फेसबुक पर इन दिनों 'छ: शब्दो की कथा' (मैं इसे जानबूझकर 'कहानी' या 'लघुकथा' नहीं लिख रहा हूँ क्योंकि ये दोनों ही हिन्दी की स्वतन्त्रत: उन्नत विधा हैं जो शब्द संख्या जैसे मुद्दे को काफी पीछे छोड़ चुकी हैं।) की काफी चर्चा थी। अब से कुछ समय पहले फेसबुक पर ही कुछ प्रतिभाशाली मित्रों ने 'लप्रेक' भी चलाई थी और सुनने में आया था कि उसके कुछ संग्रह/संकलन भी बड़े प्रकाशन ग्रहों ('गृह' नहीं) से प्रकाशित हो चुके हैं। ताज्जुब नहीं कि 'छ: शब्दों के उपन्यास' भी बहुत जल्द बाजार में आ जाएँ--'छ: शब्दों के 10,000 उपन्यास एक ही जिल्द में' की प्रचार पंक्ति के साथ। इस पूँजीवादी समय में कुछ भी प्रकाशित और प्रचारित किया/कराया जा सकता है।
अभी-अभी कथाकार व अनुवादक भाई सुभाष नीरव ने 'संरचना-1' (2008, सं॰ : कमल चोपड़ा) में प्रकाशित मेरे एक लेख 'समय से अलग होते सरोकार' की फोटो प्रति मेल की है। मैं समझता हूँ कि बहुत कम शब्दों में लिखे जा रहे 'उपन्यास' के क्षेत्र में 'छ: शब्दों का उपन्यास' एक क्रांतिकारी कदम है। कथाभिव्यक्ति के क्षेत्र में आ रही इस क्रांति का हर किसी को विरोध नहीं, स्वागत करना चाहिए।
तो आइए, पढ़िए----'समय से अलग होते सरोकार'
तो आइए, पढ़िए----'समय से अलग होते सरोकार'