लघुकथा के ठहरे जल में हलचल पैदा करती सदी की पहली
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अशोक
भाटिया हिन्दी लघुकथा के वरिष्ठ हस्ताक्षरों में गिने जाते हैं। ‘जंगल में आदमी’
और ‘अंधेरे में आँख’ उनकी लघुकथाओं के संग्रह हैं। ‘पंजाबी की श्रेष्ठ लघुकथाएं’, ‘पेंसठ
हिन्दी लघुकथाएं’, ‘निर्वाचित लघुकथाएं’, ‘नींव के नायक’ जैसे बहुचर्चित लघुकथा
संकलनों का संपादन उन्होंने किया है। उनके द्वारा लिखित ‘समकालीन हिन्दी लघुकथा’ पुस्तक आठ अध्यायों
में विभक्त है और
‘लघु अनन्त लघुकथा अनन्ता’ इसका पहला अध्याय है।
इस अध्याय में लघुकथा का हिन्दी और हिन्दीतर भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त विश्व पटल पर
भी अस्तित्व रेखांकित किया गया है। यह भी बताया गया है कि समकालीन हिन्दी के लगभग हर
प्रतिष्ठित कथाकार ने लघुकथा लिखी है। स्तरहीन लघुकथा के बारे में कहा गया है कि
‘कई बार अनुभव की अनुपस्थिति में कई अनावश्यक चीजें रचना में आ जाती
हैं। जहाँ अनुभव की समृद्धि या परिपक्वता न हो, वहाँ रचना में
कई प्रकार के अतिरिक्त प्रयास स्थान बना लेते हैं। कहीं भाषा का ग्लैमर, कहीं आंचलिकता का अनावश्यक सहारा तो कहीं काव्यात्मक उपादानों या सांस्कृतिक
प्रतीकों से लघुकथा का पेट भरने का प्रयास रहता है। अत: अनुभव
की समृद्धि लघुकथा के लिए भी उतनी ही अनिवार्य है, जितनी किसी
भी अन्य विधा के लिए।’
‘हिन्दी लघुकथा का विकास’
शीर्षक दूसरे अध्याय में अशोक भाटिया ने लघुकथा को मुख्यत: तीन कालखण्डों में विभक्त किया है। इनमें पहले काल यानी सन् 1900 तक के समय को उन्होंने ‘आधार-भूमि’
के अन्तर्गत रखा है और मुख्यत: वेद, पुराण, उपनिषद्, जातक, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि प्राचीन ग्रंथों में वर्णित कथाओं,
दृष्टांतों आदि की चर्चा की है, लेकिन अति संक्षेप
में। सन् 1900 तक के काल की लघुकथा को विवेचना की दृष्टि से उन्होंने
महत्वपूर्ण नहीं माना है और दो पृष्ठों में इसे समेट दिया है। समकालीन हिन्दी लघुकथा
पर विचार करने के क्रम में उस पर अधिक विचार करने का शायद औचित्य भी नहीं था।
1901 से 2013 यानी पुस्तक लिखे जाने तक के काल
को उन्होंने दो भागों में बाँटा है। इनमें पहला कालखण्ड 1901 से 1970 तक तथा दूसरा 1971 से
2013 तक निश्चित किया है। यद्यपि आवश्यकता नहीं थी, फिर भी, प्रथम कालखण्ड की शुरुआत वे भारतेंदु हरिश्चन्द्र
और उनके युग की रचनाशीलता के वर्णन से करते हैं। इस कालखण्ड की रचनाओं का विवेचन पुन:
दो भागों में बाँटकर किया गया है। इनमें से पहले भाग में
1901 से 1946 तक तथा दूसरे भाग में
1947 से 1970 तक प्रकाशित लघुकथाओं की जानकारी
दी गई है। 1971 से 2013 तक के कालखण्ड को
पूर्ववर्ती कालखण्डों की तुलना में कुछ अधिक श्रम से लिखा गया है। इस कालखण्ड को उन्होंने
लघुकथा का ‘पुनर्स्थापना काल’ कहना अधिक
उपयुक्त माना है। ‘लघुकथा’ के उन्नयन के
बारे में उनका मानना है कि ‘सन् 1971-72 के आसपास हिन्दी कहानी साहित्य में एक वैक्यूम बन गया था। अकहानी और उधर अकविता
जैसे आंदोलन उतार पर आ चुके थे। इस कालखण्ड के परिवेश ने जनमानस में परिवर्तन की इच्छा
को हवा देना शुरू कर दिया था।’ पुन: 1973-74 को उन्होंने ‘लघुकथा-विस्फोट के
वर्ष’ कहा है। इन वर्षों में कैथल (हरियाणा)
से प्रकाशित ‘दीपशिखा’, कहानी
लेखन महाविद्यालय (अंबाला छावनी) की पत्रिका
‘तारिका’, ‘साहित्य निर्झर’ (चंडीगढ़) तथा ‘मिनीयुग’
(गाजियाबाद) के लघुकथा विशेषांक आए तो
‘सारिका’ (जुलाई व अक्तूबर 1973), ‘स्वदेश दैनिक’ (इंदौर, दीपावली
1973), ‘बम्बार्ड’ (बाँदा, जनवरी 1974), ‘डिक्टेटर’ (ब्यावर,
राजस्थान) के लघुकथा बहुल अंक प्रकाशित हुए।
1974 में ही बन्धु कुशावर्ती के प्रयत्न से लघुकथा की सम्पूर्ण पत्रिका
‘लघुकथा चौमासिक’ (सं॰ अश्विनी कुमार
द्विवेदी, लखनऊ, उ॰प्र॰) का तथा भगीरथ व
रमेश जैन के संपादन में हिन्दी लघुकथा के पहले संकलन ‘गुफाओं
से मैदान की ओर’ का प्रकाशन हुआ। इस दृष्टि से अशोक भाटिया ने
1973 व 1974 को ‘हिन्दी लघुकथा
के फैलाव की दृष्टि से महत्वपूर्ण वर्ष’ माना है। तत्पश्चात्
1975 से 1980 तक के वर्षों में देश अनेक
तरह की राजनीतिक उथल-पुथल से गुजरा। इस सबका असर लघुकथा-लेखन पर भी पड़ा। इन वर्षों में ‘समग्र’
(1978), ‘कैथल दर्पण’ (1978), ‘युगदाह’
(1978), ‘नवभारत’ (1979), ‘प्रतिबिंब’
(1979), ‘लहर’ (1980) के लघुकथा विशेषांक तथा
‘प्रतिनिधि लघुकथाएँ’ (1976, सं॰ सतीश दुबे-सूर्यकांत नागर), ‘श्रेष्ठ लघुकथाएँ’ (1977, संपादक शंकर पुणतांबेकर),
‘समांतर लघुकथाएँ’ (1977, सं॰ नरेंद्र मौर्य-नर्मदा प्रसाद उपाध्याय), ‘छोटी बड़ी बातें’
(1978, सं॰ महावीर प्रसाद जैन-जगदीश कश्यप)
तथा ‘आठवें दशक की लघुकथाएँ’ (1979, सं॰ सतीश दुबे) सरीखे लघुकथा संकलन प्रकाश में आये। इसी
प्रकार 1981 से 2013 तक प्रकाशित लघुकथा-संग्रहों, संकलनों, विशेषांकों
का संक्षिप्त परिचय भी इन पृष्ठों में दिया गया है। इस अध्याय में डॉ॰ भाटिया ने दूरदर्शन
पर लघुकथा के पहले कार्यक्रम, लघुकथा की वेबसाइट, हिन्दीतर भाषाओं की लघुकथाओं के हिन्दी अनुवाद का पत्रिकाओं में व पुस्तकरूप
में प्रकाशन तथा लघुकथाओं के फिल्मांकन विषय पर भी विवेचना प्रस्तुत की है।
‘हिन्दी लघुकथा : यथार्थ के आयाम’ शीर्षक को पुस्तक में दो अध्याय दिये
गये हैं—तीसरा व चौथा। तीसरे अध्याय में समकालीन लघुकथाओं का
विवेचन मुख्यत: चार विषयों में बाँटकर किया गया है जिनमें पहला
है, शासन और प्रशासन; दूसरा, पारिवारिक दायरे; तीसरा, दलित चेतना
का संदर्भ तथा चौथा, सांप्रदायिकता : संकीर्णता
और सदाशयता के बिंदु। चौथे अध्याय में समकालीन हिन्दी लघुकथा की विवेचना हेतु यथार्थ
के आयाम को ‘समाज की परिक्रमा’ नाम दिया
है। ड़ॉ॰ भाटिया के अनुसार, इस अध्याय में विवेचन के लिए चुनी
गयी सभी लघुकथाएँ समाज के विभिन्न आयामों का चित्रण करती हैं।
पुस्तक का ‘हिन्दी लघुकथा : प्रमुख रचनाकार’ शीर्षक पाँचवाँ अध्याय लघुकथा-सरोवर के ठहरे जल में कंकड़ फेंकने का काम कर सकता है। इससे लघुकथा बिरादरी
की पूरी सतह पर विचलन नजर आ सकता है। पुस्तक के अन्तिम पाँच पृष्ठों पर अशोक भाटिया
ने सौ से ऊपर कथाकारों तथा उनकी चार सौ से ऊपर उन लघुकथाओं की सूची दी है जिनका विवेचन
उन्होंने इस पुस्तक में जगह-जगह पर किया है; लेकिन आशंका है कि किंचित आत्मकेंन्द्रितता, धैर्यहीन
अध्ययनशीलता, इतिहास के पन्नों तक पहुँचने की अधीरता और इस एक
आकलन को अन्तिम मान लेने की अबोधता की बदौलत वह सूची भी उक्त पाँचवें खण्ड में उनकी
धृष्टता की भेंट चढ़ जायगी; यहाँ तक कि उसके अन्य अध्याय भी। लगता
यह भी है कि समकालीन लघुकथा लेखन से जुड़े ज्यादातर कथाकार पुस्तक के इसी अध्याय को
खोलकर देखेंगे और पूरी पुस्तक का आकलन कर बैठेंगे। वे लोग जिन्हें उसमें अपना जिक्र
ठीक-ठाक नजर आया, संतोष की साँस लेकर बैठ
जायेंगे; लेकिन वे, जिन्हें अपना जिक्र
उसमें नजर नहीं आयेगा या यथोचित न लगकर आधा-अधूरा लगेगा,
बिफरेंगे। समकालीन कथाकारों पर टिप्पणी न करना और करना, दोनों ही काम ठण्डी दिखाई देती राख में हाथ डालकर झुलस जाने का खतरा मोल
लेने के समान हैं। कथाकार सुरेश शर्मा ने स्वयं द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह
‘काली माटी’ के संपादकीय में लिखा था—‘जब भी कोई लघुकथा संकलन मेरे हाथ में आया, उसमें इस क्षेत्र
के चार-पाँच लघुकथाकारों की लघुकथाएँ देखकर प्रसन्नता हुई।’
अपने क्षेत्र के कथाकारों के प्रति ऐसी सदाशयता प्रसंशनीय भी है और अनुकरणीय
भी। लेकिन एक अलग किस्म की सदाशयता भी लघुकथा के लेखकों-आलोचकों-हितैषियों में नजर आ रही है। आलोचनापरक आलेख को पूरा पढ़ने की बजाय उसमें वे
अपना नाम ढूँढा करते हैं और उसे चस्पाँ न पाकर वे दूसरे, तीसरे,
चौथे कथाकार का नाम लेकर आलोचक को गरियाते हैं कि उसने फलाँ-फलाँ को छोड़ने, उचित गरिमा न देने की हिमाकत क्यों और
कैसे कर डाली? वस्तुत: गलत प्रयासों का
जितना सार्थक जवाब रचनाशीलता से दिया जा सकता है, किसी अन्य तरीके
से नही; और गरियाने मात्र से तो कतई नहीं। अशोक भाटिया से इस
अध्याय में कुछ चूकें तो हुई हैं और नि:संदेह वे चूकें उनके प्राध्यापकीय
अभ्यास की हैं, आलोचकीय दृष्टि की शायद नहीं। इन चूकों के सुधार
के बारे में उनके आलोचक को विचार करना चाहिए।
छठा अध्याय ‘समकालीन लघुकथा : शिल्प
और भाषा’ है। इसके अन्तर्गत उन्होंने मुख्यत: लघुकथा-लेखन में निरन्तर बने रहने वाले कुछ कथाकारों
की चुनिंदा लघुकथाओं को उनके शीर्षक, कथा-प्रस्तुति के प्रयोग और भाषा के मद्देनजर विवेचित किया है। ‘हिन्दी लघुकथा : कलात्मक उत्कर्ष के आयाम’ शीर्षक सातवें अध्याय में उन्होंने अपनी पसन्द के नौ कथाकारों की एक-एक लघुकथा पर आलोचकीय टिप्पणी दी है। इनमें कुछ अन्य लघुकथाकारों की संख्या
बढ़ाई जा सकती थी; क्योंकि उत्कृष्ट लघुकथाएँ अब यथेष्ट संख्या
में उपलब्ध हैं। और कुछ नहीं तो उनके नाम ही अन्त में गिना देते।
‘समकालीन हिन्दी लघुकथा : उपलब्धियाँ और सीमाएँ’ शीर्षक आठवें अध्याय की शुरुआत
में वे लिखते हैं—“सन् 1901 से प्रारंभ
हुई लघुकथा 1950 ई॰ के आसपास एक करवट लेती हुई दिखाई देती है
और 1973 के आसपास आकर एक नया स्वरूप ग्रहण करने की प्रक्रिया
में आ जाती है।” आधुनिक लघुकथा लेखन का यह एक उल्लेखनीय अध्ययन
है। पुस्तक का यह सबसे छोटा अध्याय है, मात्र पाँच पृष्ठीय। इसमें
एक स्थान पर वे कहते हैं—“इस बीच लघुकथा को अपना-अपना उपनिवेश बनाने पर भी काफी शक्ति लगाई गई। ऐसे में अगंभीर लेखकों की एक
बड़ी जमात उभर आई। उनके लघुकथा-लेखन के पीछे सत्ता और सुविधा के
पक्ष प्रमुख थे, पाठक और समाज का स्थान पीछे था।” आगे, उन्होंने समकालीन हिन्दी लघुकथा की कुछ सीमाओं को
सात बिंदुओं में गिनाया है। इन्हें लघुकथा की नहीं, लघुकथा-लेखकों की सीमाएँ माना जा सकता है। इस अध्याय की सभी नहीं तो बहुत-सी बातों पर लघुकथा-लेखन को उत्कृष्ट बनाने के इच्छुक
लेखकों-आलोचकों को विचार अवश्य करना चाहिए।
कुल मिलाकर ‘समकालीन हिन्दी लघुकथा’
अपनी सम्पूर्णता में समकालीन लघुकथा की आलोचना और विवेचना की महत्वपूर्ण
पुस्तक है। विश्वास है कि यह लघुकथा परिसर में लम्बे समय से पसरे सन्नाटे को तोड़ने
में कामयाब होगी और इसकी ज़मीन से कुछ स्वस्थ लघुकथा-विमर्श अवश्य
जन्म लेंगे। 1550
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पुस्तक—समकालीन हिन्दी लघुकथा;
लेखक—डॉ॰ अशोक भाटिया; प्रकाशक—हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला (हरियाणा); प्रथम प्रकाशन—2014;
मूल्य—220/- रुपए; कुल पृष्ठ—242
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