रविवार, 24 सितंबर 2023

लघुकथा और आज का समय / बलराम अग्रवाल

एक समय था जब उपन्यास साहित्य की लोकप्रिय विधा थी और वे उपन्यास थे—देवकीनन्दन खत्री जी के। उसके बाद आया कहानी का समय। उस समय के अधिष्ठाता मुख्यत: हम प्रेमचंद को मान सकते हैं। और अब लघुकथा का भी समय है। …सिर्फ लघुकथा का नहीं है, लेकिन लघुकथा कथा-साहित्य के बीच इस समय में अपनी उपस्थिति अवश्य दर्ज करती है।

जिसे हम उपन्यास का समय कहते हैं, वह ऐसा समय था, जब समूचा कैनवस लेखक के सामने लगभग खाली पड़ा था। धार्मिक कथाओं से परिसम्पन्न महाकाव्य आदि की कथाओं-उपकथाओं से ऊब चुके पाठक और श्रोता दोनों को उनसे कुछ अलग चाहिए था, जो तत्कालीन उपन्यासकारों ने विभिन्न रूपों में दिया। पहले खत्री जी आदि ने, बाद में प्रेमचंद, प्रसाद, इलाचन्द्र जोशी, जैनेन्द जी आदि ने। लगभग यही बात कहानी के सम्बन्ध में भी कही जाती है। कहानी ने तो अपने ऊबे हुए पाठक को नयी कहानी, समांतर कहानी, सचेतन कहानी, अ-कहानी आदि से बहलाने की भी कोशिशें कीं। लेकिन कहानी से ऊबे पाठक को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल वस्तुत: लघुकथाकार हुए।  लघुकथा ने भी गत 50 वर्षों में अपने क्राफ्ट में अनेक सार्थक परिवर्तन, परिवर्द्धन किये हैं। आज की लघुकथा वही नहीं है जिसे स्वाधीनता से पहले विष्णु प्रभाकर जी, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर जी, आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र जी आदि लिख रहे थे; आज की लघुकथा वह भी नहीं है जिसे स्वाधीनता के बाद और 1975 तक भी अनेक कथाकार लिख रहे थे और जो ‘सारिका’ में छप रही थी। आज की लघुकथा शब्दश:  वह भी नहीं है जिसे आठवें-नवें दशक के लघुकथाकार लिख चुके हैं। वह, भले ही वहीं कहीं से प्रस्फुटित होती है, लेकिन एकदम नवीन अन्तर्वस्तु, भाषा, शिल्प और शैली, संकेत और व्यंजना की रचना है। आठवें-नौवें-दसवें दशक से लिखते आ रहे कुछ लघुकथाकार नवीन अन्तर्वस्तु प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं। नयी पीढ़ी उनसे सीख भी रही है, प्रेरणा भी पा रही है और ताजगी प्रदान करने में सहायक भी सिद्ध हो रही है।

सन् 1970 से अब तक अधिक नहीं तो 50,000 लघुकथाएँ तो लिखी ही जा चुकी होंगी । कथ्य की प्रकृति और प्रवृत्ति की दृष्टि से अध्ययन हेतु इन सब लघुकथाओं के दो समूह बनाए जा सकते हैं । एक समूह सन् 1970 से 2000 तक की लघुकथाओं का और दूसरा सन् 2000 से 2023 के अन्त तक अथवा आगे जिस सन् में भी यह कार्य हो, उसके अन्त तक की लघुकथाओं का बनाकर उनके कथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन करें, तभी हमें पता चलेगा कि हम आगे बढ़े हैं या जहाँ के तहाँ खड़े हैं। लघुकथाकार के रूप में हम अपना मात्र प्रचार ही कर रहे हैं या हमारी लघुकथाओं में शाश्वत भी कुछ है। जो लघुकथाएँ कुछेक आत्ममुग्धों द्वारा कुछेक आत्ममुग्धों के लिए आत्ममुग्ध-सी आकलित हों, उन पर समय नष्ट करने का समय समाप्त हो चुका है। आज हमें ऐसी लघुकथाएँ चाहिए जो अपनी गतिमानता सिद्ध करती हों। समय बेशक बहुत तेजी से भाग रहा है। उतनी ही तेजी से लघुकथाएँ भी सामने आ रही हैं। कुछ लघुकथाकार लिखने की जल्दी में हैं। कुछ लघुकथाकारों के सामने दुनिया तेजी से खुल रही है, वे किंचित ठहरकर तेजी से खुल रही इस दुनिया का जायजा लेना चाहते हैं, लिखने की जल्दी में नहीं हैं। लघुकथा को पाठक  भी दो तरह का मिल रहा है। एक वो, जिसके पास समझने की समझ नहीं है, उसे सिर्फ रंजन चाहिए या फिर हल्की-फुल्की भावुकता; दूसरा वह, जिसके पास समझने के लिए समय नहीं है; जल्दी-जल्दी पढ़कर वह जल्दी ही भूल भी जाने लगा है। ऐसा लगता है कि बहुत-से लघुकथाकार बस इन दोनों के लिए ही लिख रहे हैं। उनके कथ्य चयन में, भाषा में, शिल्प में सिंथेटिसिटी होती है, संवेदनात्मक संस्पर्श से उनकी लघुकथाएँ निस्पृह रहती हैं। झटपट तैयार की गयी सामग्री जल्दी में रहने वाले पाठकों के लिए ही हो सकती है। सामयिक भाषा में कहें तो वैसी लघुकथाएँ ‘चीनी उत्पाद’ है—गैर-टिकाऊ, गैर-भरोसेमंद और गैर-जिम्मेदार।

टिकाऊ लघुकथाकार की क्या पहचान है? पहली तो यह कि वह विगत से आगे का कथ्य प्रस्तुत कर रहा होता है; और दूसरा यह कि अलग-अलग तकनीकों और शैलियों में एक समान कथ्य को वह दोहराता नहीं है। कथ्य का दोहराव करने वाला कथाकार स्वयं तो  लेखन से हट जाने की ईमानदारी दिखा नहीं सकता, आलोचक को ही आगे आकर साहस के साथ इस कार्य को सम्पन्न करना चाहिए। समकालीन जीवन की नवीन समस्याओं को साहस के साथ कह पाने में अक्षम लघुकथाकार को लादे क्यों रखा जाए? वह यदि विषय नये नहीं चुन पा रहा है तो प्रश्न तो नये खड़े कर ही सकता है; और अगर नये प्रश्न भी खड़े कर पाने की योग्यता उसमें नहीं है तो ऐसे दिवालिया व्यक्ति को कथाकार क्यों माना जाए, विधा उसे क्यों झेले?                                                      (रचना तिथि 29-5-2023)

गुरुवार, 14 सितंबर 2023

लघुकथा : आनेवाला कल / बलराम अग्रवाल

 

इक्कीसवीं सदी में लघुकथा के लिए नई-नई दिशाएँ खुली हैं। इस तीसरे दशक में लघुकथाकारों का एक निश्चित लक्ष्य होना चाहिएस्वस्थ  व्यक्ति, स्वस्थ मन, स्वस्थ समाज और स्वस्थ राष्ट्र। सुनने में यह किसी राजनीतिज्ञ के एजेंडा की तरह लगता है, है नहीं। इसका पूरा संबंध साहित्य और साहित्यकार से है; उस व्यक्ति से है जो अपने समाज, राष्ट्र और समूची मानव-जाति से प्रेम करता है। बावजूद इसके कि कथाकार कल्पनाओं के जाल बुनता है, वस्तुत: व्यक्ति ही है।  व्यक्ति है तो समाजगत कुंठा, घुटन, रोमांस आदि में भी सामान्य नागरिक की तरह, कम या अधिक, उसकी आसक्ति रहेगी ही। ये सब कम या ज्यादा रह सकती हैं, लेकिन इन सबका उसके जीवन से बिल्कुल लोप ही हो जाएगा, यह नहीं कहा जा सकता। डॉ. कमल किशोर गोयनका द्वारा कहा ही जा चुका है कि लघुकथा जीवन की आलोचना है, वह जीवन को आगे रखकर चलती है।

लघुकथाकार को अपनी लघुकथाओं द्वारा मानव जीवन को सुखी बनाने के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के प्रयास करने चाहिए। विषम परिस्थितियों को तोड़ने वाली कथाएँ प्रस्तुत करनी चाहिए। सामाजिक और राजनीतिक जीवन में झूठ और फरेब का पर्दाफाश करते रहना चाहिए। कुल मिलाकर यह कि उसे लघुकथा के रूप में मानव जीवन से हताशाओं और निराशाओं को दूर करने के ‘ताबीज’ बनाते रहना चाहिए। अगर ध्यान से देखें तो लघुकथा आदिकाल से ही मनुष्य के लिए ‘ताबीज’ का काम करती आयी है। अन्तर मुख्यत: यह है कि पूर्वकालीन लघुकथाएँ सीधी-सरल उपदेश की अथवा बोध की भाषा में प्रस्तुत होती थीं जबकि आज की लघुकथाएँ अपेक्षाकृत अधिक तीक्ष्ण, संकेतात्मक, व्यंजनात्मक और कलात्मक स्पर्श का परिचय दे रही हैं। मैं यह नहीं कहता कि किसी भी पूर्ववर्ती लघुकथा ने ऐसा नहीं किया, अवश्य किया है; लेकिन इक्कीसवीं सदी के इस तीसरे दशक तक आते-आते लघुकथा ने बदलते मूल्यों को पहचानने और प्रकट करने में काफी दक्षता का प्रदर्शन किया है। लघुकथाकार यदि यह देख रहा है कि जीवन को भौतिक दृष्टि से सुखी बनाने में मनुष्य का विश्वास बढ़ा है तो आध्यात्मिक तुष्टि की ओर जाने से भी उसके कदम रुके नहीं हैं, इस सत्य पर भी उसकी नजर है। लघुकथाकार आज के मनुष्य को उसकी पूर्णता में देख रहा है, न कि आधा-अधूरा। वह उसके मानसिक और आत्मिक, हर पहलू पर नजर रख रहा है।

नई सदी के लघुकथाकारों ने जीवन की बदली हुई परिस्थितियों से मोर्चा लेने के लिए त्वरित गति से पैंतरा बदला हो, ऐसा नहीं है। उन्होंने धैर्य के साथ समय को देखते-परखते ऐसा किया है। पिटे-पिटाये विषय, घिसे-घिसाये मुहावरे और नकली-सी लगती कथन-भंगिमाएँ यद्यपि कुछ लोग अभी भी दोहरा रहे हैं तथापि समेकित रूप से देखें तो उन सब को अधिकतर ने लगभग छोड़ ही दिया है। लगातार नये कथ्य, नये मुहावरे और नयी कथन-भंगिमाएँ सामने आ रही हैं।

आज का कथाकार, वह युवा हो या प्रौढ़, नित नयी समस्याओं से लोहा लेते हुए पूरी शक्ति से जूझ रहा है। यहाँ हमें कथा-लेखन के संदर्भ में ‘समस्या’ के और ‘लोहा लेने’ के स्वरूप को समझना होगा। अगर हमने विचारधारा-विशेष से स्वयं को बाँध लिया है तो वैचारिक स्वतंत्रता से हम दूर हट जाते हैं। किसी भी साहित्यकार का वैचारिक स्वतंत्रता से दूर हट जाना ही साहित्य क्षेत्र में ‘समस्या’ समझा जाना चाहिए क्योंकि यह क्षेत्र सत्य, साहस और न्याय का क्षेत्र है, आँखों पर पट्टी बाँधकर किसी एक तरफ चलते चले जाने का नहीं। रचनाकार के नाते यह उसके लिए स्वाभाविक भी नहीं है। वह यदि कला की उत्कृष्टता की ओर सचेत है, तो जीवन-सत्य को गहराई से देखने-परखने, जीवन के प्रति अपनी सत्यनिष्ठा को व्यक्त करने की ओर भी लगातार प्रयत्नशील रहना उसका दायित्व है।

लिखने की लत रखने वाले लघुकथा-लेखकों को छोड़कर अथवा लघुकथा-लेखन से वीतराग हुए लेखकों को छोड़कर अन्य कोई जागरूक और सचेत लेखक जीवन संग्राम से अलग नहीं रह सकता। जेनुइन लेखक को अपने और अपने चारों ओर के समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करना पड़ता है । लेखक सिर्फ लेखक नहीं है, वह जागरूक सामाजिक व्यक्ति भी है। व्यक्ति होने के नाते वह अकेला नहीं है।  समाज से, राष्ट्र से और अंततोगत्वा विश्व से उसका घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। अपने समाज और राष्ट्र में जो कुछ घटित होता है उससे वह निस्पृह नहीं रह सकता। हिन्दी में शायद ही कोई ऐसा लघुकथाकार हो, जो अपनी कथा में 'भारतीयपनबरतने में संकोच का अनुभव करता हो। विशेषकर आज, जब भारतीय जीवन की नींव को मजबूत बनाना प्रत्येक नागरिक का पुनीत कर्तव्य है। बेशक, कुछ लोग देश और संस्कृति की स्वतन्त्र चेतना और साहित्य-रचना के बीच किसी प्रकार का कोई जुड़ाव नहीं मानते। वे आवश्यकता से अधिक वैश्विक हो चुके हैं और यह मानने लगे हैं कि एक ही समाज और राष्ट्र से लेखक का कुछ लेना-देना नहीं, वह तो लिखता है समूची मानव जाति के लिए। यही विचार विधा को छोड़कर दूसरी, तीसरी, चौथी विधा में जा कूदने को भी प्रेरित करता है। कुछ लोग असंतुलित विचार वाले भी हैं। वे मानसिक उलझन में पड़कर इधर-उधर भटक रहे हैं। साहित्य की जिस भूमि पर दोहा, साखी, चौपाई, कुण्डली और गजल सगर्व खड़ी हैं वहाँ लघुकथा को ‘छोटी’ विधा आँकने-मानने वालों  की बुद्धि पर तरस ही खाया जा सकता है। पूर्व में, लघुकथा-साहित्य के अनेक प्रतिभाशाली लेखक महत्वाकांक्षा की वेदी पर अपनी कला की बलि चढ़ा चुके हैं; लेकिन यकीनन, आने वाला समय लघुकथा से पलायन का न होकर, पलायन कर गये कथाकारों के लौट आने का होगा। कुछ हद तक गत दशक में ऐसा होता हम देख भी चुके हैं।                                          

                                      रचनाकाल 5 सितंबर, 2021 या उससे पहले कभी।

संपर्क  8826499115

बुधवार, 9 अगस्त 2023

रमेश बत्तरा : मनःस्थितियों को तीर-सी घोंपता कथाकार, भाग-2 / बलराम अग्रवाल

 दिनांक 02-8-2023 के बाद समापन कड़ी

अपने इस आलेख में मैं रमेश बत्तरा की आसानी से उपलब्ध मात्र 19 लघुकथाओं पर ही अपने विचार प्रस्तुत कर पा रहा हूँ। इन लघुकथाओं में उन्होंने मुख्यतः मानवीय संवेदनाओं, सामाजिक असंगतियों, विवशताओं, भूख और गरीबी से ग्रस्त समाज की मान्यताओं में आ रहे बदलाव तथा हिन्दू-मुस्लिम दंगों के अलावा कुछ मनोवैज्ञानिक विषयों को भी अपने कथ्य का आधार बनाया है। अपनी भाषा में रमेश बत्तरा ने कहीं प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया तो कहीं पर अपनी बात कहने के लिए अपनी ओर से उसे गढ़ा भी हैं। लेकिन भाषा का यह गढ़ाव उबाऊ, अग्राह्य या अनावश्यक नहीं है। बल्कि वह अंतर्निहित अर्थों का स्फोट करती है। ‘कहूँ कहानी’ इसका प्रखर उदाहरण है। ‘उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी’ की जितनी विस्तृत व्याख्या की जाए कम है, यद्यपि यह किसी मजूदर की भाषा नहीं हो सकती। वस्तुतः वस्तु को पाठक तक पहुँचाने के लिए लघुकथा-लेखक को एक कवि जैसा करिश्मा भी अक्सर करना ही पड़ जाता है। वह उसे करना भी चाहिए। रमेश बत्तरा ने ऐसा करके दिखाया है। उनकी लघुकथा 'खोज' का कथ्य एक आम लोककथा जैसा लगता है परंतु रमेश बत्तरा की ऊर्जास्विता ने इसे एक प्रभावपूर्ण घुमाव दिया है। इस प्रकार विषय प्रवर्तक की जो क्षमता और कथा गढ़ने की जो ऊर्जा उनमें है, वह निःसंदेह उन्हें एक अगुवा कथाकार सिद्ध करती है। उनकी भाषा का एक और नमूना लघुकथा ‘अनुभवी’ से प्रस्तुत है—‘सुबह-सुबह उसने बड़े प्रयास के बाद किसी भले घर की-सी दिखाई दे रही औरत से भीख मांगी थी तो उसने बुरी तरह उसे फटकार दिया था, “साँड़-सी देह है, मेहनत करके क्यों नहीं कमाता भड़वे ?

यहाँ सुसंस्कारवान् पाठक को औरत के मुख से कहलाए गये इस संवाद को पढ़कर कुछ झटका महसूस हो सकता है। कुछ दोस्त इसे असामान्य भाषा भी कह सकते हैं और उसके मुख से ‘भड़वा’ शब्द के उच्चारण को तो अश्लील भी बता सकते हैं। परंतु यहाँ हमें रमेश बत्तरा के इन शब्दों पर विशेष ध्यान देना होगा—‘किसी भले घर की-सी दिखायी दे रही औरत।’ कविवर अब्दुर्रहीम खानखाना अपने एक दोहे में कहते हैं कि याचक को हर मनुष्य दाता दिखाई देता है। यहाँ भी याचक को औरत ‘भले घर की-सी’ यानी दाता-सी दिखाई देती है, वस्तुतः वैसी वह है नहीं। और इसीलिए उसकी भाषा में भी भलापन नहीं, ओछापन है।

‘लड़ाई’ में रमेश बत्तरा ने एक ऐसे कथ्य को उठाया है, जो उनके पंजाबीपन को दर्शाता है। देश के प्रति प्रेम, स्वयं आहत होकर भी किसी अन्य को आघात से बचाना और सहनशीलता ‘उसने कहा था’ से लेकर ‘धरती नीचे का बैल’ तक बहुत-सी कहानियों में पंजाब के कथाकारों ने साहित्य को दी हैं। लघुकथा में ‘लड़ाई’ उस कड़ी की संभवत: पहली, बेहद मजबूत और आकर्षक कड़ी है। यह नारी-मन के तथा परिवार, पति व देश के प्रति उसके समर्पण की भी कथा है नौकरी के नौ काम और दसवाँ काम ‘हाँ हुजूर’। उत्तर भारत की यह एक बहुप्रचलित कहावत है। यह ‘हाँ हुजूर’ मनुष्य की विवशता है। ‘नौकरी’ का बाबू रामसहाय विवशतावश नहीं, बल्कि स्वभाववश ‘हाँ हुजूर’ है। ऐसे दोगले चरित्र वाले लोग किसी भी आंदोलन को सिरे से नष्ट कर सकते हैं। बाबू रामसहाय बॉस के कमरे में जाकर अपने साथियों की चुगली उससे करता और कमरे से बाहर अपने साथियों के बीच आकर ‘हरामी सठिया गया है, मरेगा।’ कहता है।

‘बीच बाजार’ एक ओर जहाँ हमारे चरित्र के दोगलेपन पर से परदा उठाती है, वहीं समाज के बदलते स्वरूप को भी रेखांकित करती है। यहाँ मैं पुनः भारत भूषण अग्रवाल को ही उद्धृत करना चाहूँगा—‘वैसे कोई नहीं चाहता लेकिन क्षुधा करा लेती है।’ ‘बीच बाजार’ की विद्या विधवा है, गरीब है, चार-चार आवारा लड़कों की और ‘जी का जंजाल’ यानी बेटी की माँ है। पास पड़ोस के लोगों के कपड़े सीकर वह अपना जीवन-यापन करती आयी है। परंतु पिछले कुछ समय से उसकी जवान बेटी लक्ष्मी ने होटल में कैबरे-डांसर की नौकरी कर ली है। जिसके कारण विद्या की आर्थिक स्थिति में काफी सुधार आ गया है। मुहल्ले की औरतें माँ-बेटी को उनके इस कुकृत्य (?) पर भरपूर कोसती हैं। परंतु विद्या से सामना होने पर वही औरतें उसको ससम्मान अपने पास बैठाती हैं। उससे जानकारी प्राप्त करने लगती हैं कि लक्ष्मी ने यह सब कहाँ से सीखा, कैसे पाया? आर्थिक बोझ तले दबी समाज की इकाईयाँ किस तरह प्रचलित मान्यताओं और रिवाजों को त्यागकर नये रिवाजों से जुड़ती हैं। ‘बीच बाजार’ इस सत्य को गहरी शिद्दत के साथ प्रस्तुत करती है।

‘हीरा और मोती दो भाई हैं। वे देस में तो थोड़ी-बहुत खेती-बाड़ी करते थे मगर आजादी के बाद वे हाड़-तोड़ मेहनत के बावजूद लगातार गरीब होते गये। इसलिए अब एक जमाने से परदेस में रहकर रिक्शा खींचते हैं।’ यह दृश्य प्रस्तुत किया है रमेश बत्तरा ने अपनी लघुकथा ‘स्वाद’ में। यहाँ देश के लिए ‘देस’ और परदेश के लिए ‘परदेस’ का प्रयोग भी ध्यान देने योग्य है। यह एक यथार्थवादी आदर्श की लघुकथा है। इसका अंत दोनों भाईयों के बीच अत्यंत भावपूर्ण कथोपकथन के साथ होता है। देस से दूर परदेस में थोड़ा भी समय जिन्होंने बिताया है, वे पाठक इस लघुकथा के ‘स्वाद’ को झुठला नहीं सकते।

‘हालात’, ‘माँएँ और बच्चे’ तथा ‘वजह’ संवाद शैली की लघुकथाएँ हैं। ‘हालात’ में तो रमेश बत्तरा जैसे अपनी पीढ़ी के हर नौजवान का कष्ट व्यक्त कर रहे हैं :

“समझ में नहीं आता क्या किया जाये, सुबह के लिए मुट्ठीभर अनाज भी नहीं है।”

“खुशनसीब हो यार, मैंने तो आज भी नहीं खाया।”

कमल चोपड़ा ने 1981 में रमेश बत्तरा सहित बीस कथाकारों की लघुकथाओं के संकलन का नाम उनकी ‘हालात’ शीर्षक लघुकथा पर रखा था, इस बात का उल्लेख अथवा आभार व्यक्त किये बिना।

‘माँएँ और बच्चे’ भूख और विवशता की कहानी प्रस्तुत करती है। बच्चा है कि भूखा है और उसे भोजन चाहिए। वह मां से भोजन की जिद करता है। मां है कि विवश है। घर में खाने के लिए कुछ नहीं है। कोई साधन भी ऐसा नहीं है कि बच्चे के लिए खाने को कहीं से कुछ ला दे। बच्चा ज़िद पर है और माँ हताश। अंततः वह चीखती है—“तो मुझे खा ले राक्षस!”

“मगर कैसे?बच्चा हतप्रभ है।

रमेश बतरा ने इस रचना को ‘माँ और बच्चा’ नहीं ‘माँएँ और बच्चे’ शीर्षक देकर  व्यापक बना दिया है। आज इसी रूप में रमेश बत्तरा का नाम हमारे बीच मौजूद है और हमेशा रहेगा भी।

फ्रायड ने मनुष्य के व्यवहार में दो मूल प्रवृत्तियों का निर्धारण किया, जिनमें पहली है—जिजीविषा। इसका संबंध प्रेम और आत्म-संरक्षण से है। इस सिद्धांत के अनुसार, व्यक्ति की मानसिक शक्ति काम यानी इच्छा से उत्पन्न होती है। व्यक्तित्व की गत्यात्मकता इस काम की संतुष्टि की आवश्यकता से ही चालित होती है। लगभग समूचा स्वप्न विश्लेषण सिद्धांत भी इसी सिद्धांत पर आधारित है। फ्रायड द्वारा प्रणीत मनोविश्लेषण के सिद्धांत नये नहीं हैं; परन्तु लघुकथा में उनका प्रयोग अपेक्षाकृत नहीं के बराबर हुआ है। इसे आश्चर्य मानें या इस पर गर्व करें कि रमेश बत्तरा ने मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर अनेक रचनाएँ आठवें और नवें दशक में ही दे दी थीं। उनकी लघुकथा ‘शीशा’ व्यक्तित्व विश्लेषण की उत्कृष्ट लघुकथा है जिसमें एक स्त्री की जिजीविषा का चित्रण ‘पर्स’ के माध्यम से किया गया है। बाजार में निर्वस्त्र घूमने की बजाय उसे गंदे और फटे-पुराने पर्स के साथ घूमना लज्जाजनक लगता है। इस लघुकथा में मुख्य पात्र भले ही स्त्री है; लेकिन वस्तुत: यह मानुषिक वृत्ति के उद्घाटन की कथा है। धरती पर ऐसा कोई मनुष्य नहीं जो जिजीविषा-विहीन हो और जिसे जीवन में ऐसा स्वप्न कभी न कभी आया न हो।

मोबाइल : 8826499115