शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु-7 / बलराम अग्रवाल

 (छठी कड़ी से आगे...)

 

भारतीय एवं भारतेतर आचार्यों द्वारा प्रणीत समीक्षा बिन्दु और समकालीन लघुकथा 

 

(सातवीं कड़ी) 

 

अनेक लोगों को आपत्ति है अथवा वे उपहासपूर्वक टिप्पणी करते हैं कि लघुकथा की आलोचना स्वयं उसके लेखकों को ही करनी पड़ रही है, कोई प्रबुद्ध आलोचक उसे इस योग्य नहीं समझ रहा कि उस पर कुछ कहे। इस बारे में मेरा निवेदन यह है कि आलोचना के बारे में कहा यह जाता है कि उसके कुछ खास मापदंड हैं। वस्तुत: आलोचना के नहीं, समीक्षा के मापदंड हैं। अक्सर उन्हें ही आलोचना के मापदंड भी मान लिया जाता है। लेकिन हमारा ही नहीं, अनेक विद्वानों का मानना है कि आलोचना के मापदंड उस गति से नहीं बदले, जिस गति से रचना ने अपने आप को बदला। रचना आधुनिक और उत्तर आधुनिक हो गयी, लेकिन आलोचना अपने पुरातन घाट पर बैठी चन्दन ही घिसती रह गयी। यही कारण रहा कि रचना या विधा को यह शिकायत लगातार रही है कि आलोचक उसका सही मूल्यांकन नहीं कर पा रहे। दूसरी ओर, आलोचक की यह शिकायत हर युग में बरकरार रही है कि उसे मापदंड के अनुरूप खरी रचनाएँ नहीं मिल रही हैं। रचना और आलोचना का एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का यह सिलसिला द्विवेदी युग से ही चला आ रहा है। इसीलिए विश्वास के साथ कहा जाता है कि रचना के मर्म को पहचानने की दिशा में आज का आलोचक आत्मविश्वास से हीन और संशय से परिपूर्ण है। नतीजा यह कि कुछ आलोचकों के द्वारा रचना ‘अलक्षित’ रह गयी तो कुछ आलोचकों के द्वारा पूरी की पूरी विधा ही अलक्षित है। दूसरी ओर, कुछ आलोचक रचना के मर्म को उसके काल और प्रकृति के अनुरूप पकड़ ही न पाए और ‘विलक्षित’ लिखते-बोलते रहे।

तो, रचना का ‘अलक्षित’ रह जाना और आलोचक का ‘विलक्षित’ होते रहना ‘लघुकथा’ के साथ लगातार हो रहा है। स्वनामधन्य आलोचकों की यह विलक्षणता ही कारण रही कि अन्तत: कुछेक लघुकथाकारों को रचनात्मक लेखन के साथ-साथ इस विधा की समीक्षा और आलोचना की कमान भी सँभालनी पड़ी।

समीक्षक के लिए, सबसे पहले यह जान लेना जरूरी है कि एकल रचना-समीक्षा में और समेकित रूप से संग्रह/संकलन की समीक्षा में अन्तर है। रचना लेखक के चिन्तन और अनुभव का एक पक्ष होती है, जबकि संग्रह उसका समेकित पक्ष। संग्रह में आकर लेखक के विषय वैभिन्य और उसके चिंतन की व्यापकता का पता चलता है जो कि एक-एक रचना के अलग-अलग छपने की वजह से गुप्त और प्राय: लुप्त भी रहता है।

कथाकार के लेखन में आई विविधता से उसके अनुभवों और संवेदन-बिंदुओं की पहचान का माद्दा आँका जाना चाहिए। लेकिन इससे अलग भी देखने में आता है। कथाकार कथ्य के स्तर पर बहुत प्रभावशाली होता है लेकिन उसका अनुभव संसार कुछेक बिंदुओं के ही इर्द-गिर्द चकराता रहता है। इस सत्य का पता उसके संग्रह की कथाओं से गुजरने पर ही समीक्षक को चल पाता है। दूसरी बात, कथाकार विषयों की भिन्नता का तो ढेर लगा लेता है, लेकिन उसकी प्रस्तुति में गहराई नहीं ला पाता। इसका कारण जो भी रहता हो, पाठकों के बीच रचना अपनी गहराई और व्याप्ति के बूते पर ही जगह बना पाती है, विषय की नवीनता मात्र के बूते पर नहीं।

संग्रह अमूमन दो प्रकार के होते हैं—पहला वह, जिसमें संग्रहीत रचनाएँ जीवन के अनेक आयामों को दर्शाती हों; और दूसरा वह, जिसमें संग्रहीत रचनाएँ जीवन के एक आयाम पर केन्द्रित होती हैं। जीवन के एक-एक आयाम पर केन्द्रित लघुकथा-संग्रह लिखने/प्रकाशित करने वालों में प्रमुख नाम पारस दासोत का है; उनके बाद मधुकांत, राजकुमार निजात, कमल चोपड़ा और अशोक भाटिया आदि का नाम आता है लेकिन सब के कार्य करने की शैली में अन्तर है। पारस दासोत, मधुकांत, राजकुमार निजात, अशोक भाटिया ने विषय केन्द्रित लघुकथाएँ लिखकर ही संग्रह प्रकाशित कराए हैं; जबकि कमल चोपड़ा ने स्वलिखित अनेक लघुकथाओं से विषय केन्द्रित लघुकथाओं को चुनकर संग्रहीत किया है। इस श्रेणी में विष्णु नागर के संग्रह ‘ईश्वर की कहानियाँ’ का भी नाम लिया जा सकता है।

1980 के आसपास तक कभी-कभार एकाध ग़ज़ल भी हम लिख लिया करते थे। गजल तो नहीं, शे’र किस्म की दो-चार लाइनें अब भी लिख लिया करते हैं। 1980 में लिखी एक ग़ज़ल का शे’र है—

ए मेरी ग़ज़ल की ज़मीन आ, तुझे मैं ग़ज़ल-सा सँवार दूँ।

मेरा  लफ्ज़  लफ्ज़ है  आइना,  तुझे आइने में उतार दूँ॥

यह बशीर बद्र साहब की एक ग़ज़ल से प्रेरित और प्रभावित था। इसे यहाँ उद्धृत करने का उद्देश्य यह बताना भर है कि लघुकथा का हर शब्द बोलता है। समीक्षक को उसके हर शब्द को इस दृष्टि से देखना चाहिए कि उसके प्रयोग का कोई खास तात्पर्य, कोई खास प्रयोजन तो लघुकथाकार के मस्तिष्क में नहीं रहा है। रोमांचित करने मात्र के लिए लेखक ने कथ्य से इतर प्रसंग जोड़कर, कथा-मसाला डालकर पाठक को भ्रमित करने की, बहकाने की तो कोशिश नहीं की है। यह बिंदु उन समीक्षकों के लिए नहीं है जो लघुकथा में ‘पंच’ लाइन के हिमायती हैं और जिनके लिए लघुकथा का प्रभाव उसकी पूँछ में निहित है, बाकी समूची काया बेकार है, बेमतलब है और पूँछ तक पहुँचने का माध्यम भर है। माना कि ‘पंच’ का महत्व है, लेकिन ‘पंच’ के आवश्यक होने का सिद्धांत लघुकथा के समग्र रूप से प्रभावशाली होने के सिद्धांत को आहत करता है।

कहा जाता रहा है कि लघुकथा का कथ्य एकांगी होना चाहिए। सचाई यह है कि लगभग आठवें दशक से यही बात कहानी के बारे में भी कही जाती रही है। ऐसे में, इन दोनों रचना-विधाओं के बीच अन्तर इतना महीन रह जाता है कि अनेक लघुकथाएँ कहानी और अनेक कहानियाँ लघुकथा होने का भ्रम उत्पन्न करती हैं। सचाई यह भी है कि सामान्य पाठक इस झमेले में नहीं पड़ता कि उसने लघुकथा पढ़ी है या कहानी। उसे तो ‘कथारस’ की अपनी सामान्य पिपासा को शांत करने वाली रचना चाहिए। उसे कुछ गुदगुदा तो कुछ चुभता अहसास चाहिए। इस अहसास को ‘कैश’ करने में सिद्धहस्त लोग ही अच्छी पाठक संख्या जुटा पाते हैं। हिट उपन्यास, हिट कहानी और हिट फिल्में यही दे पाते हैं। सामान्य से ऊपर का पाठक ‘कथारस’ की गुणवत्ता के प्रति सचेत रहता है। पाठकों की भीड़ से निकलकर वह थोड़ा अलग खड़ा नजर आता है। मानसिक खुराक के प्रति उसका रवैया संकेत में कहें तो यह है कि आज के समय में उसे ‘पानी’ नहीं, ‘बिसलरी’ चाहिए।

 आठवें दशक में (और उसके बाद भी) अनेक लघुकथाकार ‘घटना-प्रतिघटना’ प्रस्तुत करते रहे; यानी रचना के पूर्वार्द्ध में एक स्थिति का चित्रण करके उत्तरार्द्ध में उसके विपरीत स्थिति के चित्रण द्वारा मनुष्य की कथनी-करनी के दोगलेपन को जाहिर करते रहे हैं। लेकिन आठवें दशक के उत्तरार्द्ध से ही लघुकथाओं में रूपक का बड़ा सफल प्रयोग भी अनेक लघुकथाकार कर रहे हैं। इसकी शुरुआत किस लघुकथा या किस लघुकथाकार से मानी जाए, यह शोध का विषय है। ऐसी लघुकथाओं में मुख्य कथा के समांतर एक अन्य कथा अथवा घटना, विचार, द्वंद्व चलता है। समांतर चलने वाली कथा, घटना कई बार पूर्व प्रचलित होती है और कई बार नई भी गढ़ी जाती है। जैसी भी हो, उसका ‘नेक टु नेक’ सम्बन्ध मुख्य कथा से होता है; और प्रकारान्तर से वह उसकी व्याख्या-सखी कही जा सकती है। पृथ्वीराज अरोड़ा की ‘दया’, मधुदीप की ‘ऑल आउट’, संध्या तिवारी की ‘लेकिन मैं शंकर तो नहीं’ आदि को इसके उद्धरण स्वरूप देखा जा सकता है।

(शेष आगामी अंक में....)

गुरुवार, 10 सितंबर 2020

लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु-6 / बलराम अग्रवाल

 (पाँचवीं कड़ी से आगे...)

 

भारतीय एवं भारतेतर आचार्यों द्वारा प्रणीत समीक्षा बिन्दु और समकालीन लघुकथा 

 

(छठी कड़ी) 


भाषा-कथन के सन्दर्भ में, किसी रचना में अभिव्यक्ति के प्रयोग की तीन प्रकार से


व्याख्या हो सकती है—

1-            उद्देश्यपूर्ण अभिव्यक्ति

2-            समानरूप से उद्देश्यपूर्ण प्रदर्शन अथवा संकेत और

3-            मनोवैज्ञानिक आन्तरिक स्थिति।

इन मानसिक विचारों के अलावा तीन मुख्य सिद्धान्त और हैं जिनकी सहायता से ‘अभिव्यंजना’ की पहचान की जा सकती है। वे हैं—

1-            जिसे अभिव्यक्त किया जाता है,

2-            जो अभिव्यक्त करता है, तथा

3-            जिसके माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है।

इनमें प्रथम से सम्बन्धित एक और सिद्धान्त है जो किसी अभिव्यक्ति के बाह्याकार के प्रकटीकरण को यह समझता है कि मस्तिष्क से उसे बिल्कुल निकाल देना है। यह एक प्रभावपूर्ण बात है कि प्रभावों की अभिव्यक्ति और पहचानी हुई अभिव्यक्ति में जमीन-आसमान का अन्तर है।

रूपवाद—आकार या रूप किसी उद्देश्य की उस विशेषता को कहते हैं, जो अनुभव की गयी हो; या वह रचना, जिसमें किसी अनुभव या किसी वस्तु के तत्त्वों को संशोधित किया गया हो। कथा में शिल्प के महत्व को स्वीकार किया जाने को ‘रूपवाद’ अथवा ‘फार्मिज्म’ कहा जाता है। अरस्तु ने रूप को रचना के प्रमुख कारकों में गिना है। वे कहते हैं—रूप उन चार कारकों में एक है तो पूरी तरह किसी वस्तु के अस्तित्व का आधार होते हैं। वे कारक हैं—

1-            उत्पादक

2-            उद्देश्य

3-            विषय, और

4-            रूप।

इनमें उत्पादक और उद्देश्य बाह्य हैं और विषय तथा रूप आन्तरिक। विषय क्या है? वह, जिससे कोई वस्तु बनती है; और रूप वह है जो उसे आकार देता है। इसलिए रूप को केवल आकार न माना जाए, बल्कि आकार देने वाले कारक के तौर पर भी रेखांकित किया जाए। रूप केवल विशेषता नहीं है; बल्कि वह सिद्धान्त भी है जो रचना को विशेषता प्रदान करता है। इससे भी आगे अरस्तु कहते हैं कि ‘रूप वह सब-कुछ है जो उस विशेषता का निर्धारण करता है।’

तात्पर्य यह कि अर्थ या अभिव्यक्ति और रचना भी बाह्य तत्व हैं। इसप्रकार, किसी साहित्यिक कृति के विषय को सामान्य रूप में उसकी वस्तु के समान माना जाता है, जिसके लिए किसी कृति का अर्थ या एक सन्दर्भ होता है; और रूप तब केवल वही हो सकता है जो एक कृति की विशेषता में से उसका अर्थ निकाल देने के बाद शेष रह गया हो।

         जिस विषय से कोई रचनाकार कुछ तैयार करता है, वह उसके समय, स्थान और परिवेश की भाषा होती है; लेकिन जब वह अपना कार्य कर रहा होता है, तब वह भाषा किसी भी तरह से रूपहीन विषय नहीं होती बल्कि वह स्वयं कला से उत्पन्न होती है। इसे यों समझिए कि ‘सेवा’ कार्य एक अलग क्रिया है और ‘सेवा’ भाव एक अलग क्रिया है। उदाहरण के लिए, जब एक सेवक अपना कार्य शुरू करता है, तब उसकी सामग्री बाह्य तत्वों से शुरू होती है; लेकिन ये चूँकि सदैव बाह्य तत्त्व रहते हैं, जैसाकि समाप्त हो गये उसके कार्य से लक्षित होता है, ये सब उस विषय का अंग मात्र हैं जो उसे स्पष्ट करते हैं।

अस्तित्ववाद—अस्तित्ववाद मूलत: एक दार्शनिक प्रणाली है, लेकिन साहित्य में भी इसका यथेष्ट प्रभाव दिखाई देता है। यह आध्यात्मिक संकट या गतिरोध या संक्रांति का दर्शन है। इस विचारधारा के अनुसार, हमारी आध्यात्मिक स्थिति के मूल में संकट विद्यमान है। अनुभवों द्वारा पोषित एक सत्य हजारों अनावश्यक सत्यों से आवेष्ठित रहता है जिसके परिणामस्वरूप वह जल्दी ही लुप्तप्राय: हो जाता है। उसे देख न पाने के कारण हम आधाररहित होकर समाज के प्रति आत्म-समर्पण कर देते हैं और परिस्थितियों का दास हो जाते हैं। एक आत्म-चेतनापूर्ण विचार सहस्रों कल्पनाओं में विलीन हो जाता है; जिसके कारण लक्ष्यविहीन अन्तश्चेतना अशान्त रहती है और कार्यक्षेत्र में एक क्षुद्र कायरता व्यर्थ के रोष के आवरण में क्रियाशील रहती है। इसप्रकार, आन्तरिक ज्ञान अन्धकारपूर्ण होता जाता है और अन्धश्रद्धा को कार्य का आधार मान लिया जाता है। इस दशा में भी संकट विद्यमान है। अस्तित्ववाद इस प्रकार के आध्यात्मिक संकट की बड़ी ही मौलिक व्याख्या करता है और संकट के इस अंधकार को प्रतिभा के सूर्य से दूर करने का यत्न करता है।

स्वच्छन्दतावाद और यथार्थवाद—प्रत्येक युग अपने पूर्ववर्ती सिद्धान्तों की प्रतिक्रिया पर आधारित होता है। यह प्रतिक्रिया एक संकट को जन्म देती है। कुल मिलाकर यह प्रक्रिया पिछले युग की मान्यताओं से स्वतन्त्र होने की क्रिया होती है। पिछली मान्यताओं की प्रतिक्रिया के आधार पर ही नयी मान्यताओं का जन्म होता है। इस प्रकार एक संक्रमण काल ऐसा भी आता है, जब प्राचीन पर से आस्था हट चुकी होती है लेकिन नवीन मान्यताओं पर बौद्धिक और भावनात्मक विश्वास पूरी तरह जम नहीं पाया होता है। यह संक्रमण काल ही संकट का समय होता है।

आज का संसार सैद्धान्तिक या क्रियात्मक क्षेत्र में से किसी भी कार्यविधि में सर्वमान्य आध्यात्मिक मूल्यों की सत्ता स्वीकार नहीं करता है। विचारकों के सम्मुख हमेशा एक चुनौती यह रहती है कि वे अमूर्त बौद्धिकता के स्थान पर नवीन सत्ता की स्थापना करें। उन्नीसवीं सदी के विचारकों ने इसके लिए दो मार्गों का आश्रय किया। एक था—आदर्शवाद और दूसरा था—प्रकृतिवाद।

आदर्शवाद अपने में निहित विचारों के अलावा किसी बाह्य सत्ता को नहीं मानता। इसके विपरीत, प्रकृतिवाद ज्ञान तथा दैवी-कृपा के स्थान पर वास्तविक संसार के सामाजिक और प्राकृतिक तथ्यों की सत्ता को मानता था। इसप्रकार पहले में विचार अपने सिद्धान्तों के अधीन थे और स्वयं को स्वच्छंद मानते थे, तो दूसरे में वे प्रकृति के अधीन थे। कला और साहित्य के क्षेत्र में यही दो धाराएँ स्वच्छंदतावाद और यथार्थवाद के रूप में प्रकट हुईं।

पराभववाद—उन्नीसवीं सदी के अन्त तक अत्याधिक दार्शनिक आकांक्षाओं के कारण आदर्शवाद समाप्तप्राय; हो चुका था अत: विचारकों ने प्रकृतिवाद यानी यथार्थवाद को अपना लक्ष्य बनाया। परन्तु इस अन्तर्दृष्टि की परम्परा भी अधिक विकसित नहीं हो सकी। इसप्रकार बीसवीं सदी ने पूर्ववर्ती विचारधाराओं की सत्ता से विचार तो हटाया, लेकिन नवीन विचारधारा का सृजन नहीं कर सकी जिस पर वह स्वयं आस्था रख सके। इस अनास्था ने एक ऐसे संकट को जन्म दिया जिसका ध्येय किसी नवीन विचारधारा का प्रणयन न होकर अराजकता को जानबूझकर स्वीकार कर लेना था। साहित्य और कला के क्षेत्र में इसका प्रभाव एक नयी तरह के सांस्कृतिक अनुभव के रूप में आया जिसके अन्तर्गत अपने आपको विभिन्न अमूर्त तथा मूर्त रूपों में गर्हित व कलुषित दिखाना श्रेयस्कर माना जाता था। यह विचारधारा एक ऐसे फैशन और रीति के रूप में आयी कि इसके अनुयायियों और विरोधियों, दोनों ने इसे ‘पराभववाद’ की संज्ञा दी। यह वाद कला और साहित्य के क्षेत्र में नवीनता और साहसिकता का पर्याय बनकर अवतरित हुआ।

जर्मन में इसी से अस्तित्ववाद का जन्म हुआ। अस्तित्ववाद जानबूझकर आशा के स्थान पर निराशा को प्रश्रय देता है और यह मानता है कि अन्तिम रूप से नष्ट होकर ही मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अस्तित्ववादी विचारधारा मनुष्य और उसके अस्तित्व के अलावा किसी अन्य बात पर ध्यान नहीं देती तथा सुख व शान्ति के लिए वस्तुस्थिति के प्रति आत्मसमर्पण को त्याज्य समझती है।

स्वतन्त्रतावाद—स्वतन्त्रता एक आवश्यकता है और उसी आवश्यकता से उसका जन्म होता है। हमारा समाज इस स्वतन्त्रता से ही शासित होकर परिवर्तनशीलता को ग्रहण करता है। यह परिवर्तनशीलता प्राय: ऊर्ध्वगामी होती है। हमारे समय की कितनी लघुकथाएँ इस सिद्धान्त से कहाँ तक शासित होती है, यह देखना रुचिकर हो सकता है।

हमें यह विश्वास नहीं है कि हम स्वतन्त्र हैं, लेकिन हम ऐसा व्यवहार करते है जैसेकि स्वतन्त्र हों। हमें यह विश्वास नहीं है कि हम निर्भीक हैं, लेकिन हम ऐसा व्यवहार करते है जैसेकि निर्भीक हों। अस्तित्ववादी यह विश्वास करते हैं कि भौतिकता, वह चाहे किसी मात्रा में क्यों न हो, मानव-मूल्यों को सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों का दास बनाकर मानव-स्वतन्त्रता का हनन करती है। उनके अनुसार, स्वतन्त्रता वह परिस्थिति है जो मनुष्य को उसकी भौतिक परिस्थितियों से ऊपर उठने की क्षमता प्रदान करती है। इसे यों भी समझाया जा सकता है कि किसी व्यक्ति को एक स्थिति से अलग निकालकर उसी स्थिति पर विचारणीय दृष्टिकोण ग्रहण करने की क्षमता प्रदान करने वाली सम्भाव्यता का नाम ही स्वतन्त्रता है। अनेक विद्वान इस प्रक्रिया से असहमति जताते हुए कहते हैं कि व्यक्ति का अपनी ही स्थिति से निरपेक्ष रहकर सोच पाना सम्भव नहीं है। बावजूद इसके, अस्तित्ववादियों का विश्वास है कि मनुष्य ने निरन्तर प्रगति के द्वारा ऐसी सामर्थ्य अजित कर ली है कि वह अपनी स्थिति से ऊपर उठ सकता है। इस सामर्थ्य को वे चेतना अथवा बौद्धिक आत्मबोध नाम देते हैं।

इस ऊर्ध्वगामिता को भौतिक कसौटी पर नहीं परखा जा सकता।

अतियथार्थवाद—‘अतियथार्थ से यह तात्पर्य लगाया जाता है कि जो सत्ता यथार्थ होते हुए भी दिखाई न दे। इस सिद्धान्त के पैरोकारों के अनुसार, कला और साहित्य को पूरी तरह बौद्धिक नहीं होना चाहिए। उनका मानना है कि अतिशय बौद्धिक होने से मनुष्य की वैयक्तिक अनुभूतियों और अन्तर्विरोध के चित्रण की सम्भावनाएँ कम हो जाती हैं। आधुनिक सभ्य समाज में जिस नैतिक दृष्टिकोण को आदर्श समझा जाता है, वह निरर्थक है, यह मानते हुए वे नीति-विषयक आधुनिक मान्यताओं का विरोध करते हैं। इसीलिए, अतियथार्थवादियो पर स्वच्छन्दतावादी होने का आक्षेप लगता है जो किसी नैतिक बन्धक को नहीं मानते।

अतियथार्थवाद का उद्देश्य वस्तुत: यथार्थवाद को विस्तार देना था। उनके अनुसार—वह सामग्री, जिसका साहित्य में अब तक उपयोग नहीं हुआ है, उसका उपयोग करके ही साहित्यिक क्षितिज का विस्तार सम्भव है। कुछ लोग अतियथार्थवाद को रोमान्टिसिज्म का विकसित रूप मानते हैं। दोनों की बहुत-सी विशेषताएँ समान हैं; जैसे, समता के स्थान पर दोनों ही विषमता को अधिक प्रश्रय देते हैं। दोनों में बौद्धिकता के प्रति अविश्वास और मध्य-वर्ग को चौंकाने के प्रति आग्रह रहता है।

इनके अतिरिक्त भी बहुत-से सिद्धान्त हैं जो समीक्षा के क्षेत्र में प्रवर्तित हुए हैं, परन्तु उपर्युक्त सभी सिद्धान्त उन सब का भी प्रतिनिधित्व करने में सक्षम हैं। इन सिद्धान्तों को यहाँ प्रस्तुत करने का एक उद्देश्य यह बताना भर है कि साहित्य और कला के क्षेत्र में समय-समय पर नवीन दृष्टि के अनुसार परिवर्तन और विकास होता रहा है, आगे भी होता रहेगा। साहित्य में विभिन्न तत्त्वों की प्रमुखता प्रतिपादित करते हुए उन्हीं के अनुसार मूल्यांकन पर बल दिया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि आदर्शवाद साहित्य में उदात्त तत्त्वों को अधिक महत्व देता है तो यथार्थवाद उसकी यथातथ्यता पर, अभिव्यंजनावाद यदि अभिव्यक्ति की शैली पर अधिक बल देता है तो रूपवाद उसकी बाह्य रूपात्मकता पर। अन्य भी सभी सिद्धान्त साहित्य के आन्तरिक अथवा बाह्य रूपों में किसी न किसी को प्रमुखता देते हैं।

                                                                         (शेष आगामी अंक में....)

बुधवार, 9 सितंबर 2020

लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु-9 / बलराम अग्रवाल

 (आठवीं कड़ी से आगे...)

 

भारतीय एवं भारतेतर आचार्यों द्वारा प्रणीत समीक्षा बिन्दु और समकालीन लघुकथा 

 

(नौवीं>>>समापन कड़ी) 

 

 

लघुकथा में ‘संकेत’ के प्रयोग की बात कही जाती है; लेकिन ‘संकेत’ का प्रयोग कोई लेखक तभी कर सकता है, जब उसने उसे समझ लिया हो। ‘संकेत’ का सरल अर्थ ‘इशारा’ होता है; लेकिन लघुकथा के संदर्भ में यह इशारा क्या है—इस बात को लेखक और समीक्षक दोनों का समझना जरूरी है। उदाहरण के लिए, एक मित्र दूसरे से कहता है—‘तेरी फोटो बहुत अच्छी आती है यार।’ दोस्त इस पर तहेदिल से शुक्रिया अदा करेगा, उसकी आँखों में पहले मित्र के लिए आभार का भाव अवश्य आएगा। लेकिन यह ‘संकेत’ अगर उसके सामने खुल गया तो क्या प्रतिक्रिया आएगी, यह दोनों मित्रों के बीच परस्पर संबंधों की प्रगाढ़ता पर निर्भर करता है।

इस वाक्य में संकेत क्या है? संकेत यह है कि—तेरी शक्ल-सूरत किसी काम की नहीं है, लेकिन ‘तेरी फोटो बहुत अच्छी आती है यार!’। लेकिन ऐसे प्रशंसात्मक वाक्य हर बार ‘संकेत’ ही होते हों, ऐसा नहीं है। ‘संकेत’ का उद्घाटन पात्र के चरित्र और तत्संबंधी परिस्थिति के अनुरूप करना होता है। इसका एक रोचक उदाहरण बी एल आच्छा जी ने ‘क्षितिज लघुकथा सम्मेलन’ में बोलते हुए 3 जून 2018 को प्रस्तुत किया था। उन्होंने कहा—‘किसी परिवार में एक रिश्तेदार मिलने जो आए। उन्हें ड्राइंग रूम में बैठाकर मेजबान ने पानी का गिलास पेश किया और किसी काम से घर के भीतर चला गया। इसी बीच मेजबान की पत्नी भी एक ट्रे में पानीभरा गिलास लेकर उपस्थित हो गयी। उसे देखते ही मेहमान ने अपने हाथ में पकड़ा गिलास दिखाते हुए कहा—‘पानी तो हो गया।’

यह एक सामान्य वाक्य नजर आता है, लेकिन समीक्षक/आलोचक इसमें भी ‘संकेत’ तलाश कर लेता है। संकेत यह है, कि—‘पानी तो हो गया, अब चाय-कॉफी-कोल्ड ड्रिंक की बात कीजिए’।

समीक्षक को देखना है कि लघुकथा का मूल कथ्य क्या है? संवादों और नैरेशन के माध्यम से लेखक किस सामाजिक, धार्मिक या राजनैतिक असंगति की ओर पर ध्यान आकृष्ट करना चाहता है?  किसी भी संवेदनशील मुद्दे पर लेखक ने अपनी बात कैसे रखी है। समूचेपन में वह सही है या गलत?

फेसबुक पर अनेक लघुकथा समूहों द्वारा विषय आधारित या चित्र आधारित लघुकथा लिखने का अभ्यास कराया जाता है। नवोदितों लेखकों को लेखन का अभ्यास कराने की दृष्टि से यह कतई गलत नहीं है। लेकिन एक ही विषय पर लिखने का फ़ैशन-सा चल पड़े तो दिक्कत होती है। एक ही तरह की लघुकथा हर लेखक लिखेगा तो विधा का अहित ही होगा, हित नहीं। विधा के हित का ध्यान रखने की जिम्मेदारी ऐसे में समूह-एडमिन की बनती है। जैसे हर बच्चा हमेशा केजी में ही नहीं रहता है वैसे ही चित्र आधारित और विषय आधारित लघुकथा लिखने वाले लेखकों को सूचीबद्ध करना आवश्यक है। यह पूर्व-घोषित रहना चाहिए कि ‘यह कोर्स आपके शामिल होने के उपरांत मात्र एक साल का है, उसके बाद आप इस प्रतियोगिता में भाग नहीं ले पाएँगे, आपको प्रोन्नत मान लिया जाएगा और आशा की जाएगी कि आप स्वतंत्र लेखक की तरह सोचें और अपने विषय आप चुनें।’ लेकिन यह नहीं चल रहा है। क्या आप इससे सहमत हैं कि एक ही तरह की लघुकथाएँ लिखी जाती रहनी चाहिए? या फिर फ़ॉर्मूला साहित्य से आपकी असहमति है? अगर हाँ तो क्यों, नहीं तो क्यों? आपकी साहित्यिक समझ क्या माँग करती है?  आपको विविधता चाहिए या बस एक ही तरह की बातें आती रहें, वह भी आपको मान्य है क्योंकि वो आपके समूह सदस्य की अभिव्यक्ति है और उन्हें आप नाराज नहीं कर सकते?  यहाँ आपको सोचना सिर्फ यह है कि क्या वृहत्तर साहित्य में ऐसी फ़ॉर्मूला लघुकथाओं की जगह है? अगर हाँ तो कितनी और कहाँ?

लघुकथा छोटी काया की रचना है। उसमें पात्रों की भरमार नहीं होती है। इसलिए उसके हर पात्र पर विस्तार से लिखना बहुत आसान है। पात्र के चरित्र का विश्लेषण करने की कोशिश समीक्षक को नहीं तो आलोचक को अवश्य करनी चाहिए। इससे लाभ यह होगा कि आप अनेक लेखकों की विभिन्न लघुकथाओं में आए पात्रों के चरित्र का तुलनात्मक अध्ययन भी सहजता से करने में सक्षम हो सकेंगे।

लघुकथा के आदि, मध्य और अंत पर बात करने की कोशिश करें। यहाँ यह ध्यातव्य है कि लघुकथा में ‘अंत’ और ‘समापन’ दो भिन्न स्थितियाँ हैं। साथ ही यह भी कि लघुकथा अकेली रचना-विधा नहीं है, जो अपने अंत के साथ ही पाठक-मस्तिष्क में खुलने की कितनी क्षमता रखती हो। ग़ज़ल के हर शेर में यह क्षमता होती है। यही गुण दोहा का भी है।

लघुकथा संग्रह की समीक्षा में हर लघुकथा की स्वतंत्र समीक्षा भी प्रस्तुत कर सकते हैं। इससे आपको संग्रह की लघुकथाओं की पारस्परिक तुलना करने में आसानी होगी। लेकिन तुलना तभी होगी जब  उनके मूलभाव समान हों। आपको ऐसी लघुकथाएँ भी संग्रह में मिल जाएँगी जो संग्रह की ही किसी अन्य लघुकथा का विस्तार प्रतीत होती हों।

 गंभीर, व्यंग्यपरक, कटाक्षपरक, हास्यपरक कथ्यों को चिह्नित करने के क्रम में यह अवश्य देखें कि लेखक ने जिस उद्देश्य से उन्हें रचा है, उसमें वह खरा उतरा है या नहीं। वह रच रहा है या पार्टी एजेंडे की शर्तें पूरी कर रहा है। किसी राजनीतिक दल अथवा समुदाय विशेष के सिद्धांतों के प्रति निष्ठा के तहत कुछ ऐसी बातें तो नहीं लिख डाली हैं जो कुल मिलाकर विकार ही पैदा करती हैं? रोचक लगने वाली जो बातें की हैं वो हमारे जीवन की हैं या महज़ एक ऑब्जर्वेश्न है?

लघुकथा लेखों की समीक्षा समीक्षक की निजी सैद्धांतिक मान्यताओं, निजी स्वीकृति के अनुरूप सही और गलत हो सकती है। लेखों की समीक्षा करते हुए तो आपको पता होना चाहिए कि लेखक ने कब क्या कहा था। तथ्य सामने लाइए और बताइए कि सही क्या है, क्या गलत।

आजकल काफी लघुकथाएँ समसामयिक मुद्दों पर लिखी जाती हैं। क्या उन मुद्दों से सामान्य पाठक भी परिचित है? है, तो लघुकथाओं के कथ्यों में एकरूपता तो नहीं है? लघुकथाकार बार-बार एक ही तरह की संवेदना की तो बात नहीं कर रहा है? क्या वे संवेदनाएँ सामान्य पाठक तक पहुँचने में सक्षम हैं?  अगर नहीं तो, कथाकार से कहाँ चूक हुई है, यह बताने की कोशिश की जानी चाहिए।

यह सच है कि सम्प्रति, अधिकतर लघुकथा संग्रह निराश ही कर रहे हैं, तथापि किसी भी संग्रह को मात्र ‘बकवास’ कहकर ख़ारिज कर देना गलत है। उससे अच्छा है कि आप उस पर बात ही न करें। ‘बकवास’ कहने जितना ही गलत है एक पल में ‘बेहतरीन’ कह डालना। हो सकता है कि आपने संग्रह के कुछ हिस्से पढ़े और वो आपको स्तरहीन लगे या स्तरीय लगे, तो अपनी बात उन हिस्सों तक ही रखें। पूरी पुस्तक पर उसके किसी हिस्से विशेष को केन्द्र में रखकर प्रतिक्रिया देना गलत है। कम से कम समीक्षा तो उसे नहीं ही कहा जाएगा। समीक्षा में समीक्षक की हर सहमति और असहमति के पीछे तर्क होने चाहिए। मात्र ‘बुरा’ या ‘अच्छा’ कह डालना समीक्षा नहीं है।

साहित्य में मूल्यन की प्रक्रिया दो स्तरों पर चलती है। पहली, रचना प्रक्रिया के स्तर पर यह रचनाकार के साथ; और दूसरी मूल्यांकन के स्तर पर समीक्षक या आलोचक के साथ। जितने भी मूल्य हैं वे सब के सब सामाजिक बुनियाद पर ही बनते हैं इसलिए इन दोनों ही स्तरों के बीच पहचान की या स्वीकार की एक सामाजिक पद्धति काम करती है।

अगर कोई आलोचक केवल अपनी रुचि के  लघुकथाकारों की रचनाओं पर ही टिप्पणी करता है तो इसका साफ-साफ अर्थ यह लगाना चाहिए कि चिंतन के स्तर पर वह उन्हें अपने समकक्ष पाता है। यह निर्विवाद है कि समय के साथ साथ सामाजिक मूल्यों में भी बदलाव आता है। आलोचक को अपना दृष्टि विस्तार इन बदलावों के अनुरूप करना वांछित है। इस दृष्टि विस्तार को हम मूल्य दृष्टि में विकास के रूप में भी रेखांकित कर सकते हैं। अधिकतम आलोचकों का मानना है कि पूर्व रचनाओं का समय-समय पर पुनर्मूल्यांकन होते रहना चाहिए। अतः यह आवश्यक है पूर्व लघु कथाओं का भी पुनर्मूल्यांकन हो। विकसित मूल्य दृष्टि ही किसी लघुकथा के सरोकारों से पाठक को परिचित कराएं रह सकती है परंपरागत मूल्य दृष्टि नहीं।

आधुनिक समाज में मध्यवर्गीय अंतर्विरोध जिस गति से बढ़े हैं और जिस गति से खुलकर प्रकट हो रहे हैं उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। जाति धर्म और आर्थिक विषमता के मुद्दों पर टकराहटें लगातार बढ़ी हैं। ऐसे में, लघुकथा की प्रासंगिकता नि:संदेह बढ़ी है। यह कथन मात्र नहीं है बल्कि गत दसेक वर्षों में लघुकथा लेखन के प्रति बढ़े रुझान से यह स्वयंसिद्ध है। किसी भी विधा में रेखांकन की पहल उसमें रचनारत लेखकों की आमद के मद्देनजर होती है, गुणवत्ता हमेशा उसके बाद ही अथवा उन आगतों के मध्य ही तलाशी जाती है। लघुकथा आकलन के लिए वर्तमान में विष्णु प्रभाकर, हरिशंकर परसाई आदि से लेकर दीपक मशाल, चंद्रेश कुमार छतलानी, संध्या तिवारी आदि तक लंबी सूची हमारे पास है और रचनाशीलता का नोटिस लिया जाना आज के आलोचक का दायित्व बनता है।

हमें याद रखना चाहिए कि जैसे-जैसे समाज की परिवर्तनकारी शक्तियां जागरूक होती हैं वैसे वैसे पारंपरिक सोच के कारण अवहेलित विधाएं, रचनाएं और रचनाकार पूर्ण प्रदीप्ति के साथ सामने आने लगते हैं। जिन्हें सामाजिक संघर्षों ने तैयार किया हो, रूप और आकार दिया हो, उन्हें कुछ समय के लिए पीछे धकेल देना तो संभव है, हमेशा-हमेशा के लिए दबा देना संभव नहीं है। 

इन दिनों की हमारी लघुकथाओं में शोषणविहीन समाज के लिए शासन व्यवस्था शेष सक्रिय विरोध  कंटेंट लगभग सिरे से ही गायब हैं। कहीं  विरोध अगर दर्ज हुआ भी है तो वह सामान्यतः अंधा ही है यानी रचनात्मक न होकर सिर्फ विरोध के लिए विरोध है।

हमारी लघुकथाओं में भाषा का सामाजिक संस्कार उनको सहज बोधगम्य बनाता है। सामाजिक संस्कार से तात्पर्य यह नहीं है कि कहन में प्रतीकात्मकता को तिलांजलि दे दी जाए। दरअसल प्रतिरोध की जो शक्ति लेखक को भाषा के सामाजिक संस्कार से मिलती है वह अन्यत्र कहीं और से नहीं मिल सकती। वर्तमान शोषण मूलक शासन व्यवस्था में जितना कारगर प्रतिरोध लघुकथा, गजल, दोहा जैसी लघु आकारीय विधाएं प्रस्तुत कर सकती है इतना कारगर प्रतिरोध बड़े आकार की रचना विधाएँ नहीं कर सकतीं। आलोचक समकालीन लघुकथा में अंतर्गुम्फित सांस्कृतिक संघर्ष को तलाशना और रेखांकित करना चाहेगा; लेकिन उससे पहले कथाकार को जानना होगा  सांस्कृतिक संघर्ष को लघुकथा में वह समुचित स्थान कैसे दें?

 

सहायक ग्रन्थ—

1-   साहित्य-विवेचन—आचार्य क्षेमचन्द्र ‘सुमन’ एवं योगेन्द्र कुमार मल्लिक

2-   भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य-सिद्धान्त—डॉ॰ गणपतिचन्द्र गुप्त

3-   आधुनिक समीक्षा:कुछ समस्याएँ—डॉ॰ देवराज

लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु-8 / बलराम अग्रवाल

 (सातवीं कड़ी से आगे...)

 

भारतीय एवं भारतेतर आचार्यों द्वारा प्रणीत समीक्षा बिन्दु और समकालीन लघुकथा 

 

(आठवीं कड़ी) 


आश्चर्य होता है, जब कोई संपादक लेखक से ‘छोटी लघुकथा’ माँगता है अथवा मंच पर पढ़ने से पहले लेखक बताता है—एक ‘छोटी लघुकथा’ पेश कर रहा हूँ। अनौपचारिक रूप से ‘लघुकथा’ की ऊपरी सीमा तो कथाकार और आलोचक, सभी मानते हैं कि उसे इतने शब्दों तक अथवा इतने आकार तक अनुशासित रहना चाहिए; लेकिन कम का तो शायद कोई अनुशासन तय नहीं है और न ही किसी ने अभी तक बताया है। रमेश बतरा की ‘कहूँ कहानी’, श्याम सुन्दर अग्रवाल की ‘भिखारिन’, श्याम सुन्दर दीप्ति की ‘हद’, कमल चोपड़ा की ‘छोनू’ आदि भी ‘लघुकथा’ हैं और इन्हीं कथाकारों की क्रमश; ‘नागरिक’, ‘कैद बामशक्कत’, ‘माँ का कमरा’  और ‘स्वागत’ भी। हम बार-बार कथा-धैर्य की बात करते हैं। यह धैर्य लेखक और पाठक दोनों में होना जरूरी है।

पाठक के रूप में समीक्षक और आलोचक का यह जान लेना जरूरी है कि ‘लघुकथा’ कायिक रूप से छोटी होकर भी ‘कथा’ ही है, चुटकुला अथवा व्यंग्य नहीं; जबकि कथा-तत्व की सांद्रता सिद्ध हो तो ‘चुटकुला’ अथवा ‘व्यंग्य’ को एकबारगी ‘लघुकथा’ कहा जा सकता है… कहा जाता रहा है। डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक के अनुसार, ‘कहानीकार राधाकृष्ण ने लघुकथा का उत्स चुटकुले से माना है’।   

 यह देखना जरूरी है कि लघुकथा में प्रतिरोध का स्वर कितना है। अगर समग्र अध्ययन की दिशा में चिंतन है तो कौन-कौन लघुकथाकार प्रतिरोध को स्वर दे रहे हैं और कितना?

उपन्यास में कोई भी कथा अथवा पात्र नेपथ्य में नहीं भेज दिया जाता। वहाँ पात्र/पात्रों/घटनाओं अतीत तो होता है, नेपथ्य नहीं।  यों भी कह सकते हैं कि उपन्यास में नेपथ्य नहीं होता, जो कुछ भी कथानक से संबंधित है, पाठक के सामने आ जाता है। इसमें मूल कथानक के इर्द-गिर्द ही कहानी चलती है और कुछेक सहायक कथानकों का जाल भी बिछा हो सकता है। उपन्यास को कथाकार जितना विस्तार देना चाहें, दे सकते हैं—कहानी में कहानी; हर पात्र की अपनी कहानी, उस कहानी के पीछे के कारण और परिस्थितियाँ वगैरा-वगैरा। कुल मिलाकर उपन्यास बड़े कैनवस की रचना है। इस सबके मद्देनजर लघुकथा की तुलना उपन्यास से करना बेमानी है। इन दोनों के बीच एक अन्य कथा-विधा ‘कहानी’ खड़ी है। अगर की ही जानी है तो ‘लघुकथा’ की तुलना केवल कहानी से की जानी चाहिए, उसमें भी आकारगत छोटी कहानी से।

अधिकतर समीक्षक लघुकथा का पूरा कथानक ही बता डालते हैं और इसी काम में अक्सर तीन-चौथाई जगह भी भर लेते हैं। समीक्षा में कथानक की बजाय कथा-उद्देश्य बताया जाना चाहिए, ताकि पाठक की रुचि लघुकथा को पढ़ने के प्रति जागे। समीक्षक को लघुकथा के मुख्यत: कथावस्तु पर, पात्रों और परिस्थितियों पर बात करनी चाहिए। उसी के मद्देनजर वह बताए कि कथा में क्या कमज़ोर है और क्या सशक्त है। हाँ, कथानक की नवीनता, सार्थकता अथवा उपादेयता पर वह बात कर सकता है।

समीक्षक को जिन बातों का ध्यान रखना चाहिए, वे हैं—देश, काल और परिस्थिति। प्राथमिक स्तर पर देश से तात्पर्य स्थान ले सकते हैं; काल यानी समय। यहाँ समय को उसके व्यापक अर्थ में ग्रहण किया जाना आवश्यक है। और तीसरी बात है—परिस्थिति। लघुकथा में पात्र की मानसिक, धार्मिक, सामाजिक, वैयक्तिक, राजनैतिक… किस स्थिति-परिस्थिति का चित्रण हुआ है और क्यों? आज के समय में उसकी प्रासंगिकता क्या है, है भी या नही? समकालीन जीवन की जटिलता और समय न कथाकार को कितना बेचैन किया है, इसका उल्लेख रचना के माध्यम से समीक्षक को स्पष्ट करना चाहिए।

अब बात पात्रों की। लघुकथा में कभी-कभी पात्र का चरित्र एकाएक बदल जाता है। ऐसी स्थिति में वह अविश्वसनीय हो उठता है क्योंकि पात्र अन्तत: जीवित प्राणी ही होता है और किसी भी जीवित प्राणी के चारित्रिक बदलाव की एक प्रक्रिया होती है और वह परिस्थितियों के अनुरूप ही आगे बढ़ती है। उसके विकास में एक तारतम्यता नजर आना चाहिए। वह अपने काल का प्रतिनिधित्व कर रहा होना चाहिए। अगर वो समय से आगे चल रहा है तो किसी न किसी प्रकार उसका संकेत अवश्य लघुकथा में आना चाहिए।

 पात्र के मनोभाव, उसका अन्तर्द्वंद्व उसके लगातार चल रहे संवादों के अनुकूल हो, न कि बेमेल। ऐसा नहीं चाहिए कि वह बोल कुछ रहा है, और सोच कुछ रहा है। दोनों में सम्बन्ध होना चाहिए। पात्रों का गठन कैसा है? क्या कथानक में पात्र धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा या पीछे हट रहा है? इन बातों पर पात्रों को कसना ज़रूरी है। क्या पात्र विशेष किसी अन्य लेखक की रचना में, फ़िल्म में, पहले आ चुका है? अगर हाँ, तो उसका उल्लेख अवश्य करें, दोनों के बीच एक तुलना भी प्र्स्तुत की जा सकती है।

पात्रों की महत्ता पर भी आपका ध्यान होना चाहिए कि क्या इसको यहाँ होना चाहिए, ये बोलना चाहिए? ज़ाहिर है कि कहानी तो लेखक की है, लेकिन क्या उसमें विरोधाभास है? क्या किसी पात्र को जितना मुखर या शांत होना चाहिए, उससे इतर तो नहीं जा रहा? क्या किसी पात्र की कई बातें बस कथानक को लम्बा खींचने के लिए तो नहीं कही गईं? इन सब बातों पर पात्रों की समीक्षा ज़रूरी है। साथ ही आपको कौन-सा पात्र बेहतर या बुरा लगा, और क्यों, ये लिखना भी ज़रूरी है।

 रचनाकार अपने विचार अनेक तरह से लघुकथा में पिरोता है।   

1-   संवादों के माध्यम से

2-   बीच-बीच में नैरेशन के माध्यम से

3-   उसके अनुरूप कोई परिस्थिति उत्पन्न करके।

उसे पहचानकर, उस पर बात अवश्य करनी चाहिए। लेखकीय टिप्पणियाँ कथानक में अनर्गल तो नहीं घुस रही हैं? लेखक अपनी वे बातें कथानक के माध्यम से कहनी चाहिए थीं या नहीं और उन बातों को कथानक के माध्यम से कहने में वह सफल है या असफल? या उसने उन बातों को लेखक होने की अपनी अभिलाषा की तुष्टि मात्र के लिए लिख डाला है?  

 (शेष आगामी अंक में....)

लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु-5 / बलराम अग्रवाल

 (दिनांक 08 सितंबर 2020 से आगे...)

भारतीय एवं भारतेतर आचार्यों द्वारा प्रणीत समीक्षा बिन्दु और समकालीन लघुकथा

(पाँचवीं कड़ी)  

 

भारतेतर मनीषियों द्वारा प्रस्तुत समीक्षा सिद्धान्त

साहित्य, कला और मनोविश्लेषण के क्षेत्र में भारतेतर मनीषियों मे समय-समय पर अनेक


सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। कला और मनोविज्ञान भी क्योंकि मनुष्य के भावों से ही सम्बन्धित विषय हैं; इसलिए उनकी समीक्षा के लिए प्रस्तुत सिद्धान्तों का उपयोग ज्यों का त्यों अथवा किंचित सुधार के साथ साहित्यिक विधाओं की समीक्षा के लिए भी किया जाता रहा है। उनमें से कुछ सिद्धान्त, जो साहित्य की दुनिया में ‘वाद’ के रूप में प्रतिस्थापित रहे, संक्षेप में यहाँ प्रस्तुत हैं—

आदर्शवाद—हिन्दी में इसका प्रयोग अंग्रेजी शब्द ‘आयडियलिज्म’ के अर्थ में होता है। साहित्य में ‘आदर्शवाद’ से तात्पर्य ऐसी विचारधारा से है, जो मनुष्य को अपने जीवन में किन्हीं उदात्त भावों/कार्यों से प्राप्त उपलब्धियों की दिशा में चलने को प्रेरित करती है। ये उपलब्धियाँ प्राय: बाह्य रूप से आत्मपीड़ा की सीमा तक संयम और त्याग को श्रेयस्कर बताती और उनका समर्थन करती हैं। बुद्धिगत न होने के कारण ये मनुष्य को सांसारिक सुखों से विलग रख सकती हैं; लेकिन हृदयगत होने के कारण ये मनुष्य को आत्मतोष और आत्मसुख का आभास कराती हैं।

आदर्शवाद द्वारा निर्देशित व निर्धारित जीवन-मूल्य जीवन के लिए एक प्रकार की प्रेरक शक्ति का कार्य करते हैं और उस सामर्थ्य से युक्त भी होते हैं। आदर्शवाद की मूल वृत्ति अन्तर्मुखी होती है। इस अन्तर्मुखता के समावेश का लगभग अनिवार्य परिणाम यह देखने में आता है कि रचना अथवा कृति एक प्रकार की आध्यात्मिकता से आवृत्त महसूस होते हैं। आध्यात्मिकता का यह आवरण जहाँ एक ओर रचना को मानवीय भावनाओं से युक्त उच्चता और स्तरीयता प्रदान करता है, वहीं दूसरी ओर कुछेक संकुचित दृष्टिकोणों, भावनाओं और सिद्धान्तों का भी बोध करा सकता है। आदर्शवाद एक बड़ा विषय है। इसको समझने के लिए आध्यात्मिकता, उदात्त-वृत्ति, जीवन-मूल्य, मूल्यों की शाश्वतता आदि को जानना जरूरी है।

प्रभाववाद—‘प्रभाववाद’ मूलत: चित्रकला के क्षेत्र में प्रचलित रहा है जो 1870 के आसपास शुरू हुआ। साहित्य के क्षेत्र में इसका पदार्पण 1920 के आसपास होने लगा था। चिकित्सा क्षेत्र से प्रोन्नत होकर ‘प्रभाववादी समीक्षा’ का चलन साहित्य में भी हुआ। रचनात्मक साहित्य में इसके रूप अधिकतर काव्य में ही मिलते हैं। प्रभाववादी समीक्षक कृति के सम्पूर्ण प्रभाव के स्तर, प्रकार और मात्रा के अनुसार उसके प्रभाव का आकलन करता है। 

प्रतीकवाद—साहित्य और कला के क्षेत्र में ‘प्रतीकवाद’ का पदार्पण 1886 के आसपास फ्रांस में हुआ था। वहीं से यह विश्व के अन्य देशों में पहुँचा। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में यह मार्क्सवाद से सम्बद्ध हो गया। किसी भी प्रकार की रूप, भाव, गुण, आकार, प्रयोग आदि की समता के कारण किसी साधारण अर्थ के स्थान पर विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त शैली ‘प्रतीकवाद’ के अन्तर्गत आती है। रचना में एक सत्य के स्तर पर उससे मिलते-जुलते दूसरे सत्य के प्रयोग को ‘प्रतीक’ कहा जाता है। एक अन्य विचार के अनुसार, भावनात्मक समता के धरातल पर अथवा व्यंजनात्मक रूप में विशिष्ट अर्थ को प्रकट करने वाले विशिष्ट शब्द अथवा शब्द-समूह को ‘प्रतीक’ कहते हैं। स्थूल रूप में तो भाषा और शब्द को भी प्रतीक ही कहा जा सकता है; क्योंकि प्रत्येक शब्द अपने आप में किसी न किसी भावनात्मक या दृश्यात्मक सत्य की निहिति रखता है। लेकिन इसका यह अर्थ कभी नहीं लगाना चाहिए कि भाषा, शब्द और प्रतीक एक-दूसरे के पर्याय हैं। वास्तव में ऐसा नहीं है। इन तीनों के बीच पर्याप्त भेद है। इनमें पहला अन्तर तो यही है कि शब्द और भाषा मुख्यत: विचारों के प्रकटीकरण के माध्यम हैं।

किसी अमूर्त भावना को अभिव्यक्त करते समय प्रतीक उस अमूर्त भावनात्मक सत्य की अनुकृति होता है। इस प्रकार की समता ‘प्रतीकात्मक समता’ कहलाती है और इन समताओं के लिए जिन शब्दो अथवा शब्द-समूहों को प्रयोग में लाया जाता है, वे प्रतीक कहलाते हैं।

वस्तुत: ‘प्रतीक’ के प्रयोग की विचारधारा को किसी प्रकार की असाधारण अथवा असामान्य प्रवृत्ति पर आधारित न मानकर अभिव्यक्ति की एक सहज शैली माना जाना चाहिए। इसमें विशेषता बस इतनी है कि किसी भी अव्यक्त की प्रतीकात्मक रूप से अभिव्यक्ति किसी अन्य व्यक्त वस्तु के द्वारा की जाती है। इसे यों समझिए कि किसी भी प्रत्यक्ष जड़ अथवा चेतन पदार्थ को देखने पर हमारे हृदय में कोई न कोई भाव जन्म लेता है, मस्तिष्क में कोई बात उभरती है। यह भाव स्वाभाविक रूप से हमारा ध्यान किसी ऐसी वस्तु की ओर ले जाता है, जो गुण में उसी वस्तु के समान होता है, परन्तु अपना अस्तित्व वह भावनात्मक रूप से ही रखता है। उदाहरण के लिए, पहाड़ को देखकर हमें उसकी ऊँचाई, दृढ़ता, स्थिरता और गम्भीरता का बोध होता है, अत: पहाड़ को इनके प्रतीक के रूप में प्रयोग करते हैं।

साहित्यिक प्रक्रिया के रूप में प्रतीक भाषा की शिथिलता अथवा लचीलेपन पर आधारित होते हैं। शैली को ये नवीनता देते हैं, इसमें सन्देह नहीं है। इनका क्षेत्र व्यापक है। ये ऐतिहासिक, धार्मिक, राजनीतिक, सभी क्षेत्रों में समान रूप से मान्य हैं। अनेक ऐतिहासिक, धार्मिक और राजनीतिक चिह्न व चरित्र प्रतीक के रूप में प्रयुक्त होते हैं। कुछ प्रतीक स्थायी रूप से भी मान्य हो जाते हैं। जैसे, किसी भी राष्ट्र का ध्वज उसके गौरव का प्रतीक होता है। भारत में पौराणिक चरित्र ‘हरिश्चन्द्र’ को सत्यवादी के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है और ‘गंगा’ को पवित्रता आदि के प्रतीक रूप में।

मनुष्य के जीवन की विविधता और विशदता को सरस व सुरुचिपूर्ण अभिव्यक्ति देने की दिशा में प्रतीक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये कथाकार की भाषा को पूर्णता और सुन्दरता प्रदान करते हैं। यदि कहा जाए कि मानवीय भावनाओं और अनुभूतियों की सटीकता इनके बिना असम्भव है, तो अनुचित न होगा।

अज्ञेयवाद—‘अज्ञेयवाद’ का सम्बन्ध हिन्दी साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ द्वारा प्रतिपादित किसी सिद्धान्त से लेशमात्र भी नहीं हैं। इस वाद के समर्थकों के अनुसार, इस संसार में जितने भी मूल तत्त्व हैं सब अज्ञेय है। इसीलिए, उनके विषय में किसी निश्चयात्मक निर्णय पर पहुँच सकना मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है। उनके सम्बन्ध में जितने भी ज्ञान का प्रदर्शन विद्वान करते हैं, वह उनके केवल बौद्धिक चमत्कार का ही द्योतक है।

इस वाद के समर्थक ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं रखते, लेकिन उसे पूरी तरह अस्वीकार भी नहीं करते हैं। वे अलौकिकता में विश्वास नहीं करते लेकिन यह भी मानते हैं कि इस अलौकिकता को सिद्ध करने का कोई सूत्र मनुष्य के पास नहीं है, इसलिए वह अज्ञेय है।

अभिव्यंजनावाद—कलात्मक अभिव्यक्ति के उस रूप को जो किसी परिस्थिति के मूल आवेग की बाह्याकृति को स्पष्ट करने का प्रयत्न करती है, अभिव्यंजना कहा जाता है। आधुनिक अर्थों में ‘एक्सप्रेशन’ शब्द का अर्थ किसी आन्तरिक तथ्य का बाह्याकार प्रकट या स्पष्ट करना, उसका प्रतिनिधित्व करना या सामान्य रूप से एक वस्तु द्वारा दूसरी की ओर संकेत करना होता है।

चरित्रों के अवगुणों या विशेषताओं को कल्पना शैली में प्रकट करने का नाम अभिव्यंजना है। आत्माभिव्यक्तिपूर्ण स्वगत कथन इसी श्रेणी में आते हैं। स्कॉट जेम्स के अनुसार, ‘कला का सम्पूर्ण कार्य संसार को कुछ सन्देश देना है और यह, कि यह कोई सुन्दर वस्तु होगी।’  वह कहता है, कि ‘कला का सम्बन्ध भाषा से है। वह किसी भी माध्यम से प्रकट की गयी हो, यह गौण बात है।’

                                                                         (शेष आगामी अंक में....)