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लघुकथा-संकलन ‘बोलते हाशिए’ को संपादित करते समय उसके संपादक राजा नरेन्द्र(अब कुमार नरेन्द्र) ने जब बतौर संकलित लघुकथाकार मुझसे लघुकथा के संबंध में लेखकीय टिप्पणी माँगी थी तो मैंने लिखा था—‘…जो लोग कहानी की आत्मा को नहीं जानते, लघुकथा लिखना-समझना उनके बूते से बाहर की बात है।’ लघुकथा की यथार्थ दिशा की ओर संकेत करते मेरे इस वाक्य को समझने की लोगों ने लेशमात्र भी आवश्यकता महसूस नहीं की। यह उन दिनों की बात है, जब लोग घनी भीड़ के बीच एडियाँ उठा-उठाकर लघुकथारूपी कैमरे में फोकस हो जाने के लिए लालायित एवं प्रयत्नशील थे। यह उन दिनों की बात है, जब लोग लघुकथा-सृजन पर कम, उसकी परिभाषा गढ़ने पर अधिक माथापच्ची करते नजर आते थे। विद्वता-प्रदर्शन का यह हाल कि आचार्य किशोरीदास वाजपेयी भी पढ़ते तो कन्नी काट जाते। शब्दों के साथ ऐसी कुश्ती इस युग में लघुकथा के ‘परिभाषाकारों’ के अतिरिक्त किसी और के वश का रोग नहीं था। यों यह प्रयास अभी भी जारी है, परन्तु उस मात्रा में नहीं। मात्र परिभाषा लिखकर ‘अल्लामा’ बन निकलने की दम्भ-प्रतीति जैसी इन परिभाषाकारों में देखने को मिलती है, वैसी किसी अन्य साहित्य-विधा में नहीं। यहाँ तो हाल यह है कि परिभाषा के अतिरिक्त भूलवश भाई का तत्संबंधी कोई लेख अगर है भी तो वह दिनभर में बैठकर लिखी गई दस-बारह-पंद्रह-बीस परिभाषाओं का संकलन मात्र नजर आता है। एक आम मुहावरा है कि अर्थशास्त्र परिभाषाओं का पुलिंदा है। छ: अर्थशास्त्री मिलकर एक जगह बैठे नहीं कि सातवीं अर्थशास्त्रीय परिभाषा पैदा हो जाती है। परन्तु लघुकथा के परिभाषाकार, परिभाषाओं की दौड़ में ये अर्थशास्त्रियों के कौशल से मीलों आगे हैं, वह भी मात्र सात या आठ वर्षों के प्रयत्न के उपरान्त। गोया लघुकथाकार न हुए भामह, लोलट या मम्मट हो गए; भरत मुनि, राजशेखर, अरस्तु या आई ए रिचर्ड्स अथवा ई एम फोर्स्टर हो गए। यों इन मनीषियों ने भी मात्र परिभाषाएँ ही लिखकर विषय-विशेष को व्याख्यायित मान लिया हो, ऐसा कोई प्रमाण साहित्य की पुस्तकों में नहीं मिलता। जिन्दगी को लेख व निबन्ध आदि लिखने में होम कर देने के उपरान्त आज इनके नाम किसी परिभाषा के साथ जुड़ पाता है। उसके लिए भी पाठक वृंद को शोधार्थी की हैसियत से इनके भरे-पूरे विशाल साहित्य-सागर में बूढ़ना होता है।
रीतिकाल में ऐसे अगणित कवि रहे हैं जो काव्य रचना के शिक्षक थे, परन्तु दुर्भाग्यवश स्वयं अच्छी कविता लिख पाने में असमर्थ थे। सन 1900 में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित एक आलोचनात्मक लेख ‘हिन्दी काव्य’ के लेखक-द्वय मिश्र-बंधुओं ने इस संदर्भ में लिखा—‘आँख एक भी नहीं और कजरौटे नौ-नौ!’ सम्प्रति, लघुकथा में भी अच्छे लघुकथाकार स्वनामधन्य परिभाषाकारों की तुलना में नगण्य ही हैं। यहाँ न अरस्तुओं को अधिक लिखने की आवश्यकता है और न ही कोमलमना पाठकवृंद को गहरे बूढ़ने की। लिखे हुए उस ‘दीर्घ’ में से भी तो अन्तत: परिभाषा अथवा सिद्धांत प्रतिपादन के योग्य चार-छह शब्द ही छाँटे जाने हैं; सो क्यों श्रम किया-कराया? मात्र परिभाषा ही लिख मारते है। तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय। गुड़ खायें और गुलगुलों से बैर करें!! ‘लघु’ यानी ‘शॉर्ट’ ही अपनाना है तो ‘शॉर्ट-कट’ से भला कैसा परहेज। यों इस मामले में बेचारे परिभाषाकार नहीं, लघुकथा के शोधकर्ता, शोध-निदेशक और संपादकगण भी कम दोषी नहीं हैं। शोधकों ने अपना हित साधने की गरज से संदर्भहीन परिभाषाएँ एकत्र कीं और अनेक संपादकों ने भी उन्हें इसी प्रकार प्रकाशित किया। वैसे तो स्वयं परिभाषाकार से ही संदर्भ पूछा जाए तो वह कहेगा कि यह तो परिभाषा है, इसके लिए लम्बी-चौड़ी लफ्फाजी(!) की आवश्यकता ही क्या थी? वाह रे, लघुकथा के सपूतो!!
‘लघुकथा’ जैसे लघ्वाकारीय कथा-प्रकार के साथ यद्यपि ‘समकालीन’ या ‘सामयिक’ या ‘आधुनिक’ या कोई अन्य विशेषण जोड़ा जाय, यह आवश्यक नहीं है। यों भी लघुकथा के कंधे अभी इतने मजबूत नहीं हुए हैं कि विशेषणों के बोझ को सह सकें। लेकिन कभी-कभी ‘वंशीधर’ को ‘गिरधर’ और ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ को ‘धनुर्धर’ बनना ही पड़ता है। समय की माँग के अनुरूप लघुकथा के लिए भी यह अत्यन्त आवश्यक था। अन्तर सिर्फ यह रहा कि ‘आधुनिक लघुकथा’ की मेरी अवधारणा से सहमत होकर जगदीश कश्यप जैसे उग्र व्यक्ति ने आगे बढ़ाया। इधर कुछ लेख ‘समकालीन लघुकथा’ आदि शीर्षकों के अन्तर्गत प्रकाशित देखे गए हैं। इन्हें लिखने-छापने वाले वही लोग हैं जिन्हें ‘लघुकथा’ के आगे ‘आधुनिक’ जोड़ने पर आपत्ति थी।
कमल गुप्त और बलराम प्रारम्भ से ही लघुकथा और लघुकहानी के बीच यथेष्ट अन्तर की बात करते रहे हैं। एक समय था जब मैंने भी नाममात्र के इस द्वैत का लगभग विरोध ही किया था। परन्तु तत्वत: मैं स्वयं मानता रहा कि ‘लघुकथा काहानी की आत्मा है।’ कभी-कभी मन्तव्य समान होते हुए भी विश्लेषण के स्तर पर एकसूत्रता के अभाव में हम परस्पर अपरिहार्य उलझाव पैदा कर लेते हैं।
हिन्दी कहानी या उपन्यास साहित्य को यदि प्रेमचंद जैसा ऊर्जावान और सामर्थ्यवान लेखक बल एवं प्रतिभापूर्वक खींचकर सही राह पर न ले आया होता तो ‘चन्द्रकान्ता’ और उसकी ‘सन्तति’ के रास्ते पर चलता हुआ यह किसी अड़ियल भैंसे की तरह ऐय्यारी और राजसी प्रमाद के कीचड़ व दलदल में बैठकर जुगाली कर रहा होता। गर्व की बात है कि हिन्दी कथा साहित्य अब अपनी शैशवावस्था अथवा प्राथमिक-स्तर पर नहीं है, वरन् विश्व साहित्य में उसे सम्मानजनक स्थान प्राप्त है। यह सम्मान उसने पुराण-कथाओं, राजा-रानियों-परियों के किस्सों अथवा ऐय्यारी और तिलिस्म से भरी रचनाओं के जरिए नहीं, बल्कि गुलामी के बंधनों में जकड़ी अपनी जनता के बीच स्वायत्तता-प्राप्ति हेतु आन्दोलनपरक प्रतिगामी अनुभूति एवं यथार्थ से परिपूर्ण साहित्य रचकर प्राप्त किया है। हिन्दुस्तान के जन-मन में स्वाधीनता-प्राप्ति हेतु अंग्रेज-शासकों के विरुद्ध आन्दोलन, अवज्ञा आदि की चिंगारियाँ ऐसे ही विकसित नहीं हो गईं। क्रमबद्ध प्रेरणा के रूप में साहित्य ही उस सबके पीछे था। ब्रिटिश-सरकार के अधीन भारतीय जमींदारों और सामन्तों की स्वायत्तता प्राप्ति के प्रति अकर्मण्य मन:स्थिति तथा अपने ही गाँव-कस्बे के गरीब नौकरों-मजदूरों से बेगार लेने की उनकी प्रवृत्ति को जिस गहराई और जिस मन्तव्य के साथ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ‘परिहासिनी’(1876) में प्रकाशित मात्र 45-50 शब्दों की अपनी रचनाओं ‘अंगहीन धनी’ और ‘अद्भुत संवाद’ में चित्रित किया, वह व्यर्थ नहीं गया।साहित्यकारों ने न सिर्फ प्रेरणा दी, बल्कि अन्य देशों की जनता द्वारा किए गए संघर्षों एवं उनकी सफलताओं से भी लोगों को परिचित कराया, उन्हें संघर्ष की वैज्ञानिक समझ दी। हिन्दी कथा साहित्य की तरह ही हिन्दी पाठक भी आज न सिर्फ उन्नत हिन्दी साहित्य से बल्कि उत्कृष्ट अनुवादों के जरिए समकालीन विश्व-साहित्य से अपना सान्निध्य रखता है। न सिर्फ कहानी बल्कि उपन्यास और नाट्य साहित्य से भी उसका खासा परिचय है। ऐसी हालत में लघुकथाकार यदि उसे समकालीन कहानी के स्तर की जीवन्त एवं अनुभूतिपूर्ण रचना नहीं दे पाता तो यह उसकी अक्षमता ही कही जाएगी। समय की कमी या अधिकता के अनुपात को दृष्टि में रखकर पाठक रचना को नहीं पढ़ता। वह अपनी संवेदनाओं की तुष्टि और आनन्दानुभूति के स्तर की रचना पढ़ना पसन्द करता है। लघुकथा सरीखी अल्पकाल में पढ़ पाने योग्य रचना यदि उसे वह नहीं दे पाती तो कहानी और उससे भी आगे उपन्यास के पठन के जरिए वह उन्हें प्राप्त करने का समय निकाल लेता है। इस सन्दर्भ में रमेश बतरा की यह उक्ति कि ‘संसार में अधिकांश पाठक उपन्यास ही पढ़ते हैं’—नहीं भूलनी चाहिए। लघुकथा में ‘आधुनिकता’ अथवा ‘समकालीनता’ की अवधारणा को प्रस्तुत करते समय हमारी धारणा लघुकथा को समकालीन-कथ्य, विचार, तेवर और शिल्प मे प्रस्तुत करना है न कि उसे भारी-भरकम विशेषणों के बोझ-तले दबा देना।
लघुकथा में ‘आधुनिक’ विशेषण से बौखलाए लोग मेरी दृष्टि में थोड़ा संकुचित हैं। वे प्रकट कर रहे हैं कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल या अन्य द्वारा काल विभाजन के रूप में खींच दी गई लक्ष्मण-रेखा से इतर ‘आधुनिक’ के किसी अन्य अर्थ को ग्रहण करने के लिए वे तैयार नहीं हैं। साहित्य में ऐसा व्यवहार नहीं चलता। ‘तया मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनम् कुरु’ के रूप में वेदों ने हमें बुद्धि की उपासना करना सिखाया है। बुद्धि के द्वारा ही हम हमेशा ‘आधुनिक’ संदर्भों से जुड़ते हैं। सामयिकता से सहज ही जुड़ पाने के अपने गुण के कारण सैकड़ों वर्ष बाद कबीर की चेतनशील वाणी हमें ‘आधुनिक’ लगती है, जबकि समकालीन रचनाकारों में अनेक आदि, रीति या भक्ति काल की पृष्ठभूमि वाली रचनाएँ समाज को दे रहे हैं। यद्यपि यह व्याधि काव्य के क्षेत्र को अधिक संक्रमित किए हुए है तथापि लघुकथा सहित गद्य की भी हर विधा में यह पसरी हुई है।
‘आधुनिक’, ‘समकालीन’ और ‘सामयिक’ के साथ ही लेखन में ‘तात्कालिक’ का भी भरपूर उपयोग होता है। बहुत-से लेखक, जो ‘तात्कालिक’ और ‘सामयिक’ के बीच के अन्तर को नहीं समझते, तात्कालिक घटनाओं को आधार बनाकर ही लेखन कर रहे होते हैं। तात्कालिक घटना से प्रेरित अथवा प्रभावित होकर लिखी गई ऐसी रचना, जिसमें किसी शाश्वत मूल्य का समायोजन न हुआ हो, ‘सामयिक’ की श्रेणी में नहीं रखी ज सकती। कथापरक अथवा काव्यपरक घटना-रचना के अलावा उसे कुछ और नहीं कहा जा सकता। ‘आधुनिक’, जीवन में नवचेतना के प्रति जागरूकता तथा रूढ़ मान्यताओं व परम्पराओं के प्रतिविद्रोह का भाव रखता है। ‘आघुनिकता’ इस अर्थ में सृजनात्मकता के अत्यन्त निकट ठहरती है अत: ‘आधुनिक लघुकथा’ को लघुकथा का प्रकार-विशेष न मानकर हम, समसामयिक सृजनात्मक लघुकथा मान सकते हैं तथा भाव की दृष्टि से ‘समकालीन लघुकथा’ को भी इसी में समाहित कर सकते हैं।
स्थापनाएँ तथ्यपरकता के क्षेत्र की वस्तु हैं। उनको श्रद्धा और भावप्रवणता के आधार पर प्रस्तुत तो किया जा सकता है, माना नहीं जाना चाहिए। इसलिए लघुकथा में गलत स्थापनाओं और भ्रामक वक्तव्यों का तथ्यपरक प्रतिकार होना चाहिए। लघुकथा कथा का एक धारदार प्रकार है। समकालीन उपन्यास, कहानी, नाटक अथवा एकांकी जिस स्तर की रसानुभूति अपने पाठक या दर्शक को दे पाने में सक्षम हैं, उससे निचले स्तर की अनुभूति लघुकथा के पाठक को न हों, इस बात के प्रति लघुकथाकार को सचेत रहना है। यही लघुकथा का ‘सामयिकता’ है, यही ‘समकालीनता’ है और यही ‘आधुनिकता’ भी। इसी से वर्तमान की लघुकथा में निखार आएगा और इसी से भविष्य की लघुकथा का स्वरूप तय होगा।
संदर्भ: अवध पुष्पांजलि(लघुकथा विकास अंक, अप्रैल 1989) संपादक: प्रताप नारायण वर्मा, माधव प्रकाशन, सआदतगंज, लखनऊ(उ0प्र0)