शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

समकालीन लघुकथा:सामान्य अनुशासन-2/बलराम अग्रवाल



(गतांक से आगे…)
दो अंकों में समाप्य लेख की समापन किस्त


कथा-भाषा, परिवेश
कुछेक वाक्यों को जोड़कर लिख देने या बोल देने मात्र को भाषा नहीं कहा जाता, इस बात को हम सभी जानते हैं। भाषा एक संस्कार है जो न केवल परिवार और परिवेश से प्रभावित होती है बल्कि शिक्षा, अध्यवसाय व अभ्यास से परिष्कृत व पुष्ट होती है। लघुकथा की भाषा को कथ्य-परिवेश से विलग नहीं होना चाहिए। उसमें सादगी, सहजता, लेखकीय आडम्बरहीनता और जनसाधारण के लिए ग्राह्यता का गुण तो होना ही चाहिए लेकिन सपाट-बयानी की हद तक नहीं। काव्य-तत्वों का प्रयोग लघुकथा की भाषा को आकर्षक एवं ग्राह्य बनाता है। चैतन्य त्रिवेदी की लघुकथाएँ इस तथ्य का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं। लेकिन लघुकथा में काव्य-तत्व भाषा-प्रयोग तक ही सीमित रहने चाहिए, उन्हें कथा पर हावी नहीं होने देना चाहिए क्योंकि मूलत: तो लघुकथा कथा ही है, कविता नहीं। कथा साहित्य की उपन्यास, कहानी व लघुकथाइन तीनों ही विधाओं की समान भाषा नहीं हो सकती क्योंकि इन तीनों का कथा-संस्कार अलग है। कहानी को उपन्यास की भाषा में और लघुकथा को कहानी की भाषा में अगर लिखा जायगा तो वे समसामयिक व जन-भावनाओं को अभिव्यक्ति देने के बावजूद भी पाठक पर यथेष्ट प्रभाव डालने में अंशत: ही सक्षम सिद्ध होंगी; जब कि उपन्यास की भाषा में लिखा उपन्यास, कहानी की भाषा में लिखी कहानी और लघुकथा की भाषा में लिखी लघुकथा ही पाठकों के बीच सराहनीय स्थान बना लेने में सक्षम हो सकती है। एकदम यही बात शैली एवं शिल्प के बारे में भी कही जा सकती है। पिछले ही दिनों की बात है कि एक बुजुर्ग कथाकार ने सगर्व मुझे लिखा कि उन्होंने 17 प्रकार के शिल्प-प्रयोग लघुकथा-लेखन में किये हैं। वस्तुत: तो भिन्न-भिन्न कोणों से पात्रों का नख-शिख वर्णन करने को वे शिल्प-प्रयोग बता रहे थे जबकि लघुकथा आवश्यक रूप से पात्र के नख-शिख वर्णन की अनुमति लेखक को नहीं देती क्योंकि यह वस्तु प्रेषण की स्थूल नहीं, सूक्ष्म विधा है। इसमें घटना की स्थूलता कम, पात्र एवं परिस्थितियों से जुड़े मनोभाव अधिक अर्थवान होते हैं। दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि हिन्दी लघुकथा को अकेले ही इतने शिल्पों से सँवारने वाले ऐसे महान प्रयोगकर्ता को ज्यादा लोग नहीं जानते। क्यों? इसलिए कि लघुकथा को जन-साधारण से जुड़ने के लिए अभी भी प्रयोगधर्मिता की तुलना में सहज अभिव्यक्ति की अधिक दरकार है। लघुकथा में भाषा और परिवेश को लेकर सन् 1945 में प्रकाशित लघुकथा संग्रह सदियाँ बीतीं की शीर्षक लघुकथा सदियाँ बीतीं के बारे में उसके लेखक माहेश्वर का यह कथन  द्रष्टव्य है—‘उसकी भाषा प्रसाद की भाषा जैसी थी और परिवेश मध्ययुगीन, मगर बात आधुनिक थी। समकालीन लघुकथा की भाषा, परिवेश और बात यानी कथानक और कथावस्तुसब-कुछ आधुनिक होना चाहिए। यही कारण है कि कभी कथ्य के बिंदु पर तो कभी भाषा के बिंदु पर मैं आठवें दशक के पूर्वार्द्ध में लिखित स्वयं अपनी लौकी की बेल सरीखी कुछ लघुकथाओं को सौ प्रतिशत समकालीन नहीं कह सकता।

शिल्प और शैली
लगभग प्रारम्भ से ही पारम्परिक शिल्प के बजाय समकालीन कहानी के शिल्प को ही लघुकथा-लेखन में अपनाया जा रहा है। मुझे लगता है कि पारम्परिक लघुकथा से समकालीन लघुकथा की भिन्नता का एक उल्लेखनीय अवयव यह शैली-वैभिन्य भी है। समकालीन संवेदनाओं को समकालीन पाठक के मन-मस्तिष्क तक सहज सम्प्रेषित करने के लिए आवश्यक भी था कि पुरातन शिल्प से चिपके न रहकर कथा कहने के समकालीन शिल्प को अपनाया जाय। यद्यपि लघुकथा को पारम्परिक शिल्प में पढ़ने के अभ्यस्त कुछेक पाठकों-आलोचकों को अपने मस्तिष्क में इसे नये शिल्प में पढ़कर हलकी-सी दरक अवश्य महसूस हुई हो सकती है, लेकिन कुल मिलाकर परिणाम समकालीन लघुकथा के पक्ष में ही रहा। यह अब इसी शिल्प में जानी, पहचानी और स्वीकारी जाने लगी है। शिल्प के उद्धरणस्वरूप लघुकथाओं को गिनाना न तो आवश्यक है और न सम्भव क्योंकि लगभग समूचा समकालीन लघुकथा-लेखन कहानी के शिल्प को अपनाते हुए हो रहा है।
जहाँ तक शैली का सवाल हैहर लेखक की अपनी स्वतन्त्र शैली हो सकती है। फिर भी इतना अवश्य कहा जा सकता है कि कथाकार को लघुकथा कहने की किसी एक ही शैली से चिपके न रहकर अपने लेखन को रोचक व पठनीय बनाए रखने के लिए शैलीगत-प्रयोग करते रहना चाहिए। शैली का जितना आकर्षक और अनूठा प्रयोग लेकर चैतन्य त्रिवेदी अवतरित हुए थे, वह अभूतपूर्व था। लघुकथा-लेखन में पारस दासोत की भी अपनी अलग ही शैली है जो गद्यगीत से मिलती है। हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, शंकर पुणताम्बेकर जैसे व्यंग्यकारों ने लघुकथा-लेखन की व्यंग्य-शैली को ही अपनाया है।

वाक्य-संयोजन एवं शब्द-प्रयोग
उपन्यास, कहानी और लघुकथा में जिस प्रकार भाषागत अन्तर के प्रति लेखक को सचेत रहना चाहिए, उसी प्रकार वाक्य-संयोजन के प्रति भी सचेत रहना चाहिए। कभी-कभी देखने में यह आता है कि लघुकथा में चार-पाँच पंक्तियों का पूरा पैरा एक ही वाक्य से बना होता है। कभी-कभी इस वाक्य से आगे भी कथा का विस्तार होता है परन्तु कभी-कभी इस एक पैरा को ही लघुकथा कह दिया जाता है। ऐसा कब होता है? लघुकथाकार जब अपनी बात को कहने की शीघ्रता में या आकुलता में होता है तब वह इस असावधानी से गुजरता है। यह स्थिति हमेशा ही गलत हो, ऐसा नहीं है। बिम्ब अथवा प्रतीक-योजना की प्रस्तुति के वशीभूत संयुक्त वाक्यों का अतिशय प्रयोग भी लघुकथाकार को अक्सर करना पड़ जाता है लेकिन अधिकतर इस स्थिति से बचना ही श्रेयस्कर है। लघुकथा में वाक्य छोटे, सार-गर्भित और संकेत-प्रधान होने चाहिएँ। यहाँ मैं जानबूझकर अर्थ-गर्भित और अर्थ-प्रधान जैसे आम चलन के शब्द-युग्मों का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ क्योंकि मैं नहीं समझता कि जानबूझकर कोई भी लेखक अर्थहीन शब्दों का प्रयोग अपनी लघुकथा में करना चाहेगा। हालाँकि अतिरिक्त उत्साह में भरकर लेखन करने के कारण कई बार ऐसे शब्द-प्रयोग भी लघुकथाओं में देखने को मिल जाते हैं जो अर्थ का अनर्थ कर देते हैं। इस विषय पर मेरा लेख हिन्दी लघुकथा में शब्द-प्रयोग संबंधी सावधानियाँ पढ़ा जा सकता है जो लघुकथा के वैचारिक पक्ष पर केन्द्रित मेरे ब्लॉग लघुकथा-वार्ता(http://wwwlaghukatha-varta.blogspot.com) पर उपलब्ध है। लघुकथा में शब्द-संयोजन पात्र एवं परिवेश के अनुकूल, सहज, स्वाभाविक व सरल तो होना ही चाहिए लेकिन उसे हमेशा ही निहित-अर्थों से हीन सपाट नहीं रह जाना चाहिए। संकेत-प्रधानता लघुकथा की शब्द-सीमा को नियंत्रित करने वाला प्रमुख अवयव है, यह याद रखना  चाहिए। वाक्यों में शब्द-संयोजन को स्पष्ट करने की दृष्टि से में एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहूँगा। एक वाक्य है—‘अपनी बाइक का अगला पहिया उसने जानबूझकर सड़क-किनारे सोये हुए कुत्ते के पैर पर चढ़ा दिया। इस वाक्य से यह भी ध्वनित होता है कि कुत्ता सड़क-किनारे जानबूझकर सोया है, जबकि कथाकार यह नहीं कहना चाहता। इसी वाक्य को यों पढ़कर देखें—‘अपनी बाइक का अगला पहिया जानबूझकर उसने सड़क-किनारे सोये हुए कुत्ते के पैर पर चढ़ा दिया। शब्द-संयोजन को समझाने की दृष्टि से मैं समझता हूँ कि यह एक उदाहरण भी यथेष्ट है।

दृश्य-संयोजन एवं संवाद-योजना
                                                               चित्र:बलराम अग्रवाल
लघुकथा-लेखन में नए आने वाले लेखक आम तौर पर विवरणात्मक प्रस्तुतियाँ देते है। उदाहरणार्थ अशोक मिश्र की लघुकथा बिरादरी में इज्जत। विवरणात्मक शैली में लिखी गई अधिकतर लघुकथाओं के द्वारा वस्तु सिर्फ प्रेषित होती है, संप्रेषित नहीं; और इस तरह एक स्तरीय संवेदना की दयनीय मृत्यु हो जाती है। वस्तु को इस दयनीय मृत्यु से बचाने के लिए आवश्यक है कि परस्पर वार्तालाप, एकालाप आदि के रूप में लघुकथा में किंचित् नाट्य-तत्व का संयोजन किया जाय। घटना-कथा को नैरेशन-केन्द्रित न रखकर दृश्य-बंधों में संयोजित किया जाय अर्थात् लघुकथा को सुनाने की बजाय दिखाने के प्रयत्न अधिक किये जायँ। इसका सबसे आसान तरीका हैघटना को संवादों के माध्यम से आगे बढ़ाना। समस्त संवाद जबरन थोपे हुए, जनवाद-प्रगतिवाद अथवा सुधारवाद जैसे नारों का प्रतिरूप न होकर परिवेश एवं परिस्थिति के अनुरूप सहज वार्तालाप की प्रतीति देने वाले होने चाहिए। समकालीन लघुकथा में संवाद-शैली भी काफी प्रचलित एवं लोकप्रिय है और लगभग सभी समकालीन लघुकथा-लेखकों ने गाहे-बगाहे इस शैली को अपनाया है; फिर भी, मेरा सुझाव है कि कथा-लेखन में परिपक्वता प्राप्त करने से पूर्व लेखक को इस शैली को अपनाने से बचना चाहिए। इसके प्रस्तुतिकरण की अधिकता कथाकार को चिंतनशील प्रस्तुति से हटाकर भावुक प्रस्तुति की ओर तो ठेलती ही है, कथा-परिवेश पर नजर रखने के अभ्यास से भी काटती है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की अद्भुत संवाद संवाद-शैली की सम्भवत: प्रथम उत्कृष्ट लघुकथा है।

शीर्षक
समकालीन लघुकथा में उसका शीर्षक एक प्रमुख अवयव की भूमिका निभाता है। यह इसकी संवेदनशीलता व उद्देश्यपरकता का वाहक होता है और कथ्य का हिस्सा बनकर सामने आता है। शीर्षक को रचना लिखने/पूरी कर लेने से पहले निर्धारित कर लिया जाय या उसके बाद निर्धारित किया जायइस बारे में कोई स्थाई नियम नहीं बनाया जा सकता। अनेक स्तरीय कथाकार शीर्षक निर्धारण के मामले में हफ़्तों और महीनों कसरत करते मिल जाएँगे। ऐसा इसलिए नहीं कि वे रचना को शीर्षक देने में अक्षम रहते हैं, बल्कि इसलिए कि रचना की सम्प्रेषणीयता में वे शीर्षक की भूमिका से परिचित होते हैं और सचेत रवैया अपनाना चाहते हैं। शीर्षक व्यंजनापरक भी हो सकते हैं और चरित्र-प्रधान भी। उन्हें काव्यगुण-सम्पन्न अर्थात् संकेतात्मक अथवा यमक या श्लेष ध्वन्यात्मक भी रखा जा सकता है। बजाय इसके कि शीर्षक पूरे कथानक का, यहाँ तक कि कथ्य का भी आभास पाठक को दे दे उसे पाठक में रचना के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला होना चाहिए। बददुआ(रमेश बतरा), रंग(अशोक भाटिया), गोश्त की गंध, ठंडी रजाई, बैल(सुकेश साहनी), साँसों के विक्रेता, मैं छोनू(कमल चोपड़ा), पेट सबके हैं, तुम्हारे लिए(भगीरथ), बहू का सवाल(बलराम), जगमगाहट(रूप देवगुण), अदला-बदली(मालती महावर), मन के साँप(सतीशराज पुष्करणा), कोहरे से गुजरते हुए(जगदीश कश्यप), अघोषित पराजय(कुलदीप जैन), ऊँचाई(रामेश्वर काम्बोज हिमांशु), हिस्से का दूध(मधुदीप), कथा नहीं(पृथ्वीराज अरोड़ा), आँखें(अशोक मिश्र),  मकड़ी, बाँझ(सुभाष नीरव), लोहा-लक्कड़, चपत-चपाती(अंजना अनिल) आदि सैकड़ों शीर्षकों को आज सटीक एवं रचना के प्रति पाठक में जिज्ञासा जगाने वाले शीर्षक के तौर पर प्रस्तुत किया जा सकता है।

लेखकविहीनता
नौवें दशक के अन्तिम वर्षों की बात है। फोन पर एक आपसी बातचीत के दौरान डॉ॰ कमल किशोर गोयनका ने मुझे सुझाया कि लघुकथा एक लेखकविहीन विधा है। मैंने इस वाक्य के निहित-अर्थ को न समझकर स्थूल-अर्थ को ग्रहण किया और इस अवधारणा से असहमति को एक लेख में लिख डाला। बाद में बहुत-सी कहानियों और लघुकथाओं का अध्ययन करने पर मुझे डॉ॰ गोयनका के कथन का निहित-अर्थ समझ में आया। उनका आशय था कि लघुकथा में लेखक को स्वयं उपस्थित नहीं होना चाहिए, यह लेखकविहीन विधा है। अपने अध्ययन के दौरान मैंने पाया कि उपस्थित होने के अवगुण से कुछेक कहानियों में स्वयं प्रेमचंद भी अपने-आप को नहीं रोक पाए हैं; लेकिन वह कहानी के उन्नायकों में थे। इस तरह के सिद्धांत रचना के आकलन के उपरांत आलोचक बाद में तय करते हैं, कथाकार स्वयं अक्सर नहीं। जिन दिनों गोयनका जी से बात हुई थी, लघुकथा में लेखक की उपस्थिति अबोधतावश बहुतायत में हो रही थी। आज स्थिति में काफी सुधार है। नए-पुराने प्रत्येक लेखक को इस सिद्धांत का कि लघुकथा में लेखक की उपस्थिति नहीं होनी चाहिए सप्रयास अनुसरण करना चाहिए। हालाँकि यह भी सच है कि अपनी हर रचना में लेखक परोक्षत: उपस्थित रहता ही है।

चित्र:बलराम अग्रवाल                                               
सम्पूर्णता
इस प्रकार हम देखते है कि समकालीन लघुकथा न केवल कथा बल्कि नाटक और काव्य के तत्वों को भी स्वयं में समाहित करके चलने वाली सम्पूर्ण गद्य-कथा है।  यहाँ सम्पूर्ण से क्या तात्पर्य है? कम शब्दों में बस यह कि आप एक ऐसे फोटो की कल्पना कीजिए जिसे छोटे आकार में इस कुशलता से निकाला गया हो कि उसमें चित्रित व्यक्ति अथवा परिवेश(कथा के संदर्भ में मनोभाव भी) का कोई भी डिटेल दबने न पाया हो और एन्लार्ज़ करने पर जिसका सिनेरियो उतना ही रहे जितना कि वह छोटे आकार में था लेकिन डिटेल्स फटने लगें। अर्थात् एक सम्पूर्ण लघुकथा अपने मूल आकार से छोटी या बड़ी करने पर प्रभावशीलता और आकर्षण की स्वाभाविक तीव्रता को खो बैठती है। विक्रम सोनी की जूते की जात, विपिन जैन की कंधामाँ की साँसें, सुशीलेन्दु की पेट का माप, कमल चोपड़ा की खेलने दो, श्याम सुन्दर अग्रवाल की स्कूल, श्याम सुन्दर दीप्ति की गुब्बारा, सतीश दुबे की 'विनियोग', बलराम की गंदी बातफंदे…, राजेन्द्र यादव की हनीमूनअपने पार, चित्रा मुद्गल की मर्द, शकुन्तला किरण की धुँधला दर्पण, अप्रत्याशित, अशोक भाटिया की कपों की कहानी सुभाष नीरव की मकड़ी, बलराम अग्रवाल की गोभोजन कथा आदि लघुकथाओं में सम्पूर्णता का गुण रेखांकित किया जा सकता है।
      समकालीन लघुकथा अब तक वस्तुत: इतना विकास कर चुकी है कि ऊपर गिनाए गए प्रत्येक बिन्दु पर अलग-अलग कथाकारों की अनेक लघुकथाओं को उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है। लेकिन लेख की मर्यादा के दृष्टिगत यहाँ वह-सब सम्भव नहीं है।
अंत में, एक महत्वपूर्ण बात अपने युवा साथियों से मैं यह कहना चाहता हूँ कि स्वरचित लघुकथा से सबसे पहले स्वयं लेखक का संतुष्ट होना आवश्यक है। उसे अपनी रचनात्मक शक्ति पर विश्वास होना चाहिए। अच्छी से अच्छी लघुकथा पर अनावश्यक विस्तार देने अथवा अपूर्ण-सी रचना प्रस्तुत कर देने का आरोप लग सकता है। रचनाकार द्वारा नियोजित सभी बिम्ब, सभी प्रतीक, सभी संकेत कभी-कभी बड़े-से-बड़े आलोचक की पकड़ में पहली ही बार में नहीं आ पाते हैं। ऐसी स्थिति में रचनाकार का आत्मविश्वास ही उसकी रचनाशीलता को और रचना को बचाए रख पाता है। अत: धैर्यपूर्वक लेखन को जारी रखा जाए, हताश होकर बैठ न जाया जाए।
('सरस्वती सुमन', देहरादून के लघुकथा-विशेषांक में प्रकाशित)

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

समकालीन लघुकथा:सामान्य अनुशासन-1/बलराम अग्रवाल




दो अंकों में समाप्य लेख की पहली किस्त
चित्र : बलराम अग्रवाल
लघुकथा शब्द बोलते ही जो पहली प्रतिक्रिया लोगों से आम तौर पर सुनने को मिल जाती है, वह लगभग यह होती है कि लघुकथा-लेखक माने कथ्य, भाषा, शिल्प और शैली सभी के स्तर पर लगभग अधकचरी रचना देने वाला लेखक। अगर आप कमल चोपड़ा द्वारा संपादित हालात में नरेन्द्र कोहली के लेख विधा के जोखिम को अथवा सुकेश साहनी द्वारा संपादित बीसवीं सदी की लघुकथाएँ में राजेन्द्र यादव द्वारा लिखित हंस के एक संपादकीय से उद्धृत अंश लघुकथा के लिए अलग एप्रोच की जरूरत है को ध्यान से पढ़ें तो आपको वरिष्ठ कथाकारों का लघुकथा के प्रति दृष्टिकोण साफ पता चल जाएगा। लेकिन इसका यह अर्थ न लगाया जाय कि वरिष्ठ कथाकारों-आलोचकों के मन में लघुकथा को लेकर कोई पूर्वाग्रह स्थाई रूप से जड़ पकड़े हुए हैं। अगर ऐसा होता तो नि:संदेह राजेन्द्र यादव हंस में लघुकथाएँ न छाप रहे होते। भारतीय ज्ञानपीठ चित्रा मुद्गल का लघुकथा संग्रह बयान न प्रकाशित करता। डॉ॰ कमल किशोर गोयनका जैसे वरिष्ठ साहित्य-विचारक लघुकथा को वर्षों गम्भीरतापूर्वक वैचारिक संबल प्रदान न करते और लघुकथा का व्याकरण लिखने की ओर प्रवृत्त न होते। डॉ गोपाल राय अपनी नवीनतम पुस्तक हिन्दी कहानी का इतिहास में लघुकथा को  कथा-साहित्य के उपन्यास, लघु-उपन्यास, लम्बी कहानी, कहानी आदि नौ पदों में से एक स्वीकार न करते। अनेक विश्वविद्यालयों में लघुकथा को शोध और लघु-शोध का विषय गत सदी के आठवें दशक में ही स्वीकार कर लिया गया था, सभी जानते हैं।
ऐसी सम्मानजनक स्थिति में यह बहुत आवश्यक है कि लघुकथा से जुड़ने वाले नए लेखक कुछ विशेष अनुशासनों और तत्संबंधी कथा-धैर्य से परिचित हों और सावधानियाँ बरतें। परंतु, इस लेख के प्रारम्भ में ही मैं यह स्पष्ट कर देना आवश्यक समझता हूँ कि विश्वभर में समकालीन साहित्य-लेखन शास्त्रीय अनुशासनों का अनुकरण मात्र न होकर जटिल संवेदनाओं की सहज प्रस्तुति का वाहक है। अत: निम्न में से किसी भी अनुशासन को पत्थर की लकीर मानकर उस पर आँखें मूँदकर चलने की बजाय स्व-विवेक से इनको अपनाने न अपनाने की आवश्यकता है।

कथा-धैर्य
कथा-धैर्य से तात्पर्य है कि रचना में वस्तु, कथा-घटना, दृश्य-संयोजन, संवाद योजना, भाषा, शाब्दिक सटीकता, शिल्प, शैली, बिम्ब एवं प्रतीक योजना आदि को उनकी पूर्णता में प्रस्तुत होने दिया जाय, भले ही उसे अनेक बार संपादित करना पड़े। अनेक लघुकथाएँ लेखकीय-उतावली के कारण उत्कर्ष तक पहुँचने से पूर्व ही समाप्त कर दी जाती हैं यह एक सचाई है। वस्तुत: लघुकथा के प्रति लेखक और पाठक दोनों में पूर्ण कथा देने-पाने का विश्वास होना चाहिए; न कि यह कि रचना आकार की दृष्टि से सीमा का अतिक्रमण क्यों कर गई? दस-बीस शब्द या दो-चार पंक्तियाँ हटाकर रचना में कसाव(!) लाने-पाने की मानसिकता से दोनों का उबरना आवश्यक है।
 
लघुकथा और सामान्य-जन
दुनियाभर में लघु-आकारीय कहानियों का चलन प्राचीन काल से ही रहा है, यह निर्विवाद है। विष्णु
चित्र : बलराम अग्रवाल
शर्मा कृत पंचतन्त्र की कहानियाँ हों, जैन-कथाएँ हों, जातक-कथाएँ हों, मोपासां की कहानियाँ हों, खलील जिब्रान की भाववादी कथाएँ हों या हितोपदेश, कथा-सरित् सागर आदि की कहानियाँइनमें से किसी भी कहानी को आप कौंधकथा यानी फ्लैश-फिक्शन नहीं कह सकते। ये सब-की-सब अपने-आप में पूर्ण कथाएँ हैं। केवल बहस करने के लिए बहस की निरर्थक प्रवृत्ति से अलग कुछ सार्थक पाने हेतु जिज्ञासा की दृष्टि से बहस हो तो सवाल करने वाले से अधिक आनन्द उत्तर देने वाले को आता है। गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस में उत्तरकाण्ड के अन्तर्गत काकभुसुंडि-गरुड़-संवाद ऐसी ही सार्थक बहस है। तात्पर्य यह कि अपनी अहं-तुष्टि के लिए कोई वैसा प्रयास कर भले ही ले, परंतु किसी भी तरह उनको सार्थक विस्तार दे नहीं सकता; न ही उनके आकार को संक्षिप्त कर सकता है। ये कहानियाँ सार्वकालिक हैं और हर आयु, हर वर्ग, हर वर्ण, हर देश और हर स्तर के व्यक्ति का न केवल मनोरंजन बल्कि मार्गदर्शन भी करने में सक्षम हैं। सामान्य-जन के जीवन से जुड़ी होने, जिज्ञासा बनाए रखने, जीवनोपयोगी होने, विभिन्न कुंठाओं से मुक्ति का मार्ग दिखाने का साहस रखने, मनोरंजक होने आदि के गुण से भरपूर होने के कारण ये कथाएँ लोककंठी हो गयीं यानी जन-जन के कंठ में जा बसीं। यह किसी भी रचना-विधा और उसके लेखक के जन-सरोकारों का उत्कर्ष है कि वह इतनी लोककंठी हो जाय कि उसके लेखक का नाम तक जानने की आवश्यकता अध्येताओं-शोधकर्ताओं के अतिरिक्त सामान्य जन को महसूस न हो। पं॰ रामचन्द्र शुक्ल द्वारा निर्धारित गद्यकाल से पूर्व की लाखों कथाएँ इस कथन का सशक्त उदाहरण हैं।  काव्य-क्षेत्र भी इस कथन से अछूता नहीं है। विभिन्न रस्मो-रिवाजों से लेकर पर्वों-त्योहारों व आज़ादी की हलचलों को स्वर प्रदान करते अनगिनत लोकगीतों के साथ-साथ इस काल में कथावाचक श्रद्धाराम फिल्लौरी द्वारा रचित बहु-प्रचलित आरती ॐ जय जगदीश हरे… भी इस कथन का सशक्त उदाहरण है जिसके रचयिता का नाम अधिकतर लोग नहीं जानते और न ही जानने के प्रति जिज्ञासु हैं।।

क्लिष्ट बिंब-प्रतीक-संकेत योजना
यह सब कहने का तात्पर्य यह नहीं कि आप लोककथाएँ लिखें। उन्हें लिखने की आवश्यकता नहीं है। उनका यथेष्ट भण्डार न केवल भारत बल्कि दुनियाभर के पास है तथापि उनका पुनर्लेखन करने के लिए हर व्यक्ति स्वतंत्र है। लघुकथा व सामान्य जन के अन्तर्गत कही बातों का तात्पर्य केवल यह बताना है कि आमजन की दृष्टि में एक सफल लघुकथा वह होती है जिसमें क्लिष्ट संकेत-मात्र न होकर सहजग्राह्य कथानक समाहित हो। पाठक-मस्तिष्क पर उसे स्वयं समझ लेने की कलात्मक गहराई न दिखाई जाए, उस पर ज्यादा बोझ न डाला जाय। इसके लिए आवश्यक है कि संप्रेषणीय वस्तु अथवा विचार को सहज घटित हो सकने वाली किसी घटना में ढालकर प्रस्तुत किया जाय क्योंकि दुनियाभर के लोग, वे सामान्य हों या प्रबुद्ध, घटना में रुचि लेते हैं, संकेत-मात्र में नहीं। लेकिन लघुकथा में बिम्ब, संकेत, प्रतीक आदि योजनाएँ इसकी प्रभावशीलता एवं कलात्मकता को बढ़ाती हैं अत: इनकी क्लिष्ट प्रस्तुति से ही बचने की सलाह दी जा रही है, इन्हें पूर्णत: अनावश्यक एवं त्याज्य मानने की नहीं। अभी तक चर्चित हिन्दी की अधिकतर लघुकथाओं में इनका सहज प्रयोग हुआ है। चैतन्य त्रिवेदी की खुलता बन्द घर, सुकेश साहनी की नंगा आदमी, जगदीश कश्यप की चादर, जसवीर चावला की लस्से, भगीरथ की तुम्हारे लिए, पृथ्वीराज अरोड़ा की दया, सतीश दुबे की संस्कार, बलराम अग्रवाल की अलाव फूँकते हुए, रूप देवगुण की जगमगाहट, दर्शन मितवा की औरत और मोमबत्ती’, मधुदीप की हिस्से का दूध, विक्रम सोनी की बनैले सुअर, रामनिवास मानव की साँप, सुभाष नीरव की बारिश आदि कितनी ही लघुकथाओं को इस कथन के समर्थनस्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है।

नेपथ्य
समकालीन लघुकथा मानवीय-संवेदना की गद्यकथात्मक वह प्रस्तुति है जिसकी तुलना वीणा के तारों से की जा सकती है। निर्धारित लम्बाई में भी वे जितने अधिक ढीले होंगे, वीणावादन उतना ही बेसुरा और निरर्थक होगा। मोहक स्वर लहरी पाने के लिए उनकी लम्बाई को अनुशासित अनुशासित रखना आवश्यक होता है। तारों की आवश्यकता से अधिक लम्बाई को वीणावादक पेंच द्वारा कसकर नेपथ्य में भेज देता है। तात्पर्य यह कि वीणा के तारों कुछ लम्बाई ऐसी भी होती है जिसका वादन-विशेष से कोई सम्बन्ध नहीं होता। समकालीन लघुकथा में भी घटना के कितने भाग को प्रमुखता देते हुए(हाइ-लाइट करते हुए) कथामंच पर रखना है और कितने भाग को नेपथ्य में ले जाना हैइसे प्रतिष्ठित लघुकथाकारों की चर्चित लघुकथाओं के अध्ययन-मनन के माध्यम से समझ लेना अति आवश्यक है।  यह भी याद रखना आवश्यक है कि समकालीन लघुकथा सूत्र-कथा, बीज-कथा, संकेत-कथा अथवा चुटकुला न होकर ऐसी सम्पूर्ण कथा-रचना है जो अपने समय के समस्त जन-सरोकारों को अभिव्यक्ति देने के प्रति पूरी तरह सजग है। पृथ्वीराज अरोड़ा की कथा नहीं, अशोक वर्मा की क़ैदी, भगीरथ की सोते वक्त, सतीश दुबे की प्रेमलाग, चित्रा मुद्गल की दूध, पवन शर्मा की बड़े बाबू और साहब, रामकुमार आत्रेय की खजुराहो की मूर्ति, विष्णु नागर की छुरा, सुभाष नीरव की बाँझ आदि में नेपथ्य का निर्वाह देखा जा सकता है।

लाघव
लाघव से तात्पर्य कथाकार का इस ओर सचेत रहने से है कि प्रस्तुत कथानक का कितना हिस्सा वस्तु संप्रेषण की दृष्टि से लघुकथा के लिए यथेष्ट होगा, कितना नहीं। लघुकथाकार कभी भी सम्पूर्ण घटना को लघुकथा का आधार नहीं बनाता बल्कि घटना के जितने अंश को वस्तु सम्प्रेषण हेतु उपयुक्त समझता है उसे ही पूर्णता प्रदान करता है। रचना में घटना के शेष अंशों की चर्चा करने का लालच वह नहीं रखता। एक पुरानी कहावत के अनुसार—‘शेर का शिकार करने के लिए घर से निकलने वाले को सारे साजो-सामान के साथ निकलना चाहिए, भले ही एकाध चीज फालतू हो जाय, कम न पड़े। समकालीन लघुकथा शेर के शिकार को निकलने से पहले लादे जाने साजो-सामान के तौर पर पारम्परिक शैली की वाहक विधा नहीं है। यह वैज्ञानिक-युग में पनपी कथा-विधा है। एकाध चीज फालतू वाला पुरातन सिद्धांत इसमें नहीं चलता। इसके लेखन के दौरान वस्तु-प्रेषण के दायें-बायें जितनी कथा, जितने संवाद और जैसा परिवेश अपेक्षित है, लेखक के मस्तिष्क में उससे अधिक कुछ नहीं होना चाहिए। अनेक लघुकथाओं में यह कमी देखने को मिल जाती है कि लेखक अपना कोई विचार-विशेष, सिद्धांत-विशेष, बिम्ब-विशेष अथवा संदेश-विशेष प्रस्तुत करने के लालच से स्वयं को रोक नहीं पाता है और रचना अनावश्यक रूप से थोपे गये अतिरिक्त बोझ के कारण प्रभावहीन हो जाती है। सुधा ओम धींगरा की लघुकथा मर्यादा इस असावधानी को देखा जा सकता है। लाघव के निर्वाह को युगल की मोमबत्ती, चित्रा मुद्गल की राक्षस, मधुदीप की विवश मुट्ठी, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की खूबसूरत, विपिन जैन की कंधा, भगीरथ की शर्त आदि सरीखी लघुकथाओं के अध्ययन से समझा जा सकता है।
नेपथ्य और लाघव लघुकथा के आकार को सीमित व अनुशासित रखने वाले प्रमुख अनुशासन माने जा सकते हैं।

यथार्थ-घटना और कथा-घटना
फोटो:बलराम अग्रवाल                                                
ऊपर, जनमानस की कथारुचि के मद्देनजर लघुकथा में घटना की आवश्यकता पर बल दिया गया है। इस बारे में यह स्पष्टत: समझ लेना आवश्यक है कि यथार्थ-घटना यानी समाचार-घटना में और कथा-घटना यानी वस्तुपरक घटना में पर्याप्त अन्तर है। बेशक यथार्थ-घटना भी कथा-घटना बन सकती है; या कहिए कि अधिकतर यथार्थ-घटनाएँ ही कथा-घटना में रूपान्तरित हैं लेकिन जहाँ तक वस्तु के सम्प्रेषण और साधारणीकरण का सवाल है, यह अति आवश्यक है कि उसे चिन्तन की भट्टी से गुजारा जाए, उसे एक तप्त और सकारात्मक रूप प्रदान किया जाय। एक समाचार-लेखक और सृजनशील कथाकार के मध्य यह एक प्रमुख अन्तर है। उदाहरण के लिए समाचार-लेखक रिक्शे वाले ने साहब को झापड़ मारा के रूप में मसालेदार बनाकर जिस संवेदना की आयु कुछेक मिनट में समेट देता, कथाकार मधुदीप ने उसे लघुकथा अस्तित्वहीन नहीं में संचित कर चिरायु बना दिया। वस्तुत: घटना के भीतर से संवेदन-सूत्र को पकड़ना और गद्यकथा रूप में प्रस्तुत करना ही लघुकथा-लेखक का लक्ष्य होना चाहिए। बलराम की गंदी बात और अशोक मिश्र की आँखें तथा सतीश दुबे की विनियोग को इस हेतु देखा-परखा जा सकता है।

कल्पना की उड़ान
कथाकार में चिन्तन-मनन के ही नहीं, कल्पनाशीलता के गुण का विकास होना भी आवश्यक है। उसका सोच के इस बिंदु से गुजरना और लगातार गुजरते रहना अति आवश्यक है कि जिस स्थूल-घटना को वह कथा-घटना के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है, रचना के तौर पर वह अन्य कथाकारों द्वारा प्रस्तुत किस बिंदु पर अलग हो सकती है और क्यों? बलराम की लघुकथा बहू का सवाल में घटना सिर्फ यह है कि विवाहोपरान्त वर्षों तक बेटे के घर में सन्तान उत्पन्न न होने के कारण ससुर उसका दूसरा विवाह करने की बात कहता है और बहू उसके इस विचार का प्रतिवाद करती है। सुकेश साहनी की गोश्त की गंध में एक सामान्य-सी घटना, जो प्रत्येक विवाहित पुरुष के जीवन में घटित होती है, है। अशोक भाटिया की रिश्ता’, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की ऊँचाई, भगीरथ की दाल-रोटी, श्याम सुन्दर अग्रवाल की सन्तू, श्याम सुन्दर दीप्ति की हद, चित्रा मुद्गल की पहचान, रामकुमार आत्रेय की पिताजी सीरियस हैं भी सामान्य घटना पर ही आधारित हैं और सतीशराज पुष्करणा की पुरुष भी। ऐसी अन्य भी सैकड़ों लघुकथाओं के शीर्षक उदाहरणार्थ प्रस्तुत किए जा सकते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि अधिकतर स्तरीय लघुकथाएँ जीवन में सामान्यत: घटित होने वाली घटना को केन्द्र में रखकर रची गई हैं घटना-विशेष को केन्द्र में रखकर नहीं। लघुकथा को स्तरीयता घटना-प्रस्तुति नहीं, बल्कि प्रस्तुतिकरण से जुड़ा चिन्तन और फेंटेसी प्रदान करते है।
बावजूद इसके कि लघुकथा में किसी घटना-अंश का अपनी सम्पूर्णता में होना आवश्यक है, इसके लिए हमेशा सड़कों या समाचार-पत्रों की धूल फाँकने की आवश्यकता नहीं है। यह केवल प्रारम्भिक स्थिति हो सकती है कि कथा-लेखन के लिए लेखक घटनाओं, समाचारों या समाचार-पत्रों के पीछे भागे। जैसे-जैसे आप अभ्यस्त होते हैं, अपने चिन्तन और विचार-विशेष के चारों ओर घटना बुनने में भी पारंगत हो जाते हैं। समाचार-लेखक नहीं रहते, कथा-लेखक बन जाते हैं। तथ्यों के बीच बने रहने, उन्हें देख पाने की सुविधा अथवा क्षमता अलग बात है और उन्हें कथारूप में प्रस्तुत कर पाने की क्षमता अलग।                          (शेष आगामी अंक में…)
('सरस्वती सुमन', देहरादून के लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित)

शनिवार, 9 जून 2012

लघुकथा लेखन के 41वें वर्ष का शुभारम्भ/बलराम अग्रवाल



दोस्तो, 1969 से प्रारम्भ कर 1971 तक कॉलेज पत्रिकाओं और एक अन्य लघुपत्रिका अरहंत (जिसका संपादन आज के सुप्रसिद्ध गीतकार और अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद के स्वामी डॉ॰ श्याम निर्मम ने अपने विद्यार्थीकाल में किया था) में प्रकाशित छिटपुट रचनाओं की बात छोड़ दूँ तो श्रीयुत अश्विनी कुमार द्विवेदी के संपादन में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली कहानी-प्रधान मासिक पत्रिका कात्यायनी पहली पत्रिका थी जिसके जून 1972 अंक में मेरी पहली लघुकथा लौकी की बेल प्रकाशित हुई।
दोस्तो,
      कात्यायनी से पहले मैं किसी भी लघु-पत्रिका से परिचित नहीं था। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवनीत आदि कुछेक पत्रिकाओं से परिचय था लेकिन वे बड़े स्तर की पत्रिकाएँ थीं। उनमें कोई रचना भेजने का साहस करने की बात अलग, वैसी कल्पना भी मैं गँवार नहीं कर सकता था। फिर, यह शायद जनवरी-फरवरी 1972 की बात है। हुआ यों कि एक दिन गाजियाबाद से बुलन्दशहर जाने के लिए वहाँ के रोडवेज़ बस स्टैंड पर बस का इन्तज़ार कर रहा था। बसें उन दिनों कभी भी शिड्यूल के अनुसार नहीं जाती-आती थीं। बसों की संख्या भी शायद कम रही हो। राजनीतिक गुण्डागर्दियों के चलते घोर प्रशासनिक अराजकता का दौर तो वह था ही। बुलन्दशहर से आने वाली बस ही गाजियाबाद से वापस भेजे जाने का चलन-जैसा था। इसलिए बसें उधर से आएँ या इधर से जाएँ, अक्सर लम्बा इन्तजार करना पड़ता था। पढ़ने और लिखने की आदत के चलते समय काटने के लिए मैं बस-स्टैंड कम्पाउंड में ही बने बुक-स्टाल पर चला गया। वहाँ मेरी नजर कात्यायनी पर पड़ी। मैंने पत्रिका को उठाकर उसके पन्ने पलटे। उसमें मुझे छोटे आकार की कुछ कहानी-जैसी रचनाएँ देखने को मिलीं। वे रचनाएँ उसमें लघुकथा शीर्षतले छपी थीं। यद्यपि दो-तीन कहानियाँ मैं तब तक लिख चुका था जिनका प्रकाशन स्कूल-कॉलेज की पत्रिकाओं में हो चुका था; लेकिन लघुकथा शब्द से मैं परिचित नहीं था। लघुकथा, एक ऐसी कथा-विधा, जिसे उससे पहले मैंने कभी नहीं देखा था। उन कथा रचनाओं ने मुझे आकर्षित तो किया ही, कविता से अलग कहानी-जैसे एक अन्य कथा-माध्यम में अभिव्यक्त होने के प्रति आशा की एक किरण भी मुझमें जगाई। पत्रिका का मूल्य देखापेंसठ पैसे। मैंने तुरन्त उसे खरीद लिया।
      बुलन्दशहर से लौटकर मैं वापस गाजियाबाद आया और अपने तब तक के संस्कार के अनुरूप लौकी की बेल शीर्षक एक बोधकथा लिखी। मैं नहीं जानता था कि किसी पत्रिका के संपादक को रचना भेजते समय सम्बोधन-पत्र कैसे लिखा जाता है और रचना भेजने के क्या अनुशासन हैं। यों समझ लीजिए कि रचना को संपादक को भेजने के मामले में एक तरह से मैं काफी असंयत था, डरा-डरा-सा था। रचना की पहुँच सुनिश्चित करने की दृष्टि से ही नहीं, इस मानसिकता के तहत भी कि मैंने ससम्मान रचना-प्रेषण किया है, संपादक को वह रचना रजिस्टर्ड डाक से भेजी। इस काम में मेरे साढ़े तीन रुपए खर्च हुए यानी सादा डाक की तुलना में करीब-करीब दस गुनी रकम।
      उसके बाद मैं हर माह कभी पैदल तो कभी दुपहिया साइकिल से, निवास से करीब दो किलोमीटर दूर गाजियाबाद के रोडवेज़ बस स्टैंड स्थित उस बुक स्टाल पर जाता और कात्यायनी के बारे में पूछता। पत्रिका मासिक जरूर थी लेकिन सम्भवत: अर्थाभाव से जूझ रही थी। उसके अंक देर-से प्रकाशित होते थे। बुक-स्टाल से मुझे हर बार निराश होकर वापस आना पड़ता था। पूछने पर बुकसेलर ने एक बार मुझे बताया था कि कात्यायनी हर माह नहीं आती, कई-कई माह बाद ही आती है। खैर। भीतर की ललक आदमी को हताश होने से रोकती है। कात्यायनी नहीं मिलती थी, फिर भी मैं उसकी आमद के बारे में पूछने बुक-स्टाल जाता था। आज मुझे याद नहीं है कि वह पहला अंक खरीदने के बाद उसका कोई अन्य अंक मुझे मिला था या नहीं। लेकिन जून माह की एक दोपहर डाकिया मेरे जीवन का एक अनुपम उपहार लेकर आया—‘कात्यायनी का जून, 1972 अंक। मैंने पत्रिका के ऊपर से रैपर को हटाया, पत्रिका को खोलकर कहाँ क्या शीर्षक उसके अनुक्रम को देखा और खुशी से उछल पड़ा। कहानी शीर्ष तले सबसे ऊपर लौकी की बेल लिखा था। वह जून 1972 की 14वीं तारीख थी। बताने की जरूरत नहीं कि पत्रिका में सबसे पहले मैंने अपनी ही रचना को पढ़ा, एक नहीं अनेक बार। कभी मैं उसे पलंग पर बैठकर पढ़ता, कभी कुर्सी पर और कभी बाहर ग्राउंड में खड़े शीशम के, आम के, नीम के पेड़ के नीचे पड़ी खाट पर, ईंट पर, पत्थर पर बैठकर। ऐसा क्या था उसमें कि पढ़ते रहने से मन ही नहीं भरता था! ग़ज़ब की बात यह थी कि उसे घर में अपने मामा-मामी, ममेरे भाई-बहन या किसी अन्य सदस्य को दिखाने की हिम्मत मैं नहीं कर सका। डरता था।
      दोस्तो, रचना छपने पर उत्पन्न होने वाला वह रोमांच आज नहीं है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता लेकिन यह जरूर कह सकता हूँ कि रोमांच में उतनी गर्मी आज नहीं है। कई रचनाएँ तो ऐसी भी हैं, किसी पत्रिका में जिनके छपने का पता अपरिचित प्रशंसकों या परिचितों-मित्रों के फोन के जरिए चलता है। कई बार तो यह भी हुआ है कि रचना प्रकाशित होने का पता पारिश्रमिक का मनीऑर्डर या चैक आने पर चलता है तथापि सम्बन्धित पत्र या पत्रिका मुझ तक नहीं पहुँची होती।
      बहरहाल, आज कात्यायनी और उसके यशस्वी संपादक श्रीयुत अश्विनी कुमार द्विवेदी (इन द्विवेदी जी ने ही दिसम्बर 1974 में बन्धु कुशावर्ती के सहयोग से लघुकथा चौमासिक का प्रकाशन/संपादन किया था) का आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने मुझे लघुकथा-लेखन और प्रकाशन की पहली सीढ़ी पर चढ़ने का अवसर प्रदान किया था। यहाँ यह भी बता देना आवश्यक है कि कात्यायनी के उक्त अंक में लौकी की बेल के साथ ही श्रीयुत संग्राम सिंह ठाकुर की दीपक तले अंधेरा, निजानन्द अवस्थी की एक कटु सत्य, राम सुरेश की गगनचुम्बी मकान, सुशीलेन्दु की पेट का माप, कीर्तिकुमार पंड्या की कीचड़ की मछली तथा श्रीहर्ष की संत्रास लघुकथाएँ भी थीं जिनमें सुशीलेन्दु की पेट का माप अपने समय की बेरोजगारी और आर्थिक त्रास के तले दबी-कुचली युवा पीढ़ी का शब्दश: प्रतिनिधित्व करती है और भगीरथ व रमेश जैन द्वारा 1974 में संपादित लघुकथा संकलन गुफाओं से मैदान की ओर में संकलित है। अस्तु।

    

रविवार, 29 अप्रैल 2012

केवल लघु-आकार ही लघुकथा की पठनीयता और जनप्रियता का कारण नहीं/बलराम अग्रवाल


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('हिन्दी लघुकथा का विकास एवं मूल्यांकन' से जुड़े प्रमुख चिंतन-बिंदुओं पर बलराम अग्रवाल से जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोध हेतु पंजीकृत सुश्री शोभा भारती की प्रश्न-बातचीत का प्रथम अंश।)
शोभा भारतीआपके विचार से हिन्दी की पहली लघुकथा किसे कहा जाना चाहिए और क्यों?
बलराम अग्रवालइस प्रश्न के विस्तृत उत्तर के लिए आप मेरा लेख पहली हिन्दी लघुकथा पढ़ लें। यह समांतर पत्रिका के लघुकथा विशेषांक जुलाई-सितम्बर, 2001 में प्रकाशित हुआ था और इंटरनेट पर भी उपलब्ध है। लिंक है http://wwwlaghukatha-varta.blogspot.com/ 2009/01/1.html
शोभा भारती लघुकथा के उद्भव को लेकर कुछ लोगों का मानना है कि इसका मूल पंचतंत्र, हितोपदेश और जातक कथाओं में है, जबकि कुछ लोग कहते हैं कि यह वर्तमान जीवन की विसंगतियों से उद्भूत है। आप क्या सोचते है?
बलराम अग्रवालमेरा सुझाव है कि लघुकथा से सम्बन्धित कुछ बारीकियों को आसानी से समझ लेने के लिए सभी को नहीं तो कम-से-कम लघुकथा विषयक शोधों से जुड़े लोगों को बारीक-सी एक विभाजन अवश्य स्वीकार कर लेना चाहिए। यह कि सन् 1970 तक की सभी लघ्वाकारीय कथा-रचनाएँ, वे चाहे दृष्टांत परम्परा की हों चाहे भाव परम्परा की हों, गम्भीर कथ्य परम्परा की हों या व्यंग्यात्मक पैरोडी परम्परा की, लघुकथा हैं; और सन् 1971 से अब तक की लघुकथाएँ समकालीन लघुकथा हैं। यह बात लघुकथा के शनै: शनै: परिवर्तित व परिवर्द्धित स्वरूप के मद्देनज़र कही जा रही है। लघुकथा में यह परिवर्तन व परिवर्द्धन यद्यपि सन् 1965 के आसपास से दिखाई देना प्रारम्भ हो जाता है तथापि बहुलता के साथ यह सन् 1971 के बाद ही प्रकट होता है। इसलिए जिस लघु-आकारीय कथा-रचना का मूल पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक कथाएँ अथवा अन्य पुरातन कथा-स्रोत बताए जाते हैं वह (इने-गिने अपवादों को छोड़कर, घनीभूतता के साथ सन् 1970 तक तथा विरलता के साथ 1975-76 तक भी) लघुकथा है और जिसका उद्भव वर्तमान जीवन की विसंगतियों से बताया जा रहा हैवह पूर्व-कथित उसी लघुकथा का विकसित स्वरूप समकालीन लघुकथा है जिसका प्रादुर्भाव लगभग सभी लघुकथा-आलोचक 1971 से स्वीकार करते हैं।
शोभा भारती कथाकुल में जन्मी लघुकथा को आप उपविधा मानते हैं या विधा?
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बलराम अग्रवालरचनात्मक साहित्य में मैं उपविधा जैसे किसी भी प्रकार को प्रारम्भ से ही नहीं मानता। डॉ॰ उमेश महादोषी के इसी सवाल के जवाब में सन् 1988 में मैंने कहा था—“यह लघुकथा में लेखन के स्तर पर चुक गए कुण्ठित लोगों द्वारा छोड़ा गया शिगूफा है…(देखें:लघुकथा विशेषांक सम्बोधन:सं॰ क़मर मेवाड़ी:पृष्ठ99)।

शोभा भारती आरम्भिक लघुकथाओं और आज की लघुकथाओं में आप क्या अन्तर पाते हैं?
बलराम अग्रवालआरम्भिक लघुकथाएँ आम तौर पर उपदेश और उद्बोधन की मुद्रा में नजर आती हैं या फिर व्यंग्य व कटाक्षपरक पैरोडी कथा के रूप में, जबकि समकालीन लघुकथा मानवीय संवेदना को प्रभावित करने वाली बाह्य भौतिक स्थिति अथवा आन्तरिक मन:स्थिति के चित्रण मात्र से पाठक मन में आकुलता उत्पन्न करने का, मस्तिष्क में द्वंद्व उत्पन्न करने का दायित्व-निर्वाह करती है। अध्ययन से सिद्ध होता है कि समकालीन लघुकथा पाठक के समक्ष सिर्फ निदान प्रस्तुत करती है, समाधान नहीं।
शोभा भारती लघुकथा के उत्कर्ष के लिए लघुकथाकारों, संपादकों और प्रकाशकों द्वारा किए गये प्रयास क्या आपको पर्याप्त लगते हैं?
बलराम अग्रवाललघुकथा के उत्कर्ष के लिए मात्र लघुकथाकारों ने ही नहीं अन्य साहित्यकारों ने भी खासे प्रयास किए हैं। कथाकारों-कवियों में असगर वजाहत, विष्णु नागर, प्रेमपाल शर्मा, चित्रा मुद्गल, महेश दर्पण, प्रेमकुमार मणि आदि, आलोचकों में डॉ॰ कमल किशोर गोयनका, डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक, डॉ॰ सुरेश गुप्त, डॉ॰ रत्नलाल शर्मा, कृष्णानन्द कृष्ण आदि तथा संपादकों में कमलेश्वर, अवध नारायण मुद्गल, राजेन्द्र यादव, रमेश बतरा, प्रभाकर श्रोत्रिय, हसन जमाल, क़मर मेवाड़ी, अवध प्रताप सिंह, महाराज कृष्ण जैन व उर्मि कृष्ण, प्रकाश जैन व मोहिनी जैन, शैलेन्द्र सागर, बलराम, अशोक भाटिया, सुकेश साहनी, सतीशराज पुष्करणा, कमल चोपड़ा, डॉ॰ रामकुमार घोटड़ आदि के अवदान को नकारना असम्भव है। प्रिंट क्षेत्र के प्रकाशकों में अयन प्रकाशन के स्वामी श्रीयुत भूपाल सूद ने काफी लघुकथा संग्रह व संकलन प्रकाशित किए हैं। दिशा प्रकाशन, किताबघर व भावना प्रकाशन ने भी लघुकथा के संग्रह व संकलन वरीयता से प्रकाशित किए हैं। बावजूद इस सबके लघुकथा के उन्नयन का भाव किसी प्रकाशक के मन में रहा हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। बलराम द्वारा संपादित विश्व लघुकथा कोश सन्मार्ग प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था, लेकिन वह विशुद्ध व्यापारिक एप्रोच का मामला प्रतीत होता है। लघुकथा के उन्नयन का अत्यन्त महत्वपूर्ण और साफ-सुथरा काम रामेश्वर काम्बोज हिमांशु व सुकेश साहनी की टीम ने लघुकथा डॉट कॉम नाम से वेबसाइट संपादित करके किया है। इस कार्य में वे धन और बल दोनों खपा रहे हैं।
शोभा भारती कहानी और लघुकथा में आकार के अलावा क्या अंतर आप देखते हैं?
बलराम अग्रवालसबसे पहले तो यह जान लेना आवश्यक है कि अनेक कथा-रचनाएँ छोटे आकार की होते हुए भी कहानी ही होती हैं, लघुकथा नहीं। इसलिए आकार में छोटी होने-मात्र के कारण ही किसी कथा-रचना को लघुकथा मान लेना न्यायसंगत नहीं है और न ही यह कि केवल लघु-आकार ही लघुकथा की पठनीयता और जनप्रियता का कारण है। कहानी सामाजिक विसंगतियों, असंगत मानवीय क्रिया-कलापों व मानसिक व्यापारों के कारणों और कारकों की पड़ताल तथा उनका खुलासा करती हुई पाठकीय संवेदना को छूने-जगाने का प्रयास करती है जबकि लघुकथा सामाजिक विसंगतियों, असंगत मानवीय क्रिया-कलापों व मानसिक व्यापारों को पाठक के सामने सीधे प्रस्तुत कर देती है तथा कथा-संप्रेषण में वांछनीय कारणों व कारकों का आभास कराती हुई उन्हें कथा के नेपथ्य में बनाए भी रखती है। कहानी को केन्द्रीय कथ्य के आजू-बाजू भी अनेक स्थितियों के दर्शन कराने, चित्रण करने की छूट प्राप्त है जबकि लघुकथा में यह अवांछित है क्योंकि ऐसा करने से लघुकथा के शैल्पिक-गठन में छितराव आ जाने का खतरा बराबर बना रहता है।
शोभा भारती लघुकथा अक्सर समाज की विसंगतियों की ओर ही इशारा करती है। क्या आपको लगता है कि इसमें मनुष्य की सकारात्मक भावनाओं का अंकन भी उतनी ही तीव्रता से सम्भव है?
बलराम अग्रवालअलग-अलग कालखण्ड में सामाजिक आवश्यकताएँ, मानवीय प्राथमिकताएँ और साहित्यिक अपेक्षाएँ अलग-अलग ही हुआ करती हैं। नि:संदेह समकालीन लघुकथा का प्रारम्भिक काल समाज की विसंगतियों की ओर इशारा करने को वरीयता देने वाला ही रहा होगा। इस तथ्य को उस समय की अनेक सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं-दुर्घटनाओं के अध्ययन के द्वारा आसानी से जाना-समझा जा सकता है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि लघुकथाकारों का ध्यान मनुष्य की सकारात्मक भावनाओं की ओर अथवा मानवीय संवेदनशीलता के उत्कृष्ट पक्ष की ओर कभी गया ही नहीं। रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की ऊँचाई, रूप देवगुण की जगमगाहट, सुकेश साहनी की ठडी रजाई, पृथ्वीराज अरोड़ा की बेटी तो बेटी होती है, स्वयं मेरी(यानी बलराम अग्रवाल की) गोभोजन कथा, श्यामसुंदर अग्रवाल की संतू, श्यामसुंदर दीप्ति की हद, अशोक भाटिया की कपों की कहानी, सुभाष नीरव की अपने घर जाओ न अंकल, विपिन जैन की कंधा आदि अनगिनत लघुकथाएँ हैं जिनमें मनुष्य की सकारात्मक भावनाओं का, मानवीय संवेदनशीलता का अंकन सफलतापूर्वक हुआ है।
शोभा भारती कब कोई लघुकथा मात्र चुटकुला बनकर रह जाती है?
बलराम अग्रवाललघुकथा ही नहीं, कोई कहानी भी चुटकुला बनकर रह जा सकती है, अगर कथ्य-संप्रेषण की ओर कथाकार गंभीरता से अपने कदम न बढ़ाए और रचना-समापन में यथेष्ट सावधानी न बरते। अन्तर केवल यह है कि आकारगत लघुता वाली रचना को चुटकुला कह देना आसान होता है जबकि लम्बी रचना को चुटकुला न कहकर हास-परिहास की रचना कह दिया जाता है।
(शेष आगामी अंक में)

सोमवार, 16 जनवरी 2012

अपने समय और समाज को रेखांकित करती कथा-रचनाएँ/ सुभाष नीरव


दोस्तो, चन्ना चरनदास की एक समीक्षा प्रखर कथाकार, कवि, अनुवादक और ब्लॉगर सुभाष नीरव ने भी लिखकर मुझे सौंपी थी। यह समीक्षा कहीं प्रकाशित हो पायी थी या नहीं, नहीं मालूम। बहरहाल, यह समीक्षा अब लघुकथा-वार्ता के माध्यम से आप तक पहुँच रही है।बलराम अग्रवाल
बलराम अग्रवाल कहानी और लघुकथा के बीच बहुत बड़ा फर्क नहीं मानते; और जो किंचित फर्क वह मानते हैं वो उनकी नई कथाकृति चन्ना चरनदास की कहानियों और लघुकथाओं के मध्य स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। लघुकथा को पूर्णत: समर्पित लेखकों के साथ-साथ अनेक विद्वानों/आलोचकों ने भले ही लघुकथा को खाँचों/साँचों में बाँधकर देखने और इसके लिए सीमा रेखाएँ खींचने की कोशिशें की हों, परन्तु बलराम अग्रवाल इन खाँचों/साँचों और सीमा रेखाओं से बाहर जाकर अपने ढंग की सफल और सार्थक लघुकथाएँ लिखते रहे हैं। वह अपनी लघुकथाओं पर किसी भी प्रकार का जबरन शिकंजा कसने के आदी नहीं हैं बल्कि उन्हें खुली हवा में उन्मुक्त साँस लेने के लिए खुला छोड़ते हैं। यही कारण है कि उनकी लघुकथाएँ न केवल विषय को लेकर बल्कि अपनी भाषा, अपनी बुनावट और शैली में आम लघुकथा से हटकर होती है और पाठकों का ध्यान खीचती हैं। कहानी और लघुकथा को विलगाने वाली जो मध्य-रेखा होती है, उनकी अधिकांश कहानियाँ उस मध्य-रेखा के बहुत करीब खड़ी प्रतीत होती हैं। यही कारण है कि अनेक लोगों को यह भ्रम सताने लगता है कि इन्हें कहानी मानें या लघुकथा? उदाहरण के तौर पर हवा, सनातन, कूड़ा, धुआँ, मंजुला को तुम्हारी जरूरत है सुनंदा, दु:ख के दिन, यह कौन-सा मुल्क है, और जब बन्दर भौंका, सुदामा चरित आदि कथा-रचनाएँ देखी जा सकती हैं।
जिस सृजनात्मकता का अहसास उनकी सटीक और चुस्त-दुरुस्त लघुकथाओं में परिलक्षित होता है, वैसा ही अहसास उनकी कहानियों में पाया जाता सकता है। लेखक समाज में व्याप्त सभी असंगतियों, विसंगतियों, टूटते-बिखरते मूल्यों के समानान्तर एक ऐसी दुनिया रचना चाहता है जहाँ सम्भावनाएँ अभी मौजूद हैं। लेखक अपनी बात के मन्तव्य को पाठक तक सम्प्रेषित करने के लिए किसी प्रकार के विद्वतापूर्ण दिखावे का सहारा नहीं लेता और उलझाव के हर समीकरण से अपनी कहानियों को बचाए रखता है। यही कारण है कि साहित्य की पहली माँग पठनीयता को उनकी कहानियाँ पूरा करती हैं। दूसरी तरफ, कहानियों में ही नहीं, लघुकथाओं तक में किसी तरह का भाषिक खिलवाड़ हमें दिखाई नहीं देता। सभी कहानियाँ बेहद सहज ढंग से अपनी बात रखती हैं। कहानियों में आई यह सहजता रचना को हल्का नहीं बनाती, वरन इस सहजता में ही कई कहानियाँ बेजोड़ बनकर उभरती हैं। यही कारण रहा कि चन्ना चरनदास, वह हथेली औरत की नहीं थी, सहस्रधारा जैसी कहानियाँ इस संग्रह की उल्लेखनीय कहानियाँ बन पड़ी हैं। दूसरी तरफ, सामाजिक यथार्थ और मानवीय संवेदनाओं का सम्प्रेषण करती चन्ना चरनदास की कथा-रचनाएँ अपने समय और समाज को भी रेखांकित करने की कोशिश में संलग्न दीखती हैं। पुरुष वर्चस्व वाले समाज में स्त्री की स्थिति आज भी कोई बहुत बेहतर नहीं है। वह सामाजिक, पारिवारिक मोर्चे पर एक दबंग, सचेत स्त्री के रूप में अपने अस्तित्व को बचाए रखने की भरसक कोशिश करती दीखती है। उसका यह रूप वह हथेली औरत की नहीं थी और सहस्रधारा कहानियों में स्पष्ट देखा जा सकता है। कोख कहानी संतानहीन दम्पति के दु:ख को रेखांकित करती एक अलग ही तरह की कहानी है, जो हमारे संवेदन-तंतुओं को बहुत करीब से छूती है। कूड़ा और सहारा मार्मिक कहानियाँ हैं। इस संग्रह की कहानियों में आए पात्र गढ़े हुए नहीं लगते, वे हमारी आसपास की दुनिया से ही उठाए गए जीते-जागते पात्र हैं। चाहे ग्लोइंग प्वाइंट में सीधा-सादा खुद्दार बहादुर हो या वह हथेली औरत की नहीं थी की दबंग औरत; बकरियाँ का फौजी हो या काला समय का पुलिसमैन राणा, सहस्रधारा की शोख-चंचल और वाचाल लड़की हो या फिर चन्ना चरनदास का अनोखा पात्र घंसा चाचा। ऐसे ही अनेक पात्र उनकी कहानियों/लघुकथाओं में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करते हैं और पाठक के भीतर भी अपनी जगह बनाने में कामयाब होते हैं। लेखक ने इन पात्रों की संवेदना एवं चेतना के आड़े-तिरछे बिम्बों को प्रकट करने में जिस ईमानदारी का परिचय दिया है, उससे समस्याओं के सामाजिक पक्ष तथा उसके भीतर के उलझावों को समझने में पाठक को बहुत मदद मिलती है।
इसके अतिरिक्त जीवन की आस्थाओं और गरिमा के लिए जूझते लोगों का भोलापन कई कहानियों में पूरी जीवंतता के साथ अभिव्यक्त हुआ है। इसके चलते अधिकांश कहानियों की परिणति सुखद अंत के रूप में होती है, चाहे वह चन्ना चरनदास हो, वह हथेली औरत की नहीं थी हो, सहस्रधारा हो, बकरियाँ हो या फिर सहारा। मानवीय मूल्यों को बचाए/बनाए रखने की जद्दोजहद, पारस्परिक रिश्तों में आए ठंडेपन में पुन: गरमाहट भरने की ललक तथा सम्बन्धों को खोखला होने से बचाने की कोशिश, इन कहानियों में यत्र-तत्र दिखाई देती है जो कि संवेदन-शून्य होते जा रहे वर्तमान समाज के लिए एक सकारात्मक बात है। परन्तु, वर्तमान संक्रमण काल में फैलती स्वार्थपरता और धनलिप्सा की गिरफ्त में पिसते सनातनी संस्कारों की वकालत करती ये कहानियाँ अपने सुखद अंत के चलते आदर्शवाद के लपेटे में भी आ जाती हैं जो कि कहानी की वर्तमान धारा में अब कमजोर गुण माना जाता है। लेखक यदि इस आदर्शवाद से अपनी कहानियों को थोड़ा बचा लेता तो नि:संदेह ये कहानियाँ अधिक दमदार और धारदार साबित हो सकती थीं।
चन्ना चरनदास में संग्रहीत लघुकथाएँ सधी हुई रचनाएँ हैं और जिस रचनात्मक कसाव की अपेक्षा प्राय: लघुकथा से की जाती है, उसे इनमें सहज ही पाया जा सकता है। झिलंगा, लेकिन सोचो, कूड़ा, सुन्दरता, अंधे लोग, बहरे लोग, हवा, यह कौन-सा मुल्क है आदि रचनाएँ उन बेहतरीन लघुकथाओं में आती हैं जिनके लिए बलराम अग्रवाल जाने जाते हैं। फेंटेसी का न केवल खूबसूरत बल्कि जबर्दस्त प्रयोग उनकी अनेक लघुकथाओं में प्राय: देखने को मिलता रहा है। इस संग्रह में भी हवा, अंधे लोग, बहरे लोग, यह कौन-सा मुल्क है इसी तरह की लघुकथाएँ हैं जो अपना प्रभाव पाठक पर छोड़ने में पूरी तरह सफल हैं।
इस संग्रह की कथा-रचनाओं से गुजरते हुए लेखक की जिस रचनाशीलता और क्षमता से पाठक का परिचय होता है, उसको देखते हुए नि:संदेह कहानी और लघुकथा के क्षेत्र में इस लेखक से और-भी बहुत-सी उम्मीदें की जा सकती हैं।
समीक्षक का पता:372, टाइप 4, लक्ष्मीबाई नगर, नई दिल्ली-110023
ई-मेल:subhashneerav@gmail.com