शुक्रवार, 15 दिसंबर 2023

महासागर है लघुकथा / बलराम अग्रवाल

 विधागत सूक्ष्मता में देखें तो लघुकथा सागर नहीं, महासागर है। इसका तल कहीं पर एकदम शांत नजर आता है और कहीं पर बेहद उछालें मारता नजर आता है। कहीं यह मौन रहती है तो कहीं पर घोर गर्जन भी करती है। यह गुण कहानी और उपन्यास में भी रहता है लेकिन वे मौन कम रहते हैं बोलते अधिक हैं। याद रखिए, जो बोलता अधिक है उसके तार मौन से टूट जाते हैं; और जिसके तार मौन से टूटते हैं, उसका नाता विचार से भी टूटता ही है।--इसी लेख से

बलराम अग्रवाल
यद्यपि पहले भी की जाती रही हैं तथापि एक बार पुन: कुछ बातें इस विधा की उत्पत्ति और उसके औचित्य के बारे में कर ली जाएँ।

रचना के सन्दर्भ में शिल्प और शैली, इन दो का विशेष महत्व है। शैली के दो प्रमुख प्रकार हम देखते हैं—1-भाषा-शैली और 2-रूप-शैली।

भाषा-शैलियाँ अभिधात्मक हो सकती हैं, व्यंजक हो सकती हैं और लाक्षणिक भी; वे सरल हो सकती हैं, लोचदार-मृदुल या कठोर-कटु, खरी-खरी हो सकती हैं, संक्षिप्तता अपना सकती हैं और विस्तार भी; ठेठ मुद्रा अपना सकती हैं और आलंकारिकता भी। बेशक, एक-दो अन्य भी इनमें जुड़ सकती हैं; लेकिन वे अनन्त नहीं हैं। भाषा-शैलियों की, बस इतनी ही सीमा है।

अब, आधुनिक काल में लघुकथा के उन्नयन की, इसके पुनर्प्रस्फुटन की आवश्यकता पर विचार करते हैं। लेखक जब यह पाता है कि लम्बे समय से साहित्य अपने पारम्परिक रूप में ही गतिमान है, कोई नई भाषा-शैली वह नहीं अपना पा रहा है, तो प्रचलन से इतर रूप-शैली की ओर उन्मुख होता है। साहित्य की प्रचलित रूप-शैलियों में हमारे सामने उपन्यास, कहानी, महाकाव्य, खंडकाव्य, गीत, निबंध आदि अनेक प्रकार हमारे सामने थे; लेकिन वे भी हमारे लिए अपर्याप्त हो चु्के थे, बार-बार दोहराए जाने के कारण ऊब पैदा करने लगे थे। जेनुइन रचनाकार में अपर्याप्तता संबंधी एक खलबली हमेशा रहती है, यह कि अपनी रचनाशीलता को वह पूर्व-प्रचलित साहित्य-रूपों से भिन्न, नये रूप में प्रस्तुत करके पाठक और आलोचक का ध्यान नये सिरे से अपनी ओर खींचने का यत्न करता है। इतिहास बताता है कि कभी दस-बीस साल में तो कभी पचास-सौ साल में कथ्य की अभिव्यक्ति का रूप बदल जाता है, विधाएँ भी अपना रूप बदल लेती हैं। छंद के जो पचासों प्रकार सदियों से हमारे सामने थे, वे इन्हीं यत्नों की बदौलत थे और आज भी हाइकू, जनक छंद, तांका आदि जो अपेक्षाकृत नये काव्य-प्रकार हमारे बीच हैं, वे भी इन्हीं यत्नों का परिणाम हैं। सृष्टि में वस्तुत: मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो उपलब्ध को हमेशा अपर्याप्त समझता है और निरन्तर नवीन की ओर अग्रसर रहता है। उसे ऊँचाई भी नित नयी चाहिए और गहराई भी। इसलिए जितना वह स्वर्गाकांक्षी रहता है, उससे कहीं अधिक वह नर्क की ओर मुख किए रहता है। उसे मोक्ष ही नहीं, सांसारिक सुख भी चाहिए। मनुष्य की इसी चेतना और दुर्बलता के चलते साहित्य में शैलीगत नवीनता का आग्रह, वह भाषिक हो या रूपगत, सदैव बना रहा है और आगे भी बना रहेगा।

लघुकथा को कहानी की रूपगत-शैली में किये गये नव्यतम प्रयोग के तौर पर स्वीकार करना चाहें तो कर सकते हैं। इसने नि:सन्देह कहानी की रूपगत जड़ता को तोड़ने में उल्लेखनीय भूमिका निभायी है। इससे पूर्व कहानी के जितने भी आन्दोलन थे, (बेशक कथ्यगत नवीनता भी उन्होंने अपनायी) परन्तु कहानी के पारम्परिक रूप को, उस रूप को जिसे पढ़ते-देखते पाठक एकरस हो गया था, ऊब-सा गया था, वे तोड़ या बदल नहीं सके। कहानी के लगभग सभी आन्दोलन रूप-शैली की बजाय भाषा-शैली में परिवर्तन-केंद्रित थे। परिणामत: विफल रहे।

एक बात और, साहित्य में रूपगत अंकुर भी पुरानी जड़ों, पुराने ठूँठों से फूटते हैं। इसलिए किसी विधा को ‘नवीन’ तो कहा-माना जा सकता है, ‘सर्वथा नवीन’ कहना-मानना जड़ों से अपरिचय का द्योतक होगा। ‘सर्वथा नवीन’ कहने-मानने के पीछे हमारा शोध-संकोच, अपने कुछ पूर्वग्रह ही प्रबल होते हैं। नदियों और सागरों के किनारों पर जितनी रेत बिखरी मिलती है, उससे कई गुना ज्यादा रेत उनकी तलहटी में आराम फरमा रही होती है।

लघुकथा के बारे में कुछ बातें लगातार कही और पढ़ी जाती हैं। उनमें एक तो यह है कि ‘लघुकथा के केन्द्र में मनुष्य है’। इससे तात्पर्य? यह कि कथाकार की नजर अपने समय की समस्त मानवीय त्रासदियों पर न केवल टिकी होनी चाहिए बल्कि उन पर टिप्पणी करने का साहस भी उसमें होना चाहिए। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद रघुवीर सहाय, पाश, गोरख पाण्डे, धूमिल… कितने ही कवियों ने अपने समय को कविता में ला उपस्थित किया। आठवें और नौवें दशक के लघुकथाकारों को देखें तो व्यवस्था के विरुद्ध एक से बढ़कर एक ऐसी लघुकथाएँ हमें मिलती हैं जो तत्कालीन व्यवस्था के अमानुषिक थोबड़े को लगातार तोड़ती महसूस होती हैं। वे सब विचारबद्ध लोग थे, पार्टीबद्ध होकर भी मनुष्यता के पक्ष में खड़े थे। आज का साहित्यकार, जिनमें नि:सन्देह कुछ लघुकथाकार भी शामिल हैं, न देश के साथ खड़ा है न मनुष्यता के; वह सिर्फ अपने साथ खड़ा है। ऐसा लगता है कि जातीय अभिमान, देश और मनुष्यता की बजाय उसे अपनी छवि की चिन्ता अधिक है।

विधागत सूक्ष्मता में देखें तो लघुकथा सागर नहीं, महासागर है। इसका तल कहीं पर एकदम शांत नजर आता है और कहीं पर बेहद उछालें मारता नजर आता है। कहीं यह मौन रहती है तो कहीं पर घोर गर्जन भी करती है। यह गुण कहानी और उपन्यास में भी रहता है लेकिन वे मौन कम रहते हैं बोलते अधिक हैं। याद रखिए, जो बोलता अधिक है उसके तार मौन से टूट जाते हैं; और जिसके तार मौन से टूटते हैं, उसका नाता विचार से भी टूटता ही है।

साहित्य की दुनिया में, गत कुछ वर्षों से एक नया ‘विचार’ उछाला जाने लगा है; यह कि साहित्यकार हमेशा सत्ता के विरुद्ध खड़ा होता है। नया साहित्यकार इस ‘विचार’ के परिप्रेक्ष्य में जब अतीत की अभिव्यक्तियों को देखता है तो इस विचार को सत्य ही पाता है; जबकि यह पूर्णत: नहीं अंशत: ही सत्य है। पूर्ण सत्य सत्ता, व्यवस्था अथवा व्यक्ति-विशेष के विरुद्ध खड़ा होना नहीं, अपने विवेक के अनुरूप निर्णय की क्षमता को विकसित करना है।

समय की कुछ सामाजिक, कुछ धार्मिक और कुछ राजनीतिक भूमिकाएँ होती हैं। इन भूमिकाओं के अनुपात में अन्तर का आना ही समय के परिवर्तित हो जाने को दर्शाता है। कल का समय यदि राजनीतिक क्षुद्रता का था तो आज का समय धार्मिक क्षुद्रता का हो सकता है। राजनीतिक क्षुद्रता यह कि सत्ता-सुख को बनाए रखने लिए उसने सर्व-धर्म समभाव की बजाय, धर्म को नैतिक और समाजोपयोगी बनाने के प्रयास करने की बजाय धर्म-विशेष को प्रश्रय देना शुरू किया और उसे जारी रखा। धार्मिक क्षुद्रता यह कि समाज में धार्मिक नामधारी दल और सेनाओं का गठन अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर होने लगे और असामंजस्य उत्पन्न कर दे। कुछ लोग बोलने की, कुतर्क को तर्क की तरह पेश करने की कला में प्रवीण होते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर उन्हें आगे बढ़ने देना सामाजिक समरसता को सबसे बड़ा खतरा प्रस्तुत करने का अवसर देना है।

मोबाइल : 8826499115

 

बुधवार, 6 दिसंबर 2023

लघुकथा और आज का समय / बलराम अग्रवाल

 

बलराम अग्रवाल
एक समय था जब उपन्यास साहित्य की लोकप्रिय विधा थी और वे उपन्यास थे—देवकीनन्दन खत्री जी के। उसके बाद आया कहानी का समय। उस समय के अधिष्ठाता मुख्यत: हम प्रेमचंद को मान सकते हैं। और अब लघुकथा का भी समय है। …सिर्फ लघुकथा का नहीं है, लेकिन लघुकथा कथा-साहित्य के बीच इस समय में अपनी उपस्थिति अवश्य दर्ज करती है।

जिसे हम उपन्यास का समय कहते हैं, वह ऐसा समय था, जब समूचा कैनवस लेखक के सामने लगभग खाली पड़ा था। धार्मिक कथाओं से परिसम्पन्न महाकाव्य आदि की कथाओं-उपकथाओं से ऊब चुके पाठक और श्रोता दोनों को उनसे कुछ अलग चाहिए था, जो तत्कालीन उपन्यासकारों ने विभिन्न रूपों में दिया। पहले खत्री जी आदि ने, बाद में प्रेमचंद, प्रसाद, इलाचन्द्र जोशी, जैनेन्द जी आदि ने। लगभग यही बात कहानी के सम्बन्ध में भी कही जाती है। कहानी ने तो अपने ऊबे हुए पाठक को नयी कहानी, समांतर कहानी, सचेतन कहानी, अ-कहानी आदि से बहलाने की भी कोशिशें कीं। लेकिन कहानी से ऊबे पाठक को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल वस्तुत: लघुकथाकार हुए।  लघुकथा ने भी गत 50 वर्षों में अपने क्राफ्ट में अनेक सार्थक परिवर्तन, परिवर्द्धन किये हैं। आज की लघुकथा वही नहीं है जिसे स्वाधीनता से पहले विष्णु प्रभाकर जी, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर जी, आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र जी आदि लिख रहे थे; आज की लघुकथा वह भी नहीं है जिसे स्वाधीनता के बाद और 1975 तक भी अनेक कथाकार लिख रहे थे और जो ‘सारिका’ में छप रही थी। आज की लघुकथा शब्दश:  वह भी नहीं है जिसे आठवें-नवें दशक के लघुकथाकार लिख चुके हैं। वह, भले ही वहीं कहीं से प्रस्फुटित होती है, लेकिन एकदम नवीन अन्तर्वस्तु, भाषा, शिल्प और शैली, संकेत और व्यंजना की रचना है। आठवें-नौवें-दसवें दशक से लिखते आ रहे कुछ लघुकथाकार नवीन अन्तर्वस्तु प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं। नयी पीढ़ी उनसे सीख भी रही है, प्रेरणा भी पा रही है और ताजगी प्रदान करने में सहायक भी सिद्ध हो रही है।

सन् 1970 से अब तक अधिक नहीं तो 50,000 लघुकथाएँ तो लिखी ही जा चुकी होंगी । कथ्य की प्रकृति और प्रवृत्ति की दृष्टि से अध्ययन हेतु इन सब लघुकथाओं के दो समूह बनाए जा सकते हैं । एक समूह सन् 1970 से 2000 तक की लघुकथाओं का और दूसरा सन् 2000 से 2023 के अन्त तक अथवा आगे जिस सन् में भी यह कार्य हो, उसके अन्त तक की लघुकथाओं का बनाकर उनके कथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन करें, तभी हमें पता चलेगा कि हम आगे बढ़े हैं या जहाँ के तहाँ खड़े हैं। लघुकथाकार के रूप में हम अपना मात्र प्रचार ही कर रहे हैं या हमारी लघुकथाओं में शाश्वत भी कुछ है। जो लघुकथाएँ कुछेक आत्ममुग्धों द्वारा कुछेक आत्ममुग्धों के लिए आत्ममुग्ध-सी आकलित हों, उन पर समय नष्ट करने का समय समाप्त हो चुका है। आज हमें ऐसी लघुकथाएँ चाहिए जो अपनी गतिमानता सिद्ध करती हों। समय बेशक बहुत तेजी से भाग रहा है। उतनी ही तेजी से लघुकथाएँ भी सामने आ रही हैं। कुछ लघुकथाकार लिखने की जल्दी में हैं। कुछ लघुकथाकारों के सामने दुनिया तेजी से खुल रही है, वे किंचित ठहरकर तेजी से खुल रही इस दुनिया का जायजा लेना चाहते हैं, लिखने की जल्दी में नहीं हैं। लघुकथा को पाठक  भी दो तरह का मिल रहा है। एक वो, जिसके पास समझने की समझ नहीं है, उसे सिर्फ रंजन चाहिए या फिर हल्की-फुल्की भावुकता; दूसरा वह, जिसके पास समझने के लिए समय नहीं है; जल्दी-जल्दी पढ़कर वह जल्दी ही भूल भी जाने लगा है। ऐसा लगता है कि बहुत-से लघुकथाकार बस इन दोनों के लिए ही लिख रहे हैं। उनके कथ्य चयन में, भाषा में, शिल्प में सिंथेटिसिटी होती है, संवेदनात्मक संस्पर्श से उनकी लघुकथाएँ निस्पृह रहती हैं। झटपट तैयार की गयी सामग्री जल्दी में रहने वाले पाठकों के लिए ही हो सकती है। सामयिक भाषा में कहें तो वैसी लघुकथाएँ ‘चीनी उत्पाद’ है—गैर-टिकाऊ, गैर-भरोसेमंद और गैर-जिम्मेदार।

टिकाऊ लघुकथाकार की क्या पहचान है? पहली तो यह कि वह विगत से आगे का कथ्य प्रस्तुत कर रहा होता है; और दूसरा यह कि अलग-अलग तकनीकों और शैलियों में एक समान कथ्य को वह दोहराता नहीं है। कथ्य का दोहराव करने वाला कथाकार स्वयं तो लेखन से हट जाने की ईमानदारी दिखा नहीं सकता, आलोचक को ही आगे आकर साहस के साथ इस कार्य को सम्पन्न करना चाहिए। समकालीन जीवन की नवीन समस्याओं को साहस के साथ कह पाने में अक्षम लघुकथाकार को लादे क्यों रखा जाए? वह यदि विषय नये नहीं चुन पा रहा है तो प्रश्न तो नये खड़े कर ही सकता है; और अगर नये प्रश्न भी खड़े कर पाने की योग्यता उसमें नहीं है तो ऐसे दिवालिया व्यक्ति को कथाकार क्यों माना जाए, विधा उसे क्यों झेले? (रचना तिथि 29-5-2023_दोबारा पोस्टेड)

संपर्क : एफ-1703, आर जी रेजीडेंसी, सेक्टर 120, नोएडा-201301 (उप्र)

मोबाइल : 8826499115

शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

समकालीन लघुकथा और स्त्री, पुरुष जीवन के द्वंद्व / बलराम अग्रवाल

27 अक्टूबर, 2018 को ‘लघुकथा कलश’ सम्पादक योगराज प्रभाकर को लिखे मेल की प्रति—

प्रिय योगराज जी,

‘लघुकथा कलश, महाविशेषांक-2 पृष्ठ 228 पर सविता इन्द्र गुप्ता की लघुकथा 'सीढ़ियाँ' छपी है।

इसे पढ़ते हुए मुझे हरिशंकर परसाई की लघुकथा ‘लिफ्ट’ और पारस दासोत की लघुकथा ‘वह फौलादी लड़की’, दोनों एक-साथ याद आयीं। यहाँ इन तीनों रचनाओं को क्रमश: पढ़िए और विचार कीजिए कि सफल स्त्री पर चारित्रिक गिरावट का लांछन लगाना इतना आसान क्यों है? ये लांछन उपजे किस मानसिकता हैं? इनमें यद्यपि परसाई जी की लघुकथा पतित पुरुष की ही मानसिकता व्यक्त करती है, लेकिन इस्तेमाल तो स्त्री ही हुई।

सविता की पात्र अंत में एक द्वंद्व से गुजरती है और पारस जी की पात्र तो नारी-सुलभ सौम्यता ही खो बैठती है। स्त्री को ही इस नियति से क्यों गुजरना पड़ता है। पुरुष के पास क्या सिर्फ दंभ है? या फिर, जीवन में क्या खोया, क्या पाया के ऐसे द्वंद्व से कभी वह भी गुजरता है? नहीं, तो क्यों? हाँ, तो किस तरह? चर्चा इस विषय पर करनी है। समकालीन लघुकथा को टाइप्ड विषयों से बाहर निकालने के लिए यह आवश्यक है।

सविता की लघुकथा में स्त्री का इस द्वंद्व से गुजरना समकालीन लघुकथा में स्त्री के चरित्र-चित्रण में एक बदलाव को रेखांकित करता है। इन सभी लघुकथा के माध्यम से आइए, उस पर बात करें:

1लिफ्ट /हरिशंकर परसाई

वे दोनों एक ही विभाग में बराबर के पद पर थे। उनके दफ्तर दूसरी मंजिल पर थे। वे अक्सर फाटक पर मिल जाते और साथ-साथ सीढ़ियाँ चढ़कर अपने कमरों में पहुँच जाते।

विभाग में एक ऊँचा पद खाली हुआ। दोनों उसके लिए कोशिश करने लगे।

ऊँचे पद का दफ्तर चौथी मंजिल पर था।

उनमें से एक को छुट्टी लेकर अपने गाँव जाना पड़ा। दूसरा कोशिश करता रहा। उसकी कोशिश के प्रकार के सम्बन्ध में दफ्तर में कानाफूसी होने लगी। पहला, छुट्टी से लौटकर आया, तो उसके कान में भी लोगों ने वे बातें कह दीं, जो वे एक-दूसरे से कहा करते थे।

फाटक पर वे दोनों फिर मिल गये। पहला सीढ़ी की तरफ मुड़ा और दूसरा लिफ्ट की तरफ।

पहले ने कहा, "आज सीढ़ियों से नहीं चढ़ोगे?"

दूसरे ने कहा, "मुझे तो अब चौथी मंजिल पर जाना है न! वहाँ सीढ़ियों से नहीं चढ़ा जाता। लिफ्ट से जाना चाहिए।"

पहले ने कहा, "हाँ भाई, लिफ्ट से चढ़ो! हमारी लिफ्ट तो 35 साल की, और मोटी हो गयी है।"

2॥ वह फौलादी लड़की / पारस दासोत

समय के साथ कदम मिलाती लड़की ने, जब उस दिन भी, हमेशा की तरह अपनी रट लगायी--"मुझे फौलाद की बना दो!" समय ने, न चाहते हुए भी, उसकी जिद रखने हेतु, उसे फौलाद की बना दिया।

फौलाद की बनने के बाद, लड़की ने देखा--उसके अमूल्य आभूषण भी फौलाद में ढल गये हैं। वे प्यारभरे झोंकों से न तो हिलते हैं, न डोलते हैं। उन्होंने धीरे-धीरे अपना अर्थ, अपनी पहचान खो दी है।

परिणाम यह हुआ, फौलाद बनी लड़की, ताप पर न तो फैलती, न ही अपनी सुगंध छोड़ती। वह तो केवल मूर्ति बनकर रह गयी। एक ऐसी मूर्ति, जिसमें जान तो है, लेकिन धड़कन नहीं है। वासना तो है, पर प्रसव-आनंद नहीं है। बच्चा तो है, लेकिन उसके पास त्यागरूपी आभूषण… ! आभूषण तो है, पर वह प्यारभरे झोंकों से न तो हिलता है, न डोलता है।

आज, जब फौलाद बनी लड़की के पास उसकी राह पर पास ही, समय चल रहा था, वह यकायक समय को, अपने पास देखकर उससे बोली, "मुझे आपसे जरूरी बात करना है, मैं आपसे कल मिलूँगी!"

दोनों, अपनी-अपनी राह, व्यंग्यभरी मुस्कान लेते, चल रहे थे।

3॥ सीढ़ियाँ / सविता इन्द्र गुप्ता

आई.सी.यू. में पिछले तीन माह से रात-दिन दवाइयाँ, ड्रिप्स, ऑक्सीजन, ब्लड ट्रांसफ्यूजन आदि से वह तंग आ चुकी है। सीमित मात्रा में शायद नशीली दवाएँ भी नियमित रूप से दी जा रही हैं, जो उसे ज़िंदा रखने के लिए जरूरी हैं। आधी सोई, आधी जागी-सी हालत में उसे रह-रह कर अपना बचपन याद आ रहा है।

बचपन में सीढ़ियाँ चढ़ने का शौक था। सब रोकते रह जाते थे लेकिन वह खटाखट चढ़ जाती थी। चढ़ती चली गयी ... स्कूल टीचर्स, अमीर साथी और हैड ऑफ़ डिपार्टमेंट, सभी के कन्धों पर चढ़ कर ... एक के बाद एक सीढ़ी ... पापा की नाराजगी को पैरों तले रौंदते हुए, माँ के दिए संस्कारों को कुचलते हुए ... जग हँसाई को नकारते हुए। किसी से लाभ उठाने में वह किसी भी हद तक जाने को तैयार रहती थी।

प्रबंधन में असाधारण योग्यता के बलबूते पर वह एक कम्पनी की सी.ई.ओ. बनी, तो उसने कंपनी के वारे-न्यारे कर दिए थे। कम्पनी का मालिक उसका मुरीद हो गया था। मालिक ने अपनी पत्नी को तलाक दे कर उसे साथ रहने को फुसलाया। वह तुरंत मान गई लेकिन कम्पनी मालिक को उसने एक ऊँची सीढ़ी से अधिक कुछ नहीं समझा था। लिव-इन की पहली रात को कम्पनी के पचास प्रतिशत शेयर उसके नाम कर दिए गए यानी पचास करोड़ रुपये, साथ में दबे पाँव एच.आई.वी. वायरस भी।

अन्धेरा सब कुछ लीलता जा रहा है।

नर्स घबरा कर डॉक्टर को बुलाती है। वह बेहोशी में बड़बड़ा रही है,

"स्मार्ट हूँ ...सुन्दर हूँ ... करोड़ों का बैंक बैलेंस है ... डॉक्टर ! मेरा सब कुछ तुम्हारा ...बस मुझे बचा लो ... उफ़्फ़ ... इतना अँधेरा ... क्यों कर रखा है ? ये बहुत लम्बी सीढ़ी कौन लाया है ?"