विधागत सूक्ष्मता में देखें तो लघुकथा
सागर नहीं, महासागर है। इसका तल कहीं पर एकदम शांत नजर आता है और कहीं पर बेहद उछालें मारता नजर आता है।
कहीं यह मौन रहती है तो कहीं पर घोर गर्जन भी करती है। यह गुण कहानी और उपन्यास में
भी रहता है लेकिन वे मौन कम रहते हैं बोलते अधिक हैं। याद रखिए, जो बोलता अधिक है उसके तार
मौन से टूट जाते हैं; और जिसके तार मौन से टूटते हैं,
उसका नाता विचार से भी टूटता ही है।--इसी लेख से
बलराम अग्रवाल |
रचना के सन्दर्भ में शिल्प और शैली, इन दो का विशेष महत्व है। शैली के दो प्रमुख प्रकार हम देखते हैं—1-भाषा-शैली और 2-रूप-शैली।
भाषा-शैलियाँ अभिधात्मक हो सकती हैं, व्यंजक हो सकती हैं और लाक्षणिक भी; वे सरल हो सकती हैं, लोचदार-मृदुल या कठोर-कटु, खरी-खरी हो सकती हैं, संक्षिप्तता अपना सकती हैं और विस्तार भी; ठेठ मुद्रा अपना सकती हैं और आलंकारिकता भी। बेशक, एक-दो अन्य भी इनमें जुड़ सकती हैं; लेकिन वे अनन्त नहीं हैं। भाषा-शैलियों की, बस इतनी ही सीमा है।
अब, आधुनिक काल में लघुकथा के उन्नयन की, इसके पुनर्प्रस्फुटन की आवश्यकता पर विचार करते हैं। लेखक जब यह पाता है कि लम्बे समय से साहित्य अपने पारम्परिक रूप में ही गतिमान है, कोई नई भाषा-शैली वह नहीं अपना पा रहा है, तो प्रचलन से इतर रूप-शैली की ओर उन्मुख होता है। साहित्य की प्रचलित रूप-शैलियों में हमारे सामने उपन्यास, कहानी, महाकाव्य, खंडकाव्य, गीत, निबंध आदि अनेक प्रकार हमारे सामने थे; लेकिन वे भी हमारे लिए अपर्याप्त हो चु्के थे, बार-बार दोहराए जाने के कारण ऊब पैदा करने लगे थे। जेनुइन रचनाकार में अपर्याप्तता संबंधी एक खलबली हमेशा रहती है, यह कि अपनी रचनाशीलता को वह पूर्व-प्रचलित साहित्य-रूपों से भिन्न, नये रूप में प्रस्तुत करके पाठक और आलोचक का ध्यान नये सिरे से अपनी ओर खींचने का यत्न करता है। इतिहास बताता है कि कभी दस-बीस साल में तो कभी पचास-सौ साल में कथ्य की अभिव्यक्ति का रूप बदल जाता है, विधाएँ भी अपना रूप बदल लेती हैं। छंद के जो पचासों प्रकार सदियों से हमारे सामने थे, वे इन्हीं यत्नों की बदौलत थे और आज भी हाइकू, जनक छंद, तांका आदि जो अपेक्षाकृत नये काव्य-प्रकार हमारे बीच हैं, वे भी इन्हीं यत्नों का परिणाम हैं। सृष्टि में वस्तुत: मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो उपलब्ध को हमेशा अपर्याप्त समझता है और निरन्तर नवीन की ओर अग्रसर रहता है। उसे ऊँचाई भी नित नयी चाहिए और गहराई भी। इसलिए जितना वह स्वर्गाकांक्षी रहता है, उससे कहीं अधिक वह नर्क की ओर मुख किए रहता है। उसे मोक्ष ही नहीं, सांसारिक सुख भी चाहिए। मनुष्य की इसी चेतना और दुर्बलता के चलते साहित्य में शैलीगत नवीनता का आग्रह, वह भाषिक हो या रूपगत, सदैव बना रहा है और आगे भी बना रहेगा।
लघुकथा को कहानी की रूपगत-शैली में किये गये नव्यतम प्रयोग के तौर पर स्वीकार करना चाहें तो कर सकते हैं। इसने नि:सन्देह कहानी की रूपगत जड़ता को तोड़ने में उल्लेखनीय भूमिका निभायी है। इससे पूर्व कहानी के जितने भी आन्दोलन थे, (बेशक कथ्यगत नवीनता भी उन्होंने अपनायी) परन्तु कहानी के पारम्परिक रूप को, उस रूप को जिसे पढ़ते-देखते पाठक एकरस हो गया था, ऊब-सा गया था, वे तोड़ या बदल नहीं सके। कहानी के लगभग सभी आन्दोलन रूप-शैली की बजाय भाषा-शैली में परिवर्तन-केंद्रित थे। परिणामत: विफल रहे।
एक बात और, साहित्य में रूपगत अंकुर भी पुरानी जड़ों, पुराने ठूँठों से फूटते हैं। इसलिए किसी विधा को ‘नवीन’ तो कहा-माना जा सकता है, ‘सर्वथा नवीन’ कहना-मानना जड़ों से अपरिचय का द्योतक होगा। ‘सर्वथा नवीन’ कहने-मानने के पीछे हमारा शोध-संकोच, अपने कुछ पूर्वग्रह ही प्रबल होते हैं। नदियों और सागरों के किनारों पर जितनी रेत बिखरी मिलती है, उससे कई गुना ज्यादा रेत उनकी तलहटी में आराम फरमा रही होती है।
लघुकथा के बारे में कुछ बातें लगातार कही और पढ़ी जाती हैं। उनमें एक तो यह है कि ‘लघुकथा के केन्द्र में मनुष्य है’। इससे तात्पर्य? यह कि कथाकार की नजर अपने समय की समस्त मानवीय त्रासदियों पर न केवल टिकी होनी चाहिए बल्कि उन पर टिप्पणी करने का साहस भी उसमें होना चाहिए। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद रघुवीर सहाय, पाश, गोरख पाण्डे, धूमिल… कितने ही कवियों ने अपने समय को कविता में ला उपस्थित किया। आठवें और नौवें दशक के लघुकथाकारों को देखें तो व्यवस्था के विरुद्ध एक से बढ़कर एक ऐसी लघुकथाएँ हमें मिलती हैं जो तत्कालीन व्यवस्था के अमानुषिक थोबड़े को लगातार तोड़ती महसूस होती हैं। वे सब विचारबद्ध लोग थे, पार्टीबद्ध होकर भी मनुष्यता के पक्ष में खड़े थे। आज का साहित्यकार, जिनमें नि:सन्देह कुछ लघुकथाकार भी शामिल हैं, न देश के साथ खड़ा है न मनुष्यता के; वह सिर्फ अपने साथ खड़ा है। ऐसा लगता है कि जातीय अभिमान, देश और मनुष्यता की बजाय उसे अपनी छवि की चिन्ता अधिक है।
विधागत सूक्ष्मता में देखें तो लघुकथा सागर नहीं, महासागर है। इसका तल कहीं पर एकदम शांत नजर आता है और कहीं पर बेहद उछालें मारता नजर आता है। कहीं यह मौन रहती है तो कहीं पर घोर गर्जन भी करती है। यह गुण कहानी और उपन्यास में भी रहता है लेकिन वे मौन कम रहते हैं बोलते अधिक हैं। याद रखिए, जो बोलता अधिक है उसके तार मौन से टूट जाते हैं; और जिसके तार मौन से टूटते हैं, उसका नाता विचार से भी टूटता ही है।
साहित्य की दुनिया में, गत कुछ वर्षों से एक नया ‘विचार’ उछाला जाने लगा है; यह कि साहित्यकार हमेशा सत्ता के विरुद्ध खड़ा होता है। नया साहित्यकार इस ‘विचार’ के परिप्रेक्ष्य में जब अतीत की अभिव्यक्तियों को देखता है तो इस विचार को सत्य ही पाता है; जबकि यह पूर्णत: नहीं अंशत: ही सत्य है। पूर्ण सत्य सत्ता, व्यवस्था अथवा व्यक्ति-विशेष के विरुद्ध खड़ा होना नहीं, अपने विवेक के अनुरूप निर्णय की क्षमता को विकसित करना है।
समय की कुछ सामाजिक, कुछ धार्मिक और कुछ राजनीतिक भूमिकाएँ होती हैं। इन भूमिकाओं के अनुपात में अन्तर का आना ही समय के परिवर्तित हो जाने को दर्शाता है। कल का समय यदि राजनीतिक क्षुद्रता का था तो आज का समय धार्मिक क्षुद्रता का हो सकता है। राजनीतिक क्षुद्रता यह कि सत्ता-सुख को बनाए रखने लिए उसने सर्व-धर्म समभाव की बजाय, धर्म को नैतिक और समाजोपयोगी बनाने के प्रयास करने की बजाय धर्म-विशेष को प्रश्रय देना शुरू किया और उसे जारी रखा। धार्मिक क्षुद्रता यह कि समाज में धार्मिक नामधारी दल और सेनाओं का गठन अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर होने लगे और असामंजस्य उत्पन्न कर दे। कुछ लोग बोलने की, कुतर्क को तर्क की तरह पेश करने की कला में प्रवीण होते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर उन्हें आगे बढ़ने देना सामाजिक समरसता को सबसे बड़ा खतरा प्रस्तुत करने का अवसर देना है।
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