लघुकथा का प्रधान तत्व तक घोषित करते हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि लघुकथा में तत्व-निर्धारण मेरी समझ से बाहर का उद्योग है। शास्त्रीयता का सहारा लेना आलोचक का धर्म तो हो सकता है, कथाकार का नहीं। कथाकार अगर 5-5 ग्राम सारे तत्व रचना में डालने की जिद पकड़े बैठा रहेगा तो जिन्दगीभर तोलता ही रह जाएगा, लिख कुछ नहीं पाएगा।
क्या लघुकथा के शीर्षक पर इतराया जाना जरूरी है?
लघुकथा क्योंकि छोटे आकार की कथा-रचना है, अत: शीर्षक भी इसकी संवेदनशीलता व उद्देश्यपरकता का वाहक होता है; तथापि इतराने के लिए लघुकथा क्या किसी भी कथा-विधा के पास मात्र कोई एक ही अवयव होता हो, ऐसा नहीं है। किसी रचना का कथ्य इतराने लायक होता है तो किसी का प्रस्तुतिकरण। जहाँ तक शीर्षक का सवाल है, कथा-रचनाओं के शीर्षक सदैव ही व्यंजनापरक नहीं होते, कभी-कभी वे चरित्र-प्रधान भी होते हैं। शीर्षकहीन शीर्षकों से भी कुछ कहानियाँ व लघुकथाएँ पढ़ने में आती रही हैं। से रा यात्री की एक कहानी का शीर्षक कहानी नहीं है तो पृथ्वीराज अरोड़ा की एक अत्यन्त चर्चित लघुकथा का शीर्षक कथा नहीं है। ऐसे शीर्षक कथ्य के सामान्यीकरण का सशक्त उदाहरण सिद्ध हुए हैं। कुछ शीर्षक काव्यगुण-सम्पन्न भी होते हैं अर्थात् संकेतात्मक अथवा यमक या श्लेष ध्वन्यात्मक। नि:संदेह, कुछ शीर्षक लघुकथा के समूचे कथानक को कनक्ल्यूड करने की कलात्मकता से पूरित होते हैं, लेकिन कुछ प्रारम्भ में ही समूचे कथानक की पोल खोलकर रचना के प्रति पाठक की जिज्ञासा को समाप्त कर बैठने का भी काम करते हैं। ऐसे किसी भी शीर्षक पर कैसे इतराया जा सकता है? शीर्षक को रचना के प्रति जिज्ञासा जगाने वाला होना चाहिए। परन्तु, अगर किसी लघुकथा का शीर्षक कथ्य को उसकी सम्पूर्णता में अभिव्यक्त करने में सक्षम सिद्ध होता है; या फिर, अगर पाठक को वह कही हुई कथा के नेपथ्य में जाने को बाध्य करने की शक्ति से सम्पन्न सिद्ध होता है तो बेशक उस पर इतराया भी जा सकता है।

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

लघुकथा में शब्द-प्रयोग संबंधी सावधानियाँ/बलराम अग्रवाल

कि
सी भी व्यक्ति के
जीवन में अनुभव और अनुभूति दो भिन्न स्थितियाँ हैं। अनुभव हमें जगत से जोड़ते हैं और अनुभूतियाँ जीवन की विराटता से। अनुभूतिहीनता की स्थिति में सिर्फ अनुभव मनुष्य को ठेठ व्यवहारवादी और किसी हद तक अमानवीय रवैये वाला तक बना सकते हैं। कहा जा सकता है कि अनुभूतिपरकता अनुभवपरकता की दिशावाहक है। अनुभूतिहीन अनुभवी व्यक्ति व्यष्टिपरक चिंतन का और अनुभूतिपूर्ण अनुभवी व्यक्ति समष्टिपरक चिंतन का पोषक होता है। यही वजह है कि लेखन में प्रवृत्त किसी व्यक्ति का विपुल अनुभवी होना जितना आवश्यक है, उससे कहीं अधिक आवश्यक उसका अनुभूतिपूर्ण होना है। इस आधार पर लेखन को दो अलग-अलग स्तरों पर देखा-परखा जा सकता हैअनुभवपूर्ण लेकिन अनुभूतिहीन लेखन तथा अनुभवपूर्ण अनुभूत लेखन। अनुभवहीन लेखन की व्याख्या करना यहाँ हमारा हेतु नहीं है।

हमारे अनुभव जब अनुभूतियों की गहराई को छुए बिना ही रचना का रूप ले लेते हैं, तब जाहिर है कि तत्संबंधी विषय के अनुभूत शब्दों का प्रयोग भी उक्त रचना में नहीं हो पाता होगा। आज पूर्व पीढ़ी के लेखकों और आलोचकों-समीक्षकों पर जब हम यह आरोप लगाते हैं कि वे लघुकथा का यथोचित नोटिस नहीं ले रहे हैं, तब निश्चित ही यह भूल गए होते हैं कि मूल्यांकन के लिए हमने भाषा, शब्द-प्रयोग, शिल्प और शैली के स्तर पर उनके समक्ष आखिर कितनी उत्कृष्ट रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। अनुभवपूर्ण लेकिन अनुभूतिहीन लेखन किया है या अनुभवपूर्ण अनुभूत लेखन। कोई भी रचना जिसमें अनुभूत और सटीक शब्द-प्रयोग न हुआ हो उथली समझ वाले या चारण किस्म के लोगों से वाह-वाही भले ही लूट ले, किसी स्वस्थ समालोचक के मस्तिष्क में अपना स्थान नहीं बना सकती। हर शब्द का अपना आकार, स्वरूप, सौन्दर्य, स्वर और वजन होता है और यह सब अलग-अलग स्थिति-परिस्थिति में अलग-अलग होता है। तात्पर्य यह कि पानी का अर्थ हर जगह जल और जल का अर्थ हर जगह पानी नहीं होता। शब्द स्वयं अपनी रेंज बताता है, लेखक के पास तो उसकी आवाज को सुनने वाले कान होने चाहिएँ। बिल्कुल उस तरह, जिस तरह उसके पास शब्द के सौन्दर्य को परखने वाली दृष्टि और वजन को तौल सकने वाली मेधा होनी चाहिए। लघुकथाओं में ऐसे शब्द-प्रयोग अक्सर देखने को मिल जाते हैं जिन्हें अनुभूत तो कहा ही नहीं जा सकता, बल्कि जो व्याकरण और भाषा-विज्ञान की दृष्टि से भी गलत होते हैं। ऐसी गलतियों पर जब भी उँगली रखी जाती है, लोग कहते हैं कि आपकी इन्हीं हरकतों की वजह से लघुकथा का सही नोटिस नहीं लिया जाता है। जब आप खुद ही लघुकथा में प्रयुक्त गलतियों को उजागर कर रहे होते हैं तो आलोचक उसके बारे में भला क्या बोले? आपको तो लघुकथा के सबल पक्ष को ही उजागर करना चाहिए। ऐसे लोगों की सोच से इतर मेरा सोचना है कि किसी स्वस्थ और सुन्दर दीख रहे व्यक्ति को अगर कोई आन्तरिक रोग हो तो उस रोग को दूर करने के प्रयास पहले होने चहिएँ और दूसरे अन्य कोई भी प्रयास उसके रोगमुक्त हो जाने के बाद; और रोग अगर छूत का हो तो जाहिर है कि दूसरे लोगों को उससे बचाए रखने की खातिर उसका खुलासा कर देना ठीक ही है।
अब मैं विषय को कुछ उद्धरणों के माध्यम से आगे बढ़ाऊँगा:
बेसुरे स्वर में गुनगुनाते हुए
शब्दों पर ध्यान दें—‘गाना और गुनगुनानागाना एक मुखर क्रिया है और गुन्गुनाना अन्तर्मुखी। गुनगुनाते हुए व्यक्ति की स्थिति किसी ध्यानस्थ-व्यक्ति जितनी शांत होती है। गुनगुनाना अहंकारविहीन निर्विकार क्रिया है। गुनगुनाना स्वान्त: सुखाय होता है। अत: उसके बेसुरे होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। आदमी गाना गाते वक्त मुखर होता है और तब बेसुरा हो सकता है। दूसरे, सुर में स्वर स्वत: ही विद्यमान है। बिना स्वर के सुर की कल्पना ही नहीं की जा सकती। अत: बेसुरे के साथ स्वर शब्द का प्रयोग वाक्य पर अतिरिक्त बोझ लादने जैसा तो है ही, उसके लयात्मक सौन्दर्य को नष्ट करने वाला भी है। इस अतिरिक्त बोझ लादने को ही लघुकथा में लफ्फाजी कहा जाता है।
एक सभ्य किंतु साहसी एवं फुर्तीला युवक
इस वाक्य का क्या मतलब निकलता है? क्या साहस और फुर्ती सिर्फ असभ्य समाज का ही गुण हैं? इस वाक्य में किंतु के स्थान पर कॉमा(,) लगाने मात्र से यह अर्थपूर्ण बन जाता है।
स्वाभिमानी स्वभाव
स्वाभिमान स्वयं में एक भाव है न कि स्वभाव। इसमें स्व स्वत: ही प्रत्यक्ष है, एक और स्व(स्वभाव) का प्रयोग शब्द के स्वरूप के प्रति न सिर्फ लापरवाही बल्कि उससे अनभिज्ञता भी प्रकट करता है।
आशानुकूल अधिकारी भड़क उठा
परिस्थितियों के अनुरूप पूर्वानुभूति को प्रकट करने के लिए हमारे पास प्रमुखत: दो शब्द हैंआशा और आशंका। अपनी इच्छा के अनुरूप, सकारात्मक परिणाम की पूर्वानुभूति को आशा तथा इच्छा के प्रतिकूल नकारात्मक परिणाम की पूर्वानुभूति को आशंका शब्द से प्रकट करते हैं। जिस लघुकथा से उपरोक्त उद्धहरण लिया गया है उसमें वर्णित घटनाक्रम से स्पष्ट है कि अधिकारी का भड़कना आशानुकूल नहीं आशंकानुकूल था।
थूक का लौंदा खिड़की से बाहर पिच्च से फेंका
लौंदा लुगदी-जैसे किसी पदार्थ से ही बन सकता है, द्रव पदार्थ से नहीं। उद्धृत वाक्य के संदर्भ में लौंदा कफ का तो हो सकता है, थूक का नहीं। दूसरे, पिच्च से तात्पर्य होता हैदाँतों और जीभ के जरिए जेट(बारीक छेद) बनाकर मुँह में एकत्र द्रव (थूक या पीक) को पिचकारी से निकली धार की तरह बाहर फेंकना। लौंदा लुगदी के आभास वाला शब्द है, अत: इसे थक्क से तो फेंका जा सकता है, पिच्च से नहीं।
विवशता की बैसाखी
किसी व्यक्ति के जीवन में बैसाखी एक विवशता या अवलंब कुछ भी हो सकती है, परन्तु विवशता स्वयं में कभी बैसाखी नहीं बन सकती।
सोच की तन्द्रा
तन्द्रा किसे कहते हैंइसकी व्याख्या के लिए पर्याप्त स्थान और समय यहाँ नहीं है। संक्षेप में, खुली आँखों अपनी आवश्यकता और क्षमता से अधिक सुख-सुविधाओं आदि की प्राप्ति के लिए देखे जाने वाले प्रयासहीन सपने तन्द्रा की श्रेणी में आते हैं। सोच की तन्द्रा मानव-जीवन में कोई स्थिति नहीं है।
शब्दों के प्रयोग भाषा को हमेशा ही सुन्दर नहीं बनाते और सुन्दर लगने वाली भाषा भी हमेशा ही अर्थवान नहीं होती। मेरे एक कवि-मित्र मंचीय कवि-सम्मेलनों में बड़ी ऊँची आवाज में निम्न पंक्तियाँ गा-गाकर व्यापक जन-समूह की प्रशंसा पाते रहे हैं:
मैं मानव को इंसान बना डालूँगा
मैं ईश्वर को भगवान बना डालूँगा
कीच पर कीचड़ उछालने वालो सुन लो
मैं पत्थर को पाषाण बना डालूँगा
वस्तुत:दुरूह शब्द-प्रयोग और वक्र वाक्य रचना कभी-कभी सिर्फ वक्रता या दुरूहता के कारण ही प्रशंसित होते हैं, निरर्थक होते हुए भी। लघुकथा में भी ऐसे उदाहरण अक्सर देखने को मिल जाते हैं। देखिए—‘मैं अपने देश के विषय में फैल रहे सत्य के असत्य और असत्य के सत्य के विषय में सोचकर सिहर-सा उठा। इस वाक्य में अनर्थ का अर्थ और अर्थ का अनर्थ खोजने के लिए आप लाख सिर पटकिए, कुछ नहीं मिलेगा।
बिम्ब या प्रतीक के अतिरिक्त एक और आरोपण लघुकथाओं में देखने को मिल जाता है, जनवाद का आरोपण। मेरी दृष्टि में जनवाद एक सहज और स्वाभाविक विचारधारा है। किसी भी रचना में यह विषय-स्फूर्त हो तो रचना प्रभावशाली बनती है; लेकिन इसका थोपा जाना रचना को यथार्थ के धरातल पर उथली नाटकीयता से ही भर पाता है, प्रभाव से नहीं। लघुकथाओं में आरोपित जनवाद को स्पष्ट करने की दृष्टि से कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं:
अभी वह भागा ही था कि भीड़ ने बगैर पुलिस की परवाह किए ड्राइवर को पकड़कर ट्रक पर ला पटका। भीड़ में से कुछ लोग चिल्लाए—‘लगा दो आग इस खूनी ट्रक को!
धीरे-धीरे आक्रोशमयी भीड़ ट्रक की ओर बढ़ने लगी।
आइए इस पर विचार करते हैं
अन्तिम वाक्य के माध्यम से जनवादी बिम्ब उभारने का यत्न किया गया है, लेकिन अगर हम ध्यान दें तो भीड़ ने ड्राइवर को पकड़कर पहले ही ट्रक पर ला पटका है, दूर से फेंका नहीं है। स्पष्ट है कि पटकने के लिए भीड़ पहले ही ट्रक तक पहुँच चुकी होगी। ऐसी हालत में वह धीरे-धीरे ट्रक की ओर कहाँ से बढ़ने लगी? इसे ही आरोपित बिम्ब-विधान कहते हैं।
इस चीख के साथ ही वह एकाएक उठकर बैठ गया था और उसकी मुट्ठियाँ स्वत: भिंच गई थीं। इस समय वह अपने को एकदम हल्का महसूस कर रहा थाबिल्कुल तनावमुक्त।
किसी व्यक्ति का चीखकर उठ-बैठना और मुट्ठियाँ भींच लेना उसका तनावयुक्त होना दर्शाता है न कि तनावमुक्त हो जाना। किसी निर्णय पर पहुँचने के उपरांत व्यक्ति मस्तिष्क और शरीर के सारे तनावों को त्यागकर खड़ा होगा तो उसकी खिंची हुई नसें ढीली पड़ेंगीं, भिंची हुई मुट्ठियाँ खुलेंगी, विस्तार पायेंगी। दरअसल, सहजता को त्यागकर लेखक अगर किसी वाद विशेष को अपने सिर पर लाद लेता है तो ऐसी बेसिर-पैर की भाषा बोलने ही लगता है। उसकी कथा में घटना, पात्र की स्थिति और शब्द-चयन के बीच सारा सामंजस्य गड़बड़ा जाता है। यहाँ चीख के स्थान पर निश्चय या संकल्प का प्रयोग किया जाता तो भिंची हुई मुट्ठियाँ स्वयं बोलती नजर आतीं, कथाकार को अपनी तरफ से कुछ भी कहने की जहमत न उठानी पड़ती। चीख को सिर्फ चीख जानने-समझने वाले लेखक को मालूम होना चाहिए कि कुछ चीखें पुकारात्मक, कुछ संकल्पात्मक, कुछ निश्चयात्मक, कुछ रुदनात्मक, कुछ धमकी देने वाली तो कुछ अन्य अनेक प्रकार की हो सकती हैं।
अन्य बहुत-से उदाहरण हैं जिनको भाषा की कुरूपता, लयहीनता और गतिहीनता के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। फिलहाल सिर्फ इतना कि अपने अनुभवों को ही नहीं अपितु अध्ययन और अनुभूतियों को भी आयाम दें। अनुभूत शब्दों का प्रयोग न हो तो कोई भी प्रतीक, कोई भी बिम्ब या कोई भी वाद रचना में संप्रेषणीयता और प्रभावपूर्णता नहीं भर सकता है।

मंगलवार, 23 जून 2009

लघुकथा में आधुनिकता/बलराम अग्रवाल


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घुकथा-संकलन बोलते हाशिए को संपादित करते समय उसके संपादक राजा नरेन्द्र(अब कुमार नरेन्द्र) ने जब बतौर संकलित लघुकथाकार मुझसे लघुकथा के संबंध में लेखकीय टिप्पणी माँगी थी तो मैंने लिखा था—‘…जो लोग कहानी की आत्मा को नहीं जानते, लघुकथा लिखना-समझना उनके बूते से बाहर की बात है। लघुकथा की यथार्थ दिशा की ओर संकेत करते मेरे इस वाक्य को समझने की लोगों ने लेशमात्र भी आवश्यकता महसूस नहीं की। यह उन दिनों की बात है, जब लोग घनी भीड़ के बीच एडियाँ उठा-उठाकर लघुकथारूपी कैमरे में फोकस हो जाने के लिए लालायित एवं प्रयत्नशील थे। यह उन दिनों की बात है, जब लोग लघुकथा-सृजन पर कम, उसकी परिभाषा गढ़ने पर अधिक माथापच्ची करते नजर आते थे। विद्वता-प्रदर्शन का यह हाल कि आचार्य किशोरीदास वाजपेयी भी पढ़ते तो कन्नी काट जाते। शब्दों के साथ ऐसी कुश्ती इस युग में लघुकथा के परिभाषाकारों के अतिरिक्त किसी और के वश का रोग नहीं था। यों यह प्रयास अभी भी जारी है, परन्तु उस मात्रा में नहीं। मात्र परिभाषा लिखकर अल्लामा बन निकलने की दम्भ-प्रतीति जैसी इन परिभाषाकारों में देखने को मिलती है, वैसी किसी अन्य साहित्य-विधा में नहीं। यहाँ तो हाल यह है कि परिभाषा के अतिरिक्त भूलवश भाई का तत्संबंधी कोई लेख अगर है भी तो वह दिनभर में बैठकर लिखी गई दस-बारह-पंद्रह-बीस परिभाषाओं का संकलन मात्र नजर आता है। एक आम मुहावरा है कि अर्थशास्त्र परिभाषाओं का पुलिंदा है। छ: अर्थशास्त्री मिलकर एक जगह बैठे नहीं कि सातवीं अर्थशास्त्रीय परिभाषा पैदा हो जाती है। परन्तु लघुकथा के परिभाषाकार, परिभाषाओं की दौड़ में ये अर्थशास्त्रियों के कौशल से मीलों आगे हैं, वह भी मात्र सात या आठ वर्षों के प्रयत्न के उपरान्त। गोया लघुकथाकार न हुए भामह, लोलट या मम्मट हो गए; भरत मुनि, राजशेखर, अरस्तु या आई ए रिचर्ड्स अथवा ई एम फोर्स्टर हो गए। यों इन मनीषियों ने भी मात्र परिभाषाएँ ही लिखकर विषय-विशेष को व्याख्यायित मान लिया हो, ऐसा कोई प्रमाण साहित्य की पुस्तकों में नहीं मिलता। जिन्दगी को लेख व निबन्ध आदि लिखने में होम कर देने के उपरान्त आज इनके नाम किसी परिभाषा के साथ जुड़ पाता है। उसके लिए भी पाठक वृंद को शोधार्थी की हैसियत से इनके भरे-पूरे विशाल साहित्य-सागर में बूढ़ना होता है।
रीतिकाल में ऐसे अगणित कवि रहे हैं जो काव्य रचना के शिक्षक थे, परन्तु दुर्भाग्यवश स्वयं अच्छी कविता लिख पाने में असमर्थ थे। सन 1900 में सरस्वती में प्रकाशित एक आलोचनात्मक लेख हिन्दी काव्य के लेखक-द्वय मिश्र-बंधुओं ने इस संदर्भ में लिखा—‘आँख एक भी नहीं और कजरौटे नौ-नौ! सम्प्रति, लघुकथा में भी अच्छे लघुकथाकार स्वनामधन्य परिभाषाकारों की तुलना में नगण्य ही हैं। यहाँ न अरस्तुओं को अधिक लिखने की आवश्यकता है और न ही कोमलमना पाठकवृंद को गहरे बूढ़ने की। लिखे हुए उस दीर्घ में से भी तो अन्तत: परिभाषा अथवा सिद्धांत प्रतिपादन के योग्य चार-छह शब्द ही छाँटे जाने हैं; सो क्यों श्रम किया-कराया? मात्र परिभाषा ही लिख मारते है। तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय। गुड़ खायें और गुलगुलों से बैर करें!! लघु यानी शॉर्ट ही अपनाना है तो शॉर्ट-कट से भला कैसा परहेज। यों इस मामले में बेचारे परिभाषाकार नहीं, लघुकथा के शोधकर्ता, शोध-निदेशक और संपादकगण भी कम दोषी नहीं हैं। शोधकों ने अपना हित साधने की गरज से संदर्भहीन परिभाषाएँ एकत्र कीं और अनेक संपादकों ने भी उन्हें इसी प्रकार प्रकाशित किया। वैसे तो स्वयं परिभाषाकार से ही संदर्भ पूछा जाए तो वह कहेगा कि यह तो परिभाषा है, इसके लिए लम्बी-चौड़ी लफ्फाजी(!) की आवश्यकता ही क्या थी? वाह रे, लघुकथा के सपूतो!!
लघुकथा जैसे लघ्वाकारीय कथा-प्रकार के साथ यद्यपि समकालीन या सामयिक या आधुनिक या कोई अन्य विशेषण जोड़ा जाय, यह आवश्यक नहीं है। यों भी लघुकथा के कंधे अभी इतने मजबूत नहीं हुए हैं कि विशेषणों के बोझ को सह सकें। लेकिन कभी-कभी वंशीधर को गिरधर और मर्यादा पुरुषोत्तम को धनुर्धर बनना ही पड़ता है। समय की माँग के अनुरूप लघुकथा के लिए भी यह अत्यन्त आवश्यक था। अन्तर सिर्फ यह रहा कि आधुनिक लघुकथा की मेरी अवधारणा से सहमत होकर जगदीश कश्यप जैसे उग्र व्यक्ति ने आगे बढ़ाया। इधर कुछ लेख समकालीन लघुकथा आदि शीर्षकों के अन्तर्गत प्रकाशित देखे गए हैं। इन्हें लिखने-छापने वाले वही लोग हैं जिन्हें लघुकथा के आगे आधुनिक जोड़ने पर आपत्ति थी।
कमल गुप्त और बलराम प्रारम्भ से ही लघुकथा और लघुकहानी के बीच यथेष्ट अन्तर की बात करते रहे हैं। एक समय था जब मैंने भी नाममात्र के इस द्वैत का लगभग विरोध ही किया था। परन्तु तत्वत: मैं स्वयं मानता रहा कि लघुकथा काहानी की आत्मा है। कभी-कभी मन्तव्य समान होते हुए भी विश्लेषण के स्तर पर एकसूत्रता के अभाव में हम परस्पर अपरिहार्य उलझाव पैदा कर लेते हैं।
हिन्दी कहानी या उपन्यास साहित्य को यदि प्रेमचंद जैसा ऊर्जावान और सामर्थ्यवान लेखक बल एवं प्रतिभापूर्वक खींचकर सही राह पर न ले आया होता तो चन्द्रकान्ता और उसकी सन्तति के रास्ते पर चलता हुआ यह किसी अड़ियल भैंसे की तरह ऐय्यारी और राजसी प्रमाद के कीचड़ व दलदल में बैठकर जुगाली कर रहा होता। गर्व की बात है कि हिन्दी कथा साहित्य अब अपनी शैशवावस्था अथवा प्राथमिक-स्तर पर नहीं है, वरन् विश्व साहित्य में उसे सम्मानजनक स्थान प्राप्त है। यह सम्मान उसने पुराण-कथाओं, राजा-रानियों-परियों के किस्सों अथवा ऐय्यारी और तिलिस्म से भरी रचनाओं के जरिए नहीं, बल्कि गुलामी के बंधनों में जकड़ी अपनी जनता के बीच स्वायत्तता-प्राप्ति हेतु आन्दोलनपरक प्रतिगामी अनुभूति एवं यथार्थ से परिपूर्ण साहित्य रचकर प्राप्त किया है। हिन्दुस्तान के जन-मन में स्वाधीनता-प्राप्ति हेतु अंग्रेज-शासकों के विरुद्ध आन्दोलन, अवज्ञा आदि की चिंगारियाँ ऐसे ही विकसित नहीं हो गईं। क्रमबद्ध प्रेरणा के रूप में साहित्य ही उस सबके पीछे था। ब्रिटिश-सरकार के अधीन भारतीय जमींदारों और सामन्तों की स्वायत्तता प्राप्ति के प्रति अकर्मण्य मन:स्थिति तथा अपने ही गाँव-कस्बे के गरीब नौकरों-मजदूरों से बेगार लेने की उनकी प्रवृत्ति को जिस गहराई और जिस मन्तव्य के साथ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने परिहासिनी(1876) में प्रकाशित मात्र 45-50 शब्दों की अपनी रचनाओं अंगहीन धनी और अद्भुत संवाद में चित्रित किया, वह व्यर्थ नहीं गया।साहित्यकारों ने न सिर्फ प्रेरणा दी, बल्कि अन्य देशों की जनता द्वारा किए गए संघर्षों एवं उनकी सफलताओं से भी लोगों को परिचित कराया, उन्हें संघर्ष की वैज्ञानिक समझ दी। हिन्दी कथा साहित्य की तरह ही हिन्दी पाठक भी आज न सिर्फ उन्नत हिन्दी साहित्य से बल्कि उत्कृष्ट अनुवादों के जरिए समकालीन विश्व-साहित्य से अपना सान्निध्य रखता है। न सिर्फ कहानी बल्कि उपन्यास और नाट्य साहित्य से भी उसका खासा परिचय है। ऐसी हालत में लघुकथाकार यदि उसे समकालीन कहानी के स्तर की जीवन्त एवं अनुभूतिपूर्ण रचना नहीं दे पाता तो यह उसकी अक्षमता ही कही जाएगी। समय की कमी या अधिकता के अनुपात को दृष्टि में रखकर पाठक रचना को नहीं पढ़ता। वह अपनी संवेदनाओं की तुष्टि और आनन्दानुभूति के स्तर की रचना पढ़ना पसन्द करता है। लघुकथा सरीखी अल्पकाल में पढ़ पाने योग्य रचना यदि उसे वह नहीं दे पाती तो कहानी और उससे भी आगे उपन्यास के पठन के जरिए वह उन्हें प्राप्त करने का समय निकाल लेता है। इस सन्दर्भ में रमेश बतरा की यह उक्ति कि संसार में अधिकांश पाठक उपन्यास ही पढ़ते हैं’—नहीं भूलनी चाहिए। लघुकथा में आधुनिकता अथवा समकालीनता की अवधारणा को प्रस्तुत करते समय हमारी धारणा लघुकथा को समकालीन-कथ्य, विचार, तेवर और शिल्प मे प्रस्तुत करना है न कि उसे भारी-भरकम विशेषणों के बोझ-तले दबा देना।
लघुकथा में आधुनिक विशेषण से बौखलाए लोग मेरी दृष्टि में थोड़ा संकुचित हैं। वे प्रकट कर रहे हैं कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल या अन्य द्वारा काल विभाजन के रूप में खींच दी गई लक्ष्मण-रेखा से इतर आधुनिक के किसी अन्य अर्थ को ग्रहण करने के लिए वे तैयार नहीं हैं। साहित्य में ऐसा व्यवहार नहीं चलता। तया मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनम् कुरु के रूप में वेदों ने हमें बुद्धि की उपासना करना सिखाया है। बुद्धि के द्वारा ही हम हमेशा आधुनिक संदर्भों से जुड़ते हैं। सामयिकता से सहज ही जुड़ पाने के अपने गुण के कारण सैकड़ों वर्ष बाद कबीर की चेतनशील वाणी हमें आधुनिक लगती है, जबकि समकालीन रचनाकारों में अनेक आदि, रीति या भक्ति काल की पृष्ठभूमि वाली रचनाएँ समाज को दे रहे हैं। यद्यपि यह व्याधि काव्य के क्षेत्र को अधिक संक्रमित किए हुए है तथापि लघुकथा सहित गद्य की भी हर विधा में यह पसरी हुई है।
आधुनिक, समकालीन और सामयिक के साथ ही लेखन में तात्कालिक का भी भरपूर उपयोग होता है। बहुत-से लेखक, जो तात्कालिक और सामयिक के बीच के अन्तर को नहीं समझते, तात्कालिक घटनाओं को आधार बनाकर ही लेखन कर रहे होते हैं। तात्कालिक घटना से प्रेरित अथवा प्रभावित होकर लिखी गई ऐसी रचना, जिसमें किसी शाश्वत मूल्य का समायोजन न हुआ हो, सामयिक की श्रेणी में नहीं रखी ज सकती। कथापरक अथवा काव्यपरक घटना-रचना के अलावा उसे कुछ और नहीं कहा जा सकता। आधुनिक, जीवन में नवचेतना के प्रति जागरूकता तथा रूढ़ मान्यताओं व परम्पराओं के प्रतिविद्रोह का भाव रखता है। आघुनिकता इस अर्थ में सृजनात्मकता के अत्यन्त निकट ठहरती है अत: आधुनिक लघुकथा को लघुकथा का प्रकार-विशेष न मानकर हम, समसामयिक सृजनात्मक लघुकथा मान सकते हैं तथा भाव की दृष्टि से समकालीन लघुकथा को भी इसी में समाहित कर सकते हैं।
स्थापनाएँ तथ्यपरकता के क्षेत्र की वस्तु हैं। उनको श्रद्धा और भावप्रवणता के आधार पर प्रस्तुत तो किया जा सकता है, माना नहीं जाना चाहिए। इसलिए लघुकथा में गलत स्थापनाओं और भ्रामक वक्तव्यों का तथ्यपरक प्रतिकार होना चाहिए। लघुकथा कथा का एक धारदार प्रकार है। समकालीन उपन्यास, कहानी, नाटक अथवा एकांकी जिस स्तर की रसानुभूति अपने पाठक या दर्शक को दे पाने में सक्षम हैं, उससे निचले स्तर की अनुभूति लघुकथा के पाठक को न हों, इस बात के प्रति लघुकथाकार को सचेत रहना है। यही लघुकथा का सामयिकता है, यही समकालीनता है और यही आधुनिकता भी। इसी से वर्तमान की लघुकथा में निखार आएगा और इसी से भविष्य की लघुकथा का स्वरूप तय होगा।
संदर्भ: अवध पुष्पांजलि(लघुकथा विकास अंक, अप्रैल 1989) संपादक: प्रताप नारायण वर्मा, माधव प्रकाशन, सआदतगंज, लखनऊ(उ0प्र0)

गुरुवार, 18 जून 2009

बहस से ही टूटता है सन्नाटा/बलराम अग्रवाल

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संदर्भ:अवध पुष्पांजलि(लघुकथाअंक), अप्रैल 1991, संपादक: प्रताप नारायण वर्मा, माधवप्रकाशन, सआदतगंज, लखनऊ(उ0प्र0)
पत्रिका में लगाए संपादकीय नोट के अनुसार यह लेख उनको अगस्त 1990 में मिल गया था। सम्प्रति न तो अब प्रस्तुत लेख में उठाए गए मुद्दे उतनी तीव्रता में बचे हैं और न ही संदर्भित लोगों में से श्रीयुत रमेश बतरा व जगदीश कश्यप हमारे बीच रहे हैं कि अपने जवाब प्रेषित कर सकें। भाई रमेश बतरा ने तो खैर अपने जीवनकाल में भी ऐसी अनाप-शनाप बहसों को कभी गम्भीरता से नहीं लिया था, लेकिन श्रीयुत कश्यप! उनके जवाब साहित्यिक पृष्ठभूमि से हटकर चरित्र-हनन के प्रयत्नों के रूप में सामने आए। लेखकविहीनता का मुद्दा भी डॉगोयनका की ओर से लगभगस्पष्ट हो ही चुका है। फिर भी, उक्त काल के एक रिकॉर्ड के तौरपर इस लेख को यहाँ दिया जारहा है।

घुकथा, सृजन के अपने पहले ही दौर में परस्पर कुत्ता-घसीटी के जंजाल में फँस जाने वाली साहित्य की सम्भवत: अकेली ही विधा है। इसकी एक वजह हैविधा से जुड़े साहित्य की गम्भीर समझ और चिन्तन से जुड़े लोग यहाँ रिस्क लेने से कतराते हैं। इस कतराने का परिणाम यह हो रहा है कि कच्ची समझ वाले व्यवसायी-बुद्धि के लोग खुद जैसी ही एक पीढ़ी तैयार करने में मशगूल हैं और जैसा कि एक नासमझ सोचता है, इसको वे अपनी विद्वता समझने की भूल कर बैठे हैं। इस तथ्य को कि गम्भीर लोगों की चुप्पी उनकी कमजोरी नहीं, उनकी ताकत हुआ करती है; और जिस दिन भी यह चुप्पी टूटती हैअवांछित कामयाबी की दीवारें भरभराकर गिरने लगती हैं और रेत के ढेरों में तब्दील हो जाती हैं, फिलहाल वे भूल रहे हैं।
लघुकथा-साहित्य पर इन दिनों अहंवादियों की छाया है। यही वजह है कि इसमें मुद्दे बहस के लिए नहीं बल्कि अहं तुष्टि के लिए उछाले जाते हैं। ये अहं आपस में अक्सर टकराने भी लगे हैं। साहित्य में जब अहं टकराते हैं तो हल्की-सी सिर्फ आवाज होती हैविस्फोट नहीं होता, सन्नाटा नहीं टूटता। सन्नाटा टूटता है बहस से। बहस से बचकर चलने वाली पीढ़ी सृजन को नए आयाम दे पाने में अक्सर अक्षम ही रहती है। लघुकथा की वर्तमान पीढ़ी के अधिकांश लोग सम्प्रति या तो बहस से कतराते नजर आते हैं या बहस का मुद्दा नजर आत ही कछुए की तरह खुद में सिमटकर बहस को बाढ़ के पानी तरह खुद के ऊपर से गुजर जाने देते हैं। यहाँ मैं फिर अपनी बात को दोहराना चाहूँगा कि यह कच्छप-वृत्ति लघुकथा के विकास के लिए किसी भी दृष्टि से हितकर नहीं है।
बहस का एक सार्थक पासा रमेश बतरा ने दिल्ली दूरदर्शन पर आयोजित एक लघुकथा-चर्चा में 1988 में फेंका था; यह कि लघुकथा का कोई (रचना) विधान नहीं है।
रमेश बतरा आठवें दशक के पहली पीढ़ी के लघुकथा-लेखक के रूप में जाने जाते हैं, हालाँकि अपने संघर्ष के दौर से बाहर निकल आने के बाद वे खुद को लघुकथाकार नहीं, कहानीकार ही कहलाना ज्यादा पसन्द करते होंगे; फिर भी, लघुकथा के प्रति उनके मन में एक खास लगाव है जो साफ नजर आता है। लघुकथा के बारे में उनकी समझ स्पष्ट है और इसीलिए लघुकथा-संबंधी उनके वक्तव्य पर गम्भीरतापूर्वक मनन की जरूरत थी। एक ऐसे रचना-प्रकार पर, जिसका कोई विधान स्वयं गोष्ठी में भाग लेने वाला वक्ता ही नहीं मान रहा हो, गोष्ठी आयोजित करने की जरूरत दिल्ली दूरदर्शन ने क्यों समझी? और एक विधानहीन रचना-प्रकार पर कोई किस हैसियत से विद्वतापूर्वक बोलने का दम्भ भर सकता है? दूरदर्शन पर वक्तव्यों के प्रसारण की (समय आदि संबंधी) अपनी सीमाएँ हो सकती हैं, लेकिन खुले मंचों पर बहस की कोई सीमा नहीं होती। लघुकथा को अपने लेखन की मूल-विधा मानकर चलने वाले लोग उसे अवैधानिक सुनकर भी चुप रहेयही हमारा चरित्र है। इसी को रिस्क लेने से बचना कहते हैं।
बहस का दूसरा पासा जगदीश यानी जगदीश कश्यप ने फेंका है। हालाँकि वे पहले भी कई बार इस पासे को फेंकते रहे हैं लेकिन इस बार इसे जरा कसकर फेंका गया है। पासा है कि लघुकथाकारों ने बाहर के किसी आदमी का हस्तक्षेप नहीं सहा।
साहित्य की किसी भी विधा में क्या वाकई बाहर और भीतर होता है? या सिर्फ लघुकथा में ही ऐसा है? या कि सिर्फ उलझाए रखने के लिए यह उपविधा जैसा चवन्निया शिगूफा है जिसे थक-हारकर कालान्तर में विद्ड्रा कर लिया जाएगा? लघुकथा के आँगन में प्रवेश और निकासी के ये लौहद्वार आखिर क्यों लगाए गए है? इस आँगन में आखिर ऐसा कौन-सा बूथ है जिसे कश्यप बाहर के लोगों के हाथों कैप्चर कर लिए जाने के प्रति चिन्तित हैं? कहीं वे किसी के खुद द्वारा कैप्चर्ड बूथ के कैप्चर हो जाने के डर से तो चीख-पुकार नहीं मचा रहे है?ये कुछ आम सवाल हैं जो उनसे पूछे जाएँगे। कश्यप ने बेहद परिश्रम से एक जमीन तामीर की है। बेशक, वह उन्होंने सिर्फ अपने लिए तामीर नहीं की, लेकिन वे यह जरूर चाहते हैं कि इस जमीन पर उनके तौर-तरीकों से ताल्लुक रखने वाले लोग ही आकर टिकें। बहुत-से लोग इसे उनका दुराग्रह मान सकते हैं, लेकिन स्वयं द्वारा प्रस्तुत लघुकथा-तकनीक में उनका अतिविश्वास मान लेने में बुराई क्या है? कश्यप कभी भी न तो सुविधा-सम्पन्न रहे हैं और न ही सविधाजीवी। वह एक आम मजदूर जैसे हैं, लोक में भी और लेखन में भी। ऐसे में अपनी कमाई समझी जाने वाली चीज के प्रति उनका लगाव अगर अपने अस्तित्व के प्रति लगाव जितना गहरा है तो इसमें जटिल क्या है? यह स्वाभाविक ही है। फिर भी, लघुकथा में बाहर और भीतर के लोगों की उनकी अवधारणा पर, मैं चाहूँगा कि, बहस हो क्योंकि साहित्य में मैंने सबै भूमि गोपाल की सुना, पढ़ा और स्वीकारा है।
बहस का तीसरा पासा सोमवार 30 जुलाई, 1990 की सुबह मेरे साथ टेलीफोन पर बातचीत के दौरान डॉ कमल किशोर गोयनका ने फेंका। प्रेमचंद साहित्य पर अपने शोधों के जरिए डॉ गोयनका अक्सर चर्चा में रहे हैं। प्रेमचंद-भक्तों ने उनके प्रयासों को प्रेमचंद की मूर्ति पर अनाधिकार हमलों के तौर पर भी लिया। प्रेमचंद संबंधी अनेक मान्यताओं को उन्होंने चुनौती दी, बहस का मुद्दा बनाकर पेश किया। उन्होंने कहीं पर जाहिर अपनी यह राय बातचीत के दौरान मेरे सामने दोहराई कि लघुकथा लेखकविहीन विधा है। लघुकथा-लेखकों की आम प्रवृत्ति को महसूस करते हुए इस बारे में मुझे दो तरह की प्रतिक्रियाओं की आशा हैपहली यह कि लेखकविहीन ही सही डॉ गोयनका ने लघुकथा को विधा तो कहा है, और दूसरी (जो कि एक अंधा-आक्रोश हो सकता है), लेखकविहीन विधा?
डॉ गोयनका की बात का मर्म जानने के लिए अंधे आक्रोश को त्यागकर हमें शान्त हृदय से सोचना होगा। वर्तमान दौर करीब-करीब संवेदनहीनता का दौर है। संवेदनाएँ अब स्वत:स्फूर्त नहीं होतीं, उन्हें उकेरना पड़ता है। यह ऐसा त्रासद युग है कि व्यंग्य खुद अपने बारे में कुछ नहीं बोल पाता, उसके ऊपर व्यंग्य उपशीर्ष देना होता है ताकि पाठक उसे किसी और मानसिकता के साथ पढ़ने को न बैठ जाए। चर्चित लघुकथा-लेखकों के निजी लघुकथा-संग्रह प्रकाशित न हो पाना भी, मैं समझता हूँ कि इस विधा को लेखकविहीन मान लेने का एक कारण हो सकता है; क्योंकि बहुत सम्भव है कि आलोचक अब क्वान्टिटी में क्वालिटी के प्रतिशत के आधार पर लेखक को लेखक मानने लगे हों। दूसरी और खास वजह यह हो सकती है कि डॉ गोयनका ने लघुकथा में लेखकों के तौर पर जिन्हें चिह्नित किया या माना है, उनमें लेखकीय मर्यादा को सिरे से नदारद पाया हो और क्रौंच-वध से आहत वाल्मीकि के मन की बात की तरह उनके मुख से उपरोक्त वाक्य कहीं फूट पड़ा हो। जो भी हो, लघुकथा-लेखकों को अपना अस्तित्व जस्टीफाई करने की इस बहस में उतरना चाहिए। यह उनके (लेखकीय) पुंसत्व पर चोट है और इससे भी अगर वे नहीं तिलमिलाते हैं तो…तो खुदा ही खैरख्वाह है।